तीन साझा संकलन प्रकाशित

विलुप्त होती स्त्रियाँ

उसने जी लिया था
अपने हिस्से का जीवन शायद
उसके पैरों के निशान
पगडंडियों पर मिल जाएंगे तुम्हें
उसके पंजों की छाप भी
दीवार पर तुम्हें मिलेगी
जिसे पाथा था उसने उपले थापते हुए
बड़े प्रेम से
बड़े जतन से
बड़े इतमीनान से
घर के फर्श लीपते हुए भी
छोटे-छोटे पैरों के चिह्न
छूट गए थे
जो तुम्हें नहीं दिखाई देंगे
उसने कोई निशान
ढिबरी बारते हुए भी छोड़ा होगा
जब सूरज डूब रहा होगा चोरी-चोरी
अस्ताचल की ओर
सूरज की लुका-छिपी का खेल
उसकी लटों में था
झांका होगा उसने चूल्हे की हांडी में
खोली के भीतर की उदासी
बचाई होगी उसने पूरी शिद्दत से
स्त्री इसी तरह
बचाती रहती है तमाम उदासी
थपेड़ों और उन अंधेरों से
जिनमें सीलन होती है
दीवारों पर लगी होती है काई

स्त्री खरोंचती है
तुम्हारे भीतर की काई भी

स्त्रियाँ इसी तरह
विलुप्त हो जाती हैं
छोड़ जाती हैं निशान प्रेम का
जो तुम्हारे माथे पर अंकित होता है।

मछली और स्त्री

क्या एक मछली का
दुख समझ पाओगे
जो अपनी देह के भीतर
कांटों को जज्ब किए हुए
तुम्हारी आंखों में हँसी छोड़ जाती है
और तुम मचल जाते हो
उसकी देह का स्पर्श करने के लिए
उसके होंठों पर
चुंबन अंकित करने के लिए
मछली समुद्र के आभिजात्य के भीतर
जलपरी-सी तैरती हुई दिखाई देती है तुम्हें
शार्क और ऑक्टोपस के आंतक से
अपने को निरापद मान
तुम्हारी आंखों में जादू-सा कर देती है
मछली और स्त्री के दुख में फर्क कहाँ?

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