प्रस्तुति : अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी

युवा भाषाविद। विगत एक दशक से भाषा-तकनीक से जुड़े विषयों पर लेखन। विश्वभारती, शांतिनिकेतन में कार्यरत।

भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ एक संरचना के रूप में स्वतंत्रता-संघर्षों से मुखर हुआ है, जिसमें उदारता, सहिष्णुता और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना ही केंद्रीय रही है। स्वतंत्रता-आंदोलनों में सामान्य सहभागिता से लेकर आत्म-बलिदान तक के पीछे प्राय: राष्ट्रवाद की भावना ही प्रेरक थी। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के नेताओं द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण के उद्देश्य से इस भावना को सुनियोजित ढंग से पोषित भी किया जाता रहा है। इसमें ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ से लेकर ‘कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो’ जैसे स्वर समानांतर रूप से अंतर्ध्वनित थे। दरअसल किसी विदेशी शक्ति का होना भी राष्ट्रीय भावना के विकास में सहयोगी थी। उस दौर में स्थानीय अस्मिताओं के पारस्परिक विभेद के बावजूद केंद्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय भावना विकसित हुई थी। हालांकि बौद्धिक स्तर पर राष्ट्रीय एकता के लिए संपर्क-भाषा के रूप में हिंदी के अलावा अंग्रेजी भी थी। महात्मा गांधी ने ‘हिंदुस्तानी’ के रूप में हिंदी को आगे बढ़ाया।

भारतीय राष्ट्रवाद अंग्रेजी ज्ञान की बुनियाद पर अर्जित एक भावना है। यह अपने मूल में ही पश्चिम की नकल है। अमेरिका में एक कहावत प्रचलित है कि ‘यदि कोई द्विभाषी या बहुभाषी है, तो उसकी नागरिकता पर संदेह किया जा सकता है, लेकिन यदि कोई एक भाषीय है, तो वह अमेरिकी ही होगा।’ यह भारतीय राष्ट्रीयता की भावना के विपरीत है। असल में किसी भाषा-भाषी में जब उच्चता का बोध आ जाता है, तो वह दूसरी भाषा नहीं सीखना चाहता, जबकि भारतीय परिस्थिति ऐसी नहीं है। 2001 में परवेज़ हुदभाय को दिए एक साक्षात्कार में अमेरिकी भाषाविद चामस्की ने कहा था कि ‘यदि आप भारत में किसी टैक्सी चालक से बात करें, तो संभव है कि वह 5 अलग-अलग भाषाएं जानता हो, वह बचपन से अपने गली-मुहल्लों में ये भाषाएं सीख जाता है। इस प्रकार वे लोग किसी अमेरिकी से ज्यादा सभ्य होते हैं, क्योंकि अमेरिकी सिर्फ एक भाषा जानता है।’ अब यह दोष भारतीय ‘राष्ट्र’ के कर्णधारों का है कि वे देश की जनता को इस मायने में लगातार असभ्य बना रहे हैं। आजादी के 7 दशकों के बावजूद राजभाषा के सवाल को अंग्रेजी से मुक्त नहीं कराया जा सका है। हिंदी की राष्ट्रीय व्यापकता को हम बाजार के कंधे पर देखकर प्रफुल्लित हो लेते हैं। इसकी लोकप्रियता को हिंदी फिल्मी गानों के भरोसे छोड़ देते हैं, दूसरी तरफ एक बड़े तबके को हिंदी के कथित वर्चस्व से डर लगता है। इन सबसे अलग, सांस्कृतिक समृद्धि की एक बड़ी मिशाल जनजातीय समाज इधर रोजगार के लालच में अपनी भाषाओं से मुंह बिचकाने लगा है। एक महान राष्ट्र के निर्माण में राजभाषा और राष्ट्रीय भाषाएं यदि आवश्यक हैं, तो इनसे कम आवश्यक इस देश की स्थानीयता को निष्प्राण होने से बचाना नहीं है। यह इस राष्ट्र की एक मुख्य चिंता होनी चाहिए।

आज भी हिंदी-पट्टी के गांवों में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो हिंदी बोल नहीं पाते हैं। यहां कई हिंदी पट्टियां हैं। सेंसस के आंकड़ों में लगभग पचास भाषाओं/बोलियों को हिंदी के अंतर्गत दर्शाया जाता है, प्राय: उन सबकी अपनी सांस्कृतिक पहचान है, उनमें साहित्य और सपने हैं। यह जरूर है कि उनमें भाषाई अस्मिता का बोध नहीं है।

भाषा के बहुस्तरीय प्रयोग होते हैं। माँ द्वारा रोते हुए बच्चे को चुप कराने की भाषा अलग होती है और देश को चलाने की भाषा अलग। ज्ञान की भाषा अलग, तो सहज संवाद की भाषा अलग। देश को इन भूमिकाओं को समझना होगा। संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी, अनुसूचित भाषाएँ और जनजातीय एवं अल्पसंख्यक भाषाओं के साथ इसी पृष्ठभूमि पर न्याय करना होगा और तभी सभी भाषाएँ और संस्कृतियाँ देश की क्षमता और राष्ट्रीयता के साथ जुड़ सकती हैं। आज किसी राष्ट्र-राज्य की चिरपरिचित भौतिक सीमाएं तमाम चाक-चौबंदी के बावजूद अतिक्रमित हो रही हैं। संचार और यातायात की सुविधाओं के फलस्वरूप एक ऐसे वर्चुअल विश्व का निर्माण हो रहा है, जहाँ ‘कल्पित समुदाय’ का दायरा बढ़ने और घटने का एक बड़ा कारण संबंधित भाषा की उपयोगिता पर निर्भर है। ऐसे में देश की जनजातीय भाषाओं का समाज यदि अपनी ही भाषाओं से मुंह मोड़ रहा है, तो यह देश, समाज और मनुष्यता के लिए खतरे की घंटी है।

यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि कोरोना महामारी के बाद आज भूमंडलीकरण की अवधारणा अपनी अंतिम सांसें गिन रही प्रतीत हो रही है और आत्मनिर्भरता की एक नई प्रतिध्वनि पूरे विश्व में सुनी जा सकती है। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि आगे से विश्व-संपर्क समाप्त हो जाएगा, सभी हवाई जहाजें बंद हो जाएंगी और विश्व भर के दूतावास डाक-घर की भूमिका में सीमित हो जाएंगे। लेकिन इन सबमें स्थानीय हितों का व्यापार के साथ भाषा और संस्कृति के संदर्भों में भी महत्व है, क्योंकि भारत का एक राष्ट्र के रूप जिंदा रहना काफी हद तक इस विविधता पर निर्भर है।

भूमंडलीकरण के बाद स्थानीयताओं पर प्राणांतक हमले हुए हैं और कई भाषाएं इस हमले की प्रमुख शिकार हैं। दूसरी तरफ हमने अंग्रेजी-प्रेम की वृद्धि करते हुए स्थानीय भाषाओं के प्रति असंवेदनशीलता और कई स्तरों पर अस्पृश्यता को एक प्रवृत्ति और अकादमिक फैशन बना लिया है। राष्ट्रीय स्तर पर भी कभी व्यापक परिदृश्य में इस ओर गंभीरता से  सोचा नहीं गया और यदि किंचित सोचा भी गया तो किसी आदर्श को जमीन पर उतारने के लिए कुछ नहीं किया गया। भाषा से संबंधित अनेक निर्णय किसी तात्कालिकता और तुष्टीकरण की नीति के तहत हुए हैं। कोई समाधान समेकित रूप से सभी छोटी-बड़ी भाषाओं को केंद्र में रख कर नहीं निकाला गया। इस बात को सिद्ध करने के लिए यहाँ सिर्फ एक तर्क ही पर्याप्त है कि आज भी स्थानीय भाषाओं के प्रति किसी अकादमिक जिज्ञासा का समाधान निकालने के लिए ग्रियर्सन के सौ वर्षों के पहले के किए गए सर्वेक्षण का सहारा लेना पड़ता है।

यूनेस्को ने पहली बार अपने अध्ययन के आधार पर 2009 में विश्व के देशों को उनकी स्थानीय भाषाओं पर उपस्थित खतरों के प्रति सचेत किया था। 2019 में यूनेस्को ने ‘अंतरराष्ट्रीय जनजातीय भाषा वर्ष’ घोषित किया था, ताकि नए सिरे से स्थानीय भाषा-संस्कृतियों के प्रति व्यापक समाज को संवेदित किया जा सके। हालांकि इस देश में थोड़ी हलचल इसके बाद हुई। वह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि वर्तमान पीढ़ी चाहे जिस भारतीय भाषा में शिक्षित-दीक्षित हो रही हो, उसने अपनी अगली पीढ़ी के लिए बड़ी तेजी से अंग्रेजी को सहेजना शुरू कर दिया है। अनेक स्थानीय भाषाओं के लोग खुद को अपनी भाषाओं के प्रयोग से वंचित होने की पीड़ा का अनुभव करते हैं।

यह भी प्रश्न है कि भाषाई अधीनस्थता का जो क्रम बनता है, उसमें क्या हिंदी भी अनेक स्थानीय भाषाओं के सिर पर एक बोझ की तरह प्रतीत होती है। दूसरी तरफ पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के प्रति एक नई लालसा देखी जा सकती है। भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा पैरोकार अमेरिका आज अपनी राष्ट्र की दीवारें लगातार मजबूत करने में लगा है। स्थानीय हितों के नाम पर वह अपनी तमाम वैश्विक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहा है। ऐसी स्थिति में क्या भारत में इस विषय पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि हमने भाषा के संदर्भों में अपने राष्ट्र को करीब से कब परखा है? यदि राष्ट्र का होना महत्वपूर्ण है, तो उसकी स्थानीयताएं, जैसे उनकी भाषा-संस्कृति आदि को इस राष्ट्रीयता में स्थान क्यों नहीं मिलना चाहिए? पश्चिम के अंधानुकरण से अपनी भौगोलिक सीमाओं में क्या महज उपभोक्ता बनकर मनुष्य बच पाएगा? इसी विषय पर केंद्रित यह बहस आयोजित है, जिसके केंद्र में निम्नलिखित प्रश्न हैं –

 

सवाल

  1. पश्चिम का राष्ट्रवाद वर्तमान भारतीय संदर्भों में कितना उचित है? भारतीय राष्ट्रवाद क्या है?
  2. भारतीय बहुभाषिकता के बीच वर्चस्व के रूप कैसे बनते हैं?
  3. राजभाषा के रूप में अंग्रेजी और हिंदी के मध्य स्थानीय भाषाओं को वास्तव में कैसे समायोजित किया जा सकता है?
  4. हिंदी, आठवीं अनुसूची की भाषाएँ और अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य क्या संबंध हो सकता है?
  5. क्या अस्मिता की राजनीति ने हिंदी-विरोध को एक फैशन बनाया है?
  6. भारत की स्थानीय भाषाओं और इनमें निहित ज्ञान-परंपरा के संरक्षण के लिए क्या किया जा सकता है?
  7. एक राष्ट्र के रूप में यदि स्थानीय भाषाएं देश की पूंजी हैं, तो उनके प्रति बहुसंख्यक समाजों की क्या भूमिका है?
  8. भारतीय राष्ट्रवाद अंग्रेजी के कंधे पर सवार होकर कितना भारतीय रह पाएगा?

उदय नारायण सिंह

वरिष्ठ भाषाविद। मैथिली के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार। भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर के पूर्व निदेशक एवं विश्वभारती के पूर्व प्रति-कुलपति। संप्रति एमिटी विश्वविद्यालय, गुरुग्राम में विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाता।

विविधतावाले राष्ट्र की तुलना सामान्य देशों से नहीं की जा सकती.

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और बहुभाषिकता एवं अनेक संस्कृतियां इसकी मूल पूंजी है। सवाल उठता है, ऐसे में राष्ट्रवाद की अवधारणा और उसमें राष्ट्रभाषा की भूमिका को कैसे देखा जाए? सवाल तो यह बहुत कठिन है, क्योंकि इस एक सवाल में कई और सवाल छिपे हुए हैं। राष्ट्रवाद की परिभाषा और अर्थ को लेकर अनेक चर्चाएं होती रहती हैं। राष्ट्रवाद की सुस्पष्ट और सर्वमान्य परिभाषा करने का कार्य सहज नहीं है। काल-चक्र के परिवर्तन के इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय भी आता है, जब किसी सु-परिभाषित भौगोलिक क्षेत्र में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व बौद्धिक कारणों से एक उत्पाद – ‘राष्ट्रवाद’ के रूप में सामने आता है। पर इसमें कई ‘किंतु’ छुपा है।

पहले यह तय करना पड़ेगा कि राष्ट्रभाषा एक हो या अनेक। अक्सर हमें ‘अनेकता में एकता’ की बात सुनने को मिलती है। लेकिन हर तरह का विभेद मिट जाएगा, ऐसी अपेक्षा भी अनुचित है। बहुत राजनीति करने वाले ऐसे हैं जो सहज रूप से कह देते हैं कि भाषा, संस्कृति, साहित्य और शिक्षा – इनमें समान-रूपता होनी चाहिए। वैसे तो यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद किसी जनसमूह की एक ऐसी आस्था का नाम है, जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं। लेकिन यह बात यहां कहीं स्वतः सिद्ध नहीं है कि यह तत्व सभी एकरूप हों। पर इतना तय है कि इनमें या इनके माध्यम से एक बंधन सा उभर कर आता है। इन्हीं बंधनों के कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्हें आत्म-निर्णय के आधार पर अपने संप्रभु राजनीतिक समुदाय अर्थात ‘राष्ट्र’ की स्थापना करने का आधार है, और अधिकार भी।

यदि किसी एक राष्ट्रभाषा की कल्पना हम करते हैं, तो भारत को उन देशों के समकक्ष रखने का प्रयास करते हैं, जो आकार में छोटे हैं, जहां की जनसंख्या एवं विविधता कम है, जहाँ अलग-अलग संस्कृतियों के लिए कोई जगह ही नहीं है। भारत के संदर्भ में एक बात हम बिलकुल भूल जाते हैं कि भारत बाकी देशों की तुलना में एक ‘महा-भारत’ है, जिसकी नींव ‘बहुलता’ पर टिकी हुई है। कहा जाता है कि बहु-विचित्रिता के संदर्भ में यानी कि ऐसी स्थिति में ही एक राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता हो सकती है, ताकि आपस में लोगों को वह एक प्रतीक से बांध सके एवं आपस में विचार-विनिमय के लिए एक सेतु-भाषा बन सके।

अब भारतीय बहुभाषिकता का चरित्र ही कुछ ऐसा है कि इस देश में भाषा, धर्म, संस्कृति और शास्त्र तथा इसकी मान्यताओं में पर्याप्त विविधता है। इसके साथ कई आधुनिक विचारधाराएं भी एक साथ कार्यरत हैं। वैसे भी भारत की प्रसिद्धि ही इसमें है कि एक ही तरह की चिंता एवं भावना को कितने अलग-अलग तरीके से वर्णन किया जा सकता है। यहां की बहसें और जीवन दर्शन इसीलिए आगे बढ़ते गए कि हमने अलग-अलग तरीके से सोचना सीखा है और कभी तर्क को छिपाया नहीं है, बल्कि प्रोत्साहित किया है। कभी हमने किसी सवाल पूछनेवाले को मना नहीं किया है। इस प्रकार भारत में बहुभाषा, बहुसंस्कृति, बहुधर्म की ओर से हर तरह से विविधता की चर्चा होती रही है। ऐसी स्थिति में एक विविधतावाले राष्ट्र की तुलना सामान्य देशों से नहीं की जा सकती।

दरअसल, राष्ट्रवाद यूरोप की एक आधुनिक संकल्पना है जिसका विकास पश्चिमी पुनर्जागरण के बाद अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में हुआ। इसके प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर ने अट्ठारहवीं सदी में पहली बार इसका प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। परंतु, जब इस आधार पर समरूपता स्थापित करने की कोशिश की गई तो तनाव एवं उग्रता दिखाई दी। जब भी इस अवधारणा को जोर-जबरदस्ती से लागू करवाया जाता है, तो यह ‘अति-राष्ट्रवाद’ या ‘अंध-राष्ट्रवाद’ कहलाता है। इसी कारण से भारत में मात्र एक ही राष्ट्रभाषा हो, यह सोचना बहुत कठिन काम है, क्योंकि प्रादेशिक स्तर पर बहुत सारे लोग ऐसे होंगे ही, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत राजभाषा का सम्यक ज्ञान नहीं है या नहीं होता है। इसके साथ कुछ ऐसे लोग भी होंगे, जिनको प्रादेशिक स्तर की राजभाषा का भी ज्ञान न हो और राष्ट्रीय स्तर की राजभाषा का भी ज्ञान न हो। इस देश की विशालता ही इसके लिए दायी है। कुछ ऐसे लोग भी होंगे, जिनको दोनों तरह की राजभाषाओं का ज्ञान न होते हुए भी कामकाज के लिए वे केवल अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं। यह भी हो सकता है कि वह व्यक्ति एक साथ चार-पांच बोलियां बोल लेता हो, लेकिन फिर भी राजभाषाओं के ज्ञान से दूर हो। अब राष्ट्र तो सबका राष्ट्र है। कोई यह नहीं कह सकता है कि जो राजभाषा में काम कर सकता है, केवल उसी के लिए राष्ट्र बना है। राजभाषा चाहे प्रादेशिक स्तर की हो या राष्ट्रीय स्तर की, वह केवल एक सुविधा के लिए चयनित हुई है या बनी है। यह सरकारी कामकाज में एकरूपता और मानकता की दृष्टि से स्वीकारी गई है, ताकि कानून और उसकी व्याख्या में मत-भिन्नता न हो। ऐसा भी समझना आवश्यक है कि एक भाषा को प्राकृतिक और स्वाभाविक भाषा से उठा कर उसे सरकारी काम-काज की भाषा बनाने के लिए भी काफी सुचारु योजना की जरूरत है। मात्र सरकारी घोषणा या उपाधियों से काम नहीं चलता है, उस बहती नदी जैसी प्राकृतिक भाषा में मानकीकरण के कार्य को सही ढंग से आगे बढ़ाना होता है।

ऐसा देखा गया है कि भारत जैसे बहुभाषिक देशों में अनेक भाषाएं राष्ट्रभाषा के रूप में उभर कर आती हैं। यह स्थिति अफ्रीकी देशों एवं अमेरिका में भी है। यूरोप में कई ऐसे देश हैं, जहां एकाधिक भाषाएं राष्ट्रभाषा के रूप में कार्य कर रही हैं। इस प्रकार कई राष्ट्रभाषाओं की मांग स्वाभाविक ही है। भारत के संबंध में राष्ट्रवाद अपनी जगह है और राष्ट्र के संचालन की चुनौती अलग है। राष्ट्रवाद के प्रश्न के साथ कई सैद्धांतिक उलझनें जुड़ी हुई हैं। अर्थात, राष्ट्रवाद और आधुनिक संस्कृति व पूंजीवाद का आपसी संबंध क्या है? राष्ट्रवाद के संदर्भ में इसकी पश्चिमी और पूर्वी अवधारणाओं के बीच क्या फर्क है? एक राजनीतिक परिघटना के तौर पर राष्ट्रवाद प्रगतिशील है या प्रतिगामी – आदि, आदि।  इसके साथ यह भी समझना पड़ेगा कि राष्ट्रभाषा एवं राजभाषाओं के चयन और उसके निर्माण एवं प्रयोग की प्रक्रिया अलग है। ये सब अलग-अलग मुद्दे हैं। अनेक मंच से यह कहा जाता है – चूंकि भारत एक राष्ट्र है, और इसका हम विभाजन नहीं चाहते हैं, इसलिए भारत की एक ही राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, यह एक पुराना तर्क है। आज के वैश्विक अनुभवों के आधार पर इस तर्क को अमान्य कर देना चाहिए। नए सिरे से सोचना चाहिए कि अगर हम एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं, जिसके लिए लोगों के मन में राष्ट्रवाद की भावना भी हो और जिसमें कई भाषाएं एक साथ राष्ट्रभाषा के रूप में काम कर रही हों, तो उसका निर्माण हम कैसे करें? एक दूसरी चुनौती यह है कि गुजराती, तमिल, बांग्ला, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं को हिंदी या अंग्रेजी के बराबर का दर्जा कैसे दिलाया जा सकता है, इनकी उन्नति कैसे संभव है। यह भाषाविज्ञानियों एवं समाजशास्त्रियों के लिए चुनौती है और इसको स्वीकार किया जाना चाहिए।

कला विभाग, हरियाणा एमिटी विश्वविद्यालय एमिटी एजूकेशन वैली, पचगांव, मनेसर, गुरुग्राम122413 हरियाणा

शशिभूषण

सुपरिचित कवि, कहानीकार और शिक्षाविद।

दूसरी भारतीय भाषाओं से निकटता रखते हुए ही हम सुसंस्कृत और समृद्ध हो सकते हैं

भारतीय भाषाएं और राष्ट्रवाद का दृश्य कुछ हिरणों और अकेले शेर के दृश्य के समान है। यह शेर किसी एक भाषा को, जिसका थोड़ा अधिक प्रभुत्व हो, बारी- बारी से दूसरी भाषाओं को चट कर सकता है। भारतीयता अपने आपमें राष्ट्रवाद का एंटीडोट है। भारतीय राष्ट्रवाद, यानी राष्ट्रवाद के साथ ही भारतीयता को देखने की विवशता हो तो इसके संबंध में बहुत अधिक सकारात्मक समझे जाने की आशा के साथ कहा जा सकता है कि आजादी के आंदोलन के दरम्यान एक संगठित राष्ट्र के रूप में जो भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति चाहता था, स्वराज मांगता था, वह अनेकता में एकता का हामी था। धार्मिक बहुलतावादी राष्ट्रवाद को कुछ शर्तों के साथ भारतीय राष्ट्रवाद माना जा सकता है। हालांकि रवींद्रनाथ ठाकुर हों, महात्मा गांधी हों या प्रेमचंद, राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं थे। टैगोर ने राष्ट्रवाद को विभीषिका की तरह देखा था। गांधी जी मानवता को सर्वोपरि रखते थे और प्रेमचंद राष्ट्रवाद को कोढ़ कह चुके थे। राष्ट्रवाद के इस विरोध के कारण स्पष्ट थे।

दुनिया के अन्य देशों की भांति भारत की पराधीनता, शोषण, अन्याय और दमन की शक्तियां यूरोपीय राष्ट्रवादी थीं। साम्राज्यवाद वास्तव में यूरोप के देशों का राष्ट्रवाद ही था जो दुनिया के दूसरे राष्ट्रों को अपने हित में ग़ुलाम बना रहा था, संसाधनों की खुली लूट में शामिल था और नरसंहार, यहां तक कि विश्वयुद्धों को जन्म दे रहा था। दुनिया भर में यह राष्ट्रवाद का ही उत्थान था जिसने साम्राज्यवाद का विस्तार किया। भारतीय राष्ट्रवाद की किसी मौलिक सीमा पर विचार करना स्वयं भटक जाना है। आज भारतीय राष्ट्रवाद के मुखौटे में धार्मिक-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, उसकी सीमा देखने के बजाय उसे स्वयं समस्या की तरह देखा जा सकता है। बल्कि देखना चाहिए। भारत में धार्मिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक ख़तरा है जो लोकतंत्र को खत्म और संविधान को मृत बना सकता है।

राष्ट्रवाद चाहे वह पश्चिम का हो या भारत का, भारतीयता या राष्ट्रीयता के विपरीत है। वर्तमान भारत ने अतीत के सुदीर्घ संघर्ष और लंबे राजनीतिक अनुभव के बाद एक ऐसा संविधान अंगीकृत और लागू किया हुआ है, जो पंथनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक समाजवाद का संरक्षक है। भारत को राष्ट्रवाद नहीं, पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवाद चाहिए। एक राष्ट्रीय ध्वज किसी संप्रभु राष्ट्र के लिए उचित है, स्वीकार्य भी है। भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा सर्वप्रिय है, लेकिन संघ गणराज्य भारत में एक धर्म, एक भाषा की मांग इतनी अनुचित, हानिकर है कि इसे अभारतीय मांग ही कहा जा सकता है।

किसी भी देश में बहुभाषिकता के बीच एक राष्ट्रभाषा अपनाना आसान नहीं होता। भारत के लिहाज से यह अव्यावहारिक भी है। हिंदी राष्ट्रभाषा की पुरानी मांग और उसमें आनेवाली व्यावहारिक अड़चनों को जानने के संबंध में गांधी जी और रवींद्रनाथ टैगोर के पत्राचार को देखा जाना चाहिए। भारत एक राष्ट्रभाषा अपनाने के लिए मुश्किल से ही तैयार हो पाएगा, भले वह हिंदी क्यों न हो। भारत में हिंदी न बोलनेवाले भारतीयों का प्रतिशत हिंदी बोलने वालों से अधिक है। स्थानीय भाषाएं अलग-अलग राज्यों में राजभाषाएं भी हैं। इन भाषाओं का राज्य से बाहर भी साहित्य से लेकर सिनेमा तक व्यापक योगदान है। इसलिए इन भाषाओं को अंग्रेजी और हिंदी के मध्य समायोजित करने के बजाय स्वायत्तता देना ही उचित होगा।

अंग्रेजी भारत में इतनी वर्चस्वशाली है कि उसने हिंदी को ही विस्थापित कर रखा है। हिंगलिश अब अंग्रेज़ी का लोकल है। हिंदी को हिंगलिश में बदल कर धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। इसलिए आवश्यकता हिंदी को हिंदी बनाए रखने के साथ- साथ स्थानीय भाषाओं को बराबर महत्व देने की है। ध्यान रहे, वह स्थिति भी खतरनाक होगी जब हिंदी ही स्थानीय भाषाओं को विस्थापित करने लगे। हिंदी को समावेशी होना पड़ेगा। हिंदी और आठवीं अनुसूची की भाषाओं के मध्य संबंध एक संवैधानिक व्यवस्था है। इसलिए इसे आधिकारिक रूप से तब तक बरकरार रखा जा सकता है जब तक हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बना दिया जाता। इन भाषाओं के बीच साहित्यिक और वैचारिक आदान- प्रदान में जितना खुलापन होगा, उतना अच्छा होगा।

हिंदी भारतीय भाषाओं से बहुत कुछ सीख सकती है। हिंदी अगर अंग्रेजी के शब्दों की जगह भारतीय भाषाओं से शब्द ग्रहण करे और उन्हें प्रचलन में लाए तो यह अधिक रचनात्मक होगा। हिंदी ऐसा रिश्ता अपनी उपभाषाओं और बोलियों के साथ भी रख सकती है। हिंदी में बोलियों से जितने अधिक से अधिक शब्द स्वीकृत होंगे, हिंदी की धारिता उतनी बढ़ेगी। यह राजभाषा हिंदी को सरल ग्राह्य बनाने की दिशा में भी अच्छा कदम हो सकता है।

हिंदी विरोध फैशन नहीं है यह रणनीति और सचाई है। विश्व बाजार के लिए हिंदी का विरोध मुनाफे का उद्यम है। ऊपर से लगता है कि हिंदी के विरोध के पीछे अस्मिताओं की राजनीति है, क्षेत्रीय राजनीति है। लेकिन सचाई यह है कि विश्व बाजार का दबाव हिंदी को हिंगलिश में बदलकर अंग्रेजी से रिप्लेस करना चाहता है। बाजार हिंदी का विरोधी है। वह इसका अंग्रेजी में विलय चाहता है। इसके लिए वह मीडिया का सहारा लेता है, बड़ा इंवेस्टमेंट करता है। बड़े सूक्ष्म स्तर पर हिंदी के शब्दों को हिंदी अखबारों और विज्ञापनों के द्वारा अंग्रेजी के शब्दों से बदला जाता है। अब अम्मा की जगह मदर और विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी स्वीकार्य और सरल है।

सांस्कृतिक अर्थशास्त्र पर गहरी पैठ रखनेवाले विचारकों का कहना है कि बाजार अपने उत्पाद के लिए समाज में भाषा के रास्ते ही जगह बनाता है। पूंजी संस्कृति के सहयोग से मनुष्यों को वस्तुओं का स्थायी उपभोक्ता बनाती है। एक उदाहरण काफी होगा, इतवार और संडे वैसे एक ही हैं, लेकिन संडे के लिए अनुकूलित हो जाने के बाद किसी परिवार की उपभोक्ता वस्तुएं इतवार वाली नहीं रहतीं। मम्मी के आंटी होते ही संबंध सांस्कृतिक रूप से बिलकुल नया हो जाता है। भाषा केवल अभिव्यक्ति ही नहीं हमारा सांस्कृतिक जीवन होती है। पहले भाषा में वर्चस्व स्थापित होता है, फिर वह राज्य के रास्ते राजनीति बन जाता है।

ज्ञान परंपरा के संदर्भ में भारत एक आलसी और दंभी देश रहा है। यह बिना कुछ किए आगामी कई सौ वर्षों तक स्वयं को कभी की सोने की चिड़िया और आज एवं भविष्य का विश्वगुरु समझता रह सकता है। इस देश में विश्वविद्यालय ज्ञान- विज्ञान के शत्रु सरीखे हैं। देश के जो विश्वविद्यालय श्रेष्ठ हैं वहां राष्ट्रवादी स्टेट उनका शत्रु है। शिक्षण संस्थानों में दशकों से अध्ययन और शोध के लिए शिक्षक जैसा पर्याप्त बुनियादी रिसोर्स भी उपलब्ध नहीं है। भारत में शिक्षा सबसे उपेक्षित क्षेत्र है। यहाँ ऐसे विश्वविद्यालय की कल्पना नहीं की जा सकती, जहां पर्याप्त शैक्षणिक स्टाफ हों। ऐसे मुर्दा शैक्षिक वातावरण में ज्ञान परंपरा का संरक्षण देवता या भूत तो करेंगे नहीं, न ही भाषाएं कर पाएंगी। भाषाएं चेतना की वाहक होती हैं, जननी नहीं।

भारत की स्थानीय भाषाओं और ज्ञान परंपरा के सरंक्षण के बीच एक बाधा संस्कृत भी रही है। भारत में माना यह जाता है कि जो संस्कृत में है वही ज्ञान है। मैथिली या पालि या पूर्वोत्तर भारत की किसी भाषा की ज्ञान परंपरा को समझने के लिए कई जगहों पर संस्कृत से फुर्सत ही नहीं है। संस्कृत के उत्थान के प्रयत्न में पालि और प्राकृत जैसी भाषाओं के ज्ञान-विज्ञान को उपेक्षित किया जाता है। जब हिंदी के लिए ही समस्या है तो स्थानीय भाषाओं के लिए राष्ट्रीय स्पेस की कल्पना कैसे की जा सकती है? हिंदी की ही जगह अंग्रेजी  ले रही है। न्यू इंडिया का जयघोष भाषायी स्तर पर क्या भारतीय कहा जा सकता है?

भाषा के साथ एक अच्छी बात यह है कि इसका स्वभाव बहुसंख्यकवादी नहीं होता। किसी बहुसंख्यक समाज के लोग भी एक ही भाषा भिन्न-भिन्न रूप में बोलते हैं। एक ही भाषा उच्चारण बहुल होती है। समाज में उसके नागर और लोक स्वरूप विद्यमान होते हैं। बहुसंख्यकवाद से मुक्त होकर ही विभिन्न भाषाओं के अस्तित्व को बरकरार रखा जा सकता है। बहुसंख्यक समाज को यह देखना होगा कि अन्य भाषा को बोलनेवाले भी तो मनुष्य ही हैं, उतने ही मनुष्य जितने हम। बहुसंख्यक समाज स्थानीय भाषाओं को बचाने और संवर्धित करने की दिशा में पहला कदम यही उठा सकता है कि वह भारत जैसे देश में कोई एक भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में थोपने का अंधा समर्थन न करे। वह अनुवाद और भाषायी आदान-प्रदान को इतना सशक्त करे कि कोई अपनी बोली में भी अपील या आवेदन देना चाहे तो राजभाषा में उसका ईमानदार, न्यायोचित निपटारा हो सके।

सवाल यह है कि राष्ट्रीयता के स्थान पर राष्ट्रवाद क्यों चाहिए? भारत को आज राष्ट्रवाद नहीं अपने ही संविधान का ईमानदार अनुपालन चाहिए। हिंदू ही आजकल ज्यादा भारतीय है, यह एक अलगाववादी विचार है। भारत हो या कोई अन्य देश दुनिया की किसी भी भाषा के प्रति नफ़रत या दूरी न रखते हुए अपनी भाषाओं से ही हम संस्कृत, समृद्ध और उन्नत बन सकेंगे।

25, मंछामन गणेश नगर एक्सटेंशन कॉलोनी, यंत्रमहल मार्ग, उज्जैन (.प्र.) 456001 ईमेल : gshashibhooshan@gmail.com

जीतेंद्र गुप्ता

युवा विचारक। ‘भारतीय इतिहासबोध का संघर्ष और हिंदी प्रदेश’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित।

भारत एक बहुभाषिकबहुसांस्कृतिक देश है

भाषा किसी भी संस्कृति की सच्ची प्रतिनिधि होती है। इसके साथ यह भी तथ्य है कि भाषा को संस्कृति का बेजा बोझ भी सहन करना पड़ता है।  इस तथ्य का प्रमाण आधुनिक भारतीय इतिहास है। इस पर कोई मत-भेद नहीं है कि ‘राष्ट्र-राज्य’ की अवधारणा भारतीय समाज के लिए नई है और इसे बहुत खींच कर मात्र डेढ़-दो सदी पहले तक  विस्तारित कर सकते हैं। उपनिवेशवाद से मुक्ति संघर्ष में यह अनिवार्य था कि भारत स्वयं को पश्चिमी मानकों के अनुसार राष्ट्र-राज्य साबित करे, क्योंकि उपनिवेशवाद से संघर्ष में बौद्धिक स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती यही थी। इस कारण कि यदि भारत स्वयं को राष्ट्र-राज्य के रूप में साबित नहीं कर पाता, तो उपनिवेशवाद से उसकी स्वतंत्रता का दावा सीमित हो जाता, क्योंकि स्वतंत्रता राष्ट्र-राज्य को मिलनी थी किसी व्यक्ति विशेष या समाज विशेष को नहीं!

उपनिवेशवाद से संघर्ष के इसी बिंदु ने भविष्य के संघर्ष को आकार दिया और स्वतंत्र भारत की नियति को निर्धारित करने में अहम भूमिका अदा की। 1930 के दशक के बाद स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्पष्ट रूप में दो वैचारिक समूह भारतीय समाज में दिखाई पड़ते हैं। एक समूह का दावा था कि भारत दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है। इस सभ्यता को, इसके प्राचीनतम गौरव को, प्राचीन मूल्यों को पुनः स्थापित किया जा सकता है। इसे रूढ़िवादी समूह या कट्टरपंथी समूह कह सकते हैं, क्योंकि सचाई में समय के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता है। वहीं दूसरा समूह आधुनिक कहा जा सकता है, जो इस बात पर यकीन करता था कि भारत सदियों में निर्मित हुई एक सभ्यता है। इसमें कई जातियों, नस्लों, समुदायों और धर्मों का योगदान है। इन सभी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए इनमें से किसी को भी पृथक करने से भारतीयता का विचार खंडित होता है।

भारत की परिभाषा, राजनीतिक रणनीति और उपनिवेशवाद के प्रति रवैये में अंतर के पीछे मूल शक्ति उपर्युक्त वैचारिक अंतर है। इस वैचारिक संघर्ष की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशकों के बाद भी हम इसी संघर्ष में फंसे हुए हैं। आज भी गौरवशाली अतीत का दावा करने वाली शक्तियाँ इतिहास से इस तरह घृणा करती हैं, जैसे यह इतिहास उनका नहीं, उनके शत्रुओं का है!

यदि हम आजादी से गणतंत्र की तरफ यात्रा को देखें तो उपर्युक्त वैचारिक समूहों के संघर्ष का अंदाजा हो जाएगा। भारतीय संविधान सभा की बहसें इस संघर्ष के मूलाधारों को स्पष्ट करती हैं। सेठ गोविंद दास का संविधान सभा में हिंदी के पक्ष में उद्यम असाधारण है। उनका स्पष्ट मानना था कि ‘देवनागरी लिपि के साथ हिंदी ही संघ की एकमात्र भाषा हो सकती है।’ ध्यान देने की बात है कि उस समय जनसंख्या लगभग 32 करोड़ थी, जिसमें लगभग 10 करोड़ लोग हिंदीभाषी थे।

सेठ गोविंद दास ने संविधान सभा में हिंदी का पक्ष रखते हुए यह भी कहा कि लोकतंत्र तभी कार्यकारी हो सकता है जब बहुमत की राय का सम्मान किया जाए। यह मत बहुत परिष्कृत है। परिष्कृत इस अर्थ में कि नवद्वीप से कांग्रेस की तरफ से संसद सदस्य लक्ष्मी कांत मैत्र ने मांग की थी कि संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए। उन्होंने यह मांग इसलिए की कि संस्कृत दुनिया की सभी भाषाओं की जन्मदात्री है, भारतीय संस्कृति की एकमात्र प्रतिनिधि है और यह एकमात्र राष्ट्रीय संपदा है। स्वाभाविक और व्यावहारिक कारणों से ऐसा होना असंभव था। इसलिए जिसे प्रथम विचारसमूह के रूप में व्याख्यायित किया गया है, उस समूह ने हिंदी के नाम पर एकमत कायम किया।

महात्मा गांधी भले ही अपने व्यक्तिगत जीवन में सनातनी रहे हों, लेकिन भारतीय इतिहास की व्याख्या के मामले में वह दूसरे विचार समूह में शामिल होते हैं। हिंदू-मुस्लिम एकता के विषय में उनके विचारों की पवित्रता संशय से परे है। यही कारण है कि संविधान सभा में मोहम्मद हफीजुर रहमान (संयुक्त प्रांत) ने रेखांकित किया कि हिंदी के संस्कृतकरण की ओर बढ़ते रुझान के चलते गांधी जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन से अपने हाथ खींच लिए थे और यह सच भी है। संविधान सभा में टी.टी. कृष्णामचारी ने संभवतः पहली बार ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया था, जो दक्षिण भारतीय जनता की संवेदनाओं को व्यक्त करता है। इसी तरह जयपाल मुंडा ने आदिवासी भाषाओं के मुद्दे को हिंदी के संदर्भ में सामने रखा।

गांधी की तरह आजादी से गणतंत्र की यात्रा में सबसे पवित्र आवाजों में एक आवाज जवाहरलाल नेहरू की भी थी। हांलाकि इतनी बड़ी शख्सियत से भयग्रस्त लोगों ने उनके विचारों को विकृत रूप में पेश किया। गुरुदेव की वैचारिक विरासत के साथ यह नेहरू ही थे, जो भारत का दिल और दिमाग समझते थे। उन्होंने भाषा और राष्ट्र के संवेदनात्मक मुद्दे पर सबसे चिंतनशील विचार को सामने रखा। नेहरू हिंदुस्तानी के समर्थक थे। इसके साथ वह एक सच्चे तार्किक भारतीय का दिमाग भी रखते थे, जिसकी वजह से उनका कहना था कि यदि अंग्रेजी भाषा हिंदुस्तान के छोटे से समूह तक सीमित रहे तो यह देश का दुर्भाग्य होगा। तात्पर्य यह कि अंग्रेजी विश्व से संपर्क की और आधुनिक ज्ञान के आदान-प्रदान की भाषा है और भारतीय जनता तक आधुनिक ज्ञान के प्रसार के लिए इस भाषा की मौजूदगी अनिवार्य है। इस तरह नेहरू आधुनिक भारत को एक बहुभाषी-बहुसांस्कृतिक-बहुधर्मी-बहुजातीय-बहुनस्लीय देश के रूप में देखते थे, जिसका एक हिस्सा गंगा-जमुनी तहजीब है।

हिंदी विभाग, कॉटन विश्वविद्यालय, पानबाज़ार, गुवाहाटी (असम)-781001/ मो. 9420732622 ईमेलjeetendrakgupta@gmail.com

रेखा अग्रवाल

अंग्रेजी एवं हिंदी में अनेक विधाओं में लेखन। संप्रति दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षा पीठ में वरिष्ठ प्रोफेसर तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पंडित मदन मोहन मालवीय नेशनल मिशन योजना की नोडल अधिकारी।

भारत जैसे देश में सिर्फ एक भाषा के सहारे आगे बढ़ना संभव नहीं है

किसी भी समाज अथवा राष्ट्र के उत्थान में केवल क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग तक सीमित रह जाना उस समाज अथवा राष्ट्र के लिए प्राणघातक होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे घर के अन्य सभी कमरों के दरवाजे-खिड़कियां बंद करके एक कमरे में रहना। अतएव अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को सीखने की आवश्यकता को कमतर नहीं आंका जा सकता है। इनके साथ उन भाषाओं को भी सीखने की आवश्यकता होती है, जो बृहद स्तर पर अधिकांश व्यक्तियों को एक सूत्र में पिरोती हैं, चाहे वह राष्ट्रीय स्तर पर हो अथवा वैश्विक स्तर पर। 2013 में आयरलैंड की डबलिन सिटी यूनिवर्सिटी में मैं अपने प्रवास के दौरान किशोर छात्र-छात्राओं के उस समूह से मिली थी, जो पेरिस से आयरलैंड सिर्फ इसीलिए आया था कि छात्र गर्मियों की छुट्टियों में अंग्रेजी भाषा के उचित प्रयोग का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें।

मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं पर अंग्रेजी भाषा का अतिक्रमण भारत के किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है। त्रिभाषीय सूत्र को बेमन से और आधे-अधूरे रूप में लागू किया जाना और ऊपर से अंग्रेजी भाषा को सर्वोपरि मान लेना ही आज की भाषाई दुर्दशा का मुख्य कारण है। मैं अपनी बात आगे बढ़ाऊं, इससे पूर्व मुझे उन दो बालकों का ज़िक्र आवश्यक जान पड़ता है, जिन्हें उनके विद्यालय ने कक्षा पांच में उत्तीर्ण करके अपने विद्यालय की आगे की कक्षाओं में पढ़ाने से मना कर दिया था। दोनों ही बालक न हिंदी और न ही अंग्रेजी भाषा ठीक प्रकार से लिख-पढ़ पाते थे, जबकि गणित, विज्ञान और सामाजिक विषयों की जानकारी उन्हें थी। ऐसे में हमने गर्मियों की छुट्टियों में इस व्यवधान को दूर करने की एक सरल-सी व्यवस्था की और आज दोनों ही बालक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपने-अपने क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं। यदि आप जानना चाहेंगे कि क्या किया गया था? तो ऐसा कुछ विशेष नहीं, अपितु प्रतिदिन किसी भी वस्तु को देखकर चार वाक्य हिंदी में पहले अच्छी प्रकार से बोलने और फिर उन्हीं वाक्यों को उचित वर्तनी तथा वाक्य विन्यास के साथ लिखने का अभ्यास करना।

आज स्थितियां और खराब हुई हैं। आजकल स्नातकोत्तर विद्यार्थियों और शोधार्थियों की वर्तनी और उनके वाक्यप्रयोग भाषा की दयनीय स्थिति स्पष्ट कर देते हैं। सोशलमीडिया के प्रभाव तथा कॉपीपेस्ट के प्रचलन ने भाषाईप्रयोग के स्तर को रसातल में पहुंचा दिया है। मेरी दृष्टि में भाषा और साहित्य के शिक्षकों से इतर, विशेष रूप में, गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान पढ़ानेवाले सभी शिक्षक भाषाओं के प्रति अपराधियों की श्रेणी में आते हैं। उन्होंने अपने विषय को पढ़ाते समय भाषा को हमेशा पराया समझा। उन्होंने ऐसा माना कि भाषा के उचित प्रयोग करवाने की जिम्मेदारी मात्र भाषा-शिक्षण करनेवाले शिक्षकों की ही है। किसी भी राष्ट्र के लिए अपनी भाषा की जरूरत न केवल पूरे देश को एक सूत्र में बांधने और विश्व में एक अलग पहचान बनाने के लिए होती है, अपितु भाषा की आवश्यकता किसी भी राष्ट्र को अपनी जड़ें मजबूत करने, अपनी सांस्कृतिक निधि को अक्षुण्ण बनाए रखने, तथा समाज को उन्नति के नित नए शिखर तक ले जाने के लिए अधिक होती है।

विश्व के अधिकांश विकसित देशों, जैसे चीन, जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, स्पेन, यहाँ तक कि फिनलैंड और आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देशों पर भी नजर डालें तो पाएंगे कि वे अपना सारा राज-काज, आचार-व्यवहार और शिक्षा व्यवस्था अपने देश की भाषा के माध्यम से ही करते हैं। दरअसल विश्व के किसी भी खंड की अपनी बौद्धिक निधि, सांस्कृतिक धरोहर अधिकांशतः वहां की क्षेत्रीय भाषा में ही गढ़ी और रची-बसी होती है। वहाँ का समाज उसे समझने-बूझने, उसके उपयोगी प्रयोग के साथ ही उनमें बढ़ोतरी करने के लिए अपनी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग सुगमता से करता है।

मगर हम हिंदुस्तानी, अगर बस चले तो बालक को माँ के गर्भ से ही अंग्रेजी सिखाना शुरू कर दें। हमारे देश के शिक्षाविद हमेशा प्राथमिक शिक्षा स्तर पर मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग की वकालत करते रहे हैं, चाहे वह 1937 की महात्मा गांधी की ‘बेसिक शिक्षा योजना’ हो या आज की ‘नई शिक्षा नीति’। बालक को अपनी भाषा में कही गई गूढ़ बातें सुगमता से समझ में आ जाती हैं और वह उनका प्रस्तुतीकरण भली-भांति कर पाता है। उसकी तार्किक क्षमता और कल्पनाशीलता परवान चढ़ने लगती है, जिससे उसके आत्मविश्वास को भी बढ़ाने में सहायता मिलती है। भारत जैसे देश में, जहां गांव बदलने पर भाषा का लहजा बदल जाता हो और एक ही प्रदेश के विभिन्न अंचलों में अलग-अलग भाषा का प्रयोग होता हो, भला कोई भी केवल एक भाषा के सहारे कैसे सबके साथ आगे बढ़ सकता है?

प्रोफेसर, शिक्षा पीठ, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार– 824236 मो.9027169336 मेल : rekhaagrawalcreative@gmail,com

विजय झा

जेंडर स्टडीज़ के अध्येता। फिलहाल दिल्ली स्थित सेंटर फॉर वीमेंस डेवेलपमेंट स्टडीज़ में कार्यरत।

हिंदी में ज्ञान रचना का काम पहले से बढ़ा है

हर उत्पादन-प्रणाली में उच्च शासक तबका अपना एक प्रतीक जगत रचता है, जिसके केंद्र में भाषा हुआ करती है। उस भाषा को श्रेष्ठ और सुंदरतम के रूप में स्थापित और प्रचारित किया जाता है। साहित्य, दर्शन और राज-काज आदि में प्रयुक्त होने के कारण ऐसी भाषा के साथ सत्ता अभिन्न रूप से जुड़ जाती है। सत्ता के चालकों का भरसक प्रयत्न रहता है कि इस भाषा का वर्चस्व कायम हो, यानी समाज के सभी वर्गों में इस भाषा की श्रेष्ठता, सुंदरता और सर्वाधिक क्षमतावान होने की बात जड़ जमा ले, लेकिन यह सबके लिए समान रूप से सुलभ न हो पाए। संस्कृत के संदर्भ में भारत की जाति-व्यवस्था ने इस काम को आसान बनाने में मदद की। दीर्घ अवधि तक संस्कृत वर्चस्वशाली भाषा के रूप में आसन जमाए रही। निम्न जातियों और स्त्रियों को इससे परे रखने के लिए कठोर कायदे बनाए गए। बाद में फारसी भी सत्ता की भाषा बनी, लेकिन आंशिक तौर पर।

औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का वर्चस्व कायम हुआ। इसके पीछे भी उत्पादन-प्रणाली और तद्जन्य वर्गीय राजनीति का हाथ था। दरअसल भारत में उपनिवेशवाद से सामना की एक बेहद जटिल प्रक्रिया में औद्योगिक पूंजीवाद और राष्ट्रवाद पनपे। यदि बिना किसी औपनिवेशिक हस्तक्षेप के यहां औद्योगिक पूंजीवाद की अवस्था आती और एक आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र बनता, तब यहाँ की भाषा-व्यवस्था क्या रूप लेती, इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना संभव नहीं है। लेकिन यह तय है कि उस स्थिति में भी एक ऐसी भाषा होती, जिसके साथ आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक सत्ता जुड़ी होती। इस कारण उसका वर्चस्व स्थापित होता, लेकिन वह सबके लिए सुलभ नहीं होती।

अंग्रेजी का वर्चस्व केवल उसकी अपनी भाषागत खासियतों के कारण कायम नहीं हुआ, जैसा कि इसके पक्षधर दावा करते आए हैं। उसने जो रुतबा आज हासिल किया है उसके पीछे ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति है। अपने उपनिवेशों में अंग्रेजी को अभिजात वर्ग की भाषा बनाना भी उस नीति का हिस्सा थी। सिद्धांतत: इसके दरवाजे निम्न जातियों या स्त्रियों के लिए बंद नहीं थे। इसने खुद को एक लोकतांत्रिक और सेकुलर भाषा के रूप में प्रस्तुत किया था, जो सबके लिए एक समान सुलभ थी। लेकिन जैसा कि दिलीप चव्हाण ने अपनी किताब ‘लैंगुएज पॉलिटिक्स अंडर कोलोनियलिज़्म’ में दिखाया है कि अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत करनेवालों में एक निर्णायक भूमिका निभानेवाले माउंट स्टुअर्ट एल्फिंस्टोन के दिमाग में यह स्पष्ट था कि इस शिक्षा को तत्कालीन भारतीय समाज के  तबके (ज़ाहिर है उच्च जाति) के लिए ही सुलभ होना चाहिए ताकि नई व्यवस्था में भी उनका रुतबा बरकरार रहे। इस तरह सोच-समझकर अमल में लाई गई नीति के कारण औपनिवेशिक जमाने में उच्च जातियों के बीच से अंग्रेजी और अंग्रेजियत से लैस अभिजात वर्ग तैयार हुआ। इस वर्ग के सहयोग से ही भारत में अंग्रेजी की बुनियाद डाली गई।

इसमें दो राय नहीं कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की राष्ट्रीय या संपर्क भाषा क्या होनी चाहिए, इस पर हुए विवाद और झगड़े ने भी अंग्रेजी की राह आसान की। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जो मुहिम चलाई गई, उससे बचने के लिए अंग्रेजी एक तैयार विकल्प के रूप में हाजिर थी। वह यहाँ के न किसी प्रांत से जुड़ी थी, न किसी समुदाय से और न ही धर्म से। लेकिन यहां भी वर्गीय राजनीति ही काम कर रही थी। भला उन दिनों (और आज भी) अंग्रेजी का प्रयोग करनेवालों की संख्या ही कितनी थी? अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त चंद लोग इसके पक्ष में थे, जिनकी दुनिया को व्यंग्यवश ‘इंडिया’ कहा जाता है। व्यापक जन समुदाय को आपसी संपर्क के लिए अंग्रेजी की जरूरत नहीं थी। लेकिन एक खास भारतीय पट्टी की भाषा हिंदी को अन्य भारतीय प्रांतों पर आरोपित किया जा रहा है, इस तर्क के जरिए अंग्रेजी के पक्षधरों ने एक व्यापक जन समुदाय को अपने साथ कर लिया। आजादी के बाद भी, एक तो अभिजात/उच्च वर्ग की भाषा होने के कारण इससे जुड़ी प्रतीकात्मक प्रतिष्ठा और दूसरे, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली जनित नीतियों की वजह से सरकारी/निजी दोनों ही तरह के प्रतिष्ठानों में ऊंची नौकरी दिलाने में सहायक होने के नाते अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता चला गया। 

आज आलम यह है कि अंग्रेजी शिक्षित होने का पर्याय बन गई है। यह धारणा केवल साधारण जनों के बीच ही व्याप्त नहीं है, बल्कि उच्च शिक्षित, अकादमिक और बौद्धिक जगत में भी अंग्रेजी ही स्वाभाविक भाषा मानी जाती है। हर तबका अपने बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए अंग्रेजी की तरफ रुख कर रहा है। आज यदि कोई व्यवसाय सबसे अधिक फल-फूल रहा है, तो वह है अंग्रेजी सिखाने का व्यवसाय। निजी स्कूल, कोचिंग संस्थान आदि के रूप में इसने बड़े कारोबार का रूप ले लिया है। लेकिन यहाँ भी वर्गीय राजनीति अपना काम कर रही है। उल्लेखनीय है कि समाज के एक बड़े हिस्से के समक्ष भाषा को महज रोजगार के जरिए के तौर पर पेश किया जा रहा है। भाषा के  ज्ञान और आलोचनात्मक चेतना विकसित होने का जरिया वाला पहलू गायब किया जा रहा है। अंग्रेजी सीखने-सिखाने का कारोबार चलानेवाले अधिकांश संस्थान ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, जो न तो अपनी भाषा सीख पा रही है और न ही अंग्रेजी। वह अपनी भाषा को हिकारत की नजर से देखती है और सारी बौद्धिक ऊर्जा ज्ञानार्जन के बजाय किसी भी तरह अंग्रेजी सीखने में खपाने में लगी हुई है। किसी तरह मेहनत करके वह इसमें कुशलता हासिल कर भी लेती है, तो भी उसकी अंग्रेजी, उस अभिजात या सुविधाभोगी वर्ग की अंग्रेजी के मुकाबले हीन होती है, जो कई पीढ़ियों से इसका अभ्यास करता आया है। वह पाता है कि अंग्रेजी भी कई  हैं, खुद अंग्रेजी के भीतर भी पदानुक्रम है। कहने का आशय यह कि जिस समाज में वर्ग के आधार पर विभाजन है, श्रम-विभाजन है, श्रम-मूल्य में फासले हैं, उस समाज में खुद अभिजात/उच्च वर्ग द्वारा प्रयोग की जानेवाली भाषा कई रूप अख्तियार कर लेती है। ऐसे में यह वर्ग अपने दायरे में प्रचलित रूप को मानक या आदर्श करार देकर पदानुक्रम को बरकरार रखता है। 

ऐसी बात भी नहीं है कि अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती न मिल रही हो। व्यापक जन समुदाय के बीच इसका प्रचलन न के बराबर है। अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए यह चाहेगी भी नहीं कि इसे ज्यादा-से-ज्यादा लोग इस्तेमाल करने लगें।

कहने की ज़रूरत नहीं कि हिंदी में भाषण देकर और हिंदी-हिंदी का नारा लगाकर वोट उगाहने वाले राजनेताओं ने कभी भी हिंदी के हित में काम नहीं किया, उल्टे हिंदी को अन्य प्रांतों पर आरोपित करने की पहल कर इसके खिलाफ लामबंदी को हवा दी। नीति-निर्माण के लिहाज से वे अंग्रेजी का ही हित पोषण करते रहे। अन्यथा हिंदी प्रदेश के उच्च शिक्षा संस्थानों की आज यह दशा न होती। फिर भी न चाहते हुए भी अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले हिंदी का विस्तार बढ़ता गया है। साहित्य, पत्रकारिता, मनोरंजन, संपर्क-भाषा आदि के स्तर पर जड़ जमा चुकी हिंदी आज एकमात्र ऐसी भारतीय भाषा है, जो अंग्रेजी को उसके अकादमिक और आर्थिक किले से पदच्युत करने का माद्दा रखती है। हिंदी नवजागरण के अध्येता कर्मेंदु शिशिर ने एक बातचीत में कहा कि अंग्रेजी के पीछे पूंजी है, लेकिन साथ ही उसमें खुलापन या नमनीयता भी है। हिंदी में भी वैसा ही खुलापन या नमनीयता है और पूंजी का साथ न मिलने के बावजूद इसका लगातार विकसित होते जाना अंग्रेजी को डराता है। यही वजह है कि अंग्रेजीदां तबके की तरफ यदि किसी भारतीय भाषा पर सबसे तीखे हमले हुए और आज भी हो रहे हैं, वह है हिंदी।

यह जरूर है कि भारत में अकादमिक प्राणी (होमो एकेडेमिक्स) की मान्यता प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी में दीक्षित होना अनिवार्य है।  अकादमिक मठाधीशों के वर्ग द्वारा मान्यता दी जाती है। उनकी नजर में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में अकादमिक अभ्यास नामुमकिन है। कहने की जरूरत नहीं कि यह वर्ग इस तरह यानी भाषा (ओंटोलोजी) और ज्ञान (एपिस्टेमोलोजी) के बीच अनिवार्य रिश्ता तय कर अकादमिक जगत में एक खास वर्ग के वर्चस्व को पुनरुत्पादित करता आया है। यह और बात है कि समय-समय पर खुद इस वर्ग को यह चिंता खासा सताती है कि भाषाई दीवार की वजह से वह व्यापक जन समुदाय से कटा हुआ है। साथ ही, नव-उदारवादी नीति पर चल रही दक्षिणपंथी सरकारें प्राय: उसकी सामाजिक उपयोगिता पर सवाल खड़े करती रहती है। ऐसे में, इस वर्ग के कुछ सदस्य कभी-कभार अकादमिक जगत और भाषा के सवाल को उठाते रहते हैं, लेकिन व्यवहार में उनकी हर संभव कोशिश यही रहती है कि कोई हिंदीभाषी उनकी जमात में शामिल न हो सके।  

फिर भी, हिंदी में अकादमिक अभ्यास करनेवाले समूह का आकार धीरे-धीरे ही सही, बड़ा होता जा रहा है। यहां इसका उल्लेख करना समीचीन होगा कि यह समूह अंग्रेजी विरोधी नहीं है। उसे अंग्रेजी आती है और वह उसमें विकसित ज्ञान-संपदा से भली-भांति वाकिफ है। उसका वह उपयोग भी खूब करता है, लेकिन ज्ञान रचना का काम वह हिंदी में करता है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अंग्रेजी वालों को जब कुछ नहीं सूझता तो वे यह रटा-रटाया फिकरा कस देते हैं कि हिंदी तो संस्कृतनिष्ठ है, सांप्रदायिक है, हिंदी प्रदेश की बोलियों को दबा कर विकसित हुई है आदि, आदि। जबकि हिंदी इन बहसों को पीछे छोड़ बहुत आगे बढ़ चुकी है। यदि अंग्रेजी के पीछे पूंजी की ताकत है तो हिंदी के पीछे समाज की।

 

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शैलेंद्र कुमार सिंह

देश के वरिष्ठ समाजभाषाविद। बहुभाषिकता पर पुस्तकों का लेखन एवं पूर्वोत्तर की भाषिक पारिस्थितिकी की शृंखला का संपादन। पूर्वोतर पर्वतीय विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग के अध्यक्ष।

पूर्वोत्तर में भाषायी विविधता की रक्षा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है

 

भारत एक विशिष्ट बहुभाषिक एवं बहुसांस्कृतिक देश है। 2011 की जनगणना में कुल मातृभाषाओं, भाषिक कोटियों एवं बोलियों की संख्या संपूर्ण भारत में 19,569 दर्ज की गई हैं। उसी जनगणना रिपोर्ट में भाषावैज्ञानिक दृष्टि एवं प्रविधि के आधार पर 1369 भाषाओं को युक्तिसंगत मातृभाषा की कोटि में सम्मिलित किया गया और 1474 को अवर्गीकृत तथा अन्य मातृभाषा की कोटि में रखा गया। पुनः उन 1369 मातृभाषाओं को भाषाओं की कसौटी पर वर्गीकृत करने की कोशिश की गई, जिनकी जनसंख्या 10 हजार या उससे अधिक हो। उक्त मापदंड के आधार पर भारत में 121 भाषाएं हैं, जिनकी दो वैधानिक कोटियां हैं : अनुसूचित एवं गैर-अनुसूचित। भारत में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं की संख्या 22 है, जबकि गैर-अनुसूचित भाषाओं की संख्या 99 है। ज्ञातव्य है कि भारत में अनुसूचित भाषा-भाषियों कि संख्या 96.71 प्रतिशत है एवं गैर-अनुसूचित भाषा-भाषियों की संख्या मात्र 3.29 प्रतिशत है।

पूर्वोत्तर भारत के वैश्विक, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय भाषिक पर्यावास को समझना हमेशा से रोमांचकारी रहा है, क्योंकि यहां भाषिक पर्यावास खुद में एक भाषिक डिस्कोर्स है। पूर्वोत्तर भारत के भाषिक पर्यावास में भिन्नता एवं विचलन की बहिर्मुखी प्रवाहें अखिल भारतीय अंतर्मुखी प्रवाहों के समक्ष समाभिरूपी हो जाती हैं। इस प्रकार वे भारतीय भाषिक समुदाय या अखिल भारतीयता को संवर्धित करती हैं। पूर्वोत्तर भारत के भाषिक पर्यावास में भाषाओं के प्राकृतिक, राजनीतिक एवं भौगोलिकता को क्रमश: अनुसूचित और गैर-अनुसूचित कोटियों के अनुपात की दृष्टि से समझना आवश्यक है। यह अरुणाचल प्रदेश में 27.87 एवं 72.13 प्रतिशत, असम में 92.78 एवं 7.22 प्रतिशत, मणिपुर में 58.20 एवं 41.80 प्रतिशत, मेघालय में 14.65 एवं 85.35 प्रतिशत, मिजोरम में 12.35 एवं 87.65 प्रतिशत, नागालैंड में 11.87 एवं 88.13 प्रतिशत, सिक्किम में 73.64 एवं 26.36 प्रतिशत तथा त्रिपुरा में 69.78 एवं 30.22 प्रतिशत है। यह दर्शाता है कि पूर्वोत्तर में अनुसूचित भाषाओं को बोलनेवाले असम, मणिपुर, सिक्किम एवं त्रिपुरा में बहुसंख्यक हैं, जबकि अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, एवं नगालैंड में अनुसूचित भाषाओं को बोलने वाले  अल्पसंख्यक हैं।

पूर्वोत्तर भाषिक पर्यावास की असमिया, मणिपुरी एवं बोडो अनुसूचित भाषाओं में शामिल है। यद्यपि कई अनुसूचित भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या हर राज्य के भाषिक परिवेश को प्रभावित करने में सक्षम है, जबकि पूर्वोत्तर भारत का भाषिक पर्यावास अदि, अनल, अंगामी आओ, भोटिया, बिष्णुपुरिया, चाकेसांग, चाकरू/छोकरी, चाँग, देउरी, दिमासा, गांगटे, गारो, हलम, मार, कबुइ कार्बी/मीकिर, खासी, खींनुंगा, कोच, कॉम, कोन्यक, कूकी, लाखेर, लालूंग, लेपचा, लियाङ्ग्मे, लिम्बू, लोथा, लुशाई/मिज़ो, माओ, मरम, मरिंग, मिरि/ मिशिंग, मिशमी, मोघ, मोनपा, नीसी, नोक्टे, पैते, पर्जी, पावी, फोम, पोचूरी, राभा, राय, रेंगमा, संगतम, सेमा, शेरपा, तमांग, तंकुल, तांगसा, ठाड़ो, तिब्बतन, त्रिपुरी, वाइफेई, वांचो, यीमचुंग्रे, जेलियांग, जेमी एवं जाऊ भाषाओं से बना है। ये निम्न आधारों पर पूर्वोत्तर भारतीय भाषाई परिवेश को अनोखी बनाती हैं –

(क) न्यूनतम आबादी एवं अधिकतम भाषिक विविधता ः अधिकतम आबादी में अधिकतम भाषिक विविधता का पाया जाना एक साधारण एवं स्वाभाविक यथार्थ है, परंतु किसी भाषिक पर्यावेश में न्यूनतम आबादी में अधिकतम भाषिक विविधता का पाया जाना, उसे विशेष पहचान दिलाती है। पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों में न्यूनतम आबादी में अधिकतम भाषिक विविधता पाया जाना राष्ट्रीय गौरव का विषय है। भारत की कुल आबादी का मात्र 3.76% जनसंख्या पूर्वोत्तर भारत में निवास करती है, परंतु भाषाई विविधता में यह क्षेत्र सभी भारतीय भाषाई क्षेत्रों से आगे है। स्पष्ट है कि भाषिक विविधता इस क्षेत्र में न तो मिथक है, न ही असंतोषजनक, बल्कि आम जीवनयापन का अभिन्न अंग है।

(ख) सहज एवं सघन बहुभाषिकता ः पूर्वोत्तर भारत की बहुभाषिकता सघन और सहज है, जो भारत को विश्व का सर्वश्रेष्ठ भाषिक पर्यावास बनाती है। पूर्वोत्तर भारत का कोई भी राज्य एकल भाषी नहीं है, बल्कि बहुभाषिकता आम जीवन का एक अपरिहार्य अंग एवं सामाजिक क्रिया-कलाप का हिस्सा है।

 पूर्वोत्तर में सघन बहुभाषिकता की प्रचुरता इस क्षेत्र के भाषिक सौंदर्य, सौहार्द एवं माधुर्य को दर्शाता है। पूर्वोत्तर का भाषिक पर्यावास अपनी समग्र, सामयिक एवं पारंपरिक और सांस्कृतिक रिवाजों, अस्मिताओं के दायरे में एक भाषिक संगम है। यह भारतीय राष्ट्र की भाषिक छवि को निखारती है। अपनी बहुभाषिकता को पूर्वोत्तर भारत विनम्र दायित्वबोध के साथ निर्वहन करता है। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र की बहुभाषिकता अविच्छिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रिया है। संपूर्ण पूर्वोत्तर भारतीय भाषाई क्षेत्र को एक सूत्र में बांधने के लिए बहुभाषिकता निश्चित तौर पर आदर्श भाषिक साधन एवं उपांग है, जो भारतीय बहुभाषिकता की विशिष्ट विशेषता है।

(ग) भाषिक प्रकार्यात्मकता ः पूर्वोत्तर भाषाई क्षेत्र की आधारशिला महज भौगोलिक नहीं है, बल्कि संदर्भों में निहित है। इस संपूर्ण क्षेत्र विशेष की बहुभाषिकता समाजिक व्यवस्था के अनुरूप संचालित होती है, क्योंकि भिन्न भाषाओं की भूमिकाएं संदर्भों से निर्धारित होती हैं। क्षेत्र विशेष के अनुरूप भाषाओं की भूमिकाएं बदल जाती हैं। पूर्वोत्तर के भाषिक पर्यावास में हिंदी को विविध भाषिक भूमिकाओं में देखा जा सकता है, जो दरअसल भाषाई प्रकार्यात्मकता की दृष्टि से व्यावहारिक है अन्यथा संप्रेषण की भारतीय कड़ी टूट जाएगी, जैसे अनिवार्य हिंदी, वैकल्पिक हिंदी, अतिरिक्त हिंदी, कामचलाऊ हिंदी, बाजारू हिंदी, इत्यादि। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में जितनी अहम भूमिका पूर्वोत्तर में निभानी पड़ती है, शायद अन्यत्र दुर्लभ है। ज्ञातव्य हो कि इस विशिष्ट भाषिक पर्यावास में औपचारिक एवं गैर-औपचारिक भाषा प्रयोग की दो विशेष धाराएं दिखती हैं, जिनमें अंग्रेजी को प्रमुखता मिली हुई है।

(घ) राष्ट्रीय छवि ः पूर्वोत्तर में त्रिभाषा सूत्र को सहज रूप से स्वीकारा एवं अपनाया गया है, जिससे भारत की भाषिक छवि में निखार आता है। सच तो यह है कि त्रिभाषा सूत्र को लेकर पूर्वोत्तर भारत में न कभी असमंजस की स्थिति रही है और न तो प्रतिरोध की आक्रामक गूंज सुनाई दी है। संपूर्ण पूर्वोत्तर भाषिक पर्यावास में त्रिभाषा सूत्र भारत के अन्य राज्यों से कहीं अधिक है। समग्र भारतीय संदर्भ में त्रिभाषा सूत्र की भूमिका के बारे में बेनेडिक्टर (2009 : 136) ने ठीक ही कहा है, ‘त्रिभाषा सूत्र भारत की बहुभाषिकता का सामना करने के लिए एक जादुई सूत्र है।’ सघन बहुभाषिकता की दृष्टि से त्रिभाषा सूत्र पूर्वोत्तर भारत के भाषिक पर्यावास में कारगर और सार्थक दोनों है, क्योंकि सूत्र में बंधने के बावजूद खुलापन है, जो अन्यत्र संभव नहीं है।

भाषा, राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के जटिल एवं गूढ़ अंतर्संबंधों को भाषिक पर्यावास की परिधि में समझना सर्वथा संगत है, क्योंकि भाषा का वैधानिक निवास स्थान अंततोगत्वा राष्ट्र ही होता है। फिर भी यह सदैव संभव नहीं होता है कि किसी राष्ट्र में उपलब्ध एवं प्रयोग में आनेवाली तमाम भाषाओं का उत्पत्ति- स्थान और प्राकृतिक वास वही राष्ट्र हो। अन्य प्राकृतिक संसाधनों की तरह भाषा भी राष्ट्र की प्राकृतिक संपदा है। इसके संरक्षण की जिम्मेदारी राष्ट्र की होती है। अतः यह समय की मांग है कि पूर्वोत्तर भारत के भाषिक पर्यावास में विद्यमान भाषिक विविधता के संरक्षण की जिम्मेदारी राष्ट्रीय उतरदायित्व एवं कर्तव्य का हिस्सा बने।

भाषाविज्ञान विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग793022 मेघालय

संपर्क सूत्र प्रस्तुतकर्ता : सेंटर फॉर इनडेंजर्ड लैंग्युजेज, विश्व भारती, शांतिनिकेतन, बीरभूम-731235 मो.8005459243