युवा लेखक तथा टिप्पणीकार।  संप्रति कोलकाता के सेठ आनंद राम जयपुरिया कॉलेज में शिक्षण।

 

 

हर रचना अपने में अलग हो, पहले की पुनरावृत्ति न हो। उसमें हर बार नयापन हो, वरना उसका अर्थ नहीं। जो कविता में अभी तक अघटित है, वह हो।

विष्णु नागर का नया काव्य संग्रह है ऐसा मैं हिंदू हूँ, जिसमें लगभग सवा सौ कविताएं संकलित हैं। अलग-अलग समय में छपी ये कविताएं एक कथा-सा प्रभाव छोड़ती हैं। पढ़ने के दौरान लगता है कि ये कविताएं एक साथ लिखी गई हैं, क्योंकि एक साथ पढ़ने पर इनका एक व्यापक अर्थ खुलता है। यह कैसे हो सका है? असल में जब किसी कवि या लेखक की वैचारिकी में ईमानदारी हो, उसका मस्तिष्क भी एक नियम में सोचता है।

विष्णु नागर कवि की जगह कविता की भूमिका पर बात करते हैं। ‘कविता कुछ नहीं करती’ एक ऐसी ही कविता है। प्लेटो के नजरिए से देखें तो कविता कुछ नहीं करती। कवि से अधिक कीमती जूता सिलने वाला है, जो समाज को कुछ उत्पादन करके देता है। लेकिन विष्णु नागर के लिए कविता तूफान में खड़ी होकर झंझावतों को झेलती है, धूल बनकर उड़ती है, कोयल-सा गाती है, जब सबकी घिग्घियां बंध जाती हैं तब वह प्रतिरोध का स्वर बनकर गूंजती है, उसके नाखून तेज हो जाते हैं। वह सामान्य समय में दुखों को ओट लेती है। यदि नौकरी, व्यापार और ठेला चलाना ही उपयोगिता है तो कविता निरुपयोगी है।

कविता ही न्याय के लिए लड़ती है। देरी से मिला न्याय, अन्याय ही है। ‘एक हफ्ते बाद’ कविता की तरह ‘भैया मधुसूदन’ एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें वे सत्ता के नैरेटिव का विलोम खोजते हैं, क्योंकि कवि सत्य कहता है। कवि अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और दोषियों की घोषणाओं को भाटों की तरह गाने वाला चारण नहीं है, बल्कि अन्याय को चिह्नित कर उसके खिलाफ आवाज उठानेवाला एक न्यायिक, एक प्रहरी, एक सैनिक है। ‘सोचा कि’ कविता इसी की अगली कड़ी है। इसमें कवि उन छुईमुई लोगों पर व्यंग्य करता है जो लू से बचने के लिए शाम का, धूप से बचने के लिए छांव का तथा बारिश से बचने के लिए बादलों के छंट जाने का इंतजार करते हैं। जो व्यक्ति, जो कवि, जो साहित्यकार संघर्ष से पलायन करता है वह एक मृत समाज के निर्माण की जमीन तैयार करता है। कवि अपने समय और यथार्थ से जी नहीं चुराता। वह सत्ता और शक्ति के आगे झुकता नहीं है, बल्कि कलम की मशाल लेकर उस जीर्ण-शीर्ण संरचना को जलाकर राख कर देना चाहता है। विष्णु नागर ‘कितना मैं हिंदू हूँ’ में यथार्थ से लोहा लेते हैं। आज हर ओर हिंदू होने की परिभाषाओं में द्वंद्व है। वीभत्स नाच है। कवि वर्चस्वशाली राजनीतिक अवधारणाओं का विलोम रचता है। उनकी कई कविताएं उन्हें तमाचा मारती हैं जिन्होंन हिंसा को मुख्यधारा बना दिया है।

शक्ति के मद, दुनिया को रौंद देने की भूख ने ही शक्ति के आधुनिक उपासकों को जन्म दिया है। वे समाज के आखिरी आदमी के बारे में दूर, औसत लोगों के बारे में भी नहीं सोचते :

उसे इतनी ताकत चाहिए
कि एक दुनिया को मिटाकर
प्रलय करवाकर
दूसरी दुनिया वही बनाए
वही मिटाए।

कवि आदमीयत को कविता की केंद्रीय वस्तु मानता है। कविताओं में जब व्यवस्था पर व्यंग्य हो और मनुष्यता को दमन करती शक्तियों पर कुठाराघात हो, तब वह कवि असल में मनुष्यता की कविता लिख रहा होता है। व्यवस्था या शक्ति के सारे हथकंडे आदमी को पतन की ओर ले जाने का उपक्रम हैं। शक्ति के बड़े खिलाड़ी नई व्यवस्था के अनुकूल मनुष्यता की धारणा रचते हैं। विष्णु नागर इस संकट को चिह्नित करते हैं। वह कवि को अनुवादक बनने को कहते हैं जो बच्चे की तुतलाहट का, पेड़ों की सरसराहट का, पक्षियों की चहचहाहट का अनुवाद कर सके। इस संकलन में मनुष्य की संवेदनशीलता को उभारकर एक सजग समाज बनाने के क्रम में लिखी गई कविताएं हैं।

जिज्ञासा: क्या राजनीतिक विषयों को कविता में उतारना कठिन है? हिंदी में नागार्जुन की तरह शायद ही किसी ने थीम बनाकर राजनीति को कविताओं के लिए चुना है।

विष्णु नागर: नागार्जुन से किसी की क्या तुलना! नागार्जुन एक हद तक सक्रिय राजनीति से जुड़े रहे। बिहार आंदोलन में उनकी भागीदारी तथा उससे उनका मोहभंग, दोनों हम जानते हैं। उन्हें अपनी कविताओं में राजनीति पर सीधे- सीधे बात करते हुए कभी संकोच नहीं रहा। उनकी ऐसी कविताएं जनप्रिय भी काफी हुईं। वे आज भी याद की जाती हैं। यह सही है कि कम कवि हैं, जो राजनीतिक विषयों को सीधे-सीधे अपनी कविताओं में लाते हैं (कुछ तो लगता है, मानते ही नहीं कि इधर देश में ऐसा कुछ हो रहा है जो चिंतनीय है)। आजीवन राजनीतिक पत्रकारिता करते हुए मुझे राजनीति को समझने का थोड़ा अधिक अवसर मिला। तंत्र की विडंबनाओं से भी दो- चार होने के मौके मिले तो राजनीति मेरी कविताओं में सहज रूप से आती है। उसके लिए अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता। न विषय तय करके कलम चलानी पड़ती है। वैसे कोई कवि एक ही थीम पर कविता लिखता रह नहीं सकता। मेरे यहां भी अनेक थीम हैं। हां, राजनीतिक मुखरता कुछ अधिक है। उसकी जरूरत भी इस समय ज्यादा है। यह मुखरता वैसे आप 1980 में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह ‘तालाब में डूबी छह लड़कियां’ में और बाद में भी पाएंगे। इस दौर में पाठकों की जनर इस ओर अधिक जाती है, यह स्वाभाविक है। इतने डर, आतंक, हिंसा और गुंडागर्दी का समय इससे पहले नहीं रहा। ऐसी दिमागी गुलामी पहले नहीं रही।

जिज्ञासा: आज जब हिंदू अस्मिता का एक नया पाठ बनाया जा रहा है, उस मेटा नैरेटिव के बरअक्स कविता का हस्तक्षेप कितना प्रभावकारी हो सकता है?

विष्णु नागर: कविता राजनीति का विकल्प नहीं हो सकती। न राजनीति कविता का विकल्प है! राजनीति का प्रभाव और प्रसार इतना व्यापक है कि स्वतंत्रता आंदोलन जैसी स्थिति में तो कविता फिर भी अपना काम कर सकी, मगर आज  मुझे नहीं लगता कि सत्ता पोषित हिंदू नैरेटिव का मुकाबला अकेले कविता कर सकती है। जो काम विपक्षी दल मुस्तैदी से नहीं कर रहे हैं, उसे अकेले कवि और कविता कैसे करेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपना काम अपने तरीके से न करें।

हिंदू अस्मिता के इस नैरेटिव का विकल्प प्रस्तुत करती कविता को आज जन-जन तक ले जाने का दायित्व विपक्षी राजनीतिक दल उठाएं तो अंतर आ सकता है मगर किसी राजनीतिक दल की इसमें खास रुचि नहीं दिखती। सारा बोझ कवियों पर डाल देना ठीक नहीं है। हां, वे पीछे हटते लगें तो सवाल किया जा सकता है।

जिज्ञासा: कविता के लिए अनुभूतियों और बिंबों का महत्व बताया जाता रहा है, आज के विमर्श के युग में कविताएं पारंपरिक परिभाषाओं से अलग रूप में आ रही हैं। क्या आपको लगता है कि आप कविता लिखते समय काव्य रूप को लेकर सतर्क रहते हैं?

विष्णु नागर: कवि को सतर्क तो हर हालत में रहना चाहिए, क्योंकि वह सबसे पहले एक नागरिक और मनुष्य है, बाद में वह कवि या जो कुछ है। मगर मैं रूप को लेकर अतिरिक्त रूप से सजग नहीं रहता। वस्तु ही सहज रूप से अपना रूप लेकर आए, आदर्श स्थिति यह है। पिछले दिनों मैं मारखेज के उपन्यासों को लेकर उनका एक वीडियो सुन रहा था। वह भी कह रहे थे कि ‘हंड्रेड इयर्स आफ सालिट्यूड’ की अप्रत्याशित सफलता के बाद उनपर दबाव था कि आगे भी इसी तरह का वह कुछ लिखें, मगर उन्होंने अपने आनेवाले उपन्यासों में इस फॉर्म को तोड़ा। रघुवीर सहाय भी कहते थे कि कविता लिखी नहीं कि मरी नहीं! मतलब, हर रचना अपने में अलग हो, पहले की पुनरावृत्ति न हो। उसमें हर बार नयापन हो, वरना उसका अर्थ नहीं। जो कविता में अभी तक अघटित है, वह हो। कुमार गंधर्व संगीत को लेकर भी इसी तरह की बात कहते थे। ये अपने-अपने क्षेत्र के रूपवादी रचनाकार नहीं हैं। और कवि या कथाकार जो लिखता है, वह अनुभूत सत्य होता है। कई बार लिखने की प्रक्रिया में जो अनुभूत है, वह खुलता और खिलता है। रचना कभी पूर्व-निर्धारित सत्य नहीं है। कभी वह रचना है, उसे एक प्रक्रिया से गुजरना होता है। जहां प्रक्रिया नहीं है, वहां रचना नहीं है।

 

हर कविता में कहानी होती है। कविता और कहानी साथ-साथ चलती हैं। कहानी यानी चीजों का बदलना, कविता यानी बदलती चीजों की पीड़ा। हर बिंब या रूपक या उपमा एक कहानी भी है।

अरुण कमल का सातवां काव्य संग्रह है ‘रंगसाज की रसोई’। इस संग्रह में कवि की 2019 से 2023 तक की लिखी तकरीबन 50 कविताएं हैं। कविताओं के संकलन की श्रेणीबद्धता को समझने के लिए अरुण कमल की मानसिक बुनावट को समझना होगा। इस संग्रह में खुदरा-खुदरा अंशों में जीवन के, शोषण के, पीड़ित के जीवन दृश्यों और उनके साथ हो रहे अन्यायों को किसी फिल्म में आने वाले भिन्न-भिन्न दृश्यों की तरह रखा गया है। अपनी इसी विशेषता के कारण यह संग्रह भी एकसाथ पढ़ने पर किसी एक बड़ी कहानी-सा अर्थ देता है। उत्तर-औपनिवेशिक समय के विविध चित्रों को एकसाथ रखने से ही पूरा समय प्रकट हो सकता है। कवि ने युद्ध पर, प्रतिरोध पर, असहमति पर, मनुष्यता पर, उसकी मृत्यु पर, सत्ता से जूझती अस्मिताओं पर, थके-हारे मन के भक्ति निवेदन आदि पर कविताएं लिखी हैं।

इन कविताओं का रचना समय पांच सालों का रहा है, लेकिन संग्रह को पढ़कर ऐसा लगता है कोई कहानीकार विभिन्न दृश्यों पर एक रनिंग कमेंट्री कर रहा है। ‘लोककथा’ और ‘एक भक्त का निवेदन’ गद्य शैली में लिखी कविता शृंखलाएं हैं। बाकी संग्रह पद्य में है। मजे की बात यह है कि लोककथा और भक्त का निवेदन दोनों को गद्य में लिखा गया है। भक्त का निवेदन, मृत्यु से साक्षात्कार पर एक बूढ़े थके मन की तीव्र निजी अनुभूतियां हैं। इतनी गंभीर बाइनरी को बौद्धिक कवि शिल्प के स्तर पर इसी तरह बरत पाया होगा।

असल में लोककथा राजनीति पर लिखी गई एक शृंखला है। राजा की क्रूरताओं पर कवि ने एक ऐतिहासिक पाठ बनाया है। क्रूर राजा को हास्यास्पद बनाकर कविता में अरुण कमल ने तानाशाहियत पर चोट की है। तानाशाह के लिए उसका अहंकार सबकुछ है, जबकि कवि ने उसे जोकर बनाकर, मजाक का पात्र, बेबस और असहाय दिखाकर कविता में उसकी स्थिति तय कर दी है। साथ ही कवि की भूमिका को भी कसौटी दी है। जनता द्वारा आंखें फेर लेने के बाद उसकी दो कौड़ी की हैसियत और उसकी दुर्गंधयुक्त स्थिति को इसी से भांपा जा सकता है कि कचरे में पड़ी उसकी तस्वीर को उठानेवाले सफाईकर्मी को राजा के अपमान के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जाता है। ये कविताएं प्रतिरोध का विकल्प रचती हैं। ‘बुलडोजर की गाथा’ कविता इसे सुंदर ढंग से प्रकट करती है। बुलडोजर कहता है-

‘अक्सर सोचता कोई मेरे आगे खड़ा क्यों नहीं होता/दस लोग भी सामने डट जाते तो मेरा लोहा कांच बन जाता/एक वीरांगना खड़ी हो गई थी निहत्थे एकबार/और मुझे रुकना पड़ा था असहाय/पीछे मुड़ना मैं जानता नहीं, पर मुझे लौटना पड़ा।’

व्यवस्था के क्रूर चरित्र का पर्दाफाश करती इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगता है, मानो असहमति या विरोध का स्वर ही असल में मनुष्य होने की पहली शर्त है। कवि के नए संकलन में एक ओर परिश्रम और अनुभवों से संसार रचते आदमी की कहानियां हैं तो दूसरी ओर तंत्र के क्रूर रूप पर व्यंग्य है। इन कविताओं को संकटकालीन समय की पड़ताल के रूप में तो देखना ही चाहिए, लेकिन व्यक्ति के तौर पर कवि की निष्ठा को जांचने के क्रम में भी देखना चाहिए।

कवि अरुण कमल कविता को मनुष्य द्वारा निर्मित सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज कहते हैं। वह सदैव एक न्यायिक की भूमिका में होती है।

संसार के सारे ही अनुशासन  इतिहास, समाजशास्त्र, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि दगा दे सकते हैं, परंतु कविता की नजर से कोई हत्यारा बच नहीं सकता। कविता के पन्ने इतिहास की शरणस्थली होते हैं। कविता किसी निर्मम चलनी की तरह होती है जिसकी नजर में अपना-पराया कोई नहीं है। उन्होंने तमाम प्रतीकों और बिंबों की सहायता से शोषण के विरोध का पाठ तैयार किया है। कवि ने गदहे पर कविता लिखी है। गदहे को मूर्खता एवं पिछड़े दिमाग का प्रतीक माना जाता है, जबकि घोड़े को तीव्र बुद्धि और गति का। अरुण कमल ने लोकमानस के इस अर्थ को बदलकर गधों को आज के समाज के लिए सबसे उपयोगी और घोड़ों से बड़ा बताया है। घोड़ों की महत्वाकांक्षा ही युद्धों को न्योता देती है। आखिर युद्ध के रथों में घोड़े ही जुते होते हैं, गधे नहीं। समाज में जिसे मंदबुद्धि कहते हैं वह तो न्यूनतम हानिकारक होता है।

इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में सत्ता की जो दौड़ है उसकी जड़ में घोड़े जैसे लोग हैं, जबकि कवि सीधे-सादे, प्राकृतिक लोगों के समाज की परिकल्पना करता है।

कवि ने एक दूसरे चित्र में कोयल की मधुर ध्वनि से परेशान व्यवस्था को चिह्नित किया है। कोयल सृजन का प्रतीक है जिसके गीत से पेड़ों में पल्लव आते, मंजर आते, सुगंध आती, टिकोरे आते लेकिन ‘कुछ लोग ऐसे भी थे जिनको यह सब अच्छा नहीं लगता/ वे कोयल के गाने से चिढ़ते/ कहते, वह आधी रात को गाती है/ नींद तोड़ देती है/ वह आधी रात को काले अंधेरे में गाती/ चांदनी में गाती/ धूप में गाती/ पानी में गाती/ कुछ लोग थे जिनको यह सब अच्छा नहीं लगता/ कहते, शांति भंग हो रही है/ व्यवस्था भंग हो रही है/ कहते राजा सो नहीं पाता/ कोयल आधी रात को क्यों गाती है।’ राजा ने बहेलिये को बुलाकर कोयल की हत्या करवा दी, लेकिन मजे की बात यह है कि कोयल की आवाज फिर भी आती है। कोयल की आवाजों से राजा इसलिए डरते हैं कि वे अपने साथ और लोगों को भी गाना सिखा देती हैं।

अरुण कमल की कविताएं ऐसे ही संघर्ष और प्रतिरोध के लिए सांस्कृतिक मंच बनाती हैं। इस व्यवस्था में जी रहे आम आदमी के संघर्षों को उसके खून-पसीने की कथा को प्रकट करती कविताएं यकीनन संग्रह की सबसे सुंदर कविताएं हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी गंभीर कविताएं भी हैं जो सभ्यता की यात्रा पर दार्शनिक टिप्पणी करती हैं। ‘याद’, ‘जो देश मुझे इतना प्यारा था’, ‘दुख’, ‘पवित्रता’ आदि कविताएं इसी श्रेणी में आती हैं। मनुष्य की विस्मृति पर ‘याद’ कविता व्यंग्य करती है। इतिहास सबको संभालकर रखता है। ‘जो देश मुझे इतना प्यारा था’ कविता में पतन की गाथा है या एक पूरी संस्कृति के मर चुकने की कहानी है, कहना कठिन है।

यह अचानक नहीं है कि आज के युग पर लिखी गई कविताओं में पुराने समय की जीवनशैली की खोज है। लोगों ने विकास के नारों के साथ शहरों में खुद को समा दिया। जब वहां एक थोथा जीवन दर्शन मिला, तब अपने बचपन में लौटे, लेकिन यहां भी सबकुछ खत्म हो चुका था। विकास ने, शहर ने सब कुछ खत्म कर दिया है। इसी कड़ी में ‘दुख’ कविता को देख सकते हैं। सबकुछ सुनसान और वीरान हो चुका है। स्वार्थी लोगों और स्वार्थी समय ने जिन मूल्यों की हत्या की है उनको भुगतने कोई दूसरा नहीं आएगा। अपनी जीवनयात्रा से हार चुके लोग बिना किसी शरण के अब एक मृत मोनोलॉग रच रहे हैं। यह एकालाप रुदन भरा है, सुनने वाला कोई नहीं!

जिज्ञासा: इस हिंसक और आपराधिक समय को कविता में उतारना कितना कठिन है?

अरुण कमल: दुनिया की अधिकतर कविताएं हिंसा के बारे में हैं, रामायण और महाभारत से लेकर इलियड और ऑडिसि और सारी ट्रैजेडी तक। क्योंकि हिंसा अस्वाभाविक है, जीवन का निषेध है। हिंसा हर तरह की हिंसा- क्रौंच वध से लेकर अभी तक- अन्याय और आघात का एक चरम रूप है। भावना पर आघात, देह की निजता का हनन, असमानता, किसी भी तरह का दबाव या रोक-छेंक, स्वाधीनता का अपहरण सब कुछ हिंसा है। इस समाज की नींव में हिंसा है। साथ ही ऐसे क्षणों की तलाश भी हमें करनी है जहाँ पवित्रता और मासूमियत है- सीता, शकुंतला, कॉर्डिलिया, पिकविक, अल्योशा!

जिज्ञासा:‘तलाश’ एक मार्मिक कविता है। इसे अज्ञेय की कहानी ‘गैंग्रीन’ की तरह ही देखना चाहिए। क्या कविता को इस धरातल पर उतारना कहानी की तुलना में कठिन है ?

अरुण कमल: हर कविता में कहानी होती है। कविता और कहानी साथ-साथ चलती हैं। कहानी यानी चीजों का बदलना, कविता यानी बदलती चीजों की पीड़ा। हर बिंब या रूपक या उपमा एक कहानी भी है। हर काम कठिन है। पहाड़ पर चढ़ना, काई पर चलना, सिर्फ चलना भी कठिन है!

जिज्ञासा: हिंसा और घृणा के वातावरण में ‘खोल दो दरवाजे’ जैसी कविताएं समाज में खो चुके आदर्श को पुनर्जीवित करने जैसी हैं। क्या कविता घृणा का विकल्प दे सकती है? यह सवाल इसलिए है कि आज जो चौतरफा नैरेटिव हैं उनमें कविता की आवाज कितनी असरकारी होगी?

अरुण कमल: आदि यूनानी नाटककार इस्खलुस का वचन है- मैं प्रेम में शामिल होता हूँ घृणा में नहीं। यही कविता की मूल प्रतिज्ञा है। हर भाषा का कवि हर आदमी, हर जीव के लिए बोलता है।

इंतजार हुसैन की एक कहानी है जिसमें दीवारों में कैद आदमी सोचता है- एक ही उपाय है, जीभ की नोक से दीवार को कुरेदना और सूराख बनाना। कविता यही काम कर रही है। अगर स्वप्न और आदर्श, और पवित्रता तथा मासूमियत की याद बाकी है तो जीवन बाकी है।

 

समीक्षित पुस्तकें
(1) ऐसा मैं हिंदू हूँ, विष्णु नागर, संभावना प्रकाशन पेपरबैक, प्रथम संस्करण-2024, हापुड़, मूल्य-300
(2) रंगसाज की रसोई,अरुण कमल, वाणी प्रकाशन पेपरबैक, प्रथम संस्करण-2024, नई दिल्ली, मूल्य-295

 

प्राध्यापक, हिंदी विभाग, सेठ आनंदराम जयपुरिया कॉलेज, कोलकाता-700005मो. 9831615131