1-कथा में जो वस्तु है

किंवदंती इतिहास मानी जाए
और इतिहास को मिले दर्जा
धर्म की किताब का
लेकिन कथा में जो वस्तु है
वह ऐयार है
वह किस रूप में कहां मिलेगी
वह भी जानती नहीं ठीक-ठीक
तुम उसे दीवार पर कील से ठोकना चाहते हो
और वहाँ कुछ नहीं मिलता
तुम उसे बोतल में बंद करना चाहते हो
और उसमें कुछ नहीं रहता
तुम उसका वध करना चाहते हो
और वह हवा हो कर निकल जाती है खिड़की से
वह कथा है
तुम्हारी खरीदी हुई बांदी नहीं
उसे तुम्हारे सुनते-सुनते बदल जाना है।

2-शक्ति के नियम

विजेताओं की विनम्रता एक सुंदर दृश्य बनाती है
विजय में विनय जैसे कुछ भला भला सा अजूबा
जैसे अफसर का आपको देख कर मुस्करा देना
हाकिम का पहचान लेना
कामयाब व्यक्ति का एक बार में ही फोन उठा लेना
यही उसके भलेपन और सहजता की
तमाम कहानियों की कुल जमापूंजी है
बाकी असरदार द्वारा किए जाने वाले अपमान का
क्या है वह तो इतना नियमित है कि कुदरती है
अधीन को अपमानित न करना
शक्ति के नियमों के खिलाफ जाना है।

3-डरते-डरते

प्रेम के लिए जगह जरा कम है
डर के लिए थोड़ी ज्यादा
डरते-डरते हमने प्रेम किया
अकसर इतना डर कर
कि उसे बताने और जताने में भी डरते रहे
अंत में हमारे पास प्रेम नहीं, डर रहा
अंत में हमने इस डर से ही प्रेम किया
अंत में हम प्रेम से ही डरने लगे।

4-कुछ दूर चलने के बाद

कुछ दूर
कुछ और दूर
नंगे पैरों चलने के बाद
दुख का दम भी फूल जाता है
वह भी किसी पुलिया पर बैठ कर सुस्ताता है
कोई कुछ कहने लगता है
तो उसे सुनने में उसका मन बहलने लगता है
वह उतना दुख नहीं रहता
अपनी एक आती जाती याद हो जाता है।

वे तमाम औरतें

एक समय बहुत से घर थे मेरे
हर जगह पीढ़ा था हर जगह बिछौना
कहीं भी खा लेता कहीं भी सो जाता
घट्टी पीसती औरतों की बातचीत के बीच
किसी की गोद में सिर रखे-रखे ऊंघ जाता
मां भेजती बहन को मुझे ढूंढने के लिए
जो मुझे जगाए बगैर उठा कर ले आती
वे तमाम औरतें जो जाड़े में धूप ढूंढती रहतीं
जिसमें बैठ उन्हें भाजी तोड़नी होती थी
वे जो आपस में लड़तीं
एक-दूजे के लिए अशुभ उचारतीं
और एक-दूसरे के दुख में रोती थीं
जो गाय और कुत्ते के लिए रोटी निकालती थीं
और नहा कर शंकर जी पर जल चढ़ाती थीं
औरतें जो बेझिझक एक कटोरी शक्कर
एक-दूसरे से मांग लेती थीं
जो मिल बंद हो जाने से बेकार हो गए
अपने पतियों को समेट कर
आदमी बनाए रखती थीं
जिनके पल्लू में गुड़ीमुड़ी छोटे नोट
और खुल्ले पैसे बंधे होते थे
जो सब्जी वाले की नाक में दम कर देती थीं
जो पढ़ी-लिखी नहीं थीं
मगर जिन्हें कोई ठग नहीं सकता था
जो अपनी सीधे पल्ले की साड़ी का आंचल
सिर से खिसकने नहीं देती थीं
और जाड़े में उसी से नाक-मुंह
ढंक लेने की जुगत करती थीं
जो मजदूरी करने जाती थीं
जो घर पर ही पापड़-अगरबत्ती बना कर
अपना श्रम बेचती थीं
जो लीलावती और कलावती के सुख-दुख में
डूबती-उतराती थीं
जिनको राजनीति के बारे में सिवा इसके
कुछ पता नहीं था कि देश में इन्द्रा गांधी का राज है
जो संतोषी माता का व्रत रखती थीं
खटाई से डरतीं और उद्यापन में
चने की सब्जी बनाती थीं
जो शादियों में लंबा घूंघट करके नाचतीं
तो ढोली को थका देती थीं
जिनके पास अनंत कथाएं थीं गीत थे
और उतने ही दुख
लेकिन जिन्हें कभी पस्त देखा नहीं गया
नींद टूट गई है और जागने पर दिखता है
अब कहीं और जागा हूं
वे घर अब कहीं नहीं हैं जिनमें पनाह थी
वे औरतें समय में घुल गई हैं
जो किसी शौर्य चक्र के बगैर भी जूझती रहीं लगातार
घट्टी के पाटों की रगड़ से रचती रहीं
अपना जीवन संगीत
जिसे उनकी बातों के साथ सुनते सुनते
उन्हीं में से किसी की गोद में
न जाने कब आंख लगती रही
उस छोटे से लड़के की।

उसे मैं अपने बचपन से जानता हूँ

परीक्षा देने आई उस लड़की का बच्चा
बस पंद्रह दिन का था
दो पेपर्स के बीच के सिर्फ आधा घंटे के वक्फे में
उसे बच्चे को दूध पिलाना था
उसने जब कुछ व्यग्रता कुछ हड़बड़ी
और शायद मना कर दिए जाने के डर के बीच
इजाजत मांगी
और इजाजत मिलते ही जिस तेजी से वह
सीढ़ियां फलांगती नीचे उतरी
तो मुझे कुछ और याद आया
ऐसा कुछ जो मेरी याद में कहीं नहीं है
बरसों पहले एक स्त्री
इसी तरह अपने छोटे बच्चों को
पड़ोसियों रिश्तेदारों के पास छोड़
इम्तहान देने जाती होगी
कभी-कभी अपने सबसे ज़िद्दी छोटे को
पति को संभला
जो वहीं कॉलेज की इमारत के पास
बच्चे को बहलाते रहे होंगे
वह उत्तर लिखती होगी
और बच्चे का रोते हुए उसके पीछे-पीछे भागना
उसके दिमाग में चक्कर काटता होगा
लौटते हुए बच्चे को न जाने किस अपराध बोध से
ज्यादा लाड़ करती हुई
वह उसे कुछ पसंद की चीज दिलाती होगी
तीनों घर वापिस आ जाते होंगे
पीछे पत्नी, आगे बच्चे को बिठाकर साइकिल पर पति
इसी तरह इम्तहान होते रहे होंगे
और वह उनका सामना करती रही होगी
वह लड़की जो अगले पर्चे के लिए
जल्दी-जल्दी फिर हॉल में घुस रही है
उसे मैं अपने बचपन से जानता हूँ।

सबके जाने के बाद

अर्थी के साथ ही उठने लगेगा शोक
जब सब जाएंगे उसकी अंतिम यात्रा में
जीवन घुसेगा फिर दबे पांव घर में
रास्ते पर बिखरे
उन्हीं फूल गुलाल पर पैर रखते हुए
पहले आवाजें बहाल होंगी
और चहलकदमी शुरू होगी
कोई पूछेगा धीरे से : चाय बना दूं?
दो तीन दिन बीतेंगे
और चहलपहल गहमागहमी
आने जाने की हलचल
लोग पूछते रहेंगे : कैसे क्या हुआ
उन्हें बताना रहेगा फिर फिर
बच्चे उधम मचाते रहेंगे
कोई उन्हें बेकार ही कहता रहेगा
चुपचाप एक जगह बैठने के लिए
नदी घाट भोज भात
सब होते होते
जाने लगेंगे नातेदार धीरे धीरे
उन्हें दरवाजे तक छोड़कर लौटोगे
थकान इतनी सूनापन इतना
वह तस्वीर में से देखता रहेगा
तुम्हें इस तरह
आंखें मूंदे
लेटे हुए
और सिर पर हाथ फेरता रहेगा इस तरह
कि तुम्हें पता न चले।

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