सोशल एक्टिविस्ट, पूर्व लोकसभा सदस्य (म.प्र.) | लेखक, भाषाविद एवं अनुवादक. |
जब नेहरू से पूछा गया कि आदिवासियों के प्रति भारत का रुख क्या होना चाहिए तो उन्होंने कहा, ‘विनम्रता’।
1931 में, जनगणना आयुक्त जे.एच. हट्टन ने यह सुझाव दिया कि आदिवासी समुदायों की मान्यताओं की रक्षा के लिए स्वशासी आरक्षित क्षेत्रों का सीमांकन किया जाए। जाने-माने आदिवासी एक्टिविस्ट और मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन का भी ऐसा ही मत था।हालांकि, इस विचार की कठोर आलोचना भी की गई।
दुनिया भर में आदिवासी जीवन-शैली के संरक्षण के संबंध में हमेशा अलग-अलग विचार रहे हैं।पहली मान्यता यह है कि आदिवासियों को अपने क्षेत्र में शासन करने की स्वतंत्रता और अधिकार मिलना चाहिए।बाहरी लोगों को उनकी जीवनशैली में दखल देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।इसके उलट दूसरी धारणा यह है कि उन्हें मुख्यधारा में एकीकृत किया जाना चाहिए।
पहली विचारधारा के समर्थक एल्विन का मानना था कि ‘राजनीतिक और आध्यात्मिक समानता के बिना एकीकरण संभव नहीं है’।उन्होंने आदिवासियों की निजता के संरक्षण की आवश्यकता की ओर देश का ध्यान आकर्षित किया।उन्होंने अपने विचारों को उन पर थोपने की मान्यता को चुनौती दी और कहा कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए।ठक्कर बप्पा के नाम से मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर के विचार इसके उलट थे।
ठक्कर बप्पा ने कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले से प्रेरणा लेकर अनेक वर्षों तक आदिवासियों की सेवा की थी और भारतीय अनुसूचित जनजाति संगठन और भील सेवा मंडल के माध्यम से आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी।उन्होंने राष्ट्र-निर्माण के कार्य में आदिवासियों की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त किया।ठक्कर बप्पा ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आदिवासियों की दुर्दशा की जानकारी गांधी को दी थी।इसके बाद ही गांधी ने युवा एल्विन को ठक्कर बप्पा की मदद लेकर आदिवासी इलाके में जाने और काम करने को कहा।
एल्विन ने गांधी की सलाह मानकर अपना शेष जीवन दूरदराज के आदिवासी क्षेत्रों में बिताया।उनकी रचनाओं के माध्यम से ही आदिवासी संस्कृति और समाज के बारे में दुनिया को जानकारी मिली।एल्विन ने आदिवासियों को प्रेरित करके उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए तैयार किया।हालांकि, आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर हमेशा उनपर अपनी खुद की आस्था थोपने की कोशिश की गई।
यह सवाल उठता है कि मुख्यधारा की परिभाषा क्या है? क्या शर्ट–पैंट पहनना और अंग्रेजी बोलना या यज्ञ करना मुख्यधारा में शामिल होने का प्रतीक है? किस देवता की पूजा को या पूजा की किस पद्धति को या विवाह, जन्म और मृत्यु के किस अनुष्ठान को मुख्यधारा माना जाएगा? क्या आदिवासियों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण का प्रबल विरोध करने वाले संघ परिवार के लोगों को अपने कर्मों पर ध्यान नहीं देना चाहिए? एक ओर तो वे आदिवासियों के ईसाई धर्म अपनाने का विरोध करते हैं, दूसरी ओर, उन पर अपनी रस्मों को थोपते हैं।क्या हर किसी को अपने तरीके से जीने का हक नहीं होना चाहिए?
संविधान सभा के सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था, ‘आप आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते।आपको खुद उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों को सीखने की जरूरत है।वे दुनिया में सबसे अधिक लोकतांत्रिक समुदाय हैं’।अपने अकाट्य तर्कों के द्वारा उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जनजातीय जीवनशैली लोकतंत्र की पहली पाठशाला है, जिससे समाज के अन्य वर्गों को लोकतांत्रिक प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए।हमें अपनी मान्यताओं और मूल्यों को उनपर थोपने का कोई हक नहीं है।
भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दोनों दृष्टिकोणों को सिरे से खारिज कर दिया।उन्होंने कहा : ‘आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ने की आड़ में रूढ़िवादी व्यवस्थाओं और आदिवासी समुदायों की जीवनशैली पर अपनी मान्यताओं को थोपना है।’ संविधान सभा में जब जयपाल मुंडा ने आदिवासियों के अधिकारों और हजारों वर्षों से उनपर हो रहे अत्याचार और उत्पीड़न का मुद्दा उठाया, तो नेहरू ने उसने कहा कि आदिवासियों के अधिकार, उनके प्रति न्याय और समानता का व्यवहार ऐसे मामले हैं जिन्हें संविधान संज्ञान में लेगा।नेहरू की सोच को विभिन्न अवसरों पर एक ही शब्द के माध्यम स्पष्ट किया जाता रहा है।जब उनसे पूछा गया कि आदिवासी समूहों के प्रति क्या रुख होना चाहिए, तो उन्होंने कहा, ‘विनम्रता’।डॉ बी.आर.आंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान में जनजातीय धरोहरों/परंपराओं के संबंध में किए गए प्रावधानों की यही आत्मा और परिधि है।
यदि हम अहंकार से मुक्त होकर सोचेंगे, तभी हम आदिवासी समुदायों के साथ न्याय कर पाएंगे।हम न तो उनकी मान्यताओं को हीन मानेंगे और न ही अपने संस्कारों और मान्यताओं को उनपर थोपेंगे।यह नेहरू का बताया गया तीसरा तरीका है।नेहरू द्वारा दिया गया ‘पंचशील’ का तरीका आदिवासी समुदायों के लिए समान अधिकारों और न्याय की नींव है।इसके अनुसार:
1. जनजातीय लोगों को अपने विवेक के अनुसार जीने का अधिकार है।उनपर कोई बाहरी मूल्य नहीं थोपना चाहिए।उन्हें अपनी कला, संस्कृति और परंपरा को विकसित करने की आजादी होनी चाहिए।
यह एक महत्वपूर्ण विचार है, परंतु इसके ठीक उलटा हो रहा है जो या तो सेवा भारती संगठनों द्वारा संस्कृति के नाम पर ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से या मिशनरी संस्थानों द्वारा उन्हें सभ्य बनाने की धारणा को आधार बनाकर किया जा रहा है।शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानवीय सेवाओं की पेशकश करके या उन्हें इन बुनियादी जरूरतों का लालच देकर आध्यात्मिक दासता को अपनाने के लिए मजबूर करना गलत है।प्रत्येक व्यक्ति या समुदाय को अपनी बुद्धि एवं विवेक के अनुसार किसी भी धार्मिक दृष्टिकोण को अपनाने की आजादी है।वह चाहे बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म, शैव, वैष्णव, कबीर पंथ या कोई अन्य धर्म या मत हो।संविधान जनजातीय जीवनशैली को एक अमूल्य धरोहर मानता है।वह किसी भी बाहरी हस्तक्षेप का निषेध करता है और व्यक्तियों की निजता का सम्मान करता है।
2. भूमि और जंगल पर जनजातीय समूहों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।
आदिवासियों की सहज चेतना ने सदियों से प्रकृति के साथ एक अंतर्संबंध स्थापित कर रखा है।संविधान इस सहृदयतापूर्ण पहचान को विशेष रूप से मान्यता देता है।विकासात्मक कार्यों के लिए भूमि के उपयोग हेतु उनकी सहमति जरूरी है।संविधान में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में उनके सहज विवेक के महत्व और उसकी अनिवार्यता को भी ध्यान में रखा गया है।
3. हमें आदिवासियों को शिक्षित एवं कुशल बनाना चाहिए ताकि वे अपने क्षेत्रों का प्रशासन खुद संभाल सकें।
उनसे संबंधित मामलों में बाहरी प्रभाव न्यूनतम होना चाहिए।हाशिए पर विद्यमान आदिवासी समूहों को सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर उनके अपने ही योगदान से सही मायने में विकसित किया जा सकता है, अन्यथा विकास खोखला होगा।संविधान शिक्षा और प्रशासनिक क्षेत्रों में आरक्षण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका सुनिश्चित करता है।उनके संपूर्ण विकास को संस्थागत रूप दिया गया है।
4. अति-प्रशासनिक ढांचे के निर्माण के बजाय उनके सांस्कृतिक संस्थानों के माध्यम से कार्य किया जाना चाहिए।
किसी भी तरह के टकराव से बचना चाहिए।समाज में सही नीति का निर्माण उनके युगों के अनुभव और उनकी सहज बुद्धि से प्राप्त ज्ञान को एकीकृत करके किया जा सकता है।संविधान सुनिश्चित करता है कि आरक्षण के माध्यम से लोकसभा, विधानसभा, पंचायत और शहरी स्थानीय निकाय के चुनावों में उनकी संचित बुद्धि का सदुपयोग सुनिश्चित हो।
पीईएसए के माध्यम से सामुदायिक नेतृत्व को स्वीकार किया जाता है।अनुसूचित क्षेत्रों को विशेष दर्जा दिया जाता है।पारदर्शी पद्धति से सलाहकार समितियों का गठन करके जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाती है।
5. हमें अपने परिणामों का मूल्यांकन पूंजीवादी और सांख्यिकीय गणनाओं के माध्यम से नहीं, बल्कि शुद्ध मानवतावादी मानकों की गुणवत्ता के आधार पर करना चाहिए।
संविधान उन्हें भेदभाव और उत्पीड़न से मुक्त करता है।वह आदिवासियों के साथ-साथ भारत के सभी उत्पीड़ित और हाशिए के लोगों के लिए सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण की गारंटी देता है।
यह आदिवासी समुदायों के उत्पीड़न को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त करेगा और उन्हें सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक समानता, न्याय और उचित अधिकार प्राप्त करने में मदद करेगा।संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियां उन राज्यों और जिलों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करती हैं जिनमें बहुसंख्यक जनजातीय समूह हैं।प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को आदिवासी समूहों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के मूल्यांकन और एक वार्षिक रिपोर्ट का प्रकाशन करने और आदिवासी समूहों के बीच मुद्दों को हल करने के लिए एक समिति गठित करने का अधिकार है।इस व्यवस्था के पीछे की मंशा यह थी कि यदि सत्ताधारी सरकार आदिवासी लोगों से संबंधित मुद्दों के प्रति असंवेदनशील या कठोर साबित होती है, तो राज्यपाल किसी भी राजनीतिक जुड़ाव से मुक्त होकर उनकी स्थिति पर नजर रखने के लिए अच्छी तरह से तैयार रहेंगे।जनजातीय समूहों की बड़ी आबादी प्राकृतिक खनिजों और जल स्रोतों की प्रचुरता वाले क्षेत्रों में निवास करती है।एक ओर जहां खनिजों का उपयोग करना और बिजली और सिंचाई के लिए बांधों का निर्माण करना और राष्ट्रीय हित के लिए वनों और वन्यजीवों के संरक्षण की दिशा में काम करना जरूरी है तो दूसरी ओर यह भी जरूरी है कि बांधों के निर्माण के लिए या खदान के लिए या वनों की कटाई के कारण आदिवासियों का उनकी भूमि से विस्थापन न हो और उनके दर्द को नजरअंदाज नहीं किया जाए।
जमीन, जंगल और शराब माफिया और अवैध खनन से आदिवासियों की जमीन को बचाना हम सबका सामूहिक दायित्व है।पंचशील मार्ग इस दिशा में पहला कदम है और आदिवासी लोगों की आजादी की बुनियाद है।इंदिरा गांधी भी आदिवासी समुदाय के प्रति दया भाव रखती थीं।उन्होंने आदिवासी उप-योजना की नींव रखी, जिसके तहत शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में आदिवासी क्षेत्रों को बेहतर अवसरों और संरचनाओं के साथ पेश करने की नीति बनाई गई थी।बिचौलियों को दूर रखने के लिए छोटे वन उत्पादों के लिए सहकारी समितियों का गठन किया गया था।इसी नीति के कारण गैर-आदिवासी लोग अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि पर मालिकाना हक नहीं प्राप्त कर सके।
अवधेश प्रसाद सिंह : हाउस नं. 222, सी.ए. ब्लॉक, स्ट्रीट नं. 221, एक्शन एरिया-1, न्यू टाउन, कोलकाता-700156 मो. 9903213630