युवा आलोचक। और साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से निरंतर सक्रिय।

कवि-वैशिष्ट्य जैसे इस बात का प्रमाण है कि हर कवि में एक भिन्न संवेदनतंत्र होता है, उसी तरह कविता का युग-वैशिष्ट्य इस बात का प्रमाण है कि कवि का भाव बोध इतिहास के भीतर ही बनता है। ऐतिहासिक शक्तियां उसके भावबोध, समाजबोध और आत्मबोध को गढ़ती हैं। तथापि कवि अपने युग-परिवेश का हताश शिकार नहीं होता। बल्कि वह अपने युग-परिवेश की रचनात्मक शक्ति है, जो उसके नए रूपाकारों और पुनर्निर्माण को संभव करता है। युग और कवि के संबंधों की सुदीर्घ बहस का सरल निचोड़ यह है कि कवि अपने युग-परिवेश से ही दृष्टि एवं दिशा खोजता है तथा उसे नई नैतिकता, नए सौंदर्यबोध और प्रभावी कहन-भंगिमा में ढालता है। अर्थात वह अपने युग को प्रतिबिंबित करने के साथ उसे बदलता भी चलता है। युग और कविता की इस द्वंद्वात्मक प्रक्रिया को समझना मुश्किल नहीं है।

आठवें दशक की कविता में प्रतिनिधि कवियों के कवि-वैशिष्ट्य को आसानी से पहचाना जा सकता है। साथ ही इस पीढ़ी के युगबोध में घर-परिवार, सामाजिक संबंध और करीबी परिवेश की केंद्रीयता को अनेक आलोचकों ने पहचाना है। आठवें दशक का कवि अनाचार, दमन, हिंसा के बरक्स परिवार, परिवेश और सामुदायिकता को रखता है। इसके आगे नवें दशक के कवि सपाट वैश्वीकरण के मुकाबिल छविमय स्थानीयता को रचते हैं तथा जिसे कालक्रम में अंतिम दशक या 21वीं सदी के बुनियाद काल की कविता कहते हैं, उसके पास समाज, समूह या समुदाय की कोई जमीन बचती ही नहीं है। अंतिम दशक की कविता में मनुष्य का व्यक्तिशः संबंध उसके भावबोध में केंद्रीय बन जाता है।

वैश्वीकरण से पहले हमारे सामाजिक-जीवन में कई अंचल और जगहें ऐसी बची हुई थीं, जहां हम बाजार से बाहर शांति खोज सकते थे। वैश्वीकरण ने अबतक किंचित बचे हुए ऐसे अंचलों तथा जगहों को सपाट बना दिया। चेतना की कोई जमीन बची ही नहीं, जहां बाजार से निकलकर जाया जा सके। वैश्वीकरण ने परिवार, गांव, समुदाय, लोक सब कुछ को इस बाजार के भीतर का ही प्रकल्प बना दिया। इसका प्रभाव 20वीं सदी के अंतिम दशक की कविता पर साफ दिखाई पड़ता है। आठवें और नवें दशक की कविता में मौजूद परिवार तथा स्थानीयता के हृद्य और छविमय संसार के टूटते ही चौरस विश्वबोध के शक्ति-संबंध और उसके अंतर्विरोध सामने आ गए। इस पीढ़ी के कवि-व्यक्तित्व में इसकी मूलतः दो तरह की प्रतिक्रिया हुई। पहली तो बहुत आत्मबद्ध किस्म की मनोभावात्मक प्रतिक्रिया है। दूसरी, वैयक्तिक संबंधों, सामाजिक व्यवहारों और राजनीतिक परिघटनाओं के अंतर्विरोधों और द्वंद्वों को कविता में खोलती है। पंकज चतुर्वेदी की काव्य-प्रतिक्रिया इसी तरह की है।

पंकज चतुर्वेदी को अपनी पीढ़ी के अन्य कवियों की अपेक्षा जल्दी पहचान मिल गई। पहली बार उनकी कविताएं 1992 में ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में छपीं। यह आश्चर्यजनक संयोग है कि पंकज चतुर्वेदी की पीढ़ी के अनेक महत्वपूर्ण कवियों की कविताएं पहले-पहल 1992 में ही अलग-अलग पत्रिकाओं में छपीं। दो वर्ष बाद पंकज चतुर्वेदी को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल गया। वे सबसे कम उम्र में यह पुरस्कार हासिल करने वाले कवि हैं।

1998 में ‘एक संपूर्णता के लिए’ शीर्षक से उनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। 2006 में ‘एक ही चेहरा’ शीर्षक से दूसरा संग्रह आया। तीसरा और अनंतिम संग्रह 2015 में ‘रक्तचाप और अन्य कविताएं’ शीर्षक से प्रकाशित व चर्चित हुआ। इसके बाद भी विविध पत्र पत्रिकाओं में उनकी कविताएं प्रकाशित होती रही हैं। लगभग तीन दशक के उनके रचनाकर्म से गुजरते हुए उनके अनुभवों, सपनों, संघर्षों, हताशा और युयुत्सा का एक जिम्मेदार, प्रखर, प्रभावशाली कवि व्यक्तित्व बनता है।

पंकज चतुर्वेदी का काव्यबोध उनके अवचेतन-बिद्ध व्यक्तिनिष्ठ आत्मानुभूतियों के बजाय चेतन-सजग जिम्मेदार नागरिक के सामाजिक-राजनीतिक जीवन की सार्वजनीन परिघटनाओं से बना है। इसलिए इनकी कविताएं पाठकों से बौद्धिक गहनता, संवेदन क्षमता या अतिरिक्त काव्याभ्यास से ज्यादा युग-सजगता की अपेक्षा रखती है। पिछले दशकों में वैश्वीकरण ने नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से निकले मूल्यों, आदर्शों, नैतिकताओं आदि की जड़ें हिला दीं। आज साम्राज्यवाद-विरोध को विकास-विरोधी बताया जा रहा है। अब हमें स्वतंत्रता-समता-बंधुता नहीं, आक्रामक राष्ट्रीय शक्ति की दरकार है।

आज सत्ता-विरोध की आजादी निरापद नहीं है। आप आजादी का एहसास बाजार में मनपसंद ब्रांड चुनते हुए तो कर सकते हैं। जब एक ब्रांड सबको समान मूल्य पर उपलब्ध है, तब समता के लिए संघर्ष बेमतलब है! सौहार्द नागरिक जीवन में नहीं रिसेप्शनिस्ट की मुस्कान में है! इस तरह हमारा पूरा सामाजिक-राजनीतिक जीवन अनगिनत अंतर्विरोधों से भर गया है। जीवन में सांस्कृतिक क्षरण जितना तेज हुआ, धार्मिक उन्माद बढ़ता गया है।

स्त्री-अधिकारों की बहस तो उत्तेजक हुई, परंतु यौन-हिंसा और पशुवत होती गई। राष्ट्रीय समृद्धि के लिए लाखों-लाख लोग अपनी जमीन से विस्थापित हुए। जो घरों में रहे उन्हें विज्ञापनों ने असीमित उपभोग की कामना से उखाड़ दिया। मनुष्य के सामाजिक-सामुदायिक जीवन में इतना तीव्र बदलाव पहले कभी नहीं आया था। कबीर के समय में जो व्यापारिक पूंजीवाद ज्ञान की आंधी का बायस बना था, वह वैश्वीकरण तक पहुंचकर भ्रम, सनसनी, उत्तेजना, हिंसा का बवंडर बन गया। पंकज चतुर्वेदी का काव्यबोध इन्हीं युगीन परिघटनाओं से आवयविक रूप से बंधा हुआ है।

इन सर्वग्रासी स्थितियों से स्मृतियों में पलायन कर जाना अथवा गुलाबी कल्पना में डूब जाना आसान था। परंतु पंकज चतुर्वेदी अनगिनत भ्रंशों, टूटनों, दरारों वाले जोखिम भरे समकाल में खड़े हैं। वे अपने समकाल की इन्हीं दरारों और छिपी हुई संबद्धताओं को कविता में खोलते हैं। वे सामाजिक अंतर्विरोधों के साथ सामूहिक आकांक्षाओं को भी रचते हैं। यहां अंतर्विरोध कथ्य होता है और आकांक्षा उसकी संवेदनात्मक व्यंजना में होती है। अंतर्विरोधी तथ्यों और तर्कों से पैदा हुए संरचनागत तनाव को अभिव्यंजित संवेदनात्मक उद्देश्य ही मुकम्मल काव्यप्रभाव तक ले जाता है- ‘और उद्देश्य यही है कि बचा लूं पतित सुखों के व्यामोह से/अपनी निरपराध दुनिया की करुण साझेदारी।’ वैश्विक बाजार ने पतित सुखों का जो दिव्य संसार रचा है, उससे अपनी मासूम दुनिया की करुण साझेदारी को बचा पाना कोई सामान्य कार्यभार नहीं है।

पंकज चतुर्वेदी का कवि-व्यक्तित्व स्वयं को सामाजिक दायित्वों से प्रतिबद्ध समझता है। कुछ कवि इस सामाजिक दायित्व को अमूर्त और सार्वकालिक प्रश्नों तक खींचकर उसकी क्रियाशीलता छीन लेते हैं। पंकज चतुर्वेदी सामाजिक दायित्व को समय और इतिहास-सापेक्ष समझते हैं। उनकी कविताएं परिस्थिति और परिवेशगत प्रश्न पूछती हैं। इनका जवाब भी सार्वकालिक नहीं होता, वह परिस्थिति सापेक्ष, रणनीतिक और भंगिमा-सजग होता है। ‘एक ऐसे समय में’ जब सच सबसे संदेहास्पद, धुंधला और जोखिम भरा है, तो कवि कहता है-

मैं एक आसान शिकार की तरह/सड़कों पर घूमता हूँ/अपनी वाणी के सच को खोजता हुआ/कि जब सूखा पड़ा हो चारों ओर/तब भी वर्षा इस पर निर्भर है/कि बादल को हमारी पुकार/किस तरह बेधती है।

वाणी का यही सच कविता है। कविता इतिहास-निरपेक्ष सच की वाणी नहीं है। उसका सच पूर्व उपलब्ध नहीं है। हर कविता अपूर्व सच की खोज है। अलबत्ता वह यह भी नहीं जानती कि सच क्या है, इसलिए सच की परिभाषा भी खोजती है। जिसके लिए सच निरपेक्ष और पूर्व-उपलब्ध है, वह कविता में मसीहाई मुद्रा अख्तियार कर लेता है। जिसके पास सौभाग्य से ऐसा सच नहीं है, उसका काम जोखिम भरा है। ऐसे कवियों के लिए कविता सच की जोखिम भरी खोज है। बल्कि सिर्फ सच की ही खोज नहीं, मौलिक सच के अभिव्यक्ति की खोज भी है। अभिव्यक्ति की यह खोज जीवन में क्रियाशीलता के तरीके की खोज है।

आजकल कविता में बाबामुखी सूक्तियां गढ़ी जा रही हैं। ये सूक्तियां आकर्षक लगती हैं। लेकिन इनके पीछे खोज का कोई आत्मसंघर्ष नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए खोटे सिक्के की तरह अतिरिक्त चमकदार होकर भी प्रतिभूतिहीन होती हैं। क्योंकि कवि एक सामान्य मनुष्य है-मटमैला और व्यग्र; वह कोई पैगंबर नहीं है, जिसकी कही हर बात अमर हो। सच के पीछे का संघर्ष ही उसकी प्रतिभूति और विश्वसनीयता का आधार है।

उदास नक्षत्रों/और उघड़ी हुई वासनाओं के बीच/टहलते हुए/उसे एक सच मिलेगा/जिसे लेकर/वह अनशन पर बैठ जाएगा/…देवता चिढ़ाएंगे उसे/और अप्सराएं/उसका मजाक उड़ाएंगी

शायद कुछ दिन तक/याद रहेगा हमें/कि उसने कभी/एक विचार-जैसे दुख/और एक प्रेम-जैसी मुश्किल में/धकेला था/हमारे असहाय समय को

कविता सामान्य मनुष्य का अपने पाए हुए सच के लिए सत्याग्रह है। हम जैसे मटमैले लोगों का सच भी समय-सापेक्ष और धूसर है। हमारा धूसर सच दिव्य सत्यों का दावा करने वाले देव-सम लोगों के लिए उपहास-परिहास का विषय हो सकता है। लेकिन यह धूसर सच दिव्य सत्यों के सामने हतोत्साहित नहीं है। दिव्यता और भव्यता के सामने कविता का यह मटमैला आत्मविश्वास मनुष्यता की उदात्त गरिमा का सार है। यह सच कालजयी होने का स्वप्न नहीं देखता। यह कालजीवी है। बल्कि समकालजीवी बनकर भी धन्य है। वह इतिहास-निर्माता होने का दावा नहीं करता, अपितु इतिहास के किसी बारीक मोड़ पर असहाय समय को ‘विचार-जैसे दुख’ और ‘प्रेम-जैसी मुश्किल’ में हल्की-सी जुम्बिश देकर भी सार्थक है।

आठवें और नवें दशक की कविता में घर, परिवार और स्थानीयता का जो छविमय आत्मग्रंथिल संसार था, उसे इस पीढ़ी के कवियों ने खोल दिया। कुछ वैसे ही जैसे साठोत्तरी कविता ने प्रयोगवादी और नई कविता के आत्मबद्ध मुलायम संसार की सीमाओं को उद्घाटित कर दिया था। पिछली पीढ़ी के कवि सामान्यतः अपनी सामयिक अनुभूतियों को स्मृतिबिद्ध भूगोल में घटाने और मुग्धकारी बिंबों में ढालने की कोशिश करते हैं। पंकज चतुर्वेदी अपनी सामयिक अनुभूतियों को स्मृति और बिंबों में विकसित करने के बजाय, उसे दृष्टि, विचार और ठोस मुहावरों में बदलते हैं। इससे ऐंद्रिकता तो क्षीण हुई, परंतु कविता मुखर होकर सीधी जबान बात करने लगती है। इस काव्यबोध का संकट ऐंद्रिकता की क्षीणता में नहीं है। इसकी दिक्कत बहुवर्णी वस्तुजगत और बृहत्तर मानवेतर सृष्टि से कटकर भाव, विचार, धारणाओं और मुहावरों में फँस जाने से शुरू होती है। पाठक को आद्योपांत यह बात पंकज चतुर्वेदी में खटकती रहती है। यह आश्चर्यजनक लगता है कि अपने लगभग तीन दशक के कविकर्म में पंकज चतुर्वेदी ने इस रंगारंग रूपाकार विशिष्ट संसार के किसी वस्तु पर कोई कविता नहीं लिखी। पहले संग्रह में संकलित ‘दरवाजे’ शीर्षक कविता को कोई यहां दलील की तरह रख सकता है, लेकिन ध्यान से देखने पर पता चल जाएगा कि यहां दरवाजा कवि की धारणाओं का प्रक्षेपित प्रतीक भर है।

पंकज चतुर्वेदी समकालीन जीवन-संदर्भों की जटिलताओं और उसकी विडंबनाओं को वार्तालाप, प्रतिवाद, चुहल, कौतुक, आश्चर्य, हास्य, तंज, सूचनाओं, अफवाहों, अंतरालों और चुप्पियों में अभिव्यक्त करते हैं। उसे किंचित नाटकीयता और कथावृत्ति अंदर से संभाले रखती है। वह कसे विन्यास, चुस्त वाक्य और अपनी मुस्तैद संरचना से धार पा जाती है। इसी युक्ति से पंकज चतुर्वेदी किसी राजनीतिक घटना-परिघटना, वक्तव्य आदि की अंतर्वस्तु का विश्लेषण करते हुए उसके निहितार्थों को सधी हुई अ-आक्रामक मुद्रा में खोलते हैं। इससे कल्पनाजन्य अपरिचित दुनिया के बजाय, पैरों के नीचे की दुनिया के वास्तविक वस्तु-संबंधों का उद्घाटन होता चलता है।

पंकज जी के कवि व्यक्तित्व में युगसुलभ खामोश कायरता से उलट चपल चौकन्नापन है : परिवेश की हर हरकत के प्रति कनकनाया हुआ-सा। बाकी इंद्रियों की अपेक्षा उनका कान ज्यादा संवेदनक्षम है। उनकी कविताओं में शताधिक व्यक्ति-चरित्र मिलते हैं। ये चरित्र पारिवारिक संबंधों से नहीं आते, नागरिक जीवन से आते हैं। उनसे कवि का संबंध व्यक्तिगत और नागरिकवत है। यह बताने की जरूरत नहीं है कि पारिवारिक संबंध के प्रवेश करते ही कविता राजनीतिक अभिव्यंजना से दूर अलग ही भाव संसार में चली जाती है। पंकज जी इन चरित्रों के वक्तव्य और व्यवहार से बड़े सामाजिक सत्यों को खोलते हैं। कोई चाहे तो इन कविताओं को नागरिक संवाद कह ले। ये संवाद अपने अंतर्विरोधों से ही काव्यात्मक निष्पत्तियों को खोलते हैं। उनके वक्तव्यों और संवादों का अंतर्विरोध समय और समाज का अंतर्विरोध होता है। पंकज चतुर्वेदी बड़े कौशल से उसे हमारे सामने रख देते हैं।

कुछ कविताओं में काव्यप्रभाव की अतिरिक्त कामना उन्हें निष्कर्षात्मक उक्तियों तक ले जाती है। इससे न केवल मुकम्मल काव्यप्रभाव बाधित होता है बल्कि कविता में नीचे लटकी हुई-सी उक्तियां काव्य व्यंजना और अनुनाद को सोख लेती हैं। उनकी अनेक ऐसी कविताएं बहुत छोटी चीज के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाती हैं।

इनकी कविताएं जन की तरफदारी में तंत्र से प्रभावी बहस बनने की कामना रखती हैं। अतः सत्ता-तंत्र के बदलते दमनात्मक चरित्र के साथ कविताएं भी बदलती गई हैं। इसका प्रमाण 2015 में प्रकाशित उनके तीसरे संग्रह के बाद पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कविताएं हैं। देश में सर्वसत्तावादी राजनीतिक दल का जनविरोधी चरित्र और चेहरा साफ होने के साथ पंकज जी की कविताओं में भी पुनर्गठन की हलचल और विकलता दिखाई पड़ती है। ये कविताएं व्यक्ति चरित्र, नाटकीयता, कथावृत्ति आदि काव्ययुक्तियों को छोड़कर अपनी ऊर्जा समेटती हुई सीधी बहस की मुद्रा अख्तियार कर लेती हैं। उनके इस दौर की कविताओं में सत्ता से प्रतिवाद का जो अपूर्व बल दिखाई पड़ता है, वह सत्ता से संघर्ष कर रहीं जनवादी ताकतों का आत्मबल है। इन काव्य पंक्तियों की संसक्ति कसी हुई कमानी-सी है-

लोकतंत्र/दबोची हुई निरीहता पर/ताकतवर की मुस्कान है।/अब यह ऐसा समय है/कि जो भी/सच का तरफदार है/वह सत्ता की सहमति से/हत्यारों के/रडार पर है/या फिर/गिरफ्तार है।

हमारे समय की/यह नहीं है मुश्किल/कि उम्मीद नहीं है/बल्कि यह है कि/हत्यारे से उम्मीद है।

इन काव्यांशों की सक्षम तीक्ष्णता लोकतंत्र पर आसन्न संकट के प्रतिवाद की आवश्यकता से पैदा हुई है। भावबोध और रूपविधि का यही बदलाव बाकी कवियों में भी लक्षित होता है। कई अन्य कविता में यह बदलाव इस बात का प्रमाण है कि कविता का उपजीव्य समाज सत्ता से लड़ने हेतु ऊर्जा संचित कर रहा है।

पंकज चतुर्वेदी नजूमियों की तरह भविष्यकथन नहीं करते, परंतु उन्हें क्रियाशील ऐतिहासिक शक्तियों की पहचान है। इसलिए बदलाव के सूत्रों और उसकी संभावित परिणतियों का संकेत करते चलते हैं। हमारा लोकतंत्र वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण के जिस आततायी चेहरे का सामना कर रहा है, उससे प्रतिवाद करने वाली कविता का जन्म भी उसके साथ ही हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि पिछले तीन दशकों से अदृश्य ताकतों से लड़ने की युक्तियां खोजती उनकी कविता दृश्य फासीवादी चरित्र के सामने अपने अपेक्षित साहस और प्रभावी मुखरता से आश्वस्त करती है। जब भी कविता की सामयिक जिम्मेदारियों, मुखरता और प्रभावशाली कहन-भंगिमा की चर्चा होगी, तो वह पंकज चतुर्वेदी की कविताओं के बिना विश्वसनीय नहीं होगी।

संपर्क: तीसरा तल, हाउस न.1, जी.एन.-5, ब्लॉक, हमगिरी एन्क्लेव, संत नगर बुरारी, दिल्ली110084 मो.9990668780