वरिष्ठ कवि।कविता संग्रह खोई हुई हँसी।संप्रति स्वतंत्र लेखन।

भीतर की आग

किसने कहा था तुमसे
प्रश्नों से विचार को टकराओ और
वाणी को एक नया अर्थ दो
व्यवस्था के भीतर की आग
बाहर आकर किसी पेशेवर वेश्या सी
टहल रही है
किसने कहा था- तुम हवा से अजनबी सा
सुलूक करो और विचारों को
चहारदीवारी में कैद कर लो
किसने कहा था- तुम आम आदमी से
दोस्ताना बर्ताव करो और
दुख दर्द में शामिल हो
किसने कहा था-
तुम सैलाब सा उमड़ो और चिड़ियों सा
चहको
किसने कहा था
एक तानाशाही मुट्ठी से किसी को
मुक्त कराओ
किसने कहा था खुद पर जमी धूल को
गर्द सा झटको
किसने कहा था तुमसे मसीहा बनने को
वाकई यह सब किसने कहा था।

ताउम्र

हम जूते पर लिखें या तुम्हारे पैर पर
क्या फर्क पड़ता है
पैर पैर ही रहेगा जूता-जूता
इसके बावजूद हमारे भीतर
ज्वालामुखी का धधकना क्या मुनासिब है
मेरी कही गई बातों से अगर
आम आदमी की जिंदगी बदले
तो मैं ताउम्र कहूँ
फिर भी मेरी कविता के बयान से
आम आदमी सोचता है और
मेरा बयान कविता में बदल जाता है
आम आदमी
सोचता है
जूता पैर से
कैसे बड़ा है
और पैर जूते से
कैसे छोटा है।

सूरज

अगर तुम्हें सूरज एक कटोरे की तरह
दिख रहा है तो दिखे
अगर मुझे सूरज आग के गोले की तरह
दिख रहा है तो दिखे और
अगर उन्हें सूरज क्रांति की तरह
दिख रहा है तो दिखे
अगर सूरज किसी को भ्रांति की तरह
दिख रहा है तो दिखे
सूरज पर क्या फर्क पड़नेवाला है
सूरज सूरज ही रहेगा
सूरज आज भी पहले की तरह चमक रहा है।

सवाल की तरह

अदहन की तरह खौलता है मन
और हमेशा की तरह भागता जाता है समय
टिक जाती है निगाह और आदमी
खोजता रहता है आदमीनुमा आदमी
आदमी मिल नहीं पाता
आदमी आदमी नहीं रह पाता
आदमी चुरता रहता है दाल की तरह
आदमी मिटता रहता है सवाल की तरह।

आज का आदमी

वह बतियाते हुए
खाने में नमक की तरह घुलता है
वह बतियाते हुए
दाढ़ी में फिटकिरी की तरह चुनचुनाता है
वह चलते हुए रास्ते में
छाते की तरह खुलता है
वह घुटते हुए कुछ देर के लिए
दुख को भूल जाता है
वह जरूरत से ज्यादा अपने को तूल देता है
वह बात करते हुए चौंकता है
और अपने वजूद से लड़ता है
वह आज का आदमी है।

खुशी को सम्हाले हुए

खुशी को सम्हाले हुए
हम दुख से लगातार लड़ रहे थे
हमें डर है
कहीं इस लड़ाई में
खुशी जमीन पर गिरकर
बिखर न जाए
फिर हम
किस तरह जमीन से उठाएंगे
खुशी।

संपर्क :कमर बाग, महेवा पूरब पट्टी, पो. एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट, नैनी, इलाहाबाद२११००७ मो. ९५५९०११०१७