सरकारी सेवा से निवृति के बाद स्वतंत्र लेखन।विभिन्न विधाओं की  कुल बयालीस पुस्तकें प्रकाशित।

खोया है एक मन

बाग में, बगीचे में
पोखर में, ताल में
कंचे, कबड्डी
शरारत, धमाल में
अभी ददिहाल
अभी-अभी ननिहाल में
सुधियों के मेले में
खोया है एक मन

तुतलाते होंठ पढ़ें
द्वेष के ककहरे
उथली सी बातों के
भेद बड़े गहरे
दहशत में उम्र गई
पहरों पे पहरे
भीड़ में, अकेले में
रोया है एक मन

जिस दिन अंखफोड़ हुआ
फर्ज का किताब दिया
जिंदगी ने एक-एक
सांस का हिसाब लिया
शाम ढले रास्ते में
पाया जो एक ठिया
थक कर झमेले में
सोया है एक मन।

बचपन

सहमा-सहमा
चला जा रहा
बुनता गहरा सा सन्नाटा

शाम को ट्यूशन
देर रात तक
होम-वर्क था कर के सोया
कच्ची नींद जगा
हड़बड़ में
कड़वाती आंखों को धोया
बोझ लाद कंधे पर
भागा
दौड़-भाग में बचपन खोया
अपनी चाहत
के सांचों सा
माता-पिता ने काटा, छांटा

विस्मृत
बाल-सुलभ लीलाएं
उमंग नहीं, उल्लास नहीं है
आशंकित
मन बुझा-बुझा सा
नींद, भूख और प्यास नहीं है
मम्मी-पापा पुचकारें
उनको
इतना अवकाश नहीं है
पास हैं उनके
सिर्फ नसीहत
झिड़की, डांट, डपट और चांटा।

गांव की चिट्ठी

सड़ रहा पानी
कुएं का, ताल का
बो रहा है गांव
नफरत की फसल

हँसी, ठट्ठे
बैठकी चौपाल की
बतकही
ददिहाल की, ननिहाल की
हो चुकी है
बात गुजरे काल की
शाम सहमी
रात है बेहद डरी
हर गली, हर ठांव
दहशत की फसल

जांत, ओखल
सिल, कोल्हू हट गए
प्रगति में अवरोध
बरगद कट गए
आदमी
बस जातियों में बंट गए
असलहे, दारू
व सपने बांट कर
काटता चुनाव
जनमत की फसल।

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