युवा कवि।पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और अनुवाद प्रकाशित।

पिता की स्मृति

तुम आओगे
मैं जानता हूँ
या तो प्रश्नवाचक चिह्नों से पहले
या फिर विस्मयादिबोधक चिह्नों के पार

सकल रूप धर न भी आओ
सरसराती हुई हवा या
खड़कते पत्तों की-सी दबी आवाज में
दूर आकाश में देर रात उड़ते किसी वायुयान के गुज़रने की आहट में
भात के फदकने के रव में
या जब-जब कोई पुराना स्कूटर
गर्र-गर्र करता हुआ निकलेगा पास से
तुम आओगे थोड़ा-थोड़ा इन सब में

तुम्हारे न होने के सारे प्रतिमान
भंग कर दिए हैं मैंने
तुम आओगे तो जान पाओगे
अनुपस्थितियां सबसे ज्यादा चीखती हैं आसपास
दूरियों के भूगोल में तुम तक पहुंचने का रास्ता जीवन भर ढूंढना है मुझे

कोई पथ मिले न मिले
दुनिया का तिलिस्म भले घिरता जाए
वयस की नाट्यशाला में
प्रतीक्षा का मोतियाबिंद छीन ले दृष्टि मेरी

तुम आओगे
मैं जानता हूँ
पिता?
आह पिता!

अ-प्रार्थना

कितने निर्दयी हो तुम
सांझ तो दी
पर किसी के लौटने की प्रतीक्षा छीन ली

सुबह दी
पर एक बेघर मन भी दे दिया

दोपहरें दीं
पर एक उजड्ड अतुष्ट पेट भी दिया

रातें दीं
पर खुली आंखों को गहरा अंधकार भी दिया
जीवन दिया
पर जीने की चाह न दी तो क्या दिया

निर्दयी नहीं होगे तुम
संभवतः दया के पात्र होगे
या वह भी नहीं
तुम पर दया भी नहीं आती
तुम्हारी ओर प्रार्थनाएं नहीं
पत्थर उछाले जाने चाहिए
क्या पता
पत्थर प्रार्थनाओं से अधिक भारी हों

लेकिन नहीं
प्रार्थनाएं हों या पाषाण
गुरुत्व में बंधी जिजीविषाएं ही मरेंगी दबकर

दुर्दिनों के दुर्घर्ष ईश्वर
मांगते ही रहे तुम
ईश्वर होने पर पछतावा नहीं होता तुम्हें?

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