1
अफ़गानिस्तान की बेटी : नदिया अंजुमन (1980-2005)
मैं नहीं चाहती कि अपनी जुबां खोलूं
आख़िर खोल भी लूं, तो बोलूंगी क्या?
(क्योंकि) मैं वो हूं, जिससे उसकी उम्र भी नफरत करती रहेगी ताउम्र
भले मैं कुछ बोलूँ या नहीं
मेरी उम्र मुझसे करती रहेगी नफरत ताउम्र
मैं कैसे गाऊं गीत शहद का?
ये मेरी जुबां पर जाते ही ज़हर बन जाता है
और बददुआ बनकर टूट पड़ता है उस आततायी की मुट्ठियों पर
जिसने कुचला था मेरा मुंह
क़िस्मत ने मुझे एक ऐसी दुनिया बख्शी है
जहां कोई नहीं है मेरे आसपास मेरा गम बांटने के लिए
भले मैं हँसू या रोऊं, जीऊं या मरूं
कोई नहीं है मेरे आसपास…
मैं और ये क़ैदख़ाना : मेरी चाहतें कुछ भी नहीं चाहतीं
मैं बेकार ही पैदा हुई, पैदा हुई केवल खामोशियों का बोझ ढोने के लिए
ए दिल! मैं जानती हूं कि बसंत बीत चुका है
और उसकी हंसी, उसके रंग भी
लेकिन मैं इन कटे हुए पंखों से कैसे उड़ सकती हूं?
इस पूरे वक़्त चुप रहने के बावजूद, मैं सुनती रही आवाज़ अपने दिल की
जो आज भी उसके लिए गीत गाता है
और उसके लिए हर पल पैदा करता है एक नई ज़िंदगी
एक दिन मैं तोड़ दूंगी यह पिंजरा और इसकी गाढ़ी तन्हाइयां
मैं पीऊंगी खुशियों का अर्क और गाऊंगी
जैसे गाना चाहिए किसी पंछी को बसंत में;
हालांकि मैं एक नाज़ुक दरख़्त हूं
पर मैं थरथराऊंगी नहीं हवाओं से
मैं अफ़गानिस्तान की बेटी हूं
मैं आवाज़ दूंगी अपने भीतर जमा फ़गान (दर्द/ आंसू) को
और बुनूंगी इस गम के तागे कयामत के दिन तक…
2
अमन : फ़तना जहांगीर अहरारि (1962)
हवा के लिए हांफते कमजोर इंसान की तरह
राहत की तलाश में भटकते पंछी की तरह
थोड़ी-सी शराफ़त ढूंढती मुजरिम रूह की तरह
रोटी के लिए बिलखते बच्चे की तरह
पानी के लिए तरसते प्यासे की तरह
मैं चाहती हूं थोड़ा-सा अमन
थोड़ी-सी लय
थोड़ी-सी तसल्ली
और थोड़ा-सा अमन
बस अमन! अमन! अमन!
3
मैं कभी लौटकर नहीं आऊंगी : मीना किश्वर कमाल (1956-1987)
मैं एक औरत हूं,
एक औरत जो अब जाग चुकी है
उठ खड़ी हुई है अपने बच्चों की जली हुई देहों की राख से
तूफान की तरह जी उठी है अपने भाइयों के ख़ून से
हर जलता हुआ गांव मेरा घर है
जो मुझे मेरे दुश्मन के खिलाफ़ गुस्से से भर देता है
ए मेरे हमवतन
अब मुझे कमजोर शिकार मत समझना
मैं वह औरत हूं,
जो अब जाग चुकी है अपनी गहरी नींद से
जिसे अपना रास्ता मिल गया है
और अब मैं कभी लौटकर नहीं आऊंगी।
4
हिजाब : बहर सईद (1953)
यह हिजाब मुझे छिपा नहीं सकता
जैसे मेरे बाल, जो बस झलक भर हैं
मुझे नहीं छोड़ेंगे बेपरदा
मैं एक आफ़ताब हूं
मैं चिलमनों के पीछे भी चमकती रहती हूं
गाढ़ी-से गाढ़ी स्याही भी नहीं दबा सकती मेरी रोशनी
कोई पाक रूह मुझे पर्दा करने के लिए नहीं कहती
गर वाक़ई वो खुदाई होती
वाक़ई होती वो पाक
ए लोगो, मुझे बताओ कि मेरे बाल तुम्हें कैसे भटकाते हैं?
मुझे तुम्हारी नसीहतों में कोई सार नज़र नहीं आता
आख़िर तुम वही हो जिसने मुझ पर ज़ुल्म किया
अब मैं क्यों जलूं नरक की आग में?
मैं इनकार करती हूं सिर झुकाने से
तड़पने से
घुटनों के बल बैठने से
ए ख़ुदा के बंदे
मेरे चेहरे से नज़रें हटाओ
अपने भीतर की कमजोरियों को छिपाओ
जाओ पर्दा डालो अपने मुरझाते यकीन पर…
(अनुवाद : उपमा ऋचा)
रेजा मोहम्मदी
(जन्म 1979, गांधार में जन्मे युवा अफगान कवि और पत्रकार। ‘गार्जियन‘ में कई रचनाएं प्रकाशित तथा प्रशंसित।
1
हम जन्मते हैं फिर
जल कुमुदिनी की रंगीन धारियों में
हम जन्मते हैं फिर
नागचंपा की गंध में
हम जन्मते हैं फिर
खिलाड़ी घुड़सवार जिस घोड़े पर है सवार
उसके मुंह की झाग से
हम जन्मते हैं फिर
अपनी अस्थियां और हड्डियों के जोड़ लेकर
हम जन्मते हैं फिर
लेकर उन तितलियों से दृष्टियां
जो आई थीं हम सभी से पहले
फिरोजी घोंसलों में सोते हैं जो कबूतर
उनके सपनों के साथ
हम जन्मते हैं फिर
फिर से पेड़ों पर उगाने के लिए पत्तियां
और भरने के लिए अंगूरों में स्वाद
और शराबों में सुगंध
और पाने के लिए अनारों के सुपरिचित रंग
और लोहे की कठोरता को खोजने
देखने बहुमूल्य पत्थर के चमत्कार
परचून की दुकानों की कतार
सुनने के लिए ड्रम की दूर से आती आवाज
हम जन्मते हैं फिर
पंक्ति में दौड़ती है चींटियां सुनकर हमारी आवाजें
सुरमा था सुंदर
प्राचीन चिड़िया हुपु भी थी सुंदर
जन्मे थे पेड़
और जन्मे थे फूलों के पौधे
और जन्मे इसी क्रम में हम भी
हम उतरे सड़कों पर
उगते हुए पीले डालिया फूलों की तरह
फैलाते हुए अपनी पंखुरियां
हम जन्मते हैं फिर
कभी भारत में कभी हिजाज के बंजर में
दोनों जगह एक आशा भरी सुबह की खोज में
सृष्टि की शुरुआत में
हमने कहा हवा को हवा
बरसात को बरसात
हमने जाना बसंत और शीत
हम जानते रहेंगे चप्पे-चप्पे पर बहुत कुछ
जब तक मरेंगे नहीं!
2
तुमने पार की सरहद
तुमने पार की सरहद
चुप था तुम्हारा स्वदेश
हो सकता है
कुछ न हो उसके पास कहने के लिए
तुमने पार की सरहद
कल्पना में है अब स्वदेश
कैसा था तुम्हारा स्वदेश
जो नहीं था दुनिया में कहीं और
तुम्हारा स्वागत हुआ था आंसू से
जो था सदा ही दोस्त पर एक भिन्न चेहरे में
गंदगी और धूल के बीच
दुखों ने लगाया था तुम्हें गले
दोस्तों की तरह ये थे सबसे नजदीक
थक गया था बीमार आदमी घूमते गांव-दर-गांव
बड़ी कोमलता से स्वागत किया था उसने
तुमने चाही थीं खुशियां
लेकिन तस्कर तो इन्हें सिर्फ बेचना चाहते थे
तुमने पार की सरहद
कल्पना में है अब स्वदेश
ओ कवि! तुम हो अब दुखों के साम्राज्य में
ऐसी जमीन पर जो है आकाशहीन
ऐसी जमीन पर जहां होता मानव-व्यापार
जहां पैगंबरों का मुंह किया गया है बंद
जहां कुत्ते हैं शासक और इमाम हैं आदिम
किसी मस्जिद में प्रार्थना के लिए जो नहीं जा सकते
दिए बिना घूस
धरती पर
क्या उम्मीद करोगे तुम स्वदेश से?
क्या त्योहार में
खाने की टेबुलें नहीं हैं हड्डियों की तरह नुकीलीं?
कवि! तुम्हारा स्वदेश एक विलुप्त अतीत है
अब कुछ नहीं है यहां सिवाय अपमान के
लालच, ऊब और दुखों के
कविता से अधिक महत्वपूर्ण है यहां
स्वर्ण और सत्ता
तुम्हारी पवित्र प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं यहां!
3
विडंबना
एक चांदी-सी चमक लिए फूलदान में
तुमने सजा रखे हैं कुछ नकली फूल
खिड़की है एक पेंटिंग में
सूरज ने दिखा दी है तुम्हारी नकली मुस्कान भी
सो तुमने लगा लिया है चेहरे पर मास्क
फिर भी मैं तुम्हें हृदय से करता हूं प्यार
और यह सच है!
(रेजा मोहम्मद की कविताओं का अनुवाद : शंभुनाथ)
संपर्क अनुवादक : प्रोमिला,असिस्टेंटप्रोफेसर, हिंदी विभाग,अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500007, तेलंगाना। मो. 8977961191
बहुत ही मार्मिक कविताएं।प्रतीत हो रहा है किअफगानिस्तान की धरती का कण -कण दुबक रहा काश स्वर्ग सी सुन्दर धरती से पीड़ा के बादल छट जायें
बहुत ही मार्मिक कविताएं।प्रतीत हो रहा है कि अफगानिस्तान की धरती का कण -कण सुबक रहा । काश स्वर्ग सी सुन्दर धरती से पीड़ा के बादल छट जायें