रमाशंकर सिंह

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में 2018 से 2020 तक फेलो। समाज, संस्कृति, राजनीति पर वायर हिन्दी, क्विंट हिन्दी और जनपथ जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर लगातार लेखन।

हिंदी लोकवृत्त की समस्याएं‘ विषय पर आयोजित परिचर्चा के अंतर्गत पाठकों ने पिछले अंक में पढ़े थे अजय कुमार और अमितेश कुमार के विचार । इस अंक में  हिस्सा ले रहे हैं बसंत त्रिपाठी और कुंवर प्रांजल सिंह ।

परिचर्चा की पृष्ठभूमि में निम्नलिखित सवाल हैं।

सवाल

  1. जब आपके सामने ‘हिंदी लोकवृत्त’पदबंध आता है तो आप क्या सोचती/सोचते हैं?
  2. हिंदी लोकवृत्त की समकालीन दिक्कतें क्या हैं? क्या उनसे निजात पाने का कोई सुचिंतित तरीका संभव है?
  3. क्या यह हिंदी भाषा की ही विशेषता है कि वह एक सामंतवादी, पिछड़े, भेदभावपूर्ण समाज का निर्माण करे या समस्या कहीं और है और हम देख कहीं और रहे हैं?
  4. हिंदी जन-क्षेत्र में आदिवासी, दलित, घुमंतू, मुसलमान, स्त्रियों, ट्रांसजेंडर्स का भविष्य क्या है और वे इसे भविष्य में कैसे रचेंगे?

बसंत त्रिपाठी

 इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर । प्रकाशित रचनाएँ मौजूदा हालात को देखते हुए, सहसा कुछ नहीं होता, उत्सव की समाप्ति के बाद (कविता), शब्द (कहानी), प्रसंगवश (आलोचना), राष्ट्रभाषा का सवाल, डॉ. रामविलास शर्मा : जनपक्षधरता की वैचारिकी,मीरांबाई, शृखलाक्रांतिकारियों का जीवनदर्शन (संपादन)

हिंदी लोकवृत्त का वास्तविक निर्माण होना अभी बाकी है। 

1-हिंदी लोकवृत्त कहते ही सबसे पहले इसका भौगोलिक स्वरूप उभरता है और उसके बाद हिंदी भाषा का सीमित या व्यापक प्रयोग करने वाला वह समुदाय, जिसकी जड़ें भौगोलिक रूप से हिंदी क्षेत्रों में हैं। इसमें वह समुदाय भी आ जाता है, जिसने वर्षों तक हिंदी इलाकों में रहते हुए अपनी अन्य भाषिक पहचान या तो खो दी है या वह समय के साथ धुंधली पड़ गई है। चाहे अब वह हिंदी क्षेत्र के बाहर ही क्यों न रह रहा हो। बावजूद इसके, मैं इसकी प्रकृति अंग्रेजी के समानांतर देखता हूँ। जैसे वैश्विक अर्थ में ‘अंग्रेजी लोकवृत्त’ अत्यंत लचीला पदबंध है, ठीक उसी तरह भारतीय अर्थ में ‘हिंदी लोकवृत्त’ पदबंध भी अत्यंत लचीला है। हिंदी लोकवृत्त पदबंध का प्रयोग हिंदी क्षेत्र के बाहर जितना ठोस और परिभाषित लगता है उतना हिंदी क्षेत्र के भीतर नहीं। यहां यह राज्य, क्षेत्र और जनपदीय भाषा में स्पष्ट रूप से विभाजित और कई बार शत्रुवत भी है।

हिंदी लोकवृत्त मराठी, बांग्ला, तमिल, कन्नड़ या इसी तरह के अन्य भाषाई लोकवृत्तों की तरह एक सुदृढ़ पदबंध नहीं है। शाब्दिक रूप में नहीं, बल्कि अपने निहितार्थ में। दरअसल लोकवृत्त के लिए सबसे पहले जिस भाषाई स्वाभिमान की जरूरत होती है उसकी अत्यल्पता ‘हिंदी लोकवृत्त’ संबंधी अवधारणा को बाधित करती है। मुझे लगता है कि इसे अन्य समुदायों के अस्मितामूलक आग्रहों की प्रतिद्वंद्विता में अक्सर राजनीतिक रूप में प्रयुक्त किया जाता है। यह अन्य भाषाई समुदायों की प्रतिक्रिया में खींच-तानकर बैठाया गया और अपनी जरूरतों के अनुरूप प्रयोग में लाया जाने वाला पदबंध है। इसका केवल व्यावहारिक रूप है जिसे किसी हद तक सैद्धांतिक स्वरूप भी दे दिया गया है। लेकिन इसका सांस्कृतिक स्वरूप बिलकुल सुदृढ़ नहीं है।हिंदी, सत्ता तक पहुंचाने वाली ताकत की भाषा भी रही है इसलिए इसका व्यावहारिक उपयोग, बल्कि व्यावहारिक दोहन ही अधिक हुआ है। सर्वभारतीय संपर्क भाषा के रूप में यह एक सुविधा भी है और अहिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों और सामान्य लोगों द्वारा भी हिंदी क्षेत्र पर थोपी गई एक घृणा भी है। व्यावहारिक प्रयोग, घृणा और हीनताबोध के भंवर में फँसे हिंदी क्षेत्र का मौजूदा इतिहास लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। इसलिए हिंदी लोकवृत्त का भौगोलिक परिसीमन तो किया जा सकता है, व्यावहारिक प्रयोग भी महात्मा गांधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया ही है, यद्यपि उनके उद्देश्य में जमीन-आसमान का अंतर है। हिंदी सिनेमा और टेलीविजन ने भी व्याहारिक उपयोग खूब किया है। इन सबके बावजूद हिंदी लोकवृत्त का वास्तविक निर्माण होना अभी बाकी है। केवल भाषा की लोकप्रियता और उसके प्रयोग के विस्तार से लोकवृत्त का निर्माण नहीं होता, जब तक कि उसके भीतर भाषाई स्वाभिमान का आरंभ न हो। हिंदी क्षेत्र में रहने वालों के भीतर यह तभी दिखाई पड़ता है जब क्षेत्र के बाहर अन्य भाषा-भाषियों के समक्ष इसकी राजनीतिक जरूरत पड़ती है। हिंदी क्षेत्र के भीतर वास्तविक रूप में यह बहुत ही कम दिखता है। यह केवल कुछ नागर लोगों में और घर के बाहर दिखाई पड़ता है।

2- हिंदी लोकवृत्त की समकालीन दिक्कतें उसके निर्माण के इतिहास और इसके विस्तार में ही निहित है। मैंने कुछ दूसरे भाषा-भाषी समुदायों को निकट से देखा और महसूस किया है। मैंने लक्ष्य किया कि उसका अभिजन, अंग्रेजी का प्रयोग करते हुए श्रेष्ठता के दंभ से भले भरा हुआ हो, लेकिन अपनी भाषा को लेकर हीनताबोध का शिकार नहीं है। जबकि हिंदी के अभिजन की यह सांस्कृतिक पहचान है। हीनताबोध के इसी मनोविज्ञान के कारण उसका वास्तविक संबंध सामान्य लोगों से हो ही नहीं पाता। इसलिए वह एक आभासी संबंध बनाता है। लोकरीतों के प्रति अभिजन का समय-विशेष का आग्रह व्यापक रूप में उसके इसी मनोविज्ञान का परिणाम है। बहुत विस्तार में न जाते हुए केवल हिंदी क्षेत्रों से संबंधित सिनेमा और वेब सीरीज़ को देखें। मैं इसके निर्माता-निर्देशकों, लेखकों के नजरिए से नहीं, बल्कि इसकी लोकप्रियता के नजरिए से बात कर रहा हूँ। ये अधिकतर हिंसा, राजनीतिक उठापटक, राष्ट्रभक्ति और मर्दवाद से भरे हैं। और खासे लोकप्रिय भी हैं। यानी हिंदी और अहिंदी समुदाय, दोनों ने मान लिया है कि यही उसकी पहचान है। बेशक, एक अर्थ में कहा जा सकता है कि निर्देशकों-लेखकों ने हिंदी समाज का सच सामने लाया है। फिर भी, ये कोई ऐसा सच नहीं है जिसे अन्य लोग नहीं जानते। बल्कि देखा जाए तो हिंदी जन-समुदाय को अन्य लोग इसी रूप में जानते हैं। इसमें सामान्य लोगों का जीवन लगभग नदारत है। यदि सीमित मात्रा में है भी, तो उसे लोकप्रियता नहीं मिली है। ऐसी फिल्में और धारावाहिक अभिजन के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पिछड़ेपन को सामने तो लाते हैं, लेकिन सामान्य कर्मठ कामकाजियों के जीवन को हाशिए पर भी डाल देते हैं। सिनेमा या सीरीज़ में कुछ चीजें आम हैं। एक उदाहरण जश्न का ही लें। यदि जश्न का दृश्य होगा तो लंबी नलियों वाली रायफलें चलेंगी, फूहड़ अंदाज में एक स्त्री किसी लोकभाषा में एक कामुक गीत पेश करेगी। सामने के एक भव्य सोफे में दो-तीन दबंग बैठे होंगे। इसी तरह मंच पर नाटक पेश होगा तो वह रामायण आधारित होगा। मुझे अब भी उस दिन का इंतजार है जब सिनेमा या वेब सीरीज़ के जश्न में कोई बड़ा गायक या नर्तक या कवि-शायर अपनी कला का प्रदर्शन करता हुआ दिखाई पड़े! हिंदी लोकवृत्त की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि दिमागी रूप से दिवालियेपन से ग्रसित तबका इसका प्रतिनिधित्व करता है जबकि इसका कामकाजी तबका अभी तक शक्ति-केंद्रिकता की दृष्टि से हाशिए पर है। जब तक सामाजिक और राजनीतिक संबंध संवादधर्मी और प्रबोधनकारी नहीं होंगे तब तक वास्तविक छुटकारा संभव नहीं है। कथनी और करनी का फर्क और घर और बाहर का फर्क जितना कम होगा, उतना ही यह समाज सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से उन्नत होगा। सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति ही वास्तविक रूप में आर्थिक और राजनीतिक उन्नति लेकर आएगी।

3- हिंदी समाज में वे दिक्कतें तो हैं जिनका जिक्र आपने अपने प्रश्न में किया है। लेकिन इसके लिए भाषा जिम्मेदार नहीं है। कोई भी भाषा अपने आपमें पिछड़ी या समृद्ध नहीं होती। उसका विकास या अवरोध ही उसे समृद्ध या पिछड़ा बनाता है। हिंदी पिछड़ी भाषा नहीं है। बल्कि भाषा के स्तर पर हिंदी ने एक शताब्दी में जितनी उन्नति की है वह दुनिया के भाषाई इतिहास के लिहाज से दुर्लभ है। समाज, साहित्य और संस्कृति के जितने विमर्श इस भाषा में उपलब्ध हैं उतना अन्य किसी भी भारतीय भाषा में नहीं। यह अलग बात है कि व्यापक रूप से उस विमर्श ने अभी हिंदी क्षेत्र की मानसिकता के निर्माण में महती भूमिका नहीं निभाई है। इसमें दोष उन लोगों का है जिन्होंने समर्थ होने के बावजूद हिंदी भाषा-भाषी समाज की उन्नति की दिशा में आगे बढ़ने की अपेक्षा अपनी निजी उन्नति को तरजीह दी। हिंदी क्षेत्र विविध है। इसके भीतर की उपराष्ट्रीयताएँ बहुत ताकतवर और अपने वृत्त में दंभी भी हैं। चूंकि सांस्कृतिक-प्रबोधन और औद्योगिकीकरण की दृष्टि से इसका समुचित विकास नहीं हुआ, संवाद के नए स्वर उद्घाटित नहीं हुए, इसलिए उपराष्ट्रीयताओं ने अपनी पहचान को दूसरी उपराष्ट्रीय पहचानों से श्रेष्ठ माना। हिंदी क्षेत्र की सीमा के भीतर भोजपुरी, अवधी, ब्रज, छत्तीसगढ़ी, मालवी, बुंदेली या राजस्थानी पहचान की दावेदारी और आक्रामकता से हम परिचित ही हैं। कुछ सीमित क्षेत्रों को छोड़ दें तो हिंदी क्षेत्र अब भी खेतिहर समाज की पहचान और उसके आदर्शों को अंदरूनी तौर पर स्वीकार करता है, जिसके स्वरूप का निर्धारण भूस्वामियों और सामंतों ने किया है। जो तबका खेतिहर समाज की रीढ़ है उसे उसका दाय नहीं मिला। अन्य हिंदीतर क्षेत्रों में भी ऐसी स्थितियां रही हैं। लेकिन बाद में उत्पादन संबंधों के बदलने और नए अवसरों के पैदा होने से प्राचीन सामाजिक संबंधों में शिथिलता आई। ऐसा हिंदी क्षेत्रों में बहुत न्यून स्तर पर हुआ। हिंदी क्षेत्र पर आज भी कथित ऊंची जातियों का वर्चस्व है। ज्यादा साफ शब्दों में कहें तो ब्राह्मण, भूमिहार और ठाकुरों का। इसके अलावा कायस्थों की स्थिति भी मजबूत है। जबकि अन्यों की स्थिति बहुत निम्नतर है। कथित पिछड़ी जातियों (ओबीसी) और दलितों के राजनीतिक उभार के बावजूद उनके प्रति कथित उच्च जातियों की मानसिक स्थितियों में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। (मैं ‘कथित’ शब्द का प्रयोग जानबूझकर कर रहा हूँ, क्योंकि जाति-इतिहास में उच्चता और निम्नता सार्वभौम नहीं होती) उत्तर प्रदेश और बिहार में यही स्थिति है। मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ की स्थिति जाति के लिहाज से जरा अलग है, लेकिन वहां भी प्रभुत्व कुछ खास जातियों का ही है। अन्य क्षेत्र के उदाहरण भी इससे भिन्न नहीं हैं।

इसके साथ ही इस समाज के मध्यवर्ग का स्वप्न अधिकतर नौकरी के रूप में रोजगार से जुड़ना है, क्योंकि आर्थिक अवसर बहुत ज्यादा नहीं हैं। सीमित नौकरियों के कारण हिंदी क्षेत्र के भीतर रहने वाला नौकरीशुदा तबका अपने आपको किसी साहब से कम नहीं समझता। हिंदी समाज भी उसे इसी रूप में देखता है। नौकरीशुदा लोगों के साहबी ठाठ का ऐसा विद्रूप चित्र हिंदी क्षेत्र, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार के अलावा कहीं और इस रूप में आपको नहीं दिखाई पड़ेगा। आप हिंदी क्षेत्र के भीतर और बाहर रहने वाले समान पद पर कार्यरत दो भिन्न लोगों के व्यवहार की तुलना कर इसे समझ सकते हैं। इसे केवल औपनिवेशिक मानसिकता मानना भूल होगी। हिंदी क्षेत्र की वास्तविक समस्या यही है। यहां का अधिकतर अभिजन शातिर और काइयां किस्म का है जबकि कामकाजी जन उदार और विनीत। अभिजन आधुनिक राज्य के नागरिक नियम-पालन को हर वक्त धता बताने को उत्सुक रहता है। कामकाजी जनता अभी भी सामाजिक और आर्थिक रूप से समृद्ध और उन्नत नहीं हुई है।

4- विगत तीन दशकों में सीमित उभार के बावजूद अधिकतर शक्ति के नियंत्रित वितरण पर जैसे-तैसे गुजारा करते हुए दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, ट्रांसजेंडरों सहित अन्य समान स्थिति में अवस्थित समुदाय ने अभी तक अपनी दावेदारी इस रूप में पेश ही नहीं की ताकि उसे बराबरी का दर्जा मिले, उसे सम्मान की नजर से देखा जाए। मुसलमानों की स्थिति जरा अलग रही है, लेकिन अब उन्हें ‘अन्य’ में ठेल देने की मुहिम तेज हुई है। किसी समुदाय विशेष की उन्नति से संतुलन में बदलाव तब तक नहीं आता जब तक उसे स्वीकार करने के मन का निर्माण न हो। सत्ता में भागीदारी से शक्ति-संतुलन में तात्कालिक बदलाव होते हैं, लेकिन यह हर समस्या का निदान नहीं है। महाराष्ट्र या दक्षिण के समाजों में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष के साझा मंच निर्मित हुए, आर्थिक दृष्टि से, विशेषकर श्रमशीलता की दृष्टि से, वे केंद्र में तो थे ही। चीजें पूरी तरह सुधर ही गईं, ऐसा तो नहीं है, लेकिन उनके भीतर आत्मसम्मान, प्रतिस्पर्द्धा और चुनौती की भावना प्रबल हुई। परिणाम यह हुआ कि पुराने ताकतवर समुदाय भी उन्हें स्वीकारने पर विवश हुए। दावेदारी और संवाद, चाहे जितने सीमित रूप में क्यों न हों, लेकिन शुरू अवश्य हुए। हिंदी जनक्षेत्र में इसके तो अभी अंखुए भी ठीक ढंग से नहीं फूटे हैं। इसकी तसदीक आप किसी एक दिन में अखबारों में छपने वाले समस्त नामों की सूची बनाकर देख सकते हैं। अच्छे और बुरे, दोनों ही तरह के कामों में कुछ खास समुदायों के ही उल्लेख मिलेंगे। ऐसा लगेगा जैसे ये समुदाय ही समाज को चला रहे हैं। ताकत के केंद्र में होने के बावजूद कथित नेतृत्व के दंभ में चूर यह तबका मूलतः परजीवी और दंभी है। बेशक अपवाद भी हैं, लेकिन वे अपवाद ही हैं। सत्ता में भागीदारी के लिए शक्ति-प्रदर्शन आवश्यक है, लेकिन उसे संवादधर्मी भी होना होगा। फिलहाल इसके चिह्न कम दिख रहे हैं। हिंदी क्षेत्र की कथित उच्च जातियों के सांस्कृतिक और सामाजिक दुराग्रहों को संवाद, प्रबोधन और शक्ति के जरिए, जब तक हीनतर रुचियां नहीं सिद्ध की जाएगीं और जब तक हाशिए का तबका इसके प्रति जागरूक नहीं होगा तब तक स्थितियां नहीं बदलेंगी। राजनीतिक दावेदारियां तो हैं, लेकिन उससे काम नहीं चलने वाला। एक और बात खास तौर पर गौर करने लायक है। हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की बात करें तो वे सभी हिंदी समाज की चिंता करते हुए उसके सामंती और संकीर्ण होने पर आक्रामक दिखाई देंगे (आप मुझे भी इससे ग्रस्त मानें) फिर भी अपेक्षित बदलाव नहीं है। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह विरोध केवल पाखंड और दिखावा ही है। भविष्य में, अभिजनों के इस छद्म का वही लोग पर्दाफाश करेंगे, जिसका जिक्र आपने अपने इस प्रश्न में किया है।

 

हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
302, बृज हरि अपार्टमेंट, ड्रमंड रोड, अशोक नगर, प्रयागराज 211001
मो 9850313062/ ई-मेल –  basantgtripathi@gmail।com

कुँवर प्रांजल सिंह

दिल्ली  विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के शोधार्थी। ज़ाकिर हुसैन कालेज, दिल्ली से सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट द्वारा सम्मानित। सीएसडीएस के जर्नल प्रतिमान में लगातार लिखते रहे हैं। उत्तर भारत की समकालीन राजनीति और समाज को समझने में विशेष रुचि।

हम ही हिंदी लोकवृत्त को और सर्वग्राही बना सकते हैं।

1- हिंदी लोकवृत्त को पदबंध या ‘टर्म’ कहना एक प्रकार का उतावलापन हो सकता है। लोकवृत्त जिस अंग्रेजी पद का अनुवाद है, वह ‘पब्लिक स्फीयर’ समाज विज्ञान के अनुशासनों में एक ऐसे दायरे के रूप में अंकित है, जिसमें संस्कृति और समुदाय के बीच अन्योन्यक्रिया चलती रहती है। इसके साथ ‘पब्लिक स्फीयर’ की गतिविधियां किसी मुद्दे पर आम राय बनाने और उसके जरिए राजतंत्र को प्रभावित करने का कार्य करती हैं, लेकिन हिंदी के लोकवृत्त में ही सिर्फ ये प्रवृत्तियां पाई जाती हैं, यह कह पाना अभी सैद्धांतिक तौर पर सही नहीं है और इसके पुख्ता सबूत भी नहीं हैं कि देश के अन्य हिस्सों में ये नहीं पाई जाती हैं। लोकवृत्त को हिंदी से जोड़ते ही एक संकुचित भाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि हिंदी किसी भी प्रकार से अन्य भाषा की तरह स्वतंत्र भाषा नहीं है, यह अपने साथ कई भाषाओं को मिलाकर अपना रूप संवारती रहती है। इसलिए हिंदी लोकवृत्त से ज्यादा उचित इसे हिंदुस्तानी लोकवृत्त कहना बेहतर होगा। इससे हम हिंदी की दुनिया से इतर अन्य भाषाओं में होने वाली सामुदायिक प्रक्रियाओं, उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक वास्तविकता के मर्म को समझ सकेंगे, मसलन, बिरहा, लौंडा नाच, कीर्तन आदि भी तो इसी लोकवृत्त के भाग हैं। इसे सिर्फ हिंदी कह कर परिभाषित नहीं किया जा सकता,बल्कि इसमें शामिल लोगों के नजरिए पर भी बात करनी होगी कि वे अपने आसपास के लोकवृत्त को कैसे बनाते हैं, वे अपने बारे में क्या सोचते हैं, दूसरे लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। मसलन, जौनपुर, आजमगढ़ या आरा में नौटंकी में काम करने वाले लोग जब स्टेज पर होते हैं और जब वे अपने नितांत निजी स्पेस में होते हैं तो समाज के बारे में क्या राय रखते होंगे। समाज भी उनके बारे में क्या राय बनाता है- हमें इस पर सोचना होगा।

2- मुझे लगता है कि हिंदी लोकवृत्त को लेकर कई समस्याएं हैं। एक तो यह कि हिंदी के आशय को कभी भी स्पष्ट नहीं किया गया है, क्योंकि जिस आधुनिकता की उपज हिंदी रही है वह सिर्फ भाषा का ही आधार नहीं बनती, बल्कि राजनीति और समाज को भी अभिव्यक्त करने का आधार तय करती रही है। दूसरी समस्या, ऐतिहासिक रूप से लोकवृत्त हालिया में प्रयोग किया जाने वाला पद है। एक भाषा के रूप में हिंदी के विकास और लोकवृत्त की अवधारणा के प्रचलन में आने के बीच शताब्दियों का फासला है। यह पद भी किस प्रकार संयोजित हुआ है, यह अभी भी बहस का एक मुद्दा है। तीसरी समस्या लोक संस्कृति को लेकर आती है जहां हमें तय करना होगा कि लोकवृत्त के लोक का संस्कृति से किस प्रकार अन्योन्यक्रिया हो रही है। मेरे हिसाब से इस पक्ष को और बारीकी से देखने की जरूरत है जिससे हम हिंदी लोकवृत्त को और सर्वग्राही और कॉस्मोपॉलिटन बना सकते हैं।

3- यह सवाल एक तरह से अटपटा भी है और एक प्रकार से जरूरी सवाल है। हिंदी भाषा के साथ सामंतवाद और भेदभाव जैसे शब्दों को जोड़ना एक ऐसी मानसिकता के कारण होता है जहां राजधानी, सत्ता और अंग्रेजी भाषा का त्रिभुज काम करता है जो इसे कभी राष्ट्रभाषा बनने की उन्मत्तता और कभी इसे सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाने वाली भाषा के तौर पर प्रस्तुत करता है। यह जल्दबाजी तो है ही, यह एक किस्म की शरारत भी है। इसी के साथ कभी-कभी हिंदीभाषाभाषी उत्साह में आकर अंग्रेजी का कच्चा माल हिंदी में प्रस्तुत करने लगते हैं। यह भी ठीक बात नहीं है। हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम हिंदीभाषा के समाजशास्त्र को तलाशें, परखें और उसे बहस में आगे ले आएं। लेकिन यहां यह ध्यान रखना होगा कि जब हम हिंदी में समाज विज्ञान और मानविकी के विभिन्न विषयों में कोई बहसबाजी शुरू करें तो हम अंग्रेजी बौद्धिकता की ‘बी कॉपी’ न लगने लगें।

4- इस प्रश्न की भविष्य संबंधित पड़ताल के लिए हमें भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन की तरफ रुख करना होगा। जैसा हम जानते हैं कि 1920 और लगभग 1947 का काल अपने आपमें आम जनता की राजनीति, स्थानीय भाषाओं में प्रतिरोध, स्वायत्त राजनीति की बुलंदी का दौर था। इसी दौर में हिंदी ने ‘हम’ जैसी अवधारणा का विकास किया, लेकिन इस ‘हम’ की अवधारणा को उन सब्जेक्ट के बरक्स रख कर देखना होगा जिसे लगभग भारतीय राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन के हाशिए पर रख दिया गया था। इनमें महिलाएं, आदिवासी, दलित या फिर खानाबदोश शामिल थे। आज यह सभी समूह अपनी आवाज को हिंदी पट्टी के जनक्षेत्र में रख रहे हैं, सत्ता से दो-दो हाथ कर रहे हैं तो इन्हें अलग ढंग से सुना जाए, और अच्छी बात है कि इन्हें अब सुना जा रहा है। पहले इन्हें दीन-हीन या भीड़ के रूप में ही देखा गया था। बहुत हुआ तो स्त्रियों को सौंदर्य या यौनिकता तक ही सीमित किया गया। नई अस्मिताओं के उभार के बाद इन समूहों को अब ठीक से एड्रैस किया जा रहा है। हाँ, इसमें आवश्यकता इस बात की है कि इनकी भूमिका की अलग-अलग पड़ताल हो, उन्हें किसी एक ओवरलैपिंग श्रेणी में शामिल कर भाग न खड़ा हुआ जाए। राजनीतिक, वह भी चुनावी कारण से ‘बहुजन’ एक ऐसी ही श्रेणी है। बस्तर के आदिवासी, उत्तर प्रदेश के पिछड़ों और घुमंतू समूहों को एक साथ घालमेल करके प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। इनकी समस्याएं अलग हैं, शिकायतें अलग हैं तो इनका समाधान भी इनकी जरूरतों के हिसाब से होना चाहिए।

इसी क्रम में, एक वर्ग और है, जिसके भविष्य की चिंता आपके सवाल में छूट गई है, उसे मैं पूरा कर देता हूँ। वह वर्ग किसान है। मैं उस बहस में नहीं जाऊँगा जिसे फ्रंचेस्का ओरसीनी ने आगे बढ़ाया था कि किसान महासभा किसानों के राजनीतिक क्षेत्र का निर्माण कर रही थी। मैं राष्ट्रवाद की उस परिभाषा पर ज्यादा गौर करना चाहूंगा जिसके द्वारा निर्मित किए गए ‘हम’ में किसान हाशिए पर था, जिसके विकल्प के तौर पर किसानों ने अपने आंदोलन से एक ऐसे दायरे का निर्माण किया था जहां अधीनस्थ सामाजिक समूह अपनी अस्मिता, अपने हितों को कायम करने के लिए प्रतिविमर्श की रचना कर रहे थे। यह आज भी हो रहा है। इसी के साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज का भारतीय राज्य जब किसानों के समक्ष खड़ा होता है तो वहां पर वह औपनिवेशिक राज्य की तरह ही प्रभुत्व की पुरानी बनावटों का ही प्रयोग करता है।

अंत में, भारत का भविष्य इन्हीं समुदायों की बेहतरी करने की संवैधानिक पहलकदमियों, जन-भागीदारियों और सबकी आवाज को सुनने से ही बेहतर बनेगा। इनके बिना सुंदर और न्यायपूर्ण भारत नहीं बन सकेगा।

ईमेल :pranjal695@gmail.com/ फोन:8860328372

 

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