युवा लेखक तथा टिप्पणीकार। संप्रति कोलकाता के सेठ आनंद राम जयपुरिया कॉलेज में शिक्षण।
देखा जा सकता है कि सोशल मीडिया ने आम जीवन को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। मेले-ठेले की संस्कृति वाले, गली-चौराहों पर बैठकी करने वाले समाज में अब एक गहरी उदासी है। हँसी-खुशी के साथ बैठकी की जगह सोशल मीडिया ने मनुष्य के विवेक को घृणा और विध्वंस की ओर मोड़ दिया है। इन दिनों उसमें जैसी खबरें आती हैं, जिस तरह गालियां दी जा रही हैं, जिस तरह घृणा की भाषा का प्रयोग हो रहा है, मनुष्य को जाति, संप्रदाय और लिंग तथा क्षेत्र के आधार पर सीमित करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वह समाज के तानेबाने को नष्ट कर रहा है।
इन दिनों बड़ी पूंजी और सत्ता के मेल ने एक ऐसा ‘टार्गेटेड कंटेट’ परोसना शुरू किया है जो मनुष्य को उसकी मूल समस्याओं से भटकाकर आपसी विद्वेष और घृणा में उलझाए रखता है। वह हर व्यक्ति जो पहले राजसत्ता से निरपेक्ष रहते हुए आपस में एक-दूसरे के साथ खड़ा होता था, वह अब अबोला या कुबोला हो गया है। इस घृणा से उपजी स्थितियों का लाभ सत्ता उठाती है और मनुष्यजाति शिकार होती है।
पिछले दशक जिसे ‘वृद्ध पूंजीवाद’ कहकर उसके पतन की संभावनाएं व्यक्त की जा रही थीं, उसने अब एक नए रूप में खुद को युवा बल्कि चिरयुवा करके सबको चौंका दिया है। अब पूंजी ने पहले से अधिक विकराल रूप में मनुष्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। वह मनुष्य के रोजमर्रा के जीवन और उसकी अभिव्यक्ति पर कब्जा जमाकर उसे बर्ताव के स्तर पर संचालित कर रही है। कहने के लिए मनुष्य स्वतंत्र है, उसके पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, परंतु असल में वह जो कुछ बोल रहा है वह उसकी जानकारी के बगैर किसी केंद्र द्वारा संचालित और संचारित है। नई पूंजी ने मनुष्य को उसके स्थान से नीचे गिराकर कीड़े-मकोड़ों का जीवन जीने को विवश कर दिया है। वह अपनी बेबसी और असहायता में विध्वंसक होकर एक-दूसरे को नष्ट करने की ओर प्रवृत्त है। सोशल मीडिया इस नव-युवा हुए वृद्ध पूंजीवाद का ही एक ऐसा उपहार है, जो व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं को प्रकट करने और एक विध्वंसक दिशा की ओर बढ़ने का मंच बन गया है।
लक्षित किया जा सकता है, स्त्री पर आक्रमण असल में उसकी आजादी और उसके सार्वजनिक जीवन में चहलकदमी को प्रतिबंधित करने के लिए है। आज भी बहुतों को पारंपरिक पितृसत्तात्मक व्यवस्था पसंद है। जातिगत विद्वेष भी इसी की एक कड़ी है। सांप्रदायिक पुनरुत्थान ने इन चीजों को बल प्रदान किया है और सोशल मीडिया इन चीजों के लिए हथियार है।
समाज में जिस गति से इन चीजों को ‘न्यू नॉर्मल’ कर दिया गया है, व्यक्ति के पास कोई चारा नहीं बचा है। एक औसत बुद्धि के व्यक्ति का, जिसकी संख्या किसी भी समाज और देश में अधिक होती है सोशल मीडिया की चपेट में आना और सनसनीखेज भाषा और मुहावरों में बर्ताव करना स्वभाविक हो गया है। उल्लेखनीय है कि अबतक साइबर एजुकेशन या उसकी संचालनात्मक गतिविधियों के लिए कोई शिक्षाशास्त्र या कोडिंग नहीं है, बल्कि खुला बाजार घटिया चीजों के प्रचार के लिए हवा देने का काम करता है। इस अज्ञान ने ही समाज में सृजनशील प्रेमपूर्ण भाषा की जगह घृणा को लोकप्रिय बना दिया है। दरअसल शिक्षा और ज्ञान का यह अभाव भी एक नीति ही है, जो सत्ता और पूंजी के साझा हितों के अनुकूल है।
एक समाज को अराजक भीड़ बनाना इस युग की सत्ता का सबसे बड़ा षड्यंत्र है। इस अराजकता के लिए ही करोड़ों रुपए खर्च करके आईटी सेल बनाए गए हैं और उनमें काम करनेवाले मनोनुकूल लोग रखे गए हैं। यानी जो दिख रहा है असल में वह हो नहीं रहा है, बल्कि निर्मित किया जा रहा है।
हम सभी मानेंगे कि समाज को सृजनशील और आलोचनात्मक विवेक की, प्रेम की, सद्भाव की और शांतिपूर्ण साहचर्य की आवश्यकता है। इन चीजों को किस तरह सोशल मीडिया के मंच पर नष्ट किया जा रहा है, यह कितना सकारात्मक और नकारात्मक है, कितना उपायोगी ओर विनाशकारी है, इसपर विस्तृत चर्चा की जरूरत है। आज हर व्यक्ति को सोशल मीडिया के षड्यंत्र के विरुद्ध खड़ा होना होगा। सोशल मीडिया हम सभी के जीवन का एक अंग बन गया है, हम इसे सड़ने नहीं देंगे।
इस परिचर्चा में लेखकों द्वारा प्रस्तुत विचारों से बहुत-सी चीजें स्पष्ट हो सकती हैं।
सवाल
(1) सोशल मीडिया की जद में आज समाज का सबसे निचला तबका भी आ चुका है। इंटरनेट के सस्ते होने के बाद लोगों की आम जिंदगी में सोशल मीडिया, रील्स और वीडियो व्यापक रूप से शामिल हैं। ऐसे में आप निर्मित किए जा रहे टार्गेटेड कंटेंट के प्रभाव को कैसे देखते हैं?
(2) असहमति के प्रति असहिष्णुता आज की परिघटना है या यह हमेशा रही है? धार्मिक विद्वेष और घृणा को सोशल मीडिया ने बढ़ाया है या यह पहले भी थी?
(3) सोशल मीडिया पर लैंगिक भेदभाव की भाषा को आप कैसे देखते हैं? सोशल मीडिया पर स्वतंत्र चिंतन करती, अपने सुख-दुःख लिखती, फोटो शेयर करती स्त्री पर इस तरह की भाषा का क्या प्रभाव हो सकता है? क्या यह दुनिया के सबसे आधुनिक तकनीकी माध्यम द्वारा पिछड़ी सामंती सोच का नवीनीकरण नहीं है?
(4) गालियां और अपशब्द क्या अब ‘न्यू नॉर्मल’ हैं?
(5) किसी भी समाज के तानेबाने को टार्गेटेड, पेड कंटेंट कितना तोड़ सकता है? सोशल मीडिया की आक्रामक भाषा के मामले में हम क्या कर सकते हैं?
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प्रियदर्शन वरिष्ठ लेखक और पत्रकार।प्रमुख कृतियां : ‘जिंदगी लाइव’, ‘बारिश, ‘धुआं और दोस्त’, ‘समाज, संस्कृति और संकट’। |
सोशल मीडिया पर लड़ें,
पर विविधता और समरसता की जमीन न छोड़ें
(1)आपके सवाल से जैसे यह प्रतिध्वनि आ रही है कि निचले तबकों को सोशल मीडिया से दूर रहना चाहिए था और इंटरनेट को सस्ता नहीं होना चाहिए था। जबकि अगर हम समाजवादी मूल्यों में भरोसा रखते हैं तो हमें खुश होना चाहिए कि सोशल मीडिया की पहुंच निचले समझे जाने वाले तबकों तक भी है। इंटरनेट का सस्ता होना अच्छी बात है। इसने कम से कम उस लोकतांत्रिक ‘स्पेस’ को सर्वसुलभ कर दिया है जिसपर पहले सिर्फ वर्चस्ववादी तबकों का कब्जा था या साधनसंपन्न लोगों का अधिकार था।
अखबार पढ़ने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी था और टीवी देखने के लिए टीवी खरीदने के पैसों के अलावा लगातार बिजली की उपलब्धता वाली जगह पर होना भी जरूरी था। लेकिन इंटरनेट के सस्ते होने ने ज्ञान और सूचनाओं पर साधनों की निर्भरता बहुत कम कर दी है। दूसरी बात यह कि पहले जो ज्ञान या सूचना प्रवाह केंद्र से हाशियों की ओर चलता था, वह अब हाशियों से केंद्र की ओर भी चल पड़ा है। अब गांव-देहात से अमानुषिक अत्याचारों की बहुत सारी खबरें इसीलिए दिल्ली और बड़े केंद्रों तक पहुंच पा रही हैं कि छोटी-छोटी जगहों पर भी लोग वीडियो बनाकर यूट्यूब पर अपलोड कर दे रहे हैं।
जाति और धर्म के नाम पर होने वाले लोमहर्षक अत्याचारों की खबर पहले दब जाती थी, गरीबों की पुलिसिया पिटाई या फिर चोरी के आरोप में मॉब लिंचिंग आम बात थी, लेकिन अब ये खबरें सुर्खियां बनने लगी हैं, इनपर कार्रवाई भी होने लगी है। यह इसलिए संभव हुआ है कि सोशल मीडिया तक निचले तबकों की पहुंच है और इंटरनेट सस्ता है।
यह वाकई चिंताजनक है कि जो लोग पहले मोहल्ले और चौपालों में समय बिताते थे वे अब रील और वीडियो देखकर समय काट रहे हैं। यह रील और वीडियो संस्कृति इसलिए और ज्यादा खतरनाक है कि इसका ज्यादातर हिस्सा लगभग पोर्न सामग्री से भरा पड़ा है और स्त्रियों को बहुत अपमानजनक और सतही ढंग से बस उपभोग की वस्तु में बदलता है। इन दिनों स्त्रियों के साथ होने वाले अपराधों में जो उछाल आया है और उसमें नाबालिगों का जो हिस्सा दिख रहा है, उसकी एक वजह यह रील और वीडियो (अप) संस्कृति भी है जिसमें दैहिक कुत्सा और कुंठा के फूहड़ रूप बिलकुल चरम पर दिखते हैं। यह एक बड़ा सवाल है कि इससे निजात कैसे पाई जाए।
(2)असहमति के प्रति सहिष्णुता तो शायद कभी मानव स्वभाव या सभ्यता का हिस्सा नहीं रही है, लेकिन ऐसी गहरी और प्रगट असहिष्णुता भी नहीं दिखी है जो इन दिनों दिखाई पड़ रही है। दूसरी बात यह कि अब मामला असहमति तक सीमित नहीं रह गया है। सहमत या असहमत होने की बात तो तब आती है जब आप किसी संवाद में हों और तर्क-वितर्क कर रहे हों। यह दौर तो विद्वेष और घृणा से भरे एकालापों या सामूहिक प्रलापों का है जिन्हें सोशल मीडिया ने बल दिया है। पहले लोग अपनी सांप्रदायिक सोच पर शर्मिंदा होते थे, उसे छुपाते थे, लेकिन अब गर्व से कहते हैं कि वे सांप्रदायिक है। पहले हत्यारों के गले में जयमाल नहीं डाली जाती थी, अब उनका स्वागत होता है। उनके मुकदमे लड़ने के लिए पैसे जुटाए जाते हैं।
(3)यह सच है कि हमारे समाज में, हमारी भाषा में, हमारे मुहावरों में जो लैंगिक भेदभाव और पूर्वग्रह रहे हैं, वे सोशल मीडिया में भी धड़ल्ले से दिखाई देते हैं, लेकिन इससे ज्यादा बड़ी सचाई यह है कि इसी मंच से लैंगिक बराबरी और अधिकार के पक्ष में भी सबसे तीखी लड़ाइयां लड़ी जाती हमने देखी हैं। दूसरी बात यह हुई है कि भाषा, विचार और संप्रेषण के स्तर पर स्त्रियों ने वे किले बड़ी सहजता से ध्वस्त किए हैं जो पहले पुरुषों के माने जाते थे। आज जो स्त्री रचनाशीलता का विस्फोट है, उसका श्रेय सोशल मीडिया को ही जाता है। वरना पारंपरिक मीडिया के संपादकों और पत्र-पत्रिकाओं में इक्का-दुक्का लेखिकाओं को जगह मिलती और बाकी की कविताएं अपनी मुचड़ी हुई डायरियों में रह जातीं। फिर दुहराऊंगा कि सोशल मीडिया पर स्त्री-द्वेष सक्रिय है, लेकिन उससे पहले और उससे ज्यादा वह समाज में सक्रिय है जिसकी अनुगूंजें यहां तक पहुंचती हैं। यह भी सच है कि इस स्त्री द्वेष ने बहुत सारी स्त्रियों के लिए अपमान की स्थितियां पैदा की हैं।
मैं एकाध ऐसी स्त्रियों को जानता हूँ जो इस सोशल मीडिया की वजह से अवसाद जैसी स्थिति में जा पहुंचीं। यह भी एक सच्चाई है कि बहुत सारी लड़कियों ने लड़कियों के खिलाफ ही मोर्चा खोला और स्त्रियों के बीच का यह झगड़ा पुरुषों के लिए कुत्सित मनोरंजन का जरिया भर बना रहा। यह भी है कि स्त्रियों ने इस माध्यम में प्रेम किया, धोखे खाए, पछताईं, प्रेम के नाम पर रोज चले आने वाले आतुरहृदयों का मजाक बनाया, उनको फटकार लगाई, उनकी सार्वजनिक निंदा भी की।
लेकिन कुल मिलाकर मुझे लगता है कि जो जगह समाज ने स्त्रियों को नहीं दी, उसे स्त्रियों ने सोशल मीडिया पर अर्जित किया और फिर उसके सहारे समाज में भी अर्जित कर रही हैं। बराबरी और अधिकार की जो लड़ाइयां यहां वे लड़ रही हैं, उनकी खरोंचें उनके चेहरे पर दिखती हैं, मगर यह आत्मविश्वास से भरा चेहरा है जिसकी अपनी सुंदरता है।
(4)सांप्रदायिक विद्वेष वाकई हमारे समय का ‘न्यू नॉर्मल’ है, इस सावधानी के साथ कि लोग सीधे सांप्रदायिक विद्वेष को सही नहीं बताते, लेकिन ऐसे कारणों, ऐसी घटनाओं को सही बताते हैं जिनसे यह विद्वेष बढ़ता है। जो वास्तविक और डरावना न्यू नॉर्मल है, वह ह्वाट्सऐप समूहों में लगातार बोला जा रहा झूठ और फारवर्ड किया जा रहा वह ‘कंटेंट’ है जिसकी भीत अज्ञान और घृणा पर खड़ी है।
खतरनाक बात यह है कि यह झूठा-तथ्यहीन, तर्कहीन कंटेंट हमारे घरों के वे बड़े-बूढ़े सबसे ज्यादा फारवर्ड कर रहे हैं जिन्हें कायदे से नई पीढ़ी को सहिष्णुता सिखलानी चाहिए थी। पहले ऐसे लोग अपने बच्चों और नाती-पोतों को आदर्श नीतिकथाएं सुनाते थे। वे पंचतंत्र, रामायण और महाभारत की वे कहानियां सुनाते थे जिनसे आदर्श जीवन जीने की सच्ची या झूठी सीख मिलती है। अब वे लोग ह्वाट्सऐप पर बंट रहा आधुनिक इतिहास पढ़ा रहे हैं जिसमें गांधी-नेहरू खलनायक हैं, भारत की आजादी 2014 से शुरू हो रही है।
गालियां सोशल मीडिया से ज्यादा ओटीटी प्लैटफॉर्म की देन हैं। ऐसे प्लैटफॉर्म पर जो देसी-विदेशी फिल्में आ रही हैं, जो वेब-सीरीज आ रही हैं, उनकी भाषा डरावने ढंग से गालीबाज है। दुर्भाग्य से इन गालियों को लेकर दो तरह की अतार्किक प्रतिक्रिया दिखती है। एक तरफ बहुत शुद्धतावादी रुदन मिलता है कि हाय-हाय हमारी संस्कृति के साथ ये फिल्में कैसा खिलवाड़ कर रही हैं और दूसरी तरफ़ बहुत उद्धत किस्म का अट्टहास दिखता है कि लोग अभी तक ऐसे शिशु-बोध के साथ जी रहे हैं कि इन गालियों से उनके हाथ-पांव कांपने लगते हैं।
सच यह है कि हर समाज में, हर भाषा में, गालियों का भी एक कोष होता है। दुर्भाग्य से ये सारी की सारी गालियां स्त्रियों को निशाना बनाने वाली होती हैं। कह सकते हैं कि जिस वर्चस्ववादी मर्दवाद ने यह सभ्यता और भाषा बनाई, उसी ने ये गालियां बनाईं। फिल्म बनाने वालों का तर्क होता है कि अगर जीवन और समाज में ये गालियां हैं, अगर कोई किरदार सहज ढंग से गालियां देता है तो उसे परदे पर क्यों न दिखाएं। यह कला को यथार्थ के करीब लाना है। लेकिन सच यह है कि कला की असली चुनौती यथार्थ हुए बिना उसकी विरूपता, उसकी वीभत्सता को जस के तस महसूस करा देने में है, गालियों के स्थूल प्रदर्शन में नहीं। ऐसी गालियां अंततः भाषा और समाज के प्रति हमारी संवेदनशीलता कम करती हैं। जब पहली बार मैंने परदे पर ये गालियां सुनीं तो मेरे कान तप से गए। लेकिन धीरे-धीरे अब यह सहज लगने लगा है। जाहिर है, हम बालिग तो हो गए हैं, लेकिन परिपक्व नहीं हो पाए हैं।
(5)फिलहाल भारतीय समाज की जो स्थिति है, उसमें यह डर बिलकुल वास्तविक लग रहा है कि टार्गेटेड और पेड कंटेंट ने समाज की दीवारों को काफी बड़ा बना दिया है। वह ताना-बाना कमजोर पड़ रहा है जिससे इस देश की बहुलता की चादर बुनी गई है। लेकिन लोकतंत्र की अपनी गत्यात्मकता होती है और सामाजिक अतीत की अपनी ताकत कि अंततः यह पेड कंटेंट, यह टार्गेटेड सामग्री एक हद के बाद अपने पांव सिकोड़ने पर मजबूर होती है। क्योंकि हमारा अपना साझा अतीत इतनी गहनता से बुना गया है, उसमें आपसी लेन-देन के इतने सारे धागे हैं कि वे आसानी से टूटने वाले नहीं हैं।
फिर भी इस कंटेंट का प्रतिकार जरूरी है। हम यही कर सकते हैं कि इसके विरुद्ध जितना लिख सकें लिखें, विविधता और समरसता की सहज जमीन छोड़ें नहीं, उल्टे दूसरों को याद दिलाएं कि कैसे उन्हें भटकाया और तोड़ा जा रहा है और इस तोड़े जाने के खतरे कितने बड़े हैं। दरअसल राष्ट्रवाद और धर्म के मेल से बनी सांप्रदायिकता वह राक्षस है जो हमारी पूरी सभ्यता को लीलने की कोशिश में है। इस राक्षस से लड़ने के लिए जो कुछ बन पड़े, करना चाहिए।
ई-4, जनसत्ता सोसाइटी, सेक्टर 9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012 मो.9811901398
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वीरेंद्र यादव वरिष्ठ प्रगतिशील आलोचक। ‘उपन्यास और देस’, ‘विवाद नहीं हस्तक्षेप’, ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ चर्चित पुस्तकें। |
सोशल मीडिया पर भाषाई हिंसा,
व्यक्ति की स्वतंत्रता की बाधक है
(1)इंटरनेट की पहुंच बढ़ने और सहज सुलभता के साथ समाज का हर वर्ग अब उसकी पकड़ और जकड़बंदी में है। अब यह मनोरंजन और समय बिताने के उपादान के रूप में मौजूद है। इससे निम्नवर्गीय समाज की सामूहिकता, सहकार और संवाद के अवसर कम से कमतर होते जा रहे हैं। अपने जीवनसंघर्ष और स्थितियों पर विचार कारने और रास्ता खोजने की पहलकदमी बाधित हुई है। सहकार के अभाव में उसकी सहज लोक अभिव्यक्तियों और लोकजीवन का भी क्षरण हुआ है। सोशल मीडिया एक आभासी माध्यम है और पेड कंटेंट इसका पेट भरनेवाला उपादान। निम्नवर्गीय समाज इस कंटेंट का उपभोक्ता न होकर इस माध्यम द्वारा स्वयं इस्तेमाल की वस्तु में तब्दील हो जाता है। वह अपने यथार्थ और जीवन से कटकर प्रदत्त कल्पना और फैंटेसी को ही यथार्थ मानने लगता है। रील आदि को देखते हुए वह स्वयं इस कन्टेंट का कर्ता बनना चाहता है। उसकी दुनिया सीमित और सरोकारविहीन हो जाती है और दीर्घकाल में वह माध्यम द्वारा रचित रोबोट में तब्दील होने के लिए अभिशप्त हो जाता है।
(2)वर्तमान समय में बढ़ती असहिष्णुता, हिंसा और सांप्रदायिक विद्वेष का उभार सामाजिक परिघटना से अधिक आज एक राजनीतिक व्यूहरचना के रूप में उपस्थित है। धार्मिक भेद के चलते नफरत और दूरी का भाव भारतीय समाज में स्थाई और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा नहीं था। इसे चुनावी राजनीति के साधन के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन इधर के वर्षों में जबसे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का क्षरण हुआ है तबसे सांप्रदायिकता और धार्मिक भेद का इस्तेमाल वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जाना तेज हुआ है। सोशल मीडिया भी इसके एक तुरंता साधन के रूप में उपलब्ध है। अफवाह, झूठ और भ्रामक सूचनाओं को प्रसारित करने में इन दिनों सोशल मीडिया काफी कुछ प्रभावी है। अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और स्त्रियां इसके सहज शिकार हैं। तर्क और वैज्ञानिक चेतना को नकार कर सामंती रूढ़िवादी सोच को इस दौर में पुनर्जीवित करने में इसकी बड़ी भूमिका है। किसी रोकटोक, अंकुश या पगबाधा के अभाव में इसे तथ्य और सच के प्रमाण के रूप में पेश किया जाने लगा है। ह्वाट्सऐप का मंच तो अब एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय के रूप में वकसित हो चुका है। कुतर्क और अज्ञान को इसने तर्क और ज्ञान के रूप में स्वीकृति दिलाने में एक सशक्त साधन की भूमिका निभाई है। असहिष्णुता और नफरत की फसल उगाने में भी इसकी कारगर भूमिका इस दौर में है।
(3)वर्चस्व वह चाहे पितृसत्ता का हो या वर्ण व जाति की सत्ता का भाषा भी उसके दमनकारी उपकरणों का साधन रही है। स्त्री और निम्नजातीय समुदाय इसके सहज शिकार रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि भाषा में व्यवहृत होने वाली गालियां और कहावतें स्त्रियां और निम्नजातियों को लक्षित हैं। जनतांत्रिक खुलेपन और समान अवसरों का उपयोग कर मध्यवर्गीय स्त्रियों की अभिव्यक्ति में एक बेबाक खुलापन आया है, जो उनकी व्यक्तित्व संपन्नता का द्योतक है। उनके प्रति सोशल मीडिया पर भाषाई हिंसा का इस्तेमाल उनकी आजादी को बाधित करने और अंकुश लगाने का असफल प्रयास है। यह किसी जनतांत्रिक समाज के अनुकूल नहीं है। इससे उस समाज की सामंती और पुरातन संरचना का ही खुलासा होता है। यह मर्दवादी सोच का बदलते समय के साथ स्वयं को समायोजित न कर पाने का दुष्परिणाम है। यह उस सामाजिक अवरोध व पिछड़ेपन का सूचक है जो आधुनिक तकनीक के साथ आधुनिक मानस निर्मित करने में असफल रहा है।
(4)गालियां और सामाजिक विद्वेष जिस तरह व्यापक समाज में कोई रोष, प्रतिक्रिया या प्रतिरोध के कारक नहीं बन पा रहे हैं, उससे इसके प्रति एक मौन स्वीकृति का भाव तो प्रबल हुआ है। यह उस अवचेतन का भी परिचायक है जिसका उच्छेदन आधुनिक जीवनशैली के साथ-साथ नहीं हो पाया है। यह आधुनिक जीवन दृष्टि तथा वाह्य आधुनिकता के बीच की फांक भी है। इसे इसी रूप में समझा जाना चाहिए।
(5)ध्यान देने की बात यह है कि यह सब कुछ सत्ता द्वारा पोषित और संरक्षित है। व्यापक नागरिक हस्तक्षेप द्वारा ही इसे रोका जाना संभव है। अफसोस और चिंता की बात यह है कि जिस नागरिक समाज द्वारा इसे रोका जाना था, वह स्वयं सत्तापोषित वर्चस्वशाली विचार की गिरफ्त में है। इस जकड़बंदी को टूटने में वक्त लगेगा, लेकिन इसे अंतत: टूटना ही है।
सी- 855, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016 मो.9415371872
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बोधिसत्व सुपरिचित कवि। फिल्में तथा टीवी धारावाहिकों के लिए शोधकार्य और लेखन। कई कविताएं देशी और विदेशी भाषाओं में अनूदित। नया कविता संग्रह ‘अब जान गया हूँ तो’। |
मीडिया के कारण असहिष्णुता का प्रसार अधिक होता लग रहा है
(1)चौपाल की दुनिया को टीवी धारावाहिकों ने निगल लिया था। निजी अनुभव से कह रहा हूँ कि टीवी के प्रचलन के बाद से घर के बुजुर्गों द्वारा कहानियां-किस्से, जिसे हम कहनी कहते थे, सुनाने का चलन कम से कम होता गया। वह हुंकारी भरने की दुनिया देखने की दुनिया में बदल गई। रील की दुनिया को दरकिनार करके आगे भी समाज जाएगा या कहूं कि जाना चाहिए। पेड कंटेंट और अनपेड कंटेंट का भेद करना भी लोग समझ गए हैं, क्योंकि कौन-सा कंटेंट क्या मैसेज दे रहा है यह समझ में आने लगा है।
नए माध्यमों यानी मोबाइल का प्रसार अभी और बढ़ेगा। अभी स्क्रीन पर लिखित साहित्य का पूरी तरह आना बाकी है। वह पेड कंटेंट के रूप में हो या अनपेड कंटेंट के रूप में, लेकिन उसके प्रभाव का भी आकलन होना अभी बाकी है। किसी तरह की हड़बड़ी करने से कोई प्रतिफल आने वाला नहीं है। हमें केवल यह देखना है कि समाज अपने लिए क्या खोज रहा है और हम उसे क्या दे पा रहे हैं और उस तक न पहुंचे इस दिशा में क्या तैयारियां हैं। हमें सेंसर करने की जगह बेहतर रील, बेहतर साहित्य और बेहतर संगीत देने की कोई योजना बनानी चाहिए। तब शायद दुश्चिंता का वातावरण थोड़ा कम गाढ़ा रह जाएगा।
(2)असहमति या असहमत के प्रति असहिष्णुता हर युग में रही है। कर्ण को परशुराम ने जाति जान कर शाप दिया, जाति छिपाने पर वे असहिष्णु हो गए, एकलव्य की जाति जान कर गुरु द्रोण ने उसका अंगूठा छीन लिया, रामानंद ने कबीर को शिष्य बनाने में हिचक दिखाई ऐसे परहेजगारी के प्रकरण भरे हुए हैं प्राचीन साहित्य में। वहीं उपनिषद में जाबाला सत्यकाम को गुरुकुल में भर्ती होने के लिए सत्य बोलना सत्कार का कारण बना जब उसने कहा कि उसकी मां नहीं जानती कि किस पुरुष से उत्पन्न पुत्र है वह। लेकिन यदि बड़े पैमाने पर असहिष्णुता की बात न होती तो दया, करुणा, स्नेह, सौजन्य, उदारता, प्रेम, बंधुत्व के साथ परहित को धर्म कहने की आवश्यकता भी न होती।
तुलसीदास कहते हैं- ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।’ यह धरम और अधमाई यानी धर्म और अधर्म सहिष्णुता और असहिष्णुता के ही उदाहरण हैं। कबीर को भी कहना पड़ा- ‘जहां दया तहं धर्म है, जहां लोभ तहं पाप/जहां क्रोध तहं काल है, जहां क्षमा तहं आप।’
नानक आदि महान और आदरणीय गुरुओं ने ‘उदार और दयालु बनो’ का संदेश देना क्यों आवश्यक समझा होगा! लोगों को समझना पड़ेगा कि दया में ही धर्म है। हिंसा, क्रोध, मार-काट धर्म के विनाशक तत्व हैं, विस्तारकारक नहीं। पुराने लोग असहिष्णुता को पाप मानते थे। क्रोध भी पाप था। वैसे भेदभाव वाले तत्व सदैव रहे हैं। लोग तो ज्ञान पाने और भीख देने में भी जाति-धर्म पूछते रहे होंगे, तभी तो कबीर ने कहा होगा, ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजियो ग्यान। मोल करो तरवारि की पड़ी रहन दो म्यान।’
कबीर यदि अपनी कविता में किसी बात को न करने का संकेत दे रहे हैं तो इसका अर्थ यह भी है कि वे बातें चलन में हैं। ये बातें बताती हैं कि लोग पहले भी ज्ञान लेने के लिए साधु का जाति-गोत्र पूछते रहे होंगे। एक बहुत लोकप्रिय मुहावरा है, ‘गुरु करो जान के, पानी पियो छान के।’
ये या ऐसी सारी हिदायतें बताती हैं कि समाज में विसंगतियां थीं। ये विसंगतियां आगे भी रहने वाली हैं। इनको मीडिया हवा दे सकती है, दे भी रही है, लेकिन समाज विसंगतियों को अधिक काल तक इंटरटेन नहीं करता है। उसके पास तनाव को सहते रहने का कोई कारण नहीं रहता। वह ऐसे प्रायोजित घृणा के आयोजनों से स्वाभाविक रूप से मुक्ति पाने का उपाय कर लेता है। बौद्धों-जैनियों-वैदिकों-सिख-इस्लाम-यहूदी-पारसी-ईसाई और अन्य पंथ को हेल-मेल से रहने के लिए क्या जनता को किसी लिखित नियम ने सिखाया?
मुझे लगता है कि तकरार और अशांति एक अस्वाभाविक जीवन पद्धति है और इसके विरुद्ध समाज आरंभिक समय से तरह-तरह के निदान करता रहा है। चंडीदास का कथन है, ‘शुनह मानुष भाई/शबार ऊपरे मानुष शत्तो तहार ऊपरे नाई।’ अर्थात हे मनुष्य भाइयो सुनो, सबसे ऊपर मनुष्य सत्य है उसके ऊपर कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य के सत्य होने की बात चंडीदास ही नहीं हर समय में लागू रही है आगे भी इसी से रास्ता निकलेगा।
प्रायोजित हिंसा और घृणा का युग बहुत दीर्घ समय तक नहीं चल पाएगा। ‘नहिं मनुष्यात् किंचित श्रेष्ठतर’ मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। फिर कोई भी धर्म हो, पंथ हो वह मनुष्यता से बढ़ कर कैसे और कब तक रह पाएगा। मीडिया के कारण असहिष्णुता का प्रसार अधिक होता लग रहा है। लेकिन मीडिया केवल प्रदर्शन का माध्यम है अंदर में असहिष्णुता बनाम सहिष्णुता का संघर्ष चलता रहा है और चलता रहेगा।
(3)सोशल मीडिया की एक सबसे बड़ी देन है घूंघट का पर्दा फाड़ देना। स्त्री को अभिव्यक्ति के खुले मंच पर लाकर खड़ा कर देना। आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि जब पुरुषवादी सोच का वर्चस्व ध्वस्त होगा तो आजाद हो रही स्त्री को पुरुष वर्ग बिना लांछित किए, बिना नीचा दिखाए आजाद हो लेने देगा। आज की स्त्री अपनी मुक्ति की सबसे कठिन-कठोर लड़ाई लड़ रही है। एक स्त्री का रील बनाना और उसे अपलोड करना एक बड़े सामाजिक क्रांति के रूप में रेखांकित करना चाहूंगा। इस आजादी को किसी भी तरह नियंत्रित करने के यत्न का भी स्त्री समाज को विरोध करना चाहिए। वे कर भी रही हैं। जो पर्दा घर के कमरों और स्त्री के माथे पर था उसे भी सोशल मीडिया ने लगभग उतार दिया है। इसके कुपरिणाम दिखा कर स्त्रियों-बेटियों-बहुओं को डराने की कोई भी कोशिश अब कामयाब नहीं होनी चाहिए, होगी भी नहीं। समय का पहिया बहुत तेजी से बदला है यह रुकने वाला नहीं है। कोई सामंती सोच और कैसी भी नियंत्रित करने वाली अपमानकारी भाषा स्त्रियों द्वारा हासिल की गई इस आजादी को अब छीन नहीं सकती।
(4)आप कोई नई गाली बताएं जो अभी इन दिनों ईजाद हुई हो? भीमटा ऐसी ही गाली है जो मैंने अपनी पिछली दिल्ली की यात्रा में सुनी थी। सांप्रदायिक विद्वेष का कोई नया रूप बताएं जो अभी ताजा-ताजा विकसित हुआ हो? वह मस्जिद के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने के रूप में और मस्जिद पर तथाकथित धार्मिक झंडा फहराने के रूप में सामने आया है। कहीं पर किसी आदिवासी के ऊपर पेशाब करके अपमानित करने के रूप में भी इसे देखा जा सकता है। दूसरे पंथों और दूसरी जातियों को अपमानित करता हुआ संबोधन और दूसरे लिंग को नीचा दिखाता हुआ तेवर समाज के भीतर पहले से मौजूद है। नींबू और नीच को निचोड़ना ही पड़ता है ऐसे कथन समाज में पहले से हैं। बाभन और सांप एक साथ दिखे तो पहले बाभन को मारो, ऐसे कथन भी समाज में चलते रहे हैं। लेकिन ये संख्या में कम हैं और व्यवहार में भी कम हैं। बनारस में प्रचलित कथन पर ध्यान दें, ‘रांड, सांड सीढ़ी संन्यासी/इनसे बचें तो सेवैं काशी।’
इस कथन में घृणा और द्वेष का तत्व कितना गहरा है, पर वह आज से नहीं है। लेकिन क्या समाज ने विधवाओं को देखने का नजरिया बदला नहीं है? संन्यासी को देखने का ढंग बदला है या उतना ही पूज्य पावन रह गया है जितना मध्यकाल में था? तब भी तुलसी को कहना पड़ा था, ‘नारि मुई घर संपति नासी/मूंड मुड़ाए भए संन्यासी।’ यानी मान-महत्व केवल चोले से नहीं कर्म से है और समाज में वैचारिक असहमतियां खुले रूप से संचालित होती रही हैं।
आज माध्यम और समाज के अवचेतन में रजिस्टर होना वाली स्थितियां बदल जाने से लगता है कि हम कहां आ गए हैं। लेकिन हमारा समाज दुखद रूप से स्त्रियों-दलितों-वंचितों को लेकर पहले से ही गाली केंद्रित और अपमान से संचालित रहा है। बल्कि इन दिनों उस स्थिति के विरुद्ध एक विशेष सक्रियता भी विकसित होती दिख रही है। सब कुछ जाहिर है इसलिए प्रतिरोध भी संभव हुआ है।
(5)एक दलित को उसके विवाह की घोड़ी से उतार देने वाला समाज इतनी जल्दी नहीं बदलेगा, लेकिन बदलेगा अवश्य। इसके उलट एक ऐसा भी वर्ग विकसित हो रहा है जो कि परिवर्तन में प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की ओर मुड़ गया है। कई ऐसे लोग मिलेंगे जो कि लेखक-राजनेता की जन्मना जाति को देख कर टार्गेटेड शब्दावली में आलोचना के बहाने नीचा दिखाने का यत्न करते दिखेंगे। जब तक किसी भी कारण किसी भी व्यक्ति-समुदाय को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति नहीं रुकती है या नहीं रोकी जाती है, जब तक इस संकट का समाधान नहीं निकलेगा। यह सब अचानक न हुआ है न अचानक रुकेगा। निराला की कविता पंक्तियां ध्यान में रखें, ‘नाई, धोबी, चमार, पासी खोलेंगे अंधेरे का ताला।’
बस हमें यह करना होगा कि यह अंधेरे का ताला खोलते-खोलते बदलाव प्रतिक्रियावादी और प्रतिशोधवादी न हो जाए। हर बदलाव रचनात्मक हो। यदि कोई परिवर्तन रचनात्मक नहीं होगा तो वह स्वाभाविक रूप से द्वेषात्मक और ध्वंसात्मक होकर सामने आएगा। यदि ऐसा हुआ तो उसका भी समाधान समाज खोज लेगा।
श्री गणेश सी. एच. एस., फ्लैट–3, सेक्टर–3, प्लॉट–233, स्वातंत्री वीर सावरकर मार्ग, खरकोप, कांदीवली (वेस्ट), मुंबई–400067 मो.9820212573
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राहुल सिंह युवा आलोचक। विश्वभारती, शांतिनिकेतन में सहायक प्रोफेसर। अद्यतन पुस्तक ‘हिंदी कहानी अंतर्वस्तु का शिल्प’। |
आखिर कुछ को स्वतंत्र चिंतन करती, सुख–दुख लिखती और फोटो शेयर करती स्त्री क्यों पसंद नहीं है
(1)सोशल मीडिया के आगमन के बाद से ही भारतीय समाज के ताने-बाने में एक बदलाव की शुरुआत तो हो गई थी। उसका ठीक-ठाक आकलन अभी हो भी नहीं सका था कि रील्स और वीडियोज की भरमार ने कुछ नए बदलावों का सूत्रपात कर दिया। इन दोनों में एक बड़ा अंतर यह है कि सोशल मीडिया के दौर में शब्दों की सत्ता की महत्ता थी, जबकि रील्स ने विजुअल के साथ एक किस्म के नानसेंस को बढ़ाने का काम किया है। रील से पहले जो बेहतर लिखते थे उनको लाइक और फॉलो करने का चलन था। रील के आने के बाद एक अलग ही सतरंगी दुनिया का द्वार खुल गया है। मूर्खताएं और अश्लीलता ज्यादा वायरल हो रही हैं।
आशय यह है कि फेसबुक, एक्स (ट्विटर), इंस्टाग्राम आदि जब तक रील से आबाद नहीं हुए थे, लिखने की काबिलियत की एक पूछ थी। आप अपनी दिलचस्पी के आधार पर लोगों को फॉलो किया करते थे। ऐसे अनेक व्यक्ति अपने फेसबुक और ब्लॉग के जरिए सोशल मीडिया के दौर में उभर कर आए। लेकिन टिक-टॉक के प्रतिबंधित होने के बाद शब्दों की यह दुनिया दृश्यों से आबाद हो गई। सोशल मीडिया के प्रति एक एडिक्शन-सा कुछ, तो पहले भी था। पर रील ने अच्छे भले विवेकवान समझे जानेवाले लोगों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया।
रील पर एक बार क्लिक करने के बाद वह एक ऐसी अप्रत्याशित और अंतहीन दुनिया का दरवाजा खोल देती है कि उससे बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसके असर में लिखने-पढ़ने वाली आबादी भी आ गई है। रील्स ने लोगों का आस्वाद बदल कर रख दिया है। आप लगातार स्क्रॉल करते चले जाते हैं किसी मनमाफिक कंटेंट की तलाश में।
मजे की बात यह है कि आपको खुद पता नहीं होता कि आप देखना क्या चाहते हैं। यह एक ऐसी राइड या फिसलपट्टी की तरह है जिस पर सवार होने के बाद आपके हाथ में कुछ रह नहीं जाता है। सार्वजनिक स्थलों में रील में डूबे हर आयु वर्ग के लोगों को देख कर यही लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब नशा-मुक्ति केंद्रों की तरह रील मुक्ति केंद्र शहर-शहर हमें देखने को मिलेंगे!
जिसे आप टार्गेटेड और पेड कंटेंट कह रहे हैं, उसकी थोड़ी और व्याख्या की दरकार है। राजनीतिक तौर पर टार्गेटेड और पेड कंटेंट के अलावा कई और इसी कैटेगरी के कंटेंट की बाढ़ आई हुई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का अलगोरिदम अपने ढंग से इन कंटेंट के जरिए कंज्यूमर की पसंद को पहले तो ऑब्जर्व कर रहा है, उसके बाद आपकी फीड में उसी किस्म के रील को स्वतः और अनवरत प्रेषित कर रहा है।
इस दौर में मूर्खतापूर्ण और अश्लील रील बनाना सबसे आसान हो गया है। लाईक और व्यूज का सीधा संबंध कमाई से हो गया है तो टिक-टॉक के बाद हर माध्यम का अपना स्टार रोज पैदा हो रहा है। अपना अकाउंट मोनेटाइज करा कर इस दिशा में प्रयत्नशील प्रतिभाओं की पूरी फौज आ गई है। ऐसा लगता है इस देश में दो ही किस्म के लोग रह गए हैं। एक वे जो रील बना रहे हैं और दूसरे वे जो देख रहे हैं।
(2)असहमति के प्रति असहिष्णुता सदा से रही है, पर इस अनुपात में नहीं, जिस अनुपात में आज देखने को मिल रही है। असहिष्णुता का जो स्वरूप हमारे सामने है, वह बिलकुल आज की परिघटना है। रोटी देते हुए संप्रदाय का पूछा जाना बिलकुल नई चीज है। इससे पहले प्याऊ में संप्रदाय पूछ कर पानी पिलाने की घटना के बारे में कब सुना था? सोशल मीडिया इस सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ाने के जरूरी टूल्स के बतौर विकसित किया गया है। सोशल मीडिया का यह राजनीतिक और सांप्रदायिक इस्तेमाल इस दौर की खासियत है। और बिना राजनीतिक संरक्षण के यह संभव नहीं है। इसे रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है। ह्वाट्सऐप समूहों में फॉरवार्डेड मैसेज के पैटर्न और उनकी समरूपता से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। सोशल मीडिया के जरिए किए जानेवाले इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फायदा किसे हो रहा है, इसे देखे जाने की जरूरत है। सोशल मीडिया ने किया इतना भर है कि हमारे भीतर मौजूद घृणा, कुंठा, नफरत जैसे भावों को सामने लाकर रख दिया है।
(3)सोशल मीडिया पर लैंगिक भेदभाव वाली आक्रामक भाषा का सर्वाधिक इस्तेमाल फेक प्रोफाइल से होता है। आखिर वह कौन-सी विचारधारा है जिसे सोशल मीडिया में स्वतंत्र चिंतन करती, अपना सुख-दुख लिखती, फोटो शेयर करती स्त्री पसंद नहीं है? कौन है जिसे स्त्रियों का यूं आजाद और रोशन खयाल होना पसंद नहीं है? इसे केवल पिछड़ी सामंती मानसिकता से जोड़ कर मैं नहीं देखता इसके अनेक पक्ष हैं। मजहबी कठमुल्लापन और धार्मिक कट्टरता दोनों स्त्रियों की इस आजादी के पक्ष में नहीं हैं।
आदिवासी महिलाओं पर होने वाले हमलों को देखें तो वहाँ एक नस्लवादी सोच की झलक देखी जा सकती है। स्त्रीवादियों पर होनेवाले हमलों को देखें तो पितृसत्ता से इतर व्यक्तिगत किस्म की कुंठाओं को भी देखा जा सकता है। सत्ता किन्हीं की हो, स्त्रियां हमेशा सॉफ्ट टार्गेट रही हैं।
दो बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा, एक तो यह कि इस दौर की राजनीति में एक किस्म का लुंपेनिज्म बढ़ा है, उसका असर स्त्रियों के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर रील में देखे जाने की संख्या बढ़ाने के लिए स्त्रियां भी कंटेंट के धरातल पर खुद जो समझौता करती नजर आ रही हैं, उससे भी स्त्रियों के प्रति नजरिए में बदलाव देखने को मिल रहा है। यह बदलाव प्रतिगामी है। स्त्रियों के अब तक के हासिल में यह पानी फेरता दिख रहा है। इसमें समाज के हर तबके और आयु वर्ग की स्त्रियां शामिल हैं। जब वायरल होना ही मकसद हो जाए तो विवेक छुट्टी पर चला जाता है।
(4)मैं गालियों और सांप्रदायिक विद्वेष को ‘न्यू नॉर्मल’ के तौर पर नहीं देखता, बल्कि ‘न्यू पॉलिटिकल टूल्स’ के तौर पर देखता हूँ, जो किसी को चुप कराने के काम में प्रभावी तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इन्हें मैं ट्रोलिंग के एक कारगर हथियार के तौर पर देखता हूँ।
(5)पेड और टार्गेटेड कंटेट किसी समाज के ताने-बाने को कितना प्रभावित कर सकता है, केस स्टडी के लिए वर्तमान परिदृश्य से बेहतर दूसरा कुछ नहीं हो सकता है। जहां प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया ही पेड और टार्गेटेड कंटेंट के उत्पादन में दिन-रात लगा हो तो उसके जो परिणाम हो सकते हैं, वह सामने है। इस पर कोई अचरज नहीं होना चाहिए, यह स्वाभाविक परिणति है। इसका विलोम रचना मुश्किल नहीं है पर आसान भी नहीं है। इसके मूल में एक किस्म का राजनीतिक संरक्षण है और चूंकि इन सबके मूल में राजनीति है तो इसका प्रत्याख्यान भी राजनीतिक धरातल पर ही संभव है।
अभी जो देश के हालात हैं उसमें ऐसा कोई काउंटर नरेटिव ना तो विकसित होता दिख रहा है और न ही उसकी संभावना। और जैसा कि मैंने कहा कि समाज एक ऐसे राइड पर चढ़ चुका है जिसका नियंत्रण अब उसके हाथ में नहीं है। वह अपने गंतव्य पर जाकर ही रुकेगा। दिलचस्प बात यह है कि उस गंतव्य की जानकारी भी किसी को नहीं है। अभी और नए मंजर सामने आने हैं।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी भवन, विश्वभारती, शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल–731235 मो.7979847926
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नीतिशा खलखो आदिवासी कथाकार। बी.एस.के. कॉलेज मैथन धनबाद में हिंदी की विभागाध्यक्ष। 9 सालों तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के दौलतराम कॉलेज, और महाराजा अग्रसेन कॉलेज में हिंदी भाषा और साहित्य शिक्षण । |
सोशल मीडिया बौद्धिकता और सृजनशीलता को नष्ट कर रहा है
(1)सोशल मीडिया मानो एक जादुई दुनिया है। जितना समय चुटकी बजाने में लगता है, उससे भी कम समय में हम अपने हाथों से रील और वीडियो बदल देते हैं। ‘त्वरित होना’ क्या है, यह हमें ‘टच स्क्रीन’ ने सिखा दिया है। आज संवेदनाओं का प्रवाह जिस तेजी से बदला है, उससे कोई अछूता नहीं रहा। यह एक तकनीकी महामारी है, जिसका हम आनंद भी ले रहे हैं और जिसे हम ‘सेलिब्रेट’ भी कर रहे हैं। आपके सवाल में यह बात रेखांकित है कि इसकी पहुंच में निचला तबका भी शामिल हो चुका है, तो यह याद रखें कि पहले से ही मानव को जाति, धर्म और संप्रदाय में बांटा गया था और अब वर्गों में भी बांटा गया है। उसकी मानवीय इच्छाएं उसी बूर्जुआ वर्ग की तरह हैं, जैसे किसी अन्य की। बस अंतर यह है कि बूर्जुआ वर्ग उत्पादक की भूमिका में है और सर्वहारा जन या हाशिए का समाज उस उत्पाद का उपभोक्ता मात्र है।
‘पैंटीन’, ‘लोरियल’, ‘पॉन्ड्स’ जैसे अनगिनत मल्टीनेशनल ब्रांड एक-दो रुपए के पाउच में इस उपभोक्ता वर्ग का चिल्लर पैसा तक खींच पाने में कामयाब हुए हैं। इंटरनेट, मोबाइल, डेटा और सोशल मीडिया के ऐप में रातों-रात बड़ा बनने की ख्वाहिशें आज हर तबके में दिखाई देती हैं, चाहे वह निचला तबका हो या मध्यम वर्ग हो या उच्च वर्ग सब इसकी चपेट में हैं। बाजार सज चुका है, आकर्षण लगातार बनाया जा रहा है, सब कुछ बिकने और खरीदने के लिए उपलब्ध है। दया, क्षमा, क्रोध, ख्याति जैसे कई मानवीय भाव आज खुद को डेटा में बदल कर अपनी निजता को बाजार में बेचने पर मजबूर हैं। बेडरूम क्या, वाशरूम तक में हमारी निजता पर निगरानी बढ़ गई है। जो नहीं है, उसे दिखाने की कोशिश करना ही सोशल मीडिया की इस जादूगरी को हमारे सामने रखता है। यह बहुत आभासी है, इसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं रह गया है।
हम सोशल मीडिया के लिए अपनी बौद्धिकता और सृजनशीलता को उनके (पूंजीपतियों के) प्यादे बनकर मुफ्त में उन्हें उपलब्ध करा रहे हैं। हमारे पास जो सामाजिक ज्ञान था, हमारी क्षेत्रीयता की जो खूबसूरती थी, और हर इंसान का एक अपना अनूठापन था, वह सब हमने उन डेटा संग्रहकर्ताओं के लिए आसानी से सुलभ करा दिया है। उनकी नजर हमारे कार्यकलापों पर पूरे साल, बारह महीने, चौबीस घंटे, हर पल बनी रहती है। उन्होंने ‘सर्च इंजन’ के माध्यम से हर व्यक्ति के दिमाग और दिल को पढ़कर उस डेटा का विश्लेषण किया और हमारी रुचि के अनुसार सामग्री हमारे सामने परोसना शुरू कर दिया है। वह किसी अन्य का सामान हमें बेच रहे हैं, हमारा समान कहीं और बेच रहे हैं और उससे अपनी आर्थिकी को मजबूत कर रहे हैं। हम चंद लाइक्स, हार्ट्स वगैरह पर ही भ्रम रूपी दुनिया में जीने को विवश हो रहे हैं।
इस तरह हम दुनिया के कामकाज से कटकर, प्रकृति और परिवेश से कटकर अपने परिवेश की लेसंस (सीख) को छोड़कर इनके कंटेंट पर निर्भर हो गए हैं। इसमें नयापन का अभाव होता है, इसमें दोहराव होता है। और कई बार यह हमारे मन-मस्तिष्क को इस तरह जकड़ लेता है कि हमारी सृजनशीलता समाप्त होती जाती है। आज इस तकनीकी गिरफ्त से निकलकर अपने ‘स्व’ और ‘आत्म’ को जीने की जरूरत है। निजता का जो मामला है, उसे भी हमेशा अन्य लोगों के लिए सर्वसुलभ और उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए।
(2) ‘सूचनाओं की बाढ़’ सोशल मीडिया की देन है। यदि मानव सभ्यता के इतिहास में देखें, तो असहिष्णुता हमारे समाज में पहले भी थी, लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि सोशल मीडिया ने इसे और हवा दी है, बल्कि कहें तो बहुत बुरे तरीके से इसे बढ़ावा दिया गया है। सांप्रदायिक विद्वेष को भी इसने जलती आग में घी या पेट्रोल डालने जैसा ही काम किया है। हाल ही में रोटी बांटते हुए एक भंडारे में धार्मिक आधार पर ही रोटी देने और अन्य को रोटी न देने का प्रसंग सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है। रोटी बांटने वाले उस व्यक्ति के प्रति लोकतांत्रिक व प्रगतिशील सोच रखने वाले संजीदा नागरिकों में वितृष्णा पैदा हुई होगी, जबकि सांप्रदायिक भीड़ ने यही सोचा होगा कि मेरे ईश्वर की जय न कहने वाली उस महिला, जो किसी विशेष धर्म-संप्रदाय से थी, को इस तरह दंडित किया ही जाना चाहिए।
इस तरह धार्मिक मुद्दा भारत के सत्ताधारियों के लिए एक फायदे का साधन बन जाता है, और वे ऐसे वीडियो बार-बार चला कर इसका लाभ उठाते हैं। इसके जवाब में टाटा हॉस्पिटल, मुंबई के बाहर का एक और वीडियो सामने आया, जिसमें एक मुस्लिम व्यक्ति बिना किसी मजहबी आग्रह के भूखे लोगों को रोटी बांटता दिखा। वह कहता है, ‘भूख का कोई मजहब नहीं होता।’
इस प्रसंग से हमें साहिर लुधियानवी की पंक्तियां याद आती हैं, ‘न हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा।’ अतः राजनीति से प्रेरित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के विरुद्ध, मानवता के पक्ष को बढ़ावा देना इस तकनीकी दुनिया में और भी अधिक आवश्यक महसूस होता है। तकनीक की सहायता से मानवीय पक्ष मजबूत किए जाएं न कि उस दूरी और खाई को नफरत से और बढ़ाया जाए।
(3)सोशल मीडिया की असंख्य कमियों और बुराइयों के बावजूद, यह एक महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म है, जहां हाशिए पर धकेले गए समुदायों को अपनी बात रखने का एक अनोखा अवसर मिलता है। दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, ‘क्वियर समूह’, महिलाओं आदि के लिए यह अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक बेहद आवश्यक स्थान है। इनके विचारों से असहमत पितृसत्तात्मक और सामंती समाज कई बार हमले करते हुए दिखाई देते हैं। ये हमला केवल भाषाई स्तर पर नहीं रुकते, बल्कि कई बार शारीरिक और मानसिक हिंसा के चरम स्तर तक पहुंच जाते हैं। ‘सोशल मीडिया लिंचिंग’ का उद्देश्य अक्सर ऐसी आवाजों को खामोश करना ही होता है।
हाशिए पर खड़े लोग जो पीड़ा समाज में हर दिन झेलते हैं, उसे लेकर कोई भी अपनी आवाज न उठाए, इस मंशा से ऐसे लोग अपनी सत्ता बनाए रखना चाहते हैं और उनके साथ लगातार हिंसा करते हैं। इस तरह की अनगिनत घटनाएं हम हर रोज सोशल मीडिया पर देखते और महसूस करते हैं।
सोशल मीडिया पर की गई ट्रोलिंग के कारण कुछ को अपना राजनैतिक कैरियर समाप्त करना पड़ता है। ऐसे असंख्य मामले हैं जहां महिलाओं की यौनिकता और पहचान पर धर्म, जातीयता, पुराजातीयता और जाति का ही विशेष अधिकार आज भी हावी दिखाई देता है।
आधुनिकता के इस दौर में भी महिलाएं हाशिए पर धकेली जाने को मजबूर हैं। वहीं, पुरुष यदि विदेश तक में शादियां करें और अपनी परंपरागत मान्यताओं से हटकर, अपने पत्नी प्रेम में अपनी संतानों का पालन-पोषण किसी अन्य समाज और धर्म के तहत भी करें, तो पितृसत्तात्मक समाज में उन्हें एक सुयोग्य उम्मीदवार माना जाता रहा है। किंतु यदि महिलाएं ऐसा करें, तो उन्हें समाज के लिए अहितकारी समझा जाता है।
ऐसी मान्यताओं के कारण आज भी लिंग के आधार पर महिलाओं के श्रम और कार्यों को पूरे विश्व में समुचित मान्यता व सम्मान नहीं मिला है। ‘बुल्ली बाई ऐप’ और ‘मी टू’ मुहिम में जो कुछ घटा, वह सबके सामने है। इसलिए मुझे लगता है कि लैंगिक विभेद की मार सिर्फ महिलाएं ही नहीं झेल रही हैं, बल्कि ‘क्वियर समूह’ की विभिन्न यौनिकताएं भी इसमें हाशिए पर धकेली गई हैं। इन पर भी बात करना बहुत आवश्यक हो गया है।
(4)सांप्रदायिक विद्वेष और गालियां अब एक नए सामान्य मानक की तरह स्वीकार्य बना दी गई हैं जबकि यह समानता, बंधुत्व और न्याय के खिलाफ जाने वाली अवधारणाएं हैं। यह एक मानसिक विकृति है, जहां अपने भीतर की दबी हुई इच्छाओं को लोग किसी अपरिहार्य परिस्थिति में बेजा तरीके से व्यक्त करते रहे हैं। यह पूरी तरह से अनुचित है। मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य के भीतर छिपी हिंसक प्रवृत्तियां गालियों के रूप में न केवल कभी-कभार बल्कि हर दिन के व्यवहार में शामिल होती जा रही हैं। इसके स्वीकार्यता पर भी पितृसत्तात्मक समाज की भूमिका रेखांकित की जा सकती है।
(5) ‘टार्गेटेड या पेड-कंटेंट’ समाज के ताने-बाने को पूरी तरह क्षत-विक्षत कर सकता है। ‘स्क्रीन-टाइम’ और इसकी आक्रामकता किसी व्यक्ति के भीतर छिपे हैवान को जगाने के लिए पर्याप्त है। इस कंटेंट के निर्माता और प्रसारक ऐसे कुत्सित प्रयासों में संलग्न होते हैं, जिनका परिणाम रोजमर्रा की हिंसक घटनाओं में देखा जा सकता है। कई अपराधों के तरीके इस कंटेंट से प्रेरित होकर वास्तविक जीवन में उतारे जा रहे हैं। यह सचमुच अति हिंसक है और केवल भाषा की आक्रामकता तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे भी बढ़कर ‘हाइली इंपल्सिव’ (क्षणिक) व्यवहार में वृद्धि हो रही है, जो लोगों को किसी भी हद तक जाने को मजबूर कर देता है। पहले केवल रेप की घटनाएं होती थीं, लेकिन आज ये ‘गैंग रेप’ में बदल चुकी हैं। यह पोर्नोग्राफी का एक दुखद परिणाम है।
हम अति उन्मादी हो गए हैं और धर्म तथा जाति के गर्व में हर विविधता को अस्वीकार कर उसके प्रति हिंसा करने को तत्पर हैं। प्रेम और सौहार्द जैसे शब्द आज कहीं खोते जा रहे हैं। धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर कुर्सी पर कब्जा जमाने वाले लोग अपनी पीढ़ियों के लिए धन इकट्ठा कर रहे हैं। सीमित से इस ‘ग्लोब’ को रुपए, डॉलर, और यूरो में तब्दील कर इंसानियत के सहज गुण-प्रेम, शांति, भाईचारे-को उपेक्षित कर दिया गया है।
खुद को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने वाले ‘कंटेंट’ और ‘सेल्फ प्रमोशन’ में व्यस्त लोग आज आगे देख पाने में असक्षम हैं। पर्यावरण की चिंता कहीं नहीं दिखाई देती। यह ग्लोब केवल मनुष्यों का नहीं है, इसमें अन्य ‘चर’ और ‘अचर’ का भी हिस्सा है, लेकिन मनुष्य इसे भूलकर एक लोभी श्रेणी के जीव बन गए हैं। यही वजह है कि सांप्रदायिक आंदोलनों में भीड़ अक्सर अन्य समुदायों के धार्मिक स्थलों को तोड़ती है, उनपर हमले करती है और अपना झंडा लहराती है। अल्पसंख्यकों के प्रति बहुसंख्यक समाज ऐसे उपद्रव कर सामाजिक सौहार्द को समाप्त करने की कोशिश करता है। एक खास धर्म के जयकारे न लगाने पर ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं हो रही होती हैं। वर्णाश्रम पर विश्वास रखने वाले लोग जानवरों में भी ऊंच-नीच का मापदंड बनाते हैं, और इसी आधार पर किसी व्यक्ति की थाली, फ्रीज आदि में उस जानवर का प्रबंधित मांस बताकर हत्या तक का आयोजन करते हैं। यह सब ‘पेड कंटेंट’ और ‘ट्रोल आर्मी’ के संगठित प्रयासों द्वारा प्रोत्साहित और पोषित किया जाता है।
‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ जैसे सकारात्मक संदेशों के साथ इंटरनेट की दुनिया ने समाज में प्रवेश किया था, लेकिन अब इसका पूरा नियंत्रण, संक्रमण और ‘कमांड’ पूंजीपतियों के हाथों में है, जिन्होंने सोशल मीडिया पर कब्जा जमा लिया है। आम जन अपनी सृजनात्मकता से दूर होकर दिखावटी कृत्रिमता में डूब गया है और एक आभासी दुनिया का निर्माण कर चुका है।
इससे समाज को बड़े नुकसान हो रहे हैं, और अब सावधानी बरतने तथा सत्ता द्वारा इसके दुरुपयोग को रोकने की सदिच्छा की आवश्यकता है। पोर्न और हिंसा पर आधारित कंटेंट पर रोक लगाकर तकनीक को सार्थक पहलुओं की ओर मोड़ना चाहिए। यह एक सामुदायिक प्रयास होना चाहिए, जहां जनता जनवादी हितों के लिए इसका उपयोग कर सके। जिस प्रकार फिल्मों को प्रसारित करने से पहले सेंसर बोर्ड से गुजरना पड़ता है, उसी प्रकार इंटरनेट, सोशल मीडिया, और ऐलीकेशन को भी जनहित सामग्री के रूप में उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है और उसमें जायज फिल्टरेशन की आवश्यकता दिखाई पड़ती है।
विभाग प्रमुख, हिंदी विभाग, बीएसके कॉलेज, संजय चौक के पास, मैठाणी, धनबाद, झारखंड-828207 ईमेल- neetishakhalkho@gmail.com
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संजीव चंदन ‘स्त्रीकाल’ का संपादन। हालिया प्रकाशित किताबें:‘राहुल गांधी, व्याकुल मन का नायक’ और ‘गांधी ः लाठी पर हिंदी’। एक कहानी संग्रह एवं स्त्री विमर्श की तीन किताबें। |
हम जिस तरह तय करते हैं कि क्या पढ़ना–क्या नहीं पढ़ना है, उसी तरह सोशल मीडिया पर भी तय कर सकते हैं
(1)यह तकनीक के बढ़ते दखल के साथ बहुआयामी परिघटना है। इसके प्रभाव को परस्पर अंतर्विरोधी परिदृश्यों से समझा जा सकता है। अभिव्यक्ति का दायरा बढ़ा है, मूक आवाजों को भी आवाज मिली है, तो उच्छृंखल अभिव्यक्ति, गैर-जिम्मेवार अभिव्यक्ति, विद्वेषी अभिव्यक्ति को भी स्पेस और एक बड़ा वर्ग मिला है, जो समाज में विभिन्न दायरे में तनाव पैदा करता है। घर के चौखटे को चोट पहुंची है, असूर्यंपश्या गए दौर की बात होती गई है, तो श्लीलता-अश्लीलता की महीन रेखा अब मायने नहीं रखती और उसपर से वयस्क नियंत्रण भी कमजोर हो रहा है।
सोशल मीडिया सत्ता-विरोधी मध्यवर्गीय आवाजें सत्ता को दवाब में लेने में सक्षम हो पाती हैं, तो संघर्षों के खिलाफ सत्ता को एक सेफ्टी वॉल्व भी मिल गया है। सोशल मीडिया पर आक्रोश वाष्प बन जाता है। सामाजिक न्याय के स्वर प्रभाव पैदा कर पाए हैं, तो जातिवादी दायरा बेहद सघन हुआ है, उसकी धार अधिक प्रतिगामी हुई है। वैज्ञानिक चेतना के प्रसार को स्पेस मिला है, तो धर्म और अंधविश्वास का कारोबार भी बढ़ता गया है। अलक्षित और उपेक्षित का सच अपना स्पेस पा सका है, तो अफवाह, झूठ और संदेहों को गति मिल गई है, जिसे सत्ता भी प्रसारित करती है, उससे प्रभावित होती है।
इंटरनेट की पहुंच के बीच इन परस्पर अंतर्विरोधी परिदृश्य की पृष्ठभूमि में काम कर रही होती हैं टार्गेटेड और पेड परियोजनाएं। इनके कारण गति और अगति, प्रगति और प्रतिगामिता की स्थितियां पूंजी और सत्ता के हित के अनुरूप असर कर पाती हैं। एक व्यक्ति के रूप में इनके क्रेता यद्यपि अपने टार्गेटेड कंटेंट से ही इंगेज होता है, लेकिन अनेक बार और अनेक स्थितियों में सूचनाओं के संजाल से घिर भी जाता है। संवेदनाएं फ्लश होती सूचनाओं से भोथरी हो जाती हैं।
(2)असहमति के प्रति सहिष्णुता भारतीय समाज में शुरू से रही है। इसके बल पर सत्ता और साधन-संपन्न लोगों का, यदि अस्मिता की शब्दावली में कहें तो ऊंची जाति के हिंदू पुरुष (हाई कास्ट हिंदू मेल) अथवा और केंद्रीकृत करें तो ब्राह्मण पुरुष का वर्चस्व बना रहा है। असहमति जब तक विशेषाधिकार को प्रभावित न करे, तब तक सहमति रहती है, अन्यथा क्या चार्वाक चिंतन के स्तर पर महज एक वाक्य के साथ जीवित होते? उनकी शेष रचनाओं का क्या हुआ? संतों ने जलसमाधियां क्यों और कैसे ली होंगी? जहर का प्याला पीती भक्तों का क्या रहस्य होगा? महात्मा फुले को एक दौर में मिले इतिहास के गर्त और गांधी को मिली तीन गोलियों को कैसे देखेंगे हम? ‘मुंडै: मुंडै: मतिर्भिन्ना:’ की एक सीमा है। शास्त्रार्थों की सीमा भी गार्गी को मिली धमकी की कथा में दर्ज है।
संप्रदाय पूछकर रोटी देने वाले वीडियो को मैंने भी देखा है। वह सांप्रदायिक उन्माद का एक उदाहरण है, मनुष्यता के पतन का एक उदाहरण है। ऐसे वीडियो का विमर्श में आना भी इन्हें बनाने और फैलाने वालों को उत्साहित करता है। समाज अभी भी इस कदर विभाजित नहीं हुआ है, जितना सोशल मीडिया में दिखता है। लेकिन इसके लिए सोशल मीडिया से ज्यादा आज का राजनीतिक माहौल जिम्मेवार है। सत्ता का चरित्र जिम्मेवार है, जो ऐसे लोगों, ऐसी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करती है।
ऐसी प्रवृत्ति पहले भी थी, लेकिन इस प्रवृत्ति को राज्याश्रय देने की आकांक्षा सत्तासीन नहीं हुई थी। अब सत्तासीन है। प्रवृत्ति बढ़ी भी है और सोशल मीडिया इसे प्रसारित भी कर रहा है। प्रसार के बाद उसका विरोध भी होता है। समाज की जिंदगी, उसकी जीवंतता और आपसी समन्वय के साथ रहने-जीने की स्वीकृति उस विरोध में दिखती है।
(3)सोशल मीडिया पर महिलाओं ने स्पेस भी पाया है, अभिव्यक्ति का स्पेस, तो बेहद तीखे हमले झेले हैं। सबसे अधिक हमले राजनीतिक रूप से सक्रिय स्त्रियों ने झेले हैं, खासकर वर्तमान सत्ता पक्ष से असहमत स्त्रियों ने। हालांकि ट्रोल संस्कृति ने हर राजनीतिक जमात को भाषा और भाव के स्तर पर लगभग एकरूप कर दिया है, लेकिन सत्तापक्ष के साथ खड़े ट्रोल की आक्रामकता हर स्तर पर तीखी रही है। यह सच है कि सोशल मीडिया पर स्वतंत्र चिंतन करती, अपने सुख-दुख लिखती, फोटोज शेयर करती, स्त्री लैंगिक दुराग्रह से भरी कुत्सित भाषाई हमले झेलती है। कई बार कुछ बनी रहती हैं, लड़ती हैं और तीक्ष्ण रूप से अभिव्यक्त होती हैं, तो कुछ सिमट जाती हैं।
तकनीकी माध्यमों में सामंती सोच के नवीनीकरण पर चर्चा होनी चाहिए। साहित्य की दुनिया भी इस प्रसंग में पीछे नहीं है। हम एक बदलाव भी चिह्नित कर सकते हैं। सोशल मीडिया के प्रारंभिक दौर में उठी आवाजों ने कई बार जरूरी हस्तक्षेप किए थे। उन आवाजों ने सरकारों को कार्रवाई के लिए बाध्य किया है, अपने निर्णय वापस लेने के लिए भी। विज्ञापनों की भाषा और छवियां बदलवाई गई हैं। साहित्यिक आयोजनों में डाइवर्सिटी के लिए आयोजकों को बाध्य किया गया है, जेंडर और जाति के स्तर पर सचेत रहने के लिए कहा गया है। धीरे-धीरे सरकारी तंत्र निर्लज्ज होता गया।
ऐसे लोग सामने आने लगे जो वीडियो बनाकर, कभी धार्मिक खोल में तो कभी किसी जाति की खोल में धमकियों, गालियों का वीडियो बनाने लगे। नफरती वीडियो बनने लगे। यह सब 2019-2020 के बाद ज्यादा होने लगा। सरकारों ने ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं की। साहित्य के क्षेत्र में भी जेंडर और जाति के सवाल पर प्रतिगामी विचारों को प्रोत्साहन मिला। जिन्हें आप लज्जित कर ले जाते थे, वे बेखौफ होते गए। कई बार वे सम्मान भी पाने लगे। साहित्य के क्षेत्र में ऐसे लोगों की एक गोलबंदी हुई। उदाहरण के तौर पर प्रसिद्ध कवि अनामिका पर जब अश्लील टिप्पणियां हुईं तो हम सब लोगों के उसके खिलाफ बोलने का असर हुआ था। कठुआ में बलात्कारियों के पक्ष में आए दैनिक जागरण के आयोजन पर आलोचना का असर देखा गया था। बाद में आलोचना का कोई दवाब नहीं रहा। आश्चर्य तब हुआ जब खुद अनामिका के वेबसाइट पर उनपर अश्लील टिप्पणी करने वाले कवि का इंटरव्यू देखा मैंने। यह आश्चर्य से अधिक क्षोभ पैदा करने वाला था।
(4)बहुत हद तक यह सब ‘न्यू नॉर्मल’ होने लगा है। लिंचिंग पर अब वैसी तीव्र प्रतिक्रियाएं, नहीं देखने को मिलतीं, जैसी शुरू में। गालियों को कई बार सोशल मीडिया इंफ्ल्युएंशर अपने लिए रीच और फॉलोवर बढ़ाने के माध्यम के रूप में देखते हैं। गालीबाजों को उकसाना कइयों की नीति है। यह शायद इस माध्यम में होने, बने रहने और यहां लोकप्रिय होने की तकनीक है। यह न्यू नॉर्मल है!
(5)जैसे सोशल मीडिया एक परस्पर विरोधी असर पैदा करता है, वैसे ही टार्गेटेड और पेड कंटेंट को सीमित करने की योजना का भी परस्पर विरोधी असर होगा। इस बहाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण रखा जाएगा। विरोधियों को तंग किया जाएगा। यह जो दौर है, हर क्षेत्र में लाइक और व्यू के जरिए लोकप्रियता का, प्रभाव पैदा करने का, वह अपने ढंग से नियंत्रण का ही एक रूप है। हमारी रुचियां इससे टकराएंगी।
हम जिस तरह खुद तय करते हैं कि हमें छपी हुई चीजों में से क्या पढ़ना है और क्या नहीं पढ़ना है उसी तरह सोशल मीडिया में भी हम कर सकते हैं। आपके व्यवहार के अनुरूप अल्गोरिदम वैसे कंटेंट आपको दिखाएगा। यदि आप सॉफ्ट पोर्न देखते हैं थोड़ी देर या भोजपुरी के रील सुनते हैं या किसी क्राइम का कोई रील, तो आप देखेंगे कि फेसबुक या यूट्यूब आपको वैसे और रील्स सजेस्ट करने लगता है। हम भी धीरे-धीरे इंटरनेट के असर से बरतना सीख जाएंगे।
सोशल मीडिया पर सूचनाओं और दृश्यों के जाल से बचना, ध्वनियों की गूंज से बचना हम धीरे-धीरे सीख जाएंगे। मैं मनुष्य की एजेंसी में विश्वास रखता हूँ। इसलिए किसी व्यापक षड्यंत्र थियरी का असर मुझे नहीं होता, अंतिम तौर पर एकदम से एआई द्वारा संचालित होता मनुष्य मेरी कल्पना से बाहर है। ऐसा हो ही नहीं सकता।
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