वरिष्ठ कवि। अद्यतन ग़ज़ल संग्रह आओ नई सहर का नया शम्स रोक लें’, कविता संग्रह , ‘चारों दिशाएं संप्रतिएडवोकेट दिल्ली शिमला हाई कोर्ट्स

1
सियासी होशियारी के अदाकारी के मौसम हैं
नहीं तो आ रहे फिर अब गिरफ़्तारी के मौसम हैं

हमारे ‘सच’ में जो हामी भरे हैं देशप्रेमी वो ,
अनोखे आ गये हैं अब वफ़ादारी के मौसम हैं

इधर शोले बरसते हैं पहाड़ों पर मगर यारो
वो ये कहते नहीं थकते बरफ़-बारी के मौसम हैं

सभी मौसम तो उसकी मुट्ठियों में क़ैद हैं भाई
इशारों पर चले उसके महामारी के मौसम हैं

सितारे जब बुलंदी पर ही आकर के ठहर जाएं
बहुत मस्ती भरे होते वो सरदारी के मौसम हैं

समूचा नाश हो जाएगा सब फ़िरक़ापरस्तों का
बड़ी रफ़्तार में हैं सब ये चिंगारी के मौसम हैं

वज़ीफ़ा आप भी ले लें अंगूठा ही लगाना है
ये हाँ में हाँ मिलाने के तरफ़दारी के मौसम हैं

हवाओं में कहां से इतना विष घुलने लगा साथी
‘शलभ’ ये बेबसी के और लाचारी के मौसम हैं।

2
छलावे रूप के जादू भरे दर्पण से चलते हैं
सियासी दांव-धंधे भी तो काले-धन से चलते हैं

ये पपराज़ी के फंडे, चमचमाता रूप, धन, जादू
ये मालो-ज़र के कारोबार, धनशोधन से चलते हैं

नहीं फलती मुहब्बत आजमाने से कभी यारो
मुहब्बत के तो सारे काम अपनेपन से चलते हैं

सियासी मरहमों से दर्द में राहत नहीं मिलती
तिलिस्मी जादुई किरदार परपीड़न से चलते हैं

तेरे इस इश्क़ में हमने कभी वुक़्अत नहीं पाई ,
तेरी गलियों में हम अब भी बड़े बेमन से चलते हैं

पहाड़ी ‘मंज़रों’ पर हैं छलकते ख़ून के छींटे
छलावों के ये चौसर गोलियों और गन से चलते हैं

जिन्हें किरदार के ठहराव में चलना नहीं आया
वही कौवों-से अब अकड़ी हुई गर्दन से चलते हैं

‘मसीहा’ की हैं शह पर चल रहे ‘फ़िक्सर’ ‘शलभ’ जितने
जुगाड़ी फ़ितरतों से और बड़े मंथन से चलते हैं।

3
कोई चिंगारी सुलगे तो, उसे हलके में मत लेना
कोई मजबूर तड़पे तो, उसे हलके में मत लेना

सियासी लोग तो हर मसअले का लुत्फ़ लेते हैं
सियासत ज़ह्र बोए तो, उसे हलके में मत लेना

कोई दहकान करले ख़ुदकुशी क़र्ज़ों से बोझिल हो
कोई सपना ही टूटे तो, उसे हलके में मत लेना ।

कहां हैं सबकी किस्मत में मुहब्बत के हँसी सपने
उन्हें अपना ही लूटे तो, उसे हलके में मत लेना

कमर के टूटने तक ही झुका जा सकता है साथी
सबर का बांध टूटे तो, उसे हलके में मत लेना

धधकती हों दिशाएं और भरा हो डर फ़िज़ाओं में
वतन गर फिर भी सोए तो, उसे हलके में मत लेना

अगर पीपल के पेड़ों से परिंदे डर के उड़ जाएं
‘शलभ’ नाख़ून कुतरे तो, उसे हलके में मत लेना।

4
छुपा के रखते हैं जो दोस्त प्यार की ख़ुशबू
कहां दे पाते हैं वो एतबार की ख़ुशबू

कहीं भी जा बसें हम हैं पहाड़ के बंदें
बसी है मन में तो चीड़- ओ- दयार की ख़ुशबू

ये आत्म-मुग्धता! अपने ही रूप पर करना
ये दर्पण देख के खुद पे निसार की ख़ुशबू

हैं बोनसाई ही उपलब्ध अब तो शहरों में
इन्हीं से आती है अब तो बहार की ख़ुशबू

मैं अपने जह्न से तुझको निकालूं अब कैसे
बसी है रूह में तेरे खुमार की ख़ुशबू

ये तेरे सैंट, ये टाइयां, ये सारे ‘सच’ तेरे
इन्हीं सी झूठी है तेरे सिगार की ख़ुशबू

कभी तो टूटता तारा हमें भी दिख जाए
नसीब हो हमें भी कू-ए-यार की ख़ुशबू

तमाम जिस्म पे गुदवा लिया है नाम तेरा
है ज़ख़्म-ज़ख़्म में अब तो अंगार की ख़ुशबू

मचान बंध गया मज़लूम आने वाला है
हमें तो आ रही है अब शिकार की ख़ुशबू

फ़िज़ा में गूंजती रहती है सिम्फनी जिसकी
‘शलभ’ को भाती है तेरे गिटार की ख़ुशबू।

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