रमाशंकर सिंह

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में 2018 से 2020 तक फेलो। समाज, संस्कृति, राजनीति पर वायर हिन्दी, क्विंट हिन्दी और जनपथ जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर लगातार लेखन।

हिंदी लोकवृत्त एक जटिल संरचना है जिसमें हिंदीभाषी जन, उनकी भाषा, राजनीति, संस्कृति और इन सभी से निर्मित होने वाला जीवन आ जाता है। यह लोकवृत्त किसी भी स्तर पर समरूप नहीं है और इसे लेकर कोई एक किताबी समझ भी नहीं बनाई जा सकती है। इस खित्ते में नई-नई अस्मिताओं का जन्म हो रहा है और ये अस्मिताएं इस दुनिया को थोड़ा अधिक न्यायपूर्ण, समतामूलक और भागीदारी से युक्त देखना चाहती हैं। इसमें देश के महत्वपूर्ण राजनीतिक विचार, दल एवं व्यक्ति सक्रिय हैं जो हिंदी लोकवृत्त को बदलकर अथवा झुकाकर अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं। चूंकि यह सभी विचार अलग-अलग हैं तो इनके बीच संघर्ष भी रहे हैं।  इनमें एक ही समय और दायरे में आपसी समझ, संघर्ष, प्रतिद्वंद्विता चल रही है।

इसी बीच हिंदी लोकवृत्त में जिस राजनीति का विकास हुआ है,जिस तरह का समाज विकसित हो रहा है, उसे ध्यान से देखे जाने की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में सांप्रदायिकता पहले से थी ही, अब वह किन्हीं महीन रूपों में आ गई है। अब पहले की तरह दंगे नहीं होते हैं, बल्कि एक सतत तनाव सृजित कर दिया जाता है। एक तथ्यविहीन एवं कपोलकल्पित इतिहास और आधारहीन भय के सहारे चुनावी गोलबंदियां अंजाम दी जाती हैं।

दलितों और आदिवासी जनों के खिलाफ़ कलंक, बहिष्करण और निर्योग्यता की उच्च वर्गीय शास्त्रीय रिवायतें इस क्षेत्र में पहले से ही विद्यमान थीं, अब उनमें सांस्थानिक और सामाजिक हिंसा भी भर गई है। घृणा को एक राजनीतिक मूल्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है। दुर्भाग्य से इसमें उच्च शिक्षित भारतीय जन भी शामिल हैं।

इसी प्रकार अब सती प्रथा नहीं है, लेकिन महिलाओं को पीछे धकेल देने की नई प्रविधियां विकसित की जा रही हैं। ट्रांसजेंडर, लेस्बियन, गे, बाई-सेक्सुअल जैसी वैकल्पिक अस्मिताओं ने निजी और सार्वजनिक दायरों पर अपना दावा प्रस्तुत किया है।

इस पृष्ठभूमि में निम्नलिखित सवालों पर यह परिचर्चा है जो अगले अंक में जारी रहेगी। अपने विचार भेज सकते हैं।

सवाल

  1. जब आपके सामने ‘हिंदी लोकवृत्त’पदबंध आता है तो आप क्या सोचती/सोचते हैं?
  2. हिंदी लोकवृत्त की समकालीन दिक्कतें क्या हैं? क्या उनसे निजात पाने का कोई सुचिंतित तरीका संभव है?
  3. क्या यह हिंदी भाषा की ही विशेषता है कि वह एक सामंतवादी, पिछड़े, भेदभावपूर्ण समाज का निर्माण करे या समस्या कहीं और है और हम देख कहीं और रहे हैं?
  4. हिंदी जन-क्षेत्र में आदिवासी, दलित, घुमंतू, मुसलमान, स्त्रियों, ट्रांसजेंडर्स का भविष्य क्या है और वे इसे भविष्य में कैसे रचेंगे?

अजय कुमार

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालयलखनऊ  के समाजशात्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर। दलित आंदोलनदलित नेतृत्वनारीवादी आंदोलनलोकतंत्र एवं छात्र आंदोलन से जुड़े विषयों पर उनके दो दर्जन से अधिक शोध प्रकाशित।

अस्मिता बनानेबिगाड़ने के खेल में मूल कार्यभार से दूर होते गए

1. हिंदी लोकवृत्त का आशय उस समाज के बहस-मुबाहिसे, धर्म, राजनीति और जीवन के रोजमर्रापन से है, जिसमें हिंदी भाषा लिखी और बोली जाती है। लिखने और बोलने से याद आया कि मैं अपने घर में अवधी, वह भी बैसवारी अवधी बोलता हूँ जबकि मैंने खड़ीबोली हिंदी में शिक्षा पाई है और उसमें अपने विचार व्यक्त करता हूँ, सत्ता और शक्ति के आगे उस भाषा में अपनी दरख्वास्त लिखता हूँ। तो इस प्रकार हिंदी लोकवृत्त सत्ता, भाषा और व्यक्ति के बीच एक संरचना के रूप में उभरता है। यह उत्तर भारतीय समाज की तरह ही बहु-स्तरीय है।

औपनिवेशिक काल में, इस दायरे के अंदर भारतेंदु हरिश्चंद्र थे, महावीरप्रसाद द्विवेदी और मैथिलीशरण गुप्त थे तो हीरा डोम भी थे। इसी के कुछ ही समय बाद अछूतानंद जैसे निचली जातियों के लेखकों ने हिंदीभाषी जनों की सार्वजनिक दुनिया को विस्तृत करना आरंभ कर दिया था। अछूतानंद ने तो उत्तर भारत में दलितों को पोस्टकार्ड पर लिख कर, अर्ज़ियों के माध्यम से अंग्रेजी सत्ता के समक्ष अपने हितों की बात रखने को प्रेरित किया ही, दलित समुदायों के लिए लेखन को प्रतिरोध के एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में विकसित करने की प्रेरणा भी दी। दलितों की अभिव्यक्ति को छापने के लिए प्रिंटिंग प्रेस लगाए। स्कूल खुलवाए, आदि हिंदू छात्रावास विकसित किए। उत्तर-भारत के दलितों का पहला अखबार निकाला। उत्तर-प्रदेश के गांव-गांव घूमकर दलित छात्रों को शिक्षा में मदद देने के लिए अपनी हर सभा में उपस्थित लोगों से एक-एक मुट्ठी अनाज देने का आग्रह किया था। इधर, 1980 के बाद के दशक में उभरे नए जनतांत्रिक आंदोलनों, मंडल आयोग, आरक्षण, बसपा के उभार ने भारत में शिक्षा एवं ज्ञान की प्रक्रिया को जनतांत्रीकृत करते हुए उससे दलित समुदायों को जोड़ने की दिशा में महत्वपूर्ण संभावनाएं खोली हैं। बद्रीनारायण इसे ‘दलित पब्लिक की निर्मिति’ कहते हैं। तो, ये सब हिंदी लोकवृत्त के हिस्से हैं। उसे विस्तार देते हैं।

आज हिंदीभाषी उत्तर भारत की जनता को देखें, उसके समाज को देखें, उसकी राजनीति और राजनेताओं को देखें, उसकी शिक्षा को देखें, कृषि को देखें, जनस्वास्थ्य को देखें, आर्थिकी को देखें, विश्वविद्यालयों को देखें, उसकी नौकरशाही को देखें और साथ ही साथ इस समाज में व्याप्तहिंसा, नफरत के विचार को देखें तो कोई बहुत आशाजनक तस्वीर नहीं उभरती है, लेकिन इसी के साथ, बिलकुल इसी समाज में परिवर्तन, प्रतिरोध और लोकतंत्रीकरण की स्थानीय परंपराएं भी गतिशील हैं। इस प्रकार हिंदी लोकवृत्त कीचड़ में धंसा  हुआ समाज है जो इससे बाहर निकलना तो चाहता है, लेकिन इसके लिए जितनी वैचारिक तैयारी की जरूरत है, वह उससे हो नहीं पाती है। वह बहुत जल्दी-जल्दी मुद्दे भी बदलता रहता है इसलिए मानव मुक्ति की परियोजनाएं थोड़ा दूर आगे जाकर बिखर जाती हैं। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राममनोहर लोहिया और सबसे बढ़कर डॉ. अंबेडकर के साथ यही हुआ। उनके अनुयायी और बुद्धिजीवी इसे सतत रूप से आगे नहीं ले जा पाए। फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ के दो चरित्र इसे बहुत अच्छी तरह से प्रकट करते हैं : जोतखी और डॉ. प्रशांत। यहां लोग एक साथ ही डॉक्टर और ज्योतिषी की सलाह लेते हैं। डॉक्टर से कैंसर और कोरोना का इलाज करवाएंगे और ठीक होने पर किसी धार्मिक स्थल पर चढ़ावा चढ़ाएंगे। लोग अस्पताल जाने से पहले किसी देव स्थान पर मत्था टेकते हैं। यह लगातार चलता रहता है। यह तो आने वाला समय बताएगा कि वह हिंदीभाषी जन समुदाय इससे कितना आगे निकल पाएगा। वह अपने आपको जाति, धर्म, जमीन, शिक्षा आदि से उपजी सत्तागत और राजनीतिक असमानताओं से कितना मुक्त कर पाएगा।

2. हिंदी पट्टी को यहां के समाज के आम व्यवहार के तौर-तरीकों से ही समझा जा सकता है।

हिंदी पट्टी में एक अजीब किस्म का घमंडीपन [एरोगेंस] वाला व्यवहार झलकता रहता है। यहां के नागरिक समाज में सहिष्णुता, सहजता बिलकुल गायब है। एक अजीब सा रिएक्शनरी विचार लोगों के जहन में हमेशा मौजूद रहता है, कभी दूसरों को सुनने की आदत नहीं विकसित की, विशेषकर उनको जिनके पास ताकत और सत्ता, जमीन और सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं रही है।

इसी तरह का व्यवहार आप राजनीतिक नेतृत्व के व्यवहार और विचारों में देख सकते हैं। किसी प्रकार का कोई सकारात्मक सहयोगी नजरिया नहीं। जो सत्ता पक्ष के लोग हैं, वह विपक्ष की बात कभी नहीं सुनने वाले, चाहे विपक्ष कितनी ही रचनात्मक बातें कर ले। इस बात को समझने के लिए आप राजनीतिक नेतृत्व के व्यवहार को ही देख लीजिए, कभी किसी सकारात्मक काम को करने के लिए एक साथ बैठकर कभी कोई कोशिश की हो। कम से कम जबसे मैं चेतनशील हुआ हूँ मैंने तो पिछले 21 वर्षों में कभी ऐसा नहीं देखा है। इसके बाद एक बार फिर सार्वजानिक जीवन का यह व्यवहार नागरिक समाज में नीचे तक जाता है और यह यहां के नागरिकों के रोजमर्रा के व्यवहार में परिलक्षित होता रहता है। अब आप देखिए जब आपका व्यवहार ही ऐसा है तो वहांकिसी प्रकार के न्यायपूर्ण विचार और समता आधारित समाज बनाने की कल्पना तो दूर की बात हो जाती है। कभी-कभी यह किताबों और सभा-संगोष्ठियों में संभव तो हो जाता है, लेकिन वास्तविक धरातल पर नहीं उतर पाता है।

इसी के साथ हिंदी पट्टी ने अपने-अपने बैंक खूब बनाए : अपनी-अपनी जातियों  के वोट बैंक, अपने समुदायों के वोट बैंक, धार्मिक वोट बैंक। जब आप इस तरह के राजनीतिक समुदाय और नेतृत्व का निर्माण करते हैं तो वह जवाबदेह नहीं हो सकता, क्योंकि वह हमेशा एक समीकरण की तलाश में रहेगा। यह समीकरण का तमाशा पिछले कई वर्षों से हिंदी जन क्षेत्र में चल रहा है। इसलिए हिंदी पट्टी ने कभी विज्ञान, वैज्ञानिकता, बुनियादी समस्यायों के प्रति जवाबदेही वाला समाज नहीं बनाया।

3. भाषा और समाज अलग-अलग नहीं हैं। कागज पर लिखी हुई भाषा आखिर किसी समाज को ही रिप्रजेंट करती है। जिन समस्याओं की बात यहां की गई है, वह तो भारत के हर हिस्से में दिख जाएगी। इधर कई ‘मूढ़, प्रतिगामी, सांप्रदायिक, संविधान विरोधी’ लोग हर भाषा में दिख रहे हैं। भाषा किसी समाज के गुण प्रदर्शित करती है, उसे अच्छा या बुरा बनाने का काम नहीं करती है। समस्या समाज में है। उसे सुधारना होगा। समाज सुधरेगा, भाषा सुधरेगी। आप बंगाल के पुनर्जागरण को देखें। वहां एक ही समय में अलग-अलग तरह के लोग मिलेंगे। उन्नीसवीं शताब्दी में इक्कीसवीं शताब्दी की बात करने वाले लोग और सातवीं शताब्दी की बात करने वाले लोग मिल जाएंगे। और आप हिंदी भाषा में राहुल सांकृत्यायन को भला कैसे भूल सकते हैं। स्त्रियों, दलितों, घुमंतुओं, किसानों के साथ खड़ा हुआ यह विद्वान पूरी तरह से हिंदी का विद्वान है। इस भाषा में कबीर और सूरदास हैं तो तुलसीदास और बिहारी भी हैं। दरअसल यह एक बौद्धिक काहिलपना है जो उत्तर भारत की परतदार सामाजिक संरचना, उसकी असफलता और सपने को समझ नहीं पाते हैं या कह लीजिए समझना नहीं चाहते हैं। वे भाषा पर यह तोहमत लगा कर भाग लेते हैं। मजेदार बात यह है कि ऐसे लोग उत्तर भारत में बहुतायत में मिलते हैं।

4. भारतीय संविधान में कमजोर समुदायों को तमाम तरह के संरक्षणवादी अधिकार दिए जाने के बावजूद हिंदी पट्टी ने ये कभी स्वीकार ही नहीं किया कि यह समूह भी इंसानी जीवन की बुनियादी हसरतें पाल सकते हैं, इन्हें भी जीने का हक है। भारतीय समाज में इन्हेंअधिक जरूरत थी सुरक्षा और संरक्षण देने की, लेकिन जब ये काम नहीं हुआ तो वे एकदम से उठ खड़े हुए और अपनी अस्मिता बनाने लगे। बहुत हद तक उन्हें सफलता भी मिली,लेकिन अस्मिता निर्मिति के चक्कर में वे इतना आगे निकल गए कि जिसके लिए उनका उभार हुआ था [बुनियादी समस्याओं के हल और संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त करने की भिन्न रणनीतियां] वह काम पीछे छोड़कर वे सिर्फ अस्मिता बनाने और बिगाड़ने के काम में ही लगे रहे और अपने मूल कार्यभारों से दूर, बहुत दूर हो गए।

आपने आदिवासी, दलित, घुमंतू, मुसलमान, स्त्रियों, ट्रांसजेंडर्स की बात की है। लगता है कि आप राजनीतिक रूप से दुरुस्त होना चाहते हैं। यह ठीक है। इन सभी समूहों पर अलग से चर्चा की जरूरत है। खुद ‘वागर्थ’ सहित देश की कई जानी-मानी पत्रिकाएं ऐसा कर रही हैं। इनका वही भविष्य होगा जो इस देश का भविष्य होगा। आप किसी दलित महिला, मुस्लिम महिला, आदिवासी महिला को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकते हैं।

इधर कुछ नौजवान लोगों ने घुमंतुओं पर काम किया है, लेस्बियन, गे, ट्रांसजेंडर्स और अन्य वैकल्पिक अस्मिताओं के लोग मुखर हो रहे हैं। उन्हें कानूनी संरक्षण मिल रहे हैं। आप इलाहाबाद के धर्मेश और उनके साथियों की बात बता रहे थे, ऐसे ही नौजवान छोटी-छोटी जगहों पर भारत का भविष्य सुधार रहे हैं। मैंने लखनऊ, उन्नाव, कानपुर, शिमला में देखा है कि बिलकुल अनाम युवक और युवतियां बेहतर काम कर रहे हैं। वे कोई सेलिब्रिटी नहीं हैं, बड़े पत्रकार और प्रोफेसर नहीं हैं, लेकिन एक बेहतर कल की आशा में काम किए जा रहे हैं। हमें उनका नैतिक, राजनीतिक और आर्थिक समर्थन करना चाहिए। बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दो बातें कीं : एक तो ‘पे बैक टू सोसाइटी’ और दूसरी बात संवैधानिक तरीके से समता, न्याय, करुणा और मैत्री आधारित समाज बनाने की। यह दोनों बातें कम से कम पढ़े-लिखे लोगों के जीवन और आचरण में उतरे फिर वह सबके बीच फैले। जो किसी तरह से सक्षम हैं, उन्हें अक्षम लोगों का साथ देना चाहिए, और उन्हें देना ही होगा। सब एक दूसरे का साथ दें, तब जाकर कोई बात बनेगी।

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,समाजशात्र विभाग, अंबेडकर अध्ययन विद्यापीठ  बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ-226025 / मो.9838205100, 9415159762, इमेल: iiasajayk@gmail.com

अमितेश कुमार

सिनेमा, रंगमंच और साहित्य पर सक्रिय लेखन। इस्मत चुगताई पर इस्मत आपानाम की किताब का संपादन। एनडीटीवी इंडिया में भी कार्यरत रहे। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक प्रोफेसर।

सार्वजनिक विमर्श से बेहतर भविष्य का रास्ता खुलेगा

1. एक ऐसा जनक्षेत्र जिसने ऐतिहासिक आवश्यकता के कारण अपनी बोलियों को पीछे रखकर एक सामूहिक विमर्श के निर्माण के लिए हिंदी को अपनी भाषा बनाया और इसी में एक सशक्त राजनीतिक विमर्श की रचना की, लेकिन सर्वांगीण विकास के विमर्श में पीछे रह गया और भूमंडलीकरण के दबाव से राजनीति का जैसे जैसे विस्तार हुआ मानवीय सूचकांक में पिछड़ता चला गया और एक ऐसी पट्टी में बदल गया जिसमें उपभोग करने की प्रवृत्ति अधिक है, उत्पादन की कम, और यह चाहे उपभोक्ता वस्तु का उपभोग हो या ज्ञान का। एक बात और ध्यान में आती है कि जाति, धर्म और लिंग की चेतना इस पट्टी पर इतनी हावी रही कि स्वतंत्र चेतना के निर्माण में बाधा आई और जिसके लिए की गई कोशिशें भी आबादी की तुलना में नाकाफी रहीं।

हिंदी पट्टी बाहर की दुनिया के लिए एक वैचारिक पूर्वग्रह भी निर्मित करती रही है और उसे सरलीकृत तरीके से देखा जाता रहा है, जबकि भीतर से इसमें हलचल मौजूद हैं।कई स्तर हैं जिसके समुचित अध्ययन के बिना इसकी आधी अधूरी समझ ही बनेगी।

2. ज्ञान की उपेक्षा और तिकड़म को आचरण की तरह स्वीकार कर लेना भी इस क्षेत्र की दिक्कत है। कथनी और करनी में फर्क करते हुए जीने की कला में इस क्षेत्र के लोग दक्ष हैं।

जड़ता में रहना और यथास्थिति से बाहर निकलने वाली प्रक्रिया का विरोध समाज के हर तबके में होता है, लेकिन हिंदी पट्टी की सबसे बड़ी दिक्कत है जातिवाद और पितृसत्ता को बनाए रखने की जबरदस्त चाह। परिवर्तन की कोई भी प्रक्रिया इस चाह के आगे दम तोड़ देती है।

प्रगतिशील कहलाए जाने वाले बौद्धिक भी अपने निजी अभ्यास में वर्चस्व को बरकरार रखना चाहते हैं और इसी आधार पर गोलबंदी करते हैं। इससे निजात पाने का जो मुख्य तरीका समझ में आता है वह है रैडिकल सोच वाले बौद्धिकों का उभार, जो लिंग और जाति की शब्दावली से बाहर निकल कर समाज को आगे ले जाने की सोचें।इसमें दिक्कतें होंगी, लेकिन सामूहिक प्रक्रिया के द्वारा नवीन शिक्षितों में, खासकर अधीनस्थ जाति और लिंग में वर्चस्व से बाहर निकलने की आकांक्षा का प्रसार कर ऐसा किया जा सकता है।

हिंदी भाषा में ज्ञान उत्पादन कर और इसके समावेशी स्वरूप बनाए रख कर भी हिंदी पट्टी की दिक्कतों से निजात पाया जा सकता है, लेकिन जरूरी है कि प्रगतिशील सोच को बढ़ाने वाली सामग्री का निर्माण हिंदी भाषा में हो जिससे अधिक से अधिक लोग इसके दायरे में आ सकें। अंग्रेजी के भरोसे बहुत कुछ नहीं छोड़ा जा सकता।

3. हिंदी भाषा में लैंगिक चेतना तो हावी है, लेकिन एक सामंतवादी, पिछड़े, भेदभावपूर्ण समाज केनिर्माण के मूल में भाषा नहीं है। समस्या कहीं और है। वह जीवन शैली में है जो किसी दूसरी भाषा में भी अभ्यास के जरिए शामिल हो जाएगी और हो जाती है, वरना हिंदी पट्टी में अंग्रेजी के बढ़ते जाने से ही ये समस्याएं दूर हो जानी चाहिए थीं। दरअसल दिक्कत वहां भी है जहां हमने अपनी जीवनशैली की बुनियाद को आधुनिकता की हर चेतना से मुक्त रखने की कोशिश की है और बाहरी जीवन में आधुनिकता को स्वीकार किया है। आंतरिक वृत्त के ऊपर आत्मविश्वास इतना गहरा है कि इसमें हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होता इसलिए इसको तोड़ सकना भी आसान नहीं है। और हमारा अधिकांश जीवन व्यवहार, जिससे हमारा मानस निर्मित होता है, उस पर इस आंतरिक वृत्त का जबरदस्त प्रभाव होता है। बहुत से लोग इसको पहचान भी नहीं पाते। इसलिए उनको अपने आचरण की द्वैधता में कोई समस्या ही नहीं दिखती और वे इसे सहज मानते हैं। आधुनिक संस्थानों में काम करते हुए भी हमारा निजी आचरण आधुनिकता से मुक्त रहता है जिस पर तर्क की जगह भावनाएं और स्वार्थ हावी रहती हैं। लोकतांत्रिक संस्थानों को अपनाते हुए उसमें काम करते हुए भी हम लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर रहते हैं। हमने बाहर और भीतर के आचरण में एक स्पष्ट दूरी बना ली है और इसको पाटे बिना एक विकसित सार्वभौमिक समाज बनाना मुश्किल है।

4. भविष्य इन्हीं का है। विश्वविद्यालय के अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि परिसरों में अब बड़ी संख्या इन वर्गों के छात्रों की आ रही है और अधिकांश इस चेतना से लैस होते हैं कि शिक्षा उनके जीवन में बदलाव ला सकती है इसलिए वे तैयारी भी करते हैं। उनको चाहिए बेहतरीन शैक्षिक परिसर।

यह अनायास नहीं है कि उच्च शिक्षा केसार्वजनिक परिसरों पर सत्ता प्रतिष्ठान सर्वाधिक हमलावर है और इसको कमजोर करने की बहुस्तरीय कोशिशें हो रही हैं जिसका एक उदाहरण है शिक्षकों की नियमित नियुक्ति नहीं होना। परिसर के परिसर तदर्थवाद के शिकार हैं और यह सामान्य मनोविज्ञान है कि असुरक्षित शिक्षक साहस की शिक्षा नहीं दे सकता।

अपवाद हो सकते हैं। निजी शैक्षिक संस्थानों का उभार भी एक समस्या है जो अंतत: शिक्षा को उपभोक्ता सामग्री बना देगा और इस वर्ग के पास अभी शिक्षा खरीद सकने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। निजी शिक्षण वैसे भी अंग्रेजी आश्रित है और यह वर्ग अधिकांशत: हिंदी के भरोसे है। तो हिंदी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।

हिंदी पट्टी में ही हिंदी अब कमजोर और आर्थिक रूप से कम संपन्न लोगों की भाषा बन गई है, और ये सभी वर्ग ऐसे ही हैं। ये सब मिल कर हिंदी के एक विशाल पाठक वर्ग का निर्माण करते हैं और इन तक पहुंचने के लिए हिंदी की सभी अभिव्यक्तियों को इन्हें स्पेस देना होगा। और इस वर्ग की प्रामाणिक अभिव्यक्तियों के लिए हमें इस वर्ग द्वारा रचे गए आख्यानों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए यह वर्ग अपनी पीड़ा, अपना उल्लास, अपने भविष्य का नक्शा इस भाषा में रचेंगे, जिसे सार्वजनिक विमर्श में जगह देना ही होगा। राजनीतिक और मुक्तिकामी चेतना का प्रसार जैसे जैसे इस वर्ग में होता जाएगा सार्वजनिक विमर्श में इनका दबाव दिखने लगेगा। ऐसा नहीं है कि सार्वजनिक विमर्श आसानी से इनके लिए रास्ता बना देगा, बल्कि वह तो अपने को छली तरीके से इनके पक्ष में दिखाते हुए इनके आख्यानों पर भी अपना कब्जा करना चाहेगी, लेकिन निहित छल को आखिरकार यही वर्ग अनावृत करेगा। धीरे-धीरे संस्थानों पर यह अपने वास्तविक हिस्सेदारी के लिए दबाव बनाएगा, जो दिखने भी लगा है। वर्षों के एकाधिकार को तोड़ना आसान नहीं होगा, प्रगतिशील समुदाय भी इतनी आसानी से जगह नहीं देगा, इसलिए संघर्ष होगा, लेकिन अंतत: एक बेहतर भविष्य का दरवाजा खुलेगा, जिससे समाज में भी बेहतरी आएगी। विविध रंग आपस में मिल कर ही बेहतर सौंदर्य का निर्माण करते हैं, यह हमें ध्यान रखना चाहिए।

हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज- 211002 / मो.9990366404 ईमेल amitesh0@gmail.com

 

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