वरिष्ठ हिंदी कवि, गद्यकार और नवभारत टाइम्ससहित कई प्रमुख पत्रिकाओं में संपादकीय दायित्व का निर्वाह| ‘रातदिनऔर ईश्वर की कहानियाँविशेष रूप से चर्चित।

एक आदमखोर की बचपन की तस्वीर देखकर

संसार के सारे आदमखोर बचपन में बहुत प्यारे लगते रहे| इतने कोमल, जैसे ताजा खिले फूल हों| पास-पड़ोसियों की नजर न लग जाए, इसलिए उनकी मां अपने बच्चे के सिर, गाल और ठोड़ी पर काजल लगाती रही| काजल से अपने बच्चे की आंखें आंज कर जब वे उसे देखतीं, तो उन्हें अपनी कोख पर गर्व होता| वे बहुत इतराते हुए, गोद में उठाकर अपने बच्चे को आस-पड़ोस में ले जातीं| बिना कहे, कहतीं कि देखो, मेरे लाल को, कितना प्यारा है! है तुम्हारा लाल इतना प्यारा! जब वह डगमग-डगमग चलने लगा तो उनके मां-बाप को उतनी ही खुशी हुई थी, जितने हमें अपने बच्चे को इस तरह चलते हुए देखते हुए होती है| उन्हें कतई अंदाज नहीं था कि वे एक आदमखोर को पाल कर बड़ा कर रहे हैं!

संसार के सारे आदमखोरों ने भी पहले उलटना-पलटना ही सीखा| फिर पेट के बल खिसकना| उनकी मां ने भी अपने बच्चे को बैठना सिखाने के लिए उनकी पीठ और कमर को हाथों का सहारा दिया| वे भी कभी भी, कहीं भी गू-मूत कर देते| एक-दो बार तो उन्होंने भी थोड़ा-सा खाया भी| उन्हें भी नंगा घूमने में बहुत आनंद आता रहा| उनकी भी मां उन्हें चड्ढी पहनाने के लिए उनके पीछे-पीछे दौड़तीं| वे भी थक कर कहती थीं, बचुआ, तू अपनी मां को कितना हैरान करता है रे! भावी आदमखोर तब खिलखिला कर हँस दिया करता| प्रचार आदमखोरों ने अपने बचपन के बारे में जो भी किया-करवाया हो, हकीकत यही रही कि चलना सीखते हुए वे भी कई बार गिरे और रोए| कई बार हँस कर दुबारा उठे| उनकी मुसकान किसी भी बच्चे जैसी थी|

उनके ठेठ बचपन में ऐसा कुछ नहीं था कि कोई यह भांप सके कि वे आदमखोर बनेंगे|

आदमखोर बनने के बाद हर आदमखोर अपना एक अलग बचपन चुनता है, जिसमें उसके शौर्य और त्याग की अनेक गाथाएं होती हैं, उसकी चपलता और बौद्धिक प्रखरता के कई फर्जी संस्मरण होते हैं|

आदमखोरों को अपना वह बचपन अच्छा नही लगता, जो वाकई था| अपने पड़ोसियों से वे नफरत करने लगते हैं, क्योंकि उन्होंने इसे बचपन में नंगा घूमते, नाक बहाते-सुड़कते-खाते देखा था| वे याद नहीं करना चाहते कि उनके पड़ोसी के यहां जब भी कोई पकवान बनता था, तो वे उसके लिए स्नेह से लेकर आया करते थे और अपने हाथों से खिलाते थे|

सारे आदमखोर अपने बचपन को उठा कर एक अमीर बस्ती में धर देते हैं| उनके पुराने पड़ोसी किसी को उनके बचपन के किस्से सुनाते हैं तो लोग हँस कर टाल देते हैं| वे आदमखोर के बचपन के असली किस्सों पर भरोसा करके अपने जीवन को मुसीबत में डालना नहीं चाहते|

छोरे और एक ईरिक्शावाला

इसे नई घटना समझिए| ई-रिक्शा चालक दिनेश यादव दिनभर की मेहनत के बाद कमाई करके रात को अपने डेरे लौट रहा था| रास्ते में दो छोरों ने उससे पूछा, ‘ऐ रिक्शा, चलेगा क्या? छोड़ दे| थोड़ी ही दूर जाना है| अरे इधर| वो देख, उधर, पास ही तो है| वहां लाइट दिख रही है न, वहां से दो कदम और आगे है| तेरी भी कुछ कमाई हो जाएगी| रात का वक्त है| हम भी जल्दी पहुंच जाएंगे| आदमी ही आदमी के काम आता है| क्यों? तो चल|’

दिनेश ने कहा, ‘ठीक है साहेब, चलिए| वैसे भूख बहुत जोर का लगा है| घर जाकर भोजन बनाना है, खाना है| मगर आप कहते हैं तो चलिए| थोड़ी दूर का बात है| बैठिए|’

जहां चलने के लिए कहा गया था, वहां से कुछ पहले उनमें से एक ने कहा, ‘अरे रोक जरा| इधर ही उतर जाते हैं|’

रोक दिया तो दोनों उतर गए| उन्होंने मिलकर दिनेश यादव का मोबाइल छीना, उसकी जेब से एक हजार रुपये निकाले और उसका ई-रिक्शा भी छीन लिया|

यह तो कहानी का बोरिंग हिस्सा हुआ| हर कहीं यह होता है| दिल्ली में इस तरह की रोज कम से कम सौ घटनाएं होती होंगी| न रिपोर्ट दर्ज होती है और न खबर कहीं छपती है|

यहां तक उन छोरों का आपरेशन कामयाब रहा| छोरे इस ‘बिजनेस’ में नए रहे होंगे, इसलिए थोड़े दयालु-से भी थे| सबकुछ दिनेश यादव का छीनने के बाद एक ने कहा कि बेट्टा ऐसा है, अब तू दिल्ली में रहकर क्या करेगा? ऐसा कर, अपने गांव निकल ले| तू कहे तो हम तुझे स्टेशन पर छोड़ देते हैं| तू भी क्या याद करेगा कि कितने दिलदार आदमी मिले थे!

दिनेश यादव ने कहा, ‘ठीक है, साहेब, आप मालिक लोग हैं, जैसा ठीक समझे, करें| छोड़ दें सटेसन| अब हमारा यहां है क्या? कर्ज लेकर रिक्सा खरीदे थे, वो भी गया| पइसा भी गया|’

दोनों छोरे दिनेश को लेकर पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचे|

अब कहानी यहां से नया टर्न लेती है और अखबार की कहानी बनने की योग्यता हासिल करती है| दिनेश ने सोचा कि यार अपना सारा माल मुफ्त में लुटा जा रहा है और ये लौंडे ऊपर से मुझे रेलवे स्टेशन छोड़ रहे हैं! हिम्मत देखो, इन बदमाशों की| अब कुछ करना चाहिए| ऐसे तो चुपचाप दिल्ली से नहीं जाना है| थोड़ा सबक सिखाना है|

उसने उन छोरों से कहा, ‘भाई प्यास बहुत लगा है| पानी की गाड़ी ऊ खड़ा है, इजाजत हो तो दो घूट पानी पी लें| उधर गाड़ी में पानी मिले, न मिले|’

जैसा कि ऊपर बताया, ये छोकरे अनाड़ी और दयालु टाइप भी थे| उन्होंने कहा, ‘हां-हां पी आ| दो घूंट क्या दो गिलास पी| पैसे हैं तेरे पास या हम दें? ले, दो रुपये ले| जा रहा है दिल्ली छोड़कर तो आखिरी बार यहां का पानी अच्छी तरह से पी जा| अच्छा है यहां का पानी| वहां ऐसा पानी तुझे कहां मिलेगा? जा, जा, जल्दी आ| और सुन, गड़बड़ मत करना वरना यहां से तू नहीं, तेरी लाश जाएगी|’

दिनेश गया पानी की गाड़ी के पास और वहीं से चिल्लाया, ‘चोर-चोर| ये बदमास मेरा हजार रुपय्या और ई-रिक्शा छीन लिये हैं|’

शोर सुनना था कि कुछ लोग उन्हें पकड़ने दौड़े| इनमें एक भाग गया, एक धर लिया गया|

आगे की कहानी अपने को नहीं मालूम| दिनेश यादव को तत्काल मोबाइल वापिस मिला या नहीं, एक हजार रुपये भी मिले या नहीं और ई-रिक्शा पुलिस के कब्जे में गया या बंधु यादव के पास रहा!

उन छोरों के पंजों से तो ई-रिक्शा छुड़ाना अपेक्षया आसान था, मगर पुलिस के पंजे से अपनी चीज निकालना मुश्किल होता है, असंभव सा होता है| आदमी जितना गरीब होता है, पुलिस के पंजे उतने मजबूत होते हैं|

उन दो छोरों में से एक का क्या हुआ या उसका भी कुछ नहीं हुआ? वह जमानत पर छूटा या यूं ही पुलिस ने दो डंडे जड़कर छोड़ दिया गया? दूसरावाला कभी मिला या नहीं?

यह खबर एक दिन छप गई, यही शुक्र है|

और दिनेश यादव इस घटना के बाद डर कर वापिस गया या यहीं रहा, नहीं मालूम| अगर नहीं गया तो क्या उसी इलाके में रहता रहा या उसने अपना डेरा बदल दिया? या पुलिस ने उसे इतना हैरान-परेशान किया कि उसे मजबूरन दिल्ली छोड़ना पड़ा? ऐसे सवाल गर्भ में रहते हैं, बाहर नहीं आते| समय के साथ सवालों का गर्भगृह मीलों में फैलता चला जाता है|

वैसे यह उस तरह की कहानी है भी नहीं कि जिसका आरंभ, मध्य और अंत हो| कहानी का एक निष्कर्ष, एक संदेश हो, जिससे समाज को दिशा मिले|

सच्ची कहानियों में संदेश नहीं होते, निष्कर्ष नहीं होते| वे अचानक शुरू होकर अचानक खत्म हो जाती हैं| और यह सच्ची कहानी है| नाम का हेरफेर किया है बस| हमारी दिल्ली ऐसी कहानियों का खजाना है|

दोषी कोई नहीं

शेर-शेरनी रोते हैं, ऐसा सुना नहीं कभी, मगर एक दिन खबर आई कि शेरनी दहाड़े मार कर रो रही है| पता चला कि उसने एक बकरी का शिकार कर लिया था| उसे बेहद दुख था कि मैंने बकरी जैसे निरीह जानवर को मार क्यों दिया? इतनी निर्दयी हो गई हूँ मैं अब? अभी तो मुझे भूख भी नहीं लगी थी मगर आसान शिकार को देखकर मेरी नीयत बिगड़ गई| बेचारी किसी गरीब का सहारा थी| क्यों मारा, क्यों मारा मैंने उसे! मुझे नरक मिले| इतना कह कर वह चट्टान से अपना सिर फोड़ने लगी|

शेरनी ने आत्मग्लानि में अपने पंजों को इसका दोष दिया, जिन्होंने शिकार को ऐसा जकड़ लिया था कि बकरी बेचारी मे-मे करके रह गई| पंजों पर इल्जाम आया तो उन्होंने सफाई दी, वाह स्वार्थी शेरनी! दोष आज मुझे देती है? इन्हीं पंजों की मजबूती की वजह से तूने बड़े-बड़े शिकार किए हैं| अगर दोषी कोई है तो तेरे पैर हैं, जो तुझे चुपचाप उसके पास ले गए और तूने अपने पैने दांतों से उसे दबोच लिया| पंजे क्या पैरों से स्वतंत्र हैं? और क्या मुझे बकरी या हिरण या जंगली भैंसे के मांस का स्वाद मिलता है? मैं तो तेरी नि:स्वार्थ सेवा करता हूँ और तू मुझी पर दोष मढ़ती है, बेरहम?

पैरों ने स्पष्ट किया, ओय हमारा नाम भी गलती से मत लेना| जब शेरनी दौड़ना चाहती है और शरीर की पूरी ताकत लगाती है तो पैर क्या उसका साथ देने से इनकार कर सकते हैं? इन पैरों की वजह से तुम तमाम शेरनियां मिलकर शिकार कर पाती हो| जिस दिन ये पैर काम नहीं कर पाएंगे, उस दिन देखना, तुम्हारा क्या हश्र होता है! कौन यह पूछने आता है कि तुम भूखी हो या प्यासी! शिकार देखने के लिए नहीं, खाने के लिए किया जाता है| दोष देना है तो अपनी आंखों को दो| वे बकरी को न देखतीं, तो उस गरीब पर यह मुसीबत न आती!

अच्छा तो बात ये है कि दोषी हम हैं, आंखों ने जवाब दिया! दोषी हम कैसे हैं, कोई बताएगा? आंखें हैं तो जब तक शरीर थक कर चूर नहीं हो जाता, खुली रहेंगी| बंद आंखों से क्या तुम आज तक एक भी शिकार कर पाई हो? कर सकती हो तो हमें निकलवा दो| ऐसे स्वार्थी शेरनी की मैं होना भी नहीं चाहती| दोष अगर है तो तुम्हारी नाक का है| उसने सूंघा तो मैंने गौर से देखा कि यह जानवर तो बकरी है| इसके बाद मेरा काम खत्म| फिर दोष तुम्हारे मन का है, जो लालची है| वह लालच में आ गया| सही जगह ऊंगली रखने से डरती क्यों हो?

होते-होते दोषी मुंह और जबड़े हुए| उन्होंने दोष पेट को दिया| पेट ने आंतों को दिया| आंतों ने गुदा को दिया, जहां से अंततः सब खाया-पिया बाहर आ जाता है और पेट खाली हो जाता है| गुदा ने सफाई दी, मैं क्या करूं| सब खाया-पिया मेरी ओर ठेल देते हो, बाहर निकालने के लिए ही तो! यह मेरी गलती है क्या?

अंततः पाया गया कि दोषी कोई नहीं और जो हुआ, ठीक हुआ| यही होना था| बकरी चूंकि पेट में जा चुकी थी, इसलिए उसने इनमें से किसी भी तर्क का जवाब नहीं दिया| वैसे भी बकरियां तर्कप्रणाली में विश्वास नहीं करतीं|

इस तरह यह प्रसंग यहीं समाप्त होता है| इसके बाद आप चाहें तो जन-गण-मन गा सकते हैं|

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