चर्चित कथाकार। उर्दू में पांच और हिंदी में एक कहानी संग्रह ‘हम कहां जाएं’ और दो उपन्यास ‘लैमिनेटेड–गर्ल’ तथा ‘लॉक…थ्री सिक्सटी’ प्रकाशित। ‘रावी’ साहित्यिक पत्रिका का संपादन।
अपने चौदह-साला लाडला के मुंह से ऐसी बात सुनकर मैं कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया था। वह साइकिल के लिए दो-तीन साल से जिद कर रहा था। मैं टालता रहा कि इस महीने नहीं उस महीने ले दूंगा। लेकिन टालते-टालते वह महीना आ ही गया जिसका लाडला को इंतजार था। ऐसा नहीं था कि इस महीने मुझे ज्यादा तनख्वाह मिली थी या कोई लॉटरी लगी थी, बल्कि मेरा बेटा इतना जिद्दी हो गया कि एक दिन उसने जिद न करने की ठान ली और खेलना-कूदना छोड़कर खुद को किताबों के हवाले कर दिया। किताब से ऐसी दोस्ती मैंने कभी नहीं देखी थी, लेकिन अब स्कूल जाने से पहले किताब खोलकर घंटों बैठा रहता। देर रात सोता। एक-दो हफ्ता मुझे कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन जब बेगम ने मुझसे कहा कि लाडला का रवैया बदला-बदला सा है, पहले की तरह न ही वह अपनी बहनों से बात करता है और न ही भूख लगने पर खाना ही मांगता है। अगर इसी तरह रहा तो अंदेशा है कि कहीं उसकी तबीयत खराब न हो जाए। तब भी मैं बेगम के विपरीत सोच रहा था कि बढ़ती उम्र के साथ उसकी समझ में यह बात आ गई है कि कम आय पर घर चलाना बहुत मुश्किल है। ऊपर से तीन बहनें। इस वजह से वह जिद छोड़कर पढ़ने-लिखने और ऊंचा ओहदा पाने की कोशिश में अभी से लग गया है। ऐसे और इससे मिलते-जुलते सिद्धांत मुझे अंदर ही अंदर गुदगुदा रहे थे। लेकिन जैसे ही बेगम ने लाडला के प्रतिशोधी रवैये का परिचय दिया, मेरे सारे सिद्धांत फेल होते हुए नजर आने लगे। एक बेचैनी मेरे अंदर सिर उठाने लगी और मैं लाडला के भविष्य को लेकर सोच में पड़ गया कि एक ही तो बेटा है।
एक दिन बेगम ने राजदाराना अंदाज में समझाया… ‘मैं तो कहती हूँ कि लाडला को किसी तरह से साइकिल खरीदकर दे दीजिए।’
‘अच्छा देखता हूँ।’
‘नहीं! यह देखने का समय नहीं है। यह सोचने और समझने का समय है।’
‘मैं समझ रहा हूँ बेगम साहिबा।’
‘नहीं, आप नहीं समझ रहे हैं। बच्चे की जिद है। कहीं कोई उलटा-सीधा कदम उठा लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।’
‘बात तो सौ प्रतिशत सही है। लेकिन क्या करूं? बेटे का शौक कैसे पूरा करूं। जितने में साइकिल आएगी उतने में तो बड़ी के दहेज का कोई सामान आ जाएगा। बेटी एक होती तो कोई बात नहीं। तीन–तीन हैं। तीसरी का तो चलो अभी नहीं सोचना, लेकिन चार या पांच साल में उसके भी हाथ–पांव लंबे हो जाएंगे। और दोनों का तो जिस तरह से भी हो साल दो साल में कर ही देना है। जवान बेटियों को ज्यादा दिन तक घर में बिठाकर नहीं रखना चाहिए।’
‘हां जी! ठीक कहते हैं। पड़ोस की बबली को ही देख लीजिए। उम्र ज्यादा होने की वजह से थोड़े गाल क्या पिचक गए, रिश्ते तक आना बंद हो गए। फिर अपने लल्लू मियां की बेटी अपने माँ-बाप की नाक कटाकर आखिर भाग ही गई न। इसलिए मैं तो कहती हूँ कि जैसे ही कोई मुनासिब रिश्ता आता है, दोनों के हाथ पीले कर दीजिए।’
‘वह तो ठीक है लाडला की माँ!’ वर्तमान स्थिति में केवल एक ही शादी किसी तरह खींच-तानकर की जा सकती है, वह भी लड़के की तरफ से फरमाइश नहीं हुई तो। वक्त जरूरत कोई देने वाला भी नहीं। जो करना है, मुझे ही करना है। और फिर तुम तो जानती हो कि मेरी तनख्वाह कितनी है। चौदह-पंद्रह हजार में क्या होने वाला है। लगभग पांच हजार तो खाने-पीने में खर्च हो जाते हैं। तीन हजार इस दो कमरे वाले घर का किराया देता हूँ और बचे पैसों में जिंदगी की अन्य जरूरतों, जैसे फोन, बिजली बिल, तुम्हारी दवाओं के साथ बच्चों की फीस और इसमें से कुछ बचाकर अम्मी-अब्बू को हजार दो हजार हर महीने भेजने भी पड़ते हैं। अंत में, किसी तरह जीवन बीमा प्रीमियम का भुगतान करता हूँ ताकि अगर मुझे कभी कुछ हो गया तो तुम्हें दर-दर भटकना न पड़े। बच्चों की दाल-रोटी चलती रहे। यूँ समझो कि एक कलकुलेटेड जिंदगी गुजारता हूँ। अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं….? कैसे करूँ…?’
‘जैसे भी हो यह तो आपको ही करना है।’ चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं। ‘फिर दो महीने के बाद रेहाना का रिजल्ट भी आ रहा है। कह रही थी कि मैं और पढ़ूंगी। अपने पैरों पर खड़ी होंऊंगी।’
‘बी.एड. में एडमिशन मुफ्त में नहीं होते। लाखों लगेंगे। सरकारी कॉलेज का इंट्रेंस अगर निकाल भी लेती है, तो भी कम से कम चालीस-पचास हजार लगेंगे ही। इतने पैसों का जुगाड़ कहां से होगा? हो भी गया तो लौटाना मुश्किल होगा। और अगर इस बीच शादी पक्की हो गई तो फिर कोई देने वाला भी नहीं होगा। बेटी से कहो कि चुपचाप एम.ए. कर ले उर्दू में। सीट ख़ाली जाती है।’
‘लेकिन वह तो बी.एड. करके नौकरी करना चाहती है। घर की हालत सुधारना चाहती है।
‘घर की हालत! अरे, एडमिशन के बाद मैं इतना कर्जदार हो जाऊंगा कि उससे उबरने में सालों लग जाएंगे।’ फिर कुछ सोचते हुए। ‘अरे लाडला की मां! तुम भी कितनी मासूम हो कि इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि उसकी उम्र शादी की हो गई है। मान भी लो कि उसको किसी तरह से मैंने बी.एड. करवा दिया तो क्या उसके कमाने तक मैं उसका इंतजार करूंगा। शादी के बाद अगर वह पैसे मायके में देना भी चाहेगी तो ससुराल वाले सीने पर बैठ जाएंगे। इसलिए मैं तो कहता हूँ कि इन झंझटों में मत फंसो। लड़का फाइनल होते ही शादी कर दो। वरना कर्ज की दलदल से कभी निकल नहीं पाएंगे।’
रेहाना से छोटी फरजाना ने अभी-अभी प्लस-टू पास किया था। तराना प्लस-वन में थी। लाडला ने अभी मैट्रिक में कदम रखा था। बड़ी मन्नतों और मुरादों के बाद उसने कायनात का हिस्सा बनने की मंजूरी दी थी। इस खुशी में मुहल्ले में लड्डू बांटा गया था। लड्डू की मुनास्बत से रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने उसका नाम लड्डू रख दिया, ताकि इसकी मिठास बाकी रहे। यही लड्डू आहिस्ता-आहिस्ता सबका ऐसा लाडला बना कि स्कूल में भी उसका यही नाम लिखवाया गया। लाडला करीम। करीम पहले अपनी पत्नी को रेहाना, फरजाना और तराना के नाम से पुकारते थे। लेकिन लाडला के अस्तित्व में आने के बाद बेगम लाडला की मम्मी और खुद लाडला के पापा बन गए थे।
तीन बहनों का यह लाडला बड़े नाजों से पल रहा था। उसकी हर मनोकामना मिनटों में पूरी हो रही थी। इधर उसने कहा नहीं कि उधर सामान हाजिर। लेकिन उम्र के साथ ख़्वाहिशात बढ़ने लगीं, माता–पिता की चिंताएं भी बढ़ने लगीं। परेशानी के इस लम्हे में भी वे दूसरी चीजों में कटौती करके कोशिश करते कि लाडला को किसी तरह की कमी न हो।
जब परिस्थितियां मनुष्य के अनुकूल न हों और वह इसके बावजूद अपनी मेहनत और संघर्ष से उसे अपने अनुकूल बना ले, तो उसे अपार खुशी मिलती है। आत्मविश्वास भी बढ़ता है कि वह मरुस्थल जैसे प्रतिकूल वातावरण में भी गुल-बूटे खिलाने का कौशल रखता है।
रेगिस्तान को गुलिस्तां वे तब तक बनाते रहे जब तक रेहाना बड़ी नहीं हुई थी। रेहाना के नक्शेकदम पर चलकर फरजाना ने जैसे ही उम्र का रंगीन दुपट्टा संभालना सीखा, वैसे ही करीम हसन के चेहरे पर चिंता के साए और भी गहराने लगे थे।
रेहाना के रिश्ते की बात दो-तीन जगह चल रही थी। इनमें से ज्यादातर अरब में काम करने वाले थे। ऐसे स्वरोजगार युवा एक-दो माह की छुट्टी लेकर जब घर आते तो एक सप्ताह में शादी करने का दबाव स्वत: ही लड़की वालों पर पड़ जाता। इन बातों को देखते हुए उन्होंने धीरे-धीरे दहेज में देने के लिए कई चीजें बना ली थीं। अभी भी बहुत कुछ बनना बाकी था। ऐसे में जिद्दी घोड़े के मुंह में लगाम लगाना जरूरी था। उन्होंने अपनी तरफ से प्रयास किया। लेकिन असफल रहे। वह वर्षो से पुरानी साइकिल से काम चला रह थे। बच्चों के लिए डिजाइन की गई स्पोर्ट्स साइकिल चार-पांच हजार से कम में आने वाली नहीं थी। वह अपनी बेगम को लेकर एक दिन दुकान गए। कीमत सुनकर उनके होश उड़ गए। बेगम को किसी तरह मनाया कि लाडला जिद करता है तो करता रहे। एक दिन वह थक हारकर जिद करना छोड़ देगा। बस वह सामने तरफदारी न करे।
लेकिन मां तो मां होती है। बेटे का दुख देखा नहीं गया। एक दिन बोली।
‘सुनिए जी! आज जब मैं लाडला को बुलाने के लिए मैदान गई तो क्या देखती हूँ कि उसकी उम्र के बच्चे एक तरफ क्रिकेट खेल रहे हैं और दूसरी तरफ साइकिल चला रहे हैं, और अपना लाडला मैदान के एक कोने में खड़ा उन सभी को हसरत भरी निगाहों से देख रहा है। मैं तो कहती हूँ कि शादी-ब्याह होता रहेगा। पहले आप साइकिल का इंतजाम किसी तरह कर दें।’
यह कहते हुए बेगम की आंखों के किनारे भीग गए थे। उस समय उस नमी को उन्होंने भी अपनी आंखों में महसूस किया। वह उन्हें कुछ देर तक भीगी नजरों से देखते रहे। फिर वे रुआंसा हो गए।
‘लेकिन पैसे का प्रबंध करने में कुछ समय तो लगेगा।’
‘कितना?’ बेगम की आवाज अब पूरी तरह से भीग चुकी थी। इसलिए वह आगे कुछ नहीं कह पाई, लेकिन जिस तरह से वह उसे देख रही थी, उससे यही लग रहा था कि वह आज सब कुछ जान लेना चाहती है। वह तारीख तय करवा लेना चाहती है।’
‘बीस-पच्चीस दिन मानकर चलो। तब तक वेतन भी मिल जाएगा। मिला जुलाकर साइकिल खरीद लेंगे।’ एक मजबूर पिता खुद को कई तरह की जिम्मेदारियों में फंसा हुआ देख रहा था।
‘यह तो बहुत लंबा हो गया।’ बेगम ने रुककर अपनी आंखों के किनारे को साफ किया और कहा। ‘लाडला को भी क्रिकेट में दिलचस्पी है। जब तक साइकिल की खरीदारी नहीं होती है, तब तक के लिए बैट-बॉल से काम चला दीजिए।’
‘बात तो तुम ठीक कह रही हो बेगम। लेकिन इसमें भी एक हजार रुपये का खर्च आएगा। इतने में तो मेहीने डेढ़ महीने की सब्जी आ जाएगी।’
‘सब्जी देखोगे तो वह साइकिल की जिद करता रहेगा। क्या पता बैट-बॉल पाते ही उसका दिमाग साइकिल की तरफ से हट जाए?’
उन्हें बेगम की बात पसंद आई। वे अगले दिन बैट–बॉल ले आए। इसका एक फायदा यह हुआ कि कुछ दिन तक उसने साइकिल की जिद नहीं की। लेकिन उसकी जगह एक नई समस्या उसके सिर पर आकर खड़ी हो गई। हर आठ से दस दिनों में गेंद फट जाती, खो जाती और वह नई गेंद लाने की जिद करने लगता।
एक दिन एक लड़के ने गेंद सामने की पांच मंजिला इमारत की दूसरी मंजिल के इमपोर्टेड शीशे वाली खिड़की पर दे मारी। गेंद तो गई ही गई, घर वालों ने उसे भी काफी खरी-खोटी सुनाई। उस दिन उन्होंने लाडला को बहुत डांटा था। रोते-रोते वह घर गया। मां ने उसे चुप कराने की कोशिश की। थोड़ी देर बाद वह चुप हो गया, लेकिन फिर से नई गेंद के लिए अपनी मां से जिद करने लगा।
पापा को गुस्सा आ गया।
‘कभी वह गेंद गुम करता है तो कभी फड़वाकर आ जाता है। ठेकेदार से थोड़ी जान-पहचान थी, इसलिए थोड़ा बहुत गाली गलौज करने के बाद सिर्फ गिलास लगाने के लिए कहा। कोई दूसरा होता तो पहले उसे दम भरकर मारता और चार आदमी के सामने मुझे अपमानित भी करता।’
इस दौरान उन्होंने लाडला को जोरदार थप्पड़ मारा। वह जोर-जोर से रोने लगा।
‘मुझे गेंद लाकर दीजिए। मुझे गेंद लाकर दीजिए।’
‘एक महीने में चार-पांच बाल हो गए हैं। अब गेंद-वेंद कुछ नहीं आएगा।’
पिता का गुस्सा देखकर वह चुपचाप अपने कमरे में आ गया और किताब निकालकर बैठ गया। खाना के लिए कहा तो उसने इंकार कर दिया। मां ने मनाने की कोशिश की। सौ रुपये चुपके से देने लगी कि जाकर खरीद ले। लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। किताब लेकर घंटों इसी तरह बैठा रहा।
उस रात उसे बुखार आ गया। मां रात भर उसके सिरहाने बैठी रही। पिता ने भी उसकी पेशानी को छूकर कई बार देखा था। सुबह-सवेरे, दोनों मिलकर पास के एक डॉक्टर के यहां गए। अगले दिन बुखार उतर गया। लेकिन मां ने आखिरकार फैसला उस रात ही कर लिया था कि जिस तरह से भी हो सके उसे साइकिल खरीदवाकर दूंगी।
‘लाडला के पापा…’
‘मैं समझ रहा हूँ, लेकिन उन लोगों को रेहाना तो पसंद आ गई है न? और उसका बेटा अरब से आने वाला भी है। आते ही वह लोग दिन तारीख भी रखेंगे। पता नहीं क्या मांग बैठें। मुझे तो अभी से डर लग रहा है।’
‘डर तो मुझे भी लग रहा है। लेकिन बेटा तो एक ही है न।’
‘ठीक है, अगर तुम्हारे पास कुछ पैसे हैं तो निकालो।’
‘पैसे तो नहीं हैं, लेकिन मेरे पास चांदी की कई पुरानी चीजें हैं। बेकार रखी हुई हैं। आप उन्हें बेचकर…’ बेगम ने चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया।
‘वह जेवरात मंझली या छोटी के भी काम आ सकते हैं ना…?’ आंखें सवाल बन गईं।
‘यही सोचकर तो मैंने अब-तक सहेज रखा था। लेकिन क्या करें गरीबी?’ जेवर बचाती हूँ तो साइकिल से हाथ धोना पड़ेगा। लेकिन इस वक्त मुझे बेटे का दुख-दर्द देखा नहीं जा रहा है। आप तुरंत सुनार के पास जाएं।’
अगले दिन घर में उत्सव का माहौल था। जहां मां पुराने आभूषण बेचकर खुश थी, वहीं पिता को सालों बाद सुरखुरू होने का मौका मिल रहा था। बहनें भी इतरा रही थीं कि उन्हें आंगन में पैडल मारने का मौका मिल जाएगा। अभी साइकिल खरीदी भी नहीं गई थी। लेकिन लाडला फूले नहीं समा रहा था। वह कई बार कमरे के उस कोने की सफाई कर चुका था। बार-बार उस जगह को आते-जाते ऐसे देख रहा था जैसे वहां चमचमाती साइकिल खड़ी हो और उससे पूछ रही हो कि मुझ पर बैठोगे कि नहीं। कितना इंतजार करवाया तुमने मुझे अपने घर लाने में।
अभी बाजार जाने की तैयारी हो ही रही थी कि बाहर मोटर-साइकिल रुकने और हॉर्न बजने की आवाज सुनाई दी। खिड़की से झांककर लाडला ने बाहर देखा। उसका सहपाठी जीशान जो उसके दोस्तों में था, गेट के सामने नजर आया। लाडला तेजी से बाहर निकला।
‘यार यह नई मोटर साइकिल किसकी है?’ लाडला ने पहुंचते ही पूछा।
‘पापा की है। इधर से चलाते हुए जा रहा था तो सोचा तुझे दिखा दूँ। कल ही खरीदी है। संडे-संडे मेरे पास रहेगी। सप्ताह दो सप्ताह में हाथ साफ हो जाएगा। फिर यार मटरगश्ती करने निकलेंगे और उसके घर की तरफ भी चलेंगे। समझा न…’
लाडला के चेहरे पर मुस्कान–सी तैर गई थी। लाल और काले के समावेश ने लाडला की आंखों में चमक पैदा कर दी थी। वह मुस्करा रहा था और मोटर साइकिल को हर कोण से देख रहा था। सीट पर बैठकर उसने दोनों हाथों से हैंडल पकड़ा और चलाने के अंदाज में आईने में खुद को देखा। उस वक्त वह कुछ देर के लिए एक अलग ही दुनिया में खो गया था।
जीशान गाड़ी स्टार्ट करके जाने लगा तो उसे वह उस वक्त तक देखता रहा जब तक मोटरसाइकिल दो ढाई सौ मीटर आगे जाकर बाईं ओर मुड़ नहीं गई। फिर वह धीरे-धीरे कदमों के साथ घर की ओर बढ़ा। उस वक्त वह भूल गया था कि उसे साइकिल की खरीदारी के लिए बाजार जाना है। घर में दाखिल होते ही, पिता को ईद के कपड़ों में देखा, तो उसे अचानक याद आया कि ये कपड़े तो उनके पापा अक्सर विशेष अवसर पर पहनते हैं। अभी वह कुछ याद करने की कोशिश कर ही रहा था कि उसके पापा ने कहा।
‘चल जल्दी तैयार हो जा लाडला।’
तब तक लाडला को सब कुछ याद आ गया था। वह कपड़े पहनते-पहनते बोला। ‘बहुत इंतजार करवाया पापा आपने। मैं जब सिक्स में था तब से जिद कर रहा था। अब मैं टेंथ में आ गया हूँ। सोचिए कितने साल हो गए…?’
मां बीच में बोल पड़ी। ‘अरे यह सब छोड़ बेटा। समझो आज ही वह महूरत वाला दिन है।’
‘हां, बस ऐसा ही समझो…’ पापा के होंठों पर विजयी मुस्कान फैली हुई थी।
पिता और पुत्र दोनों बाजार के लिए निकले। आज वर्षों बाद पहला मौका था जब लाडला के पिता बिना साइकिल के घर से निकले थे। ऑटोरिक्शा या बस में बैठे एक जमाना हो गया था। ड्यूटी के लिए ऑटोरिक्शा का इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन बेटियों की वजह से उन्हें सात किलोमीटर का सफर पैडल मारकर तय करना पड़ता था ताकि पैसे बचा सकें।
ऑटोरिक्शा से उतरकर, मेन गोलचक्कर का चक्कर काटकर दोनों शहर के सबसे बड़े साइकिल स्टोर की ओर बढ़ रहे थे। चलते-चलते पिता अपने बेटे से कुछ कहना चाहते थे, लेकिन बेटा कभी आगे हो जाता तो कभी पीछे-पीछे चलने लगता था। पिता खरीदारी से पहले के अंतिम क्षणों में सब कुछ स्पष्ट कर देना चाहते थे कि उनकी जेब में केवल चार हजार रुपये हैं। फैशनेबल स्टाइलिस्ट स्पोर्ट्स साइकिल पसंद नहीं करे जो बजट से बाहर हो।
लाडला ने हामी भर ली। लेकिन जैसे ही वह साइकिल की दुकान पर पहुंचा, घूम–घूमकर उन्हीं साइकिलों को देखने लगा। पिता ने याद करवाई, तो वह कुछ देर के लिए कम बजट की साइकिल की तरफ चला गया, लेकिन वह तुरंत भागकर उन्ही साइकिलों के बीच पहुंच गया, जिसे शजरे–मम्नुआ करार दिया गया था। ऐसे में पिता को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।
बेटे की हरकतों से वह अंदर ही अंदर आहत हो रहे थे। लेकिन लाडला को डांट कर नाराज नहीं करना चाहते थे। आखिर तक प्रयास करते रहे कि बेटा मान जाए। दूसरी ओर दुकानदार की व्यवसायी आंखें ताड़ गई थीं कि बाप की जेब में कितने पैसे हैं। महंगी साइकिल बेचने का मतलब अधिक लाभ था। इसलिए वह नई जनरेशन की इच्छा को भांपते हुए पिता को कंविंस करने की कोशिश करने लगा।
‘सर, मैं तो कहता हूँ कि बच्चे की पसंद का ख्याल रखें। करीब चार हजार बजट है आपका। और दो-तीन हजार की तो बात है। कहीं से एरेंज कर लें।’ मुस्कराते हुए इस तरह कहा मानो कोई शिक्षक अपने छात्र को ज्ञान के खजाने से परिचित करा रहा हो।
‘बहुत मुश्किल से इतने पैस जुटा पाया हूँ।’ लाचारी का इजहार करते हुए उन्हें अच्छा नहीं लगा था।
‘भाई अगर ऐसी-वैसी कोई मजबूरी है तो कोई बात नहीं। बाकी पैसे दो तीन किश्तों में दे दें, लेकिन बच्चे को नाराज न करें। और अगर अपने प्यारे बेटे के लिए ऐसा नहीं कर सकते, तो मेरी तरफ से फ्री में ले जाएं। मैं समझूंगा कि मेरा बेटा चला रहा है।’ दुकानदार ने यह कहकर पिता पर ताजिराना शिकंजा कस दिया।
यह लज्जित करने वाली बातें थीं। ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई उसके जीते जी दया की भीख देकर उसके बेटे को फ्री में उपहार स्वरूप साइकिल दे। उन्हें अपमानित-सा महसूस हुआ। अपने आत्म-सम्मान की खातिर उन्होंने पहले अपने बेटे को देखा और फिर कहा।
‘लाडला तुम्हें जो पसंद है, वह इन्हें बता दो।’
इसके बाद करीम हसन बीस-इक्कीस साल पहले की दुनिया में पहुंच गए। शादी के मौके पर ससुर साहिब उन्हें साइकिल पसंद करवाने लाए थे। और इसी तरह उनसे कहा था। अब भी वही साइकिल वर्षों से जिंदगी की लाइफ-लाइन बनी हुई है। यह अलग बात है कि समय के साथ-साथ जंग ने बसेरा कायम करना शुरू कर दिया है। रंगत उड़ सी गई है। वह महीना दो महीना में साइकिल मैकेनिक के पास जरूर जाती है। कई बार उन्होंने सोचा कि वह इस खटारा को बेचकर नई साइकिल खरीद लेंगे। लेकिन बच्चों की जिम्मेदारी ने उन्हें इस तरफ सोचने का मौका ही नहीं दिया।
कुछ ही देर में वह साइकिल जो लाडला की दिलचस्पी का केंद्र बनी हुई थी, उसे दुकानदार चार बाई छह के रेड कार्पेट पर सजाकर खड़ा कर दिया।
चार हजार रुपये देकर शेष रकम की तीन किस्तें हजार रुपये महीना तय कर कॉउंटर पर भुगतान करने के बाद जैसे ही मुड़े उनकी आंखें आश्चर्यचकित रह गईं कि लाडला जो बहुत देर से अपनी पसंदीदा साइकिल पर टकटकी लगाए हुए था, अचानक वहां से कहीं गायब हो गया था।
लाडला दुकान के बाहर एक तरफ खड़ा होकर सड़क पर आती-जाती गाड़ियों को देख रहा था, जहां हर बाइक सवार उसे जीशान नजर आ रहा था। साइकिल सवार दिखाई नहीं दे रहा था। खुद को पाने और खोने का दर्द भी अजीब होता है। हम होते भी हैं और नहीं भी होते हैं।
करीम हसन बेटे को ढूंढते हुए बाहर निकले। लाडला सड़क की तरफ देखे जा रहा था और मुस्कराए जा रहा था। यह देखकर उन्हें राहत का एहसास हुआ कि साइकिल के लिए उतावला होने वाला लाडला आज कितना शांत दिखाई दे रहा था। उसके कंधे पर उन्होंने हौले से हाथ रखा और मुस्कराते हुए कहा।
‘लाडला! साइकिल लो और चलो।’
अचानक वह ख्यालों की दुनिया से बाहर निकला। साइकिल की ओर बढ़ा, रुका, पीछे मुड़ा, फिर तेजी से उनसे आकर लिपट गया और रोने लगा।
‘मेरी साइकिल मत खरीदिए पापा। मैं आपकी खटारा चला लूँगा। आप अपने लिए मोटर साइकिल ले लीजिए।’
संपर्क :काइनात विला, आईशा मर्लिन के पीछे, दारा सिंह रोड, लक्ष्य अपार्टमेंट-3 के निकट, पारडीह, मानगो, जमशेदपुर-831020 मो.9572683122
शानदार कहानी बधाई
बहुत बढ़िया कहानी है। बधाई