युवा कवि।रेणु के साहित्य में जनपक्षधरताशीर्षक पुस्तक प्रकाशित।संप्रति भारत सरकार की सेवा में कार्यरत।

गांव वाले घर के बीचोबीच
अमरूद के पेड़ पर टंगी
वर्षों पुरानी चिट्ठियों को
आज पढ़ रहा हूँ
चिट्ठियां
जिनमें कोई ह़र्फ नहीं बस निशान हैं
कुछ खरोचे हैं, किरचने हैं
उस जमाने की
जब मां की आंखों में
वक्त के बदलने का अदहन
हमेशा उबलता रहता था
पिता के सपनों में
पक्की सड़कों की सरपट चाल की मानिंद
कोई गाड़ीवान दौड़ता रहता था
मुझे हैरत होती है
जेठ, बरसात और माघ की कई
सीतमगर रातों को झेलकर भी
इन चिट्ठियों की तहरीर आज भी
अमिट कैसे है
डाकखाने से कौन बांध गया होगा इन्हें
कोई डाकिया, संवदिया या कोई फ़रिश्ता
फिर याद आता है
नहीं ये चिट्ठियां तो
खुद उगी थीं, बंधी थीं इस दरख्त पर
जिसे पुरखों के विराट संकल्पों ने सींचा था।

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