संयुक्त संपादक सबलोग।अद्यतन कविता संग्रह असंभव के विरुद्ध

हे धर्मात्मा

मठों, अखाड़ों में
धर्म का ये कौन-सा रूप है
धर्मात्मा ये कैसे
जो हतोत्साह, व्यथित, क्लांत
हम जैसे ही
और हम जाते हैं इनके पास
मुक्ति की कामना में

विवाद धन, धान्य या धरती का
वैसा ही
जैसा हम करते हैं
फिर भी हम देते हैं
इनके नाम पर
धर्म की दुहाई

आत्महत्या, हत्या का वही खेल
जेलों के वही सींखचे

फिर जीते हैं वे
आखिर गीता के किस श्लोक को
वेद, पुराण की किस ऋचा को
मानस की कौन-सी चौपाई को

क्या है उनके पास
देने के लिए हमें
धर्म का कौन-सा भेद बताकर
अध्यात्म का कौन-सा चरण सिखाकर
वे आलोकित करेंगे हमें
ले जाएंगे कर्मकांडों के व्यूह से परे

वे तो वही रहेंगे
आते रहेंगे
नए त्रिपुंड, नई भंगिमाओं के साथ
हम सोचें
तलाशें अर्थ कर्मण्येवाधिकारस्ते का
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि का
‘सीय राम मय सब जग जानी’ का
‘बिन बाजा झनकार उठे’ का।

कोई कोई कविता

कोई कोई कविता
होती है अड़ियल-सी
छू छा नहीं करने देगी बिलकुल
मैं ठीक हूँ की तरह
तब उसका खुरदुरापन
जिसे छूने जाता है हाथ बार-बार
लगता है
यहीं है कविता।

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