आज़ाद हवाओं में सांस लेने वालों के लिए कविता एक शगल हो सकती है, लेकिन बारूदी धुएँ से घुटी फिज़ाओं वाले अफगानिस्तान जैसे देशों में कवि होना, गुमनामियों और मौत को दावत देना है। खासतौर पर तब, जबकि आप एक स्त्री हों। लेकिन मायने तो इसी बात के हैं कि जब मौत सामने खड़ी हो तब आप क्या चुनते हो – जुबान या चुप… बहर सईद, नादिया अंजुमन, फतना जहांगीर अहरारि और मीना किश्वर कमाल अफ़ग़ानिस्तान की मिट्टी में आकार लेने वाले वही नाम हैं, जिन्होंने मौत के बरक्स जुबान होना चुना। सुनिए वागर्थ की विशेष मल्टी मीडिया प्रस्तुति
सूत्रधार : अनुपम श्रीवास्तव
कविता आवृत्ति : प्रियंका गुप्ता और अनुपमा ऋतु
पश्तो में आवृत्ति एवं व्याख्या : मलिक मोहम्म्द नासिरी
संयोजन एवं अनुवाद : उपमा ऋचा, मल्टीमीडिया संपादक वागर्थ
प्रस्तुति : वागर्थ भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता
वागर्थ पत्रिका को बहुत धन्यवाद कि अफगान कविताओं से हमें रूबरू करवाया। कितना दर्द है इन कविताओं में, कितनी हिम्मत है इन कविताओं में, कितने अनगिनत सवाल है आखिर क्यूँ केवल स्त्री होने के नाते हमें कैद कर दिया जाता है बेहिसाब बंधनों में। रूह कांप जाती है आंखों से अश्रु स्वतः बहते है इन कविताओं के दर्द को महसूस कर। आखिर मैं भी तो एक स्त्री हूँ एक एक शब्द के साथ मैं जुड़ जा रही ।
बहुत सामयिक भाव प्रवण संयोजन, बधाई
बहुत बढ़िया संयोजन, प्रस्तुति।
अद्भुत
अद्भुत
अद्भुत
बहुत ही सुंदर 👌👌👌
अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति का वास्तविक और जीवंत चित्रण।
आभार आपका।
अद्भुत
अद्भुत
अद्भुत।
हालांकि मैं एक नाज़ुक दरख़्त हूँ
पर थरथराउंगी नहीं हवाओं से•••
वाह कितना दर्द …
कितनी आशाएं …
कितनी हिम्मत …
बहुत बहुत आभार वागर्थ ❤️🙏
SPEECHLESS…. LIKE ALWAYS…. BUT THIS TIME A THOUGHT POPPED UP IN MY HEART….. KUCH NRITYAMAYI KAR DOON IS TOPIC PE
बहुत ही सुंदर 👌👌👌
बहुत बढ़िया व सामयिक प्रस्तुति।
ह्रदयस्पर्शी ……
मैं स्तब्ध हूं कि जो सुन रहा हूं वह हमारी ही धरती पर घटित हो रहा है और हमारी ही धरती पर उसे सृजित किया जा रहा है, कहीं आंसुओं का खारापन बेमानी है और कहीं उस खारेपन पर आत्मा चीत्कार कर रही है….। क्या कहूं आप और आपकी इस पूरी टीम के लिए…आप सभी का समन्वय, संजोजन, प्रस्तुतिकरण, चयन सब इतना उम्दा है कि हर बार लगता है कि हमें पूरा सुनना है और कई बार सुनना है, सुनते रहना है…लेकिन यह भी सोचता हूं कि सुनने से कम से कम मैं मानवीय तो कहला ही सकूंगा, कोई कहे न कहे मुझे लगेगा कि मैं उनके दर्द को जानता हूं अपरिचित नहीं हूं, हामी भरता हूं कि हां हमारी इस दुनिया में रेत भी है और नमक भी और दोनों के सौदे क्र्रूरता से हो रहे हैं…पूरी टीम को बधाई…साधुवाद।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। संगीत, शब्द और भावों सुंदर संयोजन।