युवा कवि।एक सरकारी शिक्षण संस्थान में शिक्षक।कविता संग्रह मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषाऔर बाल कविता संग्रह क्यों तुम सा हो जाऊँ मैंप्रकाशित।

कामना

उस शहर में रहना चाहता हूँ
जहां साइकिल देखकर
रुक जाती हों मोटरगाड़ियां अदब से
प्रेमी जोड़ों को देखकर
मुस्करा उठते हों बूढ़े और भर जाते हों
किसी मीठी स्मृति की गंध से

रहना चाहता हूँ उस शहर में
जहां गरीब से गरीब की आंखों में भी
झलकती हो दो जून की रोटी की आश्वस्ति
जहां अमीर भरे हों कृतज्ञता से
खरीदते हुए सुख-सुविधाएं
किसान और धरती के प्रति
उस शहर में बसना चाहता हूँ
जहां मयस्सर हो कम से कम इतना एकांत
कि कवि कविताएं लिख सकें
और रो सके कोई भी मन भर
जहां बदतमीजी न हो
हो भी तो कोई न कोई रोक सके
हर बार आगे बढ़कर

बसना चाहता हूँ ऐसे शहर में
जहां इंसान की पहचान
महज उसके इंसान होने से हो
धर्म की आयतें श्लोक वाणी सब
ईश्वर की नहीं आदमी की बांह गहती हों
जहां मृत्यु शालीन हो और जिंदगी किलकती हो

कोई बताए
कहां है यह शहर?

डर के आगे जीत

हम पर नजर थी उनकी
हम क्या करते!

सांस तो लेना ही पड़ता
सो लेते रहे
बस कोशिश रही कि उदर न हिले
जिंदा रहें पर मुर्दों सा मुंह सिले
नजरों को रखा एक सीध में
जुबान बाहर नहीं मुड़ी रही कंठ की ओर

हमने लिखे अक्षर और शब्द
लेकिन वही जो अर्थहीन थे
या जिनसे फूटते थे उनकी प्रशंसा के सोते
हम मूर्त से अमूर्त होते चले गए
अमूर्तता थी उनकी जद से बाहर की चीज
उन्हें खतरा भी नहीं था उससे

हमें मालूम था
कि ये जीना नहीं है कोई जीना
जिसमें न रीढ़ तन सके न फैल सके सीना
हम बुदबुदाने लगे बदलाव के नारे
मार खाते हुए भी आने लगे हमारे सपनों में
कार्ल मार्क्स, गांधी, अंबेडकर, फुले और फ्रेरे

जितना चाहा गया बोना हमारी चेतना में
गुलामी के बीज
हमारे मन की मिट्टी पर
उतने ही लहलहाए क्रांति के गीत
एक दिन गाने लगे उन्हें हम कोरस में
उनकी नजर के सामने

पहले हमने सीखा नजर में न आना
फिर उसे किसी उनके ही जैसे झूठ से झुठलाना
फिर धूल भी झोंकना
पर कब तक!

अब हम गा रहे हैं उसकी नजरों के सामने
उनके ही पतन का तराना
अब हम डरते नहीं हैं
‘डर के आगे जीत है’ कहकर भिड़ जाते हैं उनसे।

मैं क्यों बोलूं भाया!

धरती बोले अंबर बोले
नदियां बोलें सागर बोले
मैं क्यों बोलूं भाया
कि मैं कौन देस से आया

बोलें पड़ोसी परिचित बोलें
बोलें अपरिचित चर्चित बोलें
मैं क्यों बोलूं भाया
कि मैं कौन धर्म का जाया

करुणा बोले साहस बोले
जनहित बोले राहत बोले
मैं क्यों बोलूं भाया
कि कितनी मुझमें माया

पीड़ित बोलें निर्भर बोलें
बोले प्रकृति सहचर बोलें
मैं क्या बोलूं भाया
कि कितना मैंने खाया।

खुशी

जैसे उतरता है हरापन
जंगलों के धूसर बदन पर
वैसे ही उतरती है खुशी

जैसे चमकती है कोमल बर्फ
ऊंचे उदात्त पर्वतों पर
वैसे ही चमकती है खुशी

जैसे बरसती है रिमझिम बारिश
मुंडेरों के तप्त मन पर
वैसे ही बरसती है खुशी

जैसे पसरती है नन्ही ओस
सोते घास के मैदानों पर
वैसे ही पसरती है खुशी

जैसे उगती है हरी दूब
सूखी चट्टानी मिट्टी के पोरों से
वैसे ही उगती है खुशी

जैसे फैलती हैं प्यासी जड़ें
जलधि पृथ्वी के गर्भ में
वैसे ही फैलती है खुशी

जैसे कुलबुलाता है मन
स्पर्श से नवविवाहिता का
वैसे ही कुलबुलाती है खुशी

जैसे उपजती है जिज्ञासा
सतत बच्चों के मन में
वैसे ही उपजती है खुशी

जैसे टकराती हैं तट से लहरें
बार-बार सागर की
वैसे ही टकराती है खुशी

जैसे फूटती हैं स्वर्ण किरणें
सुबह-सुबह सूरज की
वैसे ही फूटती है खुशी

जैसे बिखरती है खुशबू
फूलों की हवा में
वैसे ही बिखरती है खुशी

जैसे रीतता है समय
मुट्ठी की रेत सा हर सांस में
वैसे ही रीतती है खुशी।

अभी-अभी

देखा मैंने अभी-अभी
व्यस्तता नहीं एकांत बनी बैठी थी
एक बच्ची अपनी मां की
मां ढूंढ रही थी खुद को
आंखों में उसकी

अभी-अभी जाना मैंने
धरती नाच रही थी
अपनी ही लय में अपनी ही धुन में
सूरज की नहीं
खुद की परिक्रमा में वो रत थी

सुना मैंने अभी-अभी
गा रही थी नन्ही भूरी चिड़िया
आंख मूंदे गला उठाए
आनंदित हो मंत्रमुग्ध थी प्रकृति
हवा का केश फहराए

अभी-अभी पाया मैंने
बसंत बैठा था मेरे कांधे
किसी तितली की तरह
मैं इतना ध्यानस्थ सजग हो उठा कि
तितली न उड़ जाए बसंत ओझल न हो पाए।

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Painting : Peter-Harskamp