कथाकार और पत्रकार। अद्यतन उपन्यास ‘सांवली लड़की की डायरी’।
‘बिलकुल, आप कुछ नया नहीं कर रहे हैं। देश-दुनिया का इतिहास भरा पड़ा है, इस किस्म की शादियों से! आपने भी तो यूपीएससी के लिए हिस्ट्री पढ़ी है। आपको याद ही होंगी इस तरह की शादियां- चंद्रगुप्त-हेलेना, बिंबिसार-कौशल देवी, पुर्तगाली कैथरिन और ब्रिटिश चार्ल्स सेकंड। इसमें कुछ नया नहीं है। इसके लिए बाकायदा एक शब्द है, पोलिटिकल मैरेज! नया यह है कि मैं इसके लिए किसी कीमत तैयार नहीं हूँ। भाई सा, मैं कोई आपके घर में रखा हुआ गिफ्ट आर्टिकल थोड़ी हूँ कि आप रिश्ता, हैसियत और स्वार्थ देखकर मुझे किसी को भी सौंप दें, मैं इंसान हूँ। मेरी अपनी मर्जी है।’ राजो बाई सा2 बोल रही थी।
लूनी ने सबसे पहले यशा बाई सा की तरफ देखा था।
‘देख जब तन्ने मालम है कि यो ही सब होए तो क्यों जिद करे छोरी? यशा-बिन्नी के देख… वा भी तो अई नी!’ लूनी की गर्दन घूमी, ये तो बूजी हुकुम हैं।
‘हां मां सा। यशा भाभी सा और बिन्नी भाभी सा आईं या उन्होंने नहीं किया विरोध। मगर मैं कर रही हूँ। आप ठाकुरों के घर से आई हैं और ठाकुरों में ही ब्याही हैं, आपको नहीं लगता है कि आपकी कोई मर्जी-नामर्जी है?’ राजो बाई सा जैसे हरेक के सामने तलवार लेकर तनी खड़ी है।
लूनी को पहले यशा बाई सा ही समझ नहीं आती थी, आज उसे लग रहा है कि राजो बाई सा और भी गजब लुगाई है। लूनी बात को कुछ समझी और बहुत सारी नहीं समझी, मगर जब उसने यशा बाई सा के चेहरे की तरफ देखा तो उसे लगा जैसे वह हीरे की तरह जगमग कर रहा है।
‘हां, छोरियों की मर्जी से तो नहीं धरोगे, मगर जब आपको लगे कि आपका इंटरेस्ट फुलफिल हो रहा है तो न आपकी मूंछ पर बल आता है और न ही रक्त की शुद्धता पर सोचते हैं। भूल गए, मुगलों को कितनी राजकुमारियां गई हैं राजपूतों की! बस आपकी इज्जत तभी दांव पर लगे, जब लड़की अपनी मर्जी की बात करे। शादी मेरी मर्जी से ही होगी, और होगी तो सतविंदर से ही होगी। बात खत्म। अरे हां! रक्त की शुद्धता आपकी अपनी… आपके घर में राजपूतों की बेटियां ही आनी चाहिए। आप अपनी बेटियों को अपने स्वार्थ के लिए किसी से भी ब्याह देंगे। जैसे राजपूतों ने अपनी बेटियों को अपना राज्य बचाने के लिए मुगलों से ब्याह दिया। कोई मुगल लड़की राजपूतों से ब्याही गई? नहीं, क्योंकि राजपूतों को अपना खून शुद्ध चाहिए। आप चाहे जो कर लो, दिक्कत तभी आएगी, जब खुद बेटी अपनी पसंद से शादी करना चाहे। मगर इस बार होगा वही, जो मैं चाहूंगी’, कहकर राजो वहां से तनतना कर चली गई थी।
लूनी ने देखा था कि दोनों भाइयों औऱ मां के बीच इशारों में कुछ कहा-सुना गया।
राजो बाई सा को उसने यशा बाई सा की शादी में देखा था, मगर तब बारात में आई थीं। तब राजो बाई सा बस चौदह-पंद्रह बरस की ही होगी, बाद में बखत-बखत पे राजो बाई सा आती, कुछ दिन रहती और शहर चली जाती। बाद में नारंगी ने बताया था कि राजो बाई सा शहर में होस्टल में रहती हैं। यूं लूनी की तरफ ऐसा पहली बार हुआ था कि लुगाइयां भी बारात में आईं। बड़ा कुंवर सा ने इंतजाम बहुत अच्छा किया था, लेकिन शराब-उराब पर पाबंदी थी। इसलिए बहुत सारे रिश्तेदार नाराज थे।
जब लूनी भी अपने घर से विदा होकर यशा बाई सा के साथ रतनगढ़ के बड़े रावले में आई थी, हवेली और चकाचौंध देखकर यशा बाई सा की किस्मत पर निछावर रहती थी। एक दो बार वह बाई सा को यह बात बोल चुकी थी, लेकिन वह देखती कि यशा बाई सा कोई जवाब नहीं देती थी, बस मुस्कराकर रह जाती थी। बचपन से वह यशा बाई सा की सेवा में है। इसलिए बहुत पास से उनको देखती रही है, फिर भी कई बार वह लूनी को समझ नहीं आती थी। अभी भी वह कहां समझ आती है। यशा बाई सा कॉलेज जाती, इत्ती देर ही लूनी मां सा और काकी सा के साथ उनके काम में हाथ बंटाती थी।
जैसे ही यशा बाई सा कॉलेज से लौटती, लूनी उनके कमरे में हाजिरी देती। लूनी देखती कि यशा बाई सा ज्यादातर दिन किताबों के बीच ही रहती थी। हवेली की दूसरी मंजिल पर यशा बाई सा का कमरा था। कमरा क्या कहो, हॉल जैसा था। ऊंची-ऊंची दीवार के बीच बाहर गैलरी थी, जिसमें लकड़ी के फ्रेम वाला कांच का दरवाजा था। उसपर खूब सुंदर रंग-बिरंगी कांच लगे हुए थे। गोल पलंग था, जिसपर झालर वाली चादर बिछी रहती थी। कोने की दीवार पर खिड़की से लगी बड़ी नक्काशीदार टेबल थी, जिस पर लैंप था और उसी से लगी किताबों की अलमारी थी।
पढ़ने की टेबल के पास ही एक दरवाजा था जो उनके चेंजिंग रूम और फिर वहां से बाथरूम ले जाता था। पहली बार लूनी जब यशा बाई सा के कमरे में अपनी मां के साथ आई थी तो आंखें चौंधिया गई थीं। जित्ता बड़ा यशा बाई सा का कमरा था, उतने में लूनी, लूनी की मां, बापू और छोटा भाई बीरन, चौका, बैठक और नहानघर सब समा सकता था।
यशा यानी कि यशस्विनी राजे सूरजगढ़ के बड़े कुंवर सा की बेटी है, लेकिन वह छोटे कुंवर सा की भी लाड़ली है। लूनी ने बचपन से सुना है कि यशा बाई सा के जन्म से पहले दाता हुकुम यानी की यशा बाई सा के दादा के कारोबार में बहुत घाटा हो रहा था। यशा बाई सा के जन्म वाले दिन से ही सब बदलने लगा और खूब मुनाफा हुआ तो खानदान में तीन पीढ़ी बाद आई छोरी को लेकर पूरा खानदान ही बौराया-बौराया रहता था।
जब यशा बाई सा आठ साल की थी, तब चार साल की लूनी को उसकी मां अपने साथ रावले ले जाया करती थी। लूनी की मां को यशा बाई सा की खिदमत के लिए रखा गया था। जब लूनी बारह साल की हुई तो वह दिन–रात यशा बाई सा के साथ रहने लगी। उसे पता ही नहीं चला कि कब मां के हाथ से यशा बाई सा की खिदमत का जिम्मा उसके हाथ चला आया।
जब यशा बाई सा बाईस की हुई और वह पढ़ रही थी, तब ही उनका ब्याह रतनगढ़ के बड़े रावले के बड़े कुंवर योगेंद्रराजे से कर दिया गया। लूनी को यशा बाई सा के साथ रतनगढ़ आना ही था, आ गई।
बाकी सासरे में उनको किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। ससुर जी का बड़ा कारोबार था। लूनी ने बड़े दाता हुकुम यानी कि रतनगढ़ के रावले के बड़े सरकार को नहीं देखा था, क्योंकि उसके आने से दो साल पहले ही वे नहीं रहे थे। बूजी हुकुम बड़ी दबंग औरत हैं। बड़े कुंवर सा और छोटे कुंवर सा की दो अलग-अलग हवेली को रसोई, डायनिंग हॉल और बूजी हुकुम का रहवास अलग करता था। बूजी हुकुम चूंकि सुबह जल्दी उठते थे, इसलिए रात आठ बजे तक उनका खाना हो जाता था। दिन का खाना अमूमन सब साथ ही खाते थे। पांच बीघा जमीन पर बड़ा रावला में आस-पास में दो हवेलियां बनी हैं, बीच का हिस्सा कॉमन है।
सवेरे जब लूनी हवेली पहुंची, वहां कोहराम मचा हुआ था। राजो बाई सा रात की रात कहीं चली गई है। भग्गा को तुरंत रवाना होने के लिए कहा। भग्गा छोटे कुंवर सा और छोटे रावले के बना लोगों के लेकर शहर के लिए निकल पड़ा। मगर दो-तीन दिन तमाम दौड़-भाग करने के बाद सब खाली हाथ ही लौट आए। न राजो बाई सा मिली औऱ न ही उनकी कोई खबर।
सप्ताह भर बड़ा रावला में जैसे मातम-सा रहा। एक रात बड़ी हवेली का फोन घनघनाया, बड़े कुंवर सा ने फोन उठाया। राजो बाई सा ने खम्मा घणी किया तो बड़े कुंवर सा चीखे, ‘राजो, हमारे लिए तू मर गई है। बूजी हुकुम ने तेरी तेरहीं के लिए बामणों को बुला लिया है। अगले इतवार को हम तेरा तर्पण कर देंगे। खबरदार जो आइंदा कभी फोन किया।’
आदित्य बना बड़े कुंवर की एकमात्र संतान हैं। यशा बाई सा की आंखों का तारा। छोटे कुंवर यानी कि सुरेंद्रराजे यानी कि सीटू बना के घर भी एक बेटा है ज्योतिर्मय या ज्योति बना। बिन्नी बाई सा यानी कादंबिनी सीटू बना की घरवाली है जो ज्योति बना के जन्म के पांच साल बाद फिर से पेट से थी। जब जचगी के लिए अस्पताल ले गए तो मरते-मरते बची, बच्चा पेट में ही मर गया था। बाद में पता चला कि वह छोरी थी। लूनी ने सोचा, चलो अच्छा ही हुआ, यूं भी ठाकुरों में छोरियों की कहां जरूरत है!
आदित्य बना और ज्योति बना की उम्र में चार साल का फर्क है, लूनी का बेटा शिवेंद्र आदित्य बना से साल भर छोटा और ज्योति बना से तीन साल बड़ा है। तीनों साथ-साथ ही खेलते हैं। मगर दोनों ठाकुरों के लड़कों का रवैया ठाकुरों की तरह का ही है। शिवेंद्र उनके लिए भग्गा हाली का ही बेटा है, ईश्वर जाने शिवेंद्र में इतनी समझ कहां से आ गई, कि वह धीरे-धीरे ठाकुरों के लड़कों से अलग रहने लगा।
यशा बाई सा के बाल सुलझाती लूनी को एकाएक शिवेंद्र की याद आ गई। चोटी बांधती लूनी कहती है, ‘बाई सा मैं जरा घर होकर आऊं? शिव आ गया होगा! उसको रोटी खिलाकर आती हूँ।’
शिव के लिए घर लौटती लूनी को एकाएक मां याद आ गई थी। आखिर उसकी मां की वजह से ही वह यहां इस महल में है। यदि उसकी मां यशा बाई सा की धाय नहीं होती तो लूनी यशा बाई सा के साथ कैसे आती? वह सोचती है, उसकी मां की तरह वह भी आदित्य बना की धाय हो गई है। जो उसकी मां का नसीब रहा, वह ही लूनी का भी नसीब है। क्या नसीब भी विरासत में ही मिला करते हैं?
लूनी को वह दिन याद आता है, जब पहली बार उसकी चड्ढी खून में सनी थी। उस दिन उसकी माँ ने उससे पहली बार बहुत गंभीर होकर कहा था, ‘देख लूनी, अब तू बड़ी हो गई है। मर्दों की नजर से जितना खुद को बचा सके, उतना बचा कर रखना। तू जितना चुप रहेगी, जितनी कम दिखेगी, उतना ही तेरे लिए अच्छा होगा। हम जिन लोगों के बीच में रह रहे हैं वे बहुत ताकतवर हैं। उनसे बचकर रहना ही एक उपाय है। उनसे लड़ नहीं सकते हैं। इसलिए यदि न बचा पाए तो बहुत लड़ना मत।’
लूनी ने सुन लिया था, मगर बहुत समझ नहीं पाई थी। फिर भी उसने सारी बातों को दिमाग में दर्ज कर लिया था। वहां यशा बाई सा के साथ ही बनी रहती थी, इसलिए ज्यादा मर्दों के बीच आना-जाना नहीं हुआ था।
यशा बाई सा के साथ यहां आई तो पाया कि छोटे कुंवर सा यानी कि सीटू बना आते-जाते उसे देखते, मौका मिलते ही टकराकर निकल जाते, चिकोटी भरते, लूनी चुप रहती। कई बार मन में आया कि यशा बाई सा को बताएं, लेकिन उसे लगता खुद यशा बाई सा भी सासरे ही आई है। फिर चाहे लूनी हो चाहे यशा बाई सा या राजो बाई सा, यहां किसकी सुनी जाती है! लूनी चुप ही रही और छोटे कुंवर सा के सामने पड़ने से बचने लगी। मगर ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही पिंजरे में शेर औऱ बकरी साथ-साथ रहें और बकरी शेर के पंजे से बच जाए।
एक दिन लूनी छोटे कुंवर सा के हत्थे पड़ ही गई। लुटी-पिटी जब यशा बाई सा के सामने पड़ी तो उन्होंने लूनी को बहुत गहरी नजर से देखा था। लूनी ने बताया, पर यशा बाई सा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। बस इतना कहा था, ‘अपने महीने का ध्यान रखना!’
लूनी ने भरी आंखों से उनकी तरफ देखा था। वे ठहरकर बोलीं, ‘तुझे पता ही है, रावले में यह सब होता ही है!’ लूनी का मन चीखने को हो आया, लेकिन समझ में आ गया कि उसके चीखने से कहीं कुछ नहीं बदलना है।
आखिर लूनी ने यशा को वह खबर भी दे दी, ‘महीना-पंद्रह दिन चढ़ गया है बाई सा!’
ये वे दिन थे, जब यशा बाई सा के पूरे दिन थे और उनके डॉक्टर के यहां चक्कर लगते ही रहते थे। इस बार वह लूनी को साथ लेकर गई थी। वह खबर डॉक्टर ने दी जिसकी आशंका यशा बाई सा को पहले ही थी, लूनी पेट से थी!
उस रात अपनी खोली में लूनी जाग रही थी और सोच रही थी कि अब उसकी जिंदगी का क्या होगा! वह क्या करेगी! बच्चा रखेगी या गिरा देगी! खिड़की की चौखट पर कोहनी टिकाए उसे मां याद आ रही थी। हर ऐसे मौके पर मां क्यों याद आ जाती है?
मां कहा करती थी कि औरत औरत ही होवे री लूनी! चाहे रावले की हो, चाहे खोली की… सबको एक–सा दुख होवे है!
मगर आज लूनी को लगता है कि नहीं, यशा बाई सा का दुख अलग है, लूनी का दुख अलग है। पिछली बार जब यशा बाई सा के दाता यहां आए थे, तब उनकी बूजी हुकुम से कुछ गरमा-गरमी हो गई थी। उसके लिए कौन लड़ने वाला है? उसे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि बाप के बिना कोई बच्चा नहीं जन्मता, मगर हमारे बाप कहां हैं!
गंगाराम क्या मेरा बाप नहीं है? क्यों मुझे यशा बाई सा के साथ यहां चाकरी करने भेज दिया! वह याद करने की कोशिश करती है कि कब गंगाराम ने अपनी तरफ से कोई फैसला किया था? उसे याद नहीं आता, उसका दिमाग चकराने लगता है, तो क्या गंगाराम मेरा बाप नहीं है…! वह अपने पेट पर हाथ रखती है। उसकी आंखें भर आती हैं।
दूर तक फैला लॉन, फूलों से लदी क्यारियों, छोटे तालाब पर संगमरमर से बने दो हाथी… चारों तरफ की पीली रोशनी में रहस्यमय लग रहा था। भरी आंखों से वह देख रही थी और सोच रही थी कि इस सारे वैभव में उसकी हस्ती क्या है? वह रहती इसी महल में है, लेकिन उसके लिए यह क्या है! तभी उसकी नजर पड़ती है, यशा बाई सा रात के कपड़ों में सीढ़ी उतर कर धीरे-धीरे लॉन पर टहल रही है। अगहन की रात में पानी से तर लॉन में सर्दी और बढ़ जाती है। ऐसे में यशा बाई सा को खुले में नहीं आना चाहिए, सोचकर वह पलटती है और फिर ठहर जाती है। वह उन्हें देखने लगती है, वह अब लॉन की कुर्सी पर बैठ गईं हैं। उसके मन में एक विचार आता है कि उसे यशा बाई सा के साथ होना चाहिए, आखिर वह पूरे दिन से है, मगर उसके भीतर कड़वाहट की कोई लहर आती है। वह पलटकर अपने पलंग पर लेट जाती है।
औऱ अगली सुबह…
यशा बाई सा उसके सामने लाल रंग की ओढ़नी के साथ पीले रंग का लहंगा और काचली चोली रखकर कहती है, ‘आते मंगलवार भग्गा हाली से तेरी शादी है।’
भग्गा हाली… बड़ा रावला का बंधुआ, उसकी मां यहीं काम करती थी। बाप(!) अभी चार महीने पहले मरा है। पैंतीस साल का धूप से तपे तांबे-सा शरीर और घुंघराले बालों वाला आदमी। कोई ऐब नहीं है। गर्दन झुका के आना और गर्दन झुका के जाना। किसी को बाहर आना-जाना हो तो भग्गा हाली ड्राइवर भी हो जाता है। लूनी ने उसे ऐसे ही कभी-कभी आते-जाते देखा है।
वह समझ नहीं पा रही है कि उसे खुश होना चाहिए या रोना चाहिए। यशा बाई सा चली गईं। लूनी सुन्न बैठी हुई है। मगर कितनी देर वह ऐसे सुन्न बैठी रह सकती थी। थोड़ी ही देर में नारंगी दौड़ी-दौड़ी आई, ‘जिज्जी बाई सा को दरद आ रहे हैं। आपको बुला रही हैं।’
लूनी उनके कमरे तक जाते-जाते सोच रही थी, हमारा दुख भी कितना बिचारा है, वह भी हमारी ही तरह बिना नाज-नखरे उठाए रहने का आदी हो जाता है। इधर यशा बाई सा के घर आदित्य बना आए। उधर लूनी ब्याह करके भग्गा हाली के घर की हो ली।
मगर आदित्य बना के आने के बाद लूनी की हवेली में ज्यादा जरूरत है, तो लूनी को भग्गा सहित आउट हाउस में बुला लिया। जो लूनी शादी से आशंकित थी, वह लूनी अब खुश रहने लगी। भग्गा उसे हाथ पे रखने लगा।
लूनी के घर शिवेंद्र आ गया। भग्गा के भाग खुल गए। उसका जी चाहता कि वह मां-बेटे को घेरे ही रखे। मगर क्या करे बिचारा, बंधुआ के भाग में इत्ता सुख कहां बदा है? बड़ा होता शिवेंद्र कहने लगा है कि उसे लाल बत्ती वाली वैसी ही गाड़ी चाहिए, जो ज्योति बना के मामा सा के पास है। कुछ दिन पहले ही बिन्नी बाई सा के ममेरे भाई अपने किसी केस के सिलसिले में हवेली पधारे थे। दो दिन वह यहीं रहे, शिवेंद्र ने उनके सारे ठाठ-बाट देखे। ठाठ-बाट होंगे क्यों नहीं, अगले जिले में पुलिस के बड़े अधिकारी जो हैं।
शिवेंद्र जब यह सब कहता तो सुनकर लूनी हँसती। लेकिन भग्गा उसके सिर पर बहुत प्यार से हाथ रखता। लूनी का मन भीग जाता है, उसके जीवन में ये सबसे बड़ा सुख है और सबसे बड़ी टीस भी। ऐसा कैसे होता होगा? लूनी सोचती जाती है और उलझती जाती है। कभी-कभी भग्गा के प्रेम को देखकर लूनी को बहुत अपराध बोध होता है। शादी से लेकर आज तक उसने कभी कुछ नहीं पूछा, न लूनी ने कभी उसे कभी कुछ बताया, जबकि शादी के आठवें महीने ही शिवेंद्र का जन्म हो गया था।
वह सोचती है, हम कितने पालतू बना दिए गए हैं कि सब कुछ को मान लेते हैं।
रावला के दोनों बना को शहर के स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया गया था। शिवेंद्र अपनी नियति के साथ गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ रहा था। मगर वह पढ़ने में बहुत होशियार निकला। हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता और स्कूल के टीचर उसकी बहुत बड़ाई करते। लूनी औऱ भग्गा को और जिंदगी से क्या चाहिए था!
देखते-देखते शिवेंद्र ने बारहवीं की परीक्षा दे दी। रिजल्ट आया तो भग्गा को यूं लगा कि जैसे उसके सिर झुकाकर काम करने का मेहनताना दिया है भगवान ने। शिवेंद्र ने राज्य में आठवां नंबर पाया था।
शिवेंद्र का रिजल्ट सुनकर हवेली की हवाओं में जलने-जलने की गंध फैलने लग गई थी।
‘देखो तुम दोनों, शिवेंद्र ने बोर्ड की परीक्षा में टॉप किया है और तुम दोनों… लोकल परीक्षाओं तक में फिसड्डी हो।’ यशा ने बिन्नी के सामने आदित्य औऱ ज्योति को डांटा था।
‘हां, इतनी सुविधा के होते तुम लोग पढ़ते नहीं हो। यदि पढ़ोगे नहीं तो यहीं इसी गांव में आना पड़ेगा। खेती करवाओगे और यहीं ‘बना सा… बना सा’ कहलाकर फूल के कुप्पे होते रहोगे। पढ़ोगे तो दुनिया देखने का मौका मिलेगा।’ इस बार बिन्नी ने भी यशा के सुर में सुर मिलाया था।
‘हम कितना भी पढ़ लें, शिवेंद्र की बराबरी नहीं कर सकते हैं। यहां टॉप कर जाएं तो क्या? उसे रिजर्वेशन मिलता है। वह हमसे आगे होगा ही होगा!’ आदित्य ने भिनभिनाते हुए कहा।
‘अऱे भई किसने सरकारी नौकरी के लिए कहा है? कुछ तो करो। इंजीनियरिंग में ही रैंक ले आओ। अब सरकारी नौकरी इन्हीं लोगों के लिए रह गई है। ये जो कैंपस प्लेसमेंट होते हैं इनमें ही लाखों के पैकेज मिलते हैं। औऱ कुछ न करो तो कम से कम घर का बिजनेस ठीक से संभाल लो।’ बिन्नी ने कहा था। दोनों भाई खिसियाए हुए चुप रह गए।
आदित्य डोनेशन से इंजीनियरिंग कर रहा है, ज्योति अभी दसवीं की परीक्षा दे रहा है। दोनों शहर में फ्लैट लेकर रह रहे हैं। शिवेंद्र के टॉप करने की खबर और घर में ताने सुनकर शहर लौटे दोनों लड़के जल्द ही उस सबसे फारिग भी हो गए थे। आखिर शहर में कितने तो आकर्षण हैं- ऐसे में ऐसी फालतू-सी बात को क्यों याद किया जाए, जिसका कुछ किया ही न जा सके!
बचपन में शिवेंद्र ज्योति बना के मामा सा की गाड़ी की जो बात कहता था, उसे बाकी सब बचकानी इच्छा की तरह भूल गए थे, शिवा को वही इच्छा अब भी चला रही थी। इसी इच्छा का सिरा पकड़कर वह शहर के कोचिंग इंस्टीट्यूट आने-जाने लगा था। इसी के चलते उसकी जिम्मेदारी में आदित्य औऱ ज्योति के लिए सामान लाना और सामान ले जाने का शुमार भी हो गया था। वह दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहा था। ग्रेजुएशन से ही वह तैयारी में लगा हुआ था। अब टेस्ट पेपर्स सॉल्व करना, मॉक टेस्ट देना, नोट्स बनाना, फंडामेंट्ल्स क्लियर करने के लिए साथ तैयारी करते दोस्तों से बहस करना… खूब पढ़ना और उसका एनेलिसिस करना। पढ़ाई भी नियमित हो रही थी।
जिस दिन आईएएस प्रिलिम्स का रिजल्ट आया, उस दिन आदित्य औऱ ज्योति नवमी पूजन के लिए शहर से हवेली आए हुए थे। पूरे गांव में हल्ला हो गया कि शिवेंद्र आईएएस बनने वाला है। हालांकि उसने सबको खूब समझाने की कोशिश की कि इस पहले रिजल्ट से कुछ नहीं होता है। इतना सहज थोड़ी है आईएएस बनना, लेकिन भग्गा हाली पागल हो गया था। पड़ोसी, परिवार, दोस्त सबके घर मिठाई लेकर पहुंच गया था। शिवेंद्र ने खूब समझाया, मगर वह नहीं माना।
शिवा इस बात को समझता था कि यह सिर्फ पहली सीढ़ी है। आगे का रास्ता लंबा और कठिन है। इसलिए उसने अपने पैर जमीन पर रखे थे। जमकर पढ़ाई करता था, खूब सोचता था, लिखने का रियाज करता था। कोचिंग आने-जाने में जिन लोगों से दोस्ती हुई थी, उनसे बैठकर बहसें किया करता था। उसके मेंस के पेपर भी अच्छे रहे थे, उम्मीदें थीं, मगर डर भी था।
यूपीएससी मेंस का जब रिजल्ट आया, भग्गा की खुशी का ठिकाना नहीं था। उसे यह समझ नहीं थी कि ये यूपीएससी सांप-सीढ़ी का खेल है। सबसे ऊपर पहुंचकर भी धड़ाम से गिर जाते हैं। शिवेंद्र इसको जानता था। आखिर उसने अपने सीनियर्स को कई सालों से इसकी तैयारी करते जो देखा था।
खुशी उसको कम नहीं थी, लेकिन वह इस हकीकत को जानता था कि जब तक अंतिम रूप से सिलेक्शन नहीं हो जाता है, तब तक यह सफलता किसी काम की नहीं है। उसने भग्गा को समझाया भी था, ‘पापा, अभी कुछ नहीं हुआ है। इंटरव्यू में यदि सिलेक्शन नहीं हुआ तो फिर से पहली परीक्षा से शुरू करना पड़ेगा और ऐसा होता ही रहता है।’
मगर भग्गा को कुछ समझना ही नहीं था। जिस वक्त वह भोलूराम के बूंदी लड्डू का किलो भर का पैकेट लेकर हवेली पहुंचा था, बड़े कुंवर सा बाई सा के साथ लॉन में शाम की चाय के लिए आकर बैठे थे। लूनी ने टेबल पर ट्रे लाकर रखी थी। भग्गा ने उत्साह में आकर उनके सामने लड्डू का डिब्बा खोल दिया, ‘मीट्ठो लो हुजुर। शिवा कलेक्टर बणवा वालो है?’
बड़े कुंवर सा ने भग्गा की तरफ स्थिर नजर से देखा था, लूनी ने उत्साह से यशा बाई सा की तरफ देखा था। वह उसे पत्थऱ की मूरत की तरह बैठी लगी थी। पहली बार लूनी को लगा कि वह यशा बाई सा को नहीं जानती है। बड़े कुंवर सा ने लड्डू तोड़कर एक टुकड़ा मुंह में रखा ही था कि यशा बाई सा बोल पड़ी, ‘अभी तो इंटरव्यू बाकी है भग्गा। और इंटरव्यू के बाद ही सब तय होवे है।’ अपने उत्साह में भग्गा ने कुछ नहीं समझा था, लेकिन लूनी ने बहुत कुछ समझ लिया था। वह भी जो यशा बाई सा ने कहा था और वह भी जो उन्होंने नहीं कहा था।
रात जब दोनों भाई नदी वाले रिसॉर्ट से तीन दिन बाद हवेली लौटे तो डिनर टेबल पर यशा ने सूचना दी, ‘शिवेंद्र का मेन्स निकल गया है।’
आदित्य के लिए यह एकदम शॉकिंग खबर थी। फिर भी उसने खुद को संभाला था, ‘मम्मा, इंटरव्यू में भी लोग छंटते हैं। आप इतना क्यों पैनिक में आ रही हैं?’ कहने तो कह दिया, लेकिन उसे एकदम से लगा कि जीतने की कगार पर पहुंचकर वह लड़खड़ाकर गिर गया है। रात के खाने के समय डिनर टेबल पर सन्नाटा खिंच गया था। इससे पहले जब कभी इस तरह की कोई बात सीटू बना को पता चलती थी तो वह इस कान से सुनते थे, दूसरे से निकाल देते थे। उन्हें किसी चीज से कोई लेना देना ही नहीं था। अपने दोस्तों के बीच पार्टियां करते रहने और बिजनेस का फायनेंस औऱ मार्केटिंग संभालने-संभालने में ही उन्होंने ज्योतिर्मय को पैदा करने का काम कर दिया था। बिन्नी को साल में एक बार कहीं घुमा लाते और उसको लग्जरी लाइफस्टाइल के लिए पैसा मुहैया करवाने के अलावा न बिन्नी को उनसे कुछ चाहिए था, न उनको बिन्नी से… बाकी जो कुछ उन्हें चाहिए, वे अपने तरीके से ले ही लेते थे। बिन्नी से न सही, किसी और से सही…। मगर इस खबर ने उनकी पेशानी पर भी लकीर खींच दी थी। उन्होंने ज्योति को घूर कर देखा था, ‘कल तक हम जिनके हुकुम थे, वे आगे से हमारे सर हो जाएंगे। और ये बना-बना कहलाकर ही फूले नहीं समा रहे हैं!’ डिनर टेबल पर सबके चेहरों पर हताशा नजर आ रही थी।
उस रात बहुत सारा खाना भग्गा के घर पहुंचा था। दोनों हवेलियों के बेडरूमों में भारी चुप्पी थी। आदित्य तनाव में लॉन में चला आया था। चाचा हुकुम ने जो कहा, उसने उसे इमेजिन कर लिया था। वह लगातार सिगरेट पी रहा था और उसकी आंख और नाक से पानी निकल रहा था। पिता से पहली बार इस तरह की हिकारत पाकर अपने कमरे की बॉलकनी में खड़ा ज्योति जब आदित्य को देखता है तो वह भी लॉन में उतर आता है। आदित्य के करीब पहुँचकर कहता है, ‘दादा?’
‘उस साले चमार का यूपीएससी मेंस में हो गया है। मम्मा ने भी टोंट किया है। सचमुच जो वह कलेक्टर बन गया या न कलेक्टर बने, लेकिन अलायड सर्विसेस में ही आ गया तो, हम बस नाम के ही बना रह जाएंगे।’ आदित्य ने कहा तो ज्योति ने एक गहरी हुंकार भरी।
‘दादा, बना सा बना सा कहते-कहते यह शिवा यदि कलेक्टर बन जाएगा तो गांव में हमारी क्या औकात रह जाएगी?’ आदित्य पहले से ही परेशान है और ज्योति ने उसके सामने और असुविधाजनक सवाल खड़ा कर दिया।
आदित्य उस सवाल से पहले से ही जूझ रहा है, ‘हम्म…!’
‘कुछ-न-कुछ सोचना ही पड़ेगा दादा!’ ज्योति उसे उकसाता है।
‘हम्म!’ कहकर उसके हाथ में एक टेबलेट देता है और कहता है, ‘फिलहाल रिलेक्स कर! जल्द ही कुछ सोचते हैं।’
उस सुबह आदित्य का शहर से फोन आया था, ‘मां सा ज्योति की तबीयत खराब हो गई है। अस्पताल से कल डिस्चार्ज करवा लाया हूँ। डॉक्टर का कहना है कि इंफेक्शन का ध्यान रखना होगा। मेरे टर्मिनल्स चल रहे हैं, यहां इंफेक्शन का कैसे ध्यान रखा जा सकता है, किसी को लेने भेज दो न?’
भग्गा को लेकर बिन्नी गई और ज्योति को घर ले आई थी। ज्योति की तबीयत तो ठीक ही लग रही थी, लेकिन फिर भी बिन्नी ने उसके खानपान का पूरा ध्यान रखा हुआ था।
इधर मेन्स निकाल चुका शिवेंद्र कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रहा था। इंटरव्यू की तैयारी के लिए कई सारे मॉक इंटरव्यूज किए, जब संतुष्ट हो गया तो गांव लौट आया। अब वह हर दिन की खबरों पर ध्यान लगाए रहता। जो पढ़ा है उसका रीविजन करता और मेडिटेशन करता। इन दिनों उसने अपने मेडिटेशन का वक्त भी बढ़ा लिया है। वह इंटरव्यू के दौरान ज्यादा-से-ज्यादा स्थिर रहना चाहता है। शाम का वक्त बचपन के दोस्तों से मिलता, चुटकुले सुनता-सुनाता, स्कूल के ग्राउंड पर फुटबॉल खेलने जाता। कुल मिलाकर वह न सिर्फ इंटरव्यू के लिए पढ़ रहा था, बल्कि उसकी तैयारी के सिलसिले में खुद को मानसिक रूप से शांत और मजबूत बनाने के लिए भी तमाम प्रयास कर रहा था।
मन के भीतर कहीं यह भी था कि यदि असफल हुआ तो उसे फिर से खड़ा होकर दोगुनी ताकत से दौड़ने के लिए भी तैयार रहना होगा। इसके लिए उसे मानसिक रूप से ज्यादा मजबूत होने की जरूरत है। आखिरकार इंटरव्यू का दिन भी आ ही गया।
गुरुवार दोपहर में उसका इंटरव्यू है। दिल्ली जाने के लिए शहर से उसका रिजर्वेशन हुआ है। तय यह किया था कि रविवार रात की ट्रेन पकड़ने के लिए वह रविवार शाम को गांव से निकलेगा। ट्रेन रात दस बजे की है। छह बजे खाना खाकर निकल जाएगा, साढ़े आठ तक किसी भी हालत में शहर पहुंच जाएगा औऱ सीधे रेलवे स्टेशन चला जाएगा। रात की ट्रेन है तो सोते हुए जाना है, सुबह जब जागेगा, तब दिल्ली आ चुकी होगी।
उस शनिवार की रात बिन्नी जब ज्योति को दूध देने आती है तो ज्योति बताता है, ‘दादा के नोट्स गलती से मेरे सामान के साथ आ गए हैं, मंगलवार को दादा का पेपर है। ये किसी के हाथ भिजवाने पड़ेंगे!’
बिन्नी सोचती है, कौन शहर जाने वाला है? यदि कोई नहीं होगा तो भग्गा को ही भेजा जाएगा फिर। मगर याद आता है सप्ताह भर से भग्गा भजन कर रहा था कि शिव कलेक्टरी का इंटरव्यू देने रविवार को जाएगा।
सुबह-सुबह ही बिन्नी लूनी को आवाज लगाती है। पैकेट लूनी के हाथ थमाती हुई कहती है कि ‘शिवा से कह देना कि ये पैकेट आदित्य बना को देते हुए निकल जाए।’ जब लूनी पैकेट शिवा को देती है तो एकबारगी शिवा को गुस्सा आता है। अब उसे अपना पूरा प्लान चेंज करना पड़ेगा। कहां आदित्य बना का फ्लैट है, कहां बस स्टैंड, कहां रेलवे स्टेशन…! लेकिन वह अपनी सारी तैयारी को आजमाता है, खुद को एकदम शांत रखने की कोशिश करता है।
बदली हुई परिस्थिति में अब उसे दोपहर को निकलना होगा। उसने सुबह हल्का-फुल्का खाना खाया और दोपहर एक बजे वाली बस पकड़ ली। नोट्स का पैकेट उसने अपने कपड़ों के ऊपर ही रख लिया ताकि निकालना आसान हो और कपड़ों की क्रीज खराब न हो। शिव ने बस में बैठते ही अपने मोबाइल में म्यूजिक फॉर मेडिटेशन लगा लिया और इयरप्लग लगाकर आंखें बंद कर लीं। खटारा प्राइवेट बस की खट्-खट्, खिर्र-खिर्र की आवाज से बचाव भी हो गया और कंसन्ट्रेट करने का रियाज भी होने लगा।
कोई आधे घंटे बाद ही एकाएक बस रुकती है तो वह आंखें खोलता है। धड़धड़ करते तीन चार पुलिस वाले बस में चढ़ते हैं और आगे के दो-तीन लड़कों का सामान खुलवाकर चेक करते हैं।
फिर एक मध्यवय का इंस्पेक्टर उसकी तरफ आता है और कहता है, ‘सामान चेक करना है!’
वह शांति से पूछता है, ‘मेरा?’
‘तुझसे कह रहा हूँ तो जाहिर है तेरा ही!’ वह सरकास्टिक होकर कहता है। शिव सीट के नीचे से अपना सूटकेस निकाल कर खोलता है, ऊपर ही आदित्य बना वाली पॉलिथिन बैग पुलिस वाला उठाता है, चाकू से कट लगाता है तो धड़-धड़-धड़ सफेद पाउडर की छोटी-छोटी पुड़ियां गिरने लगती हैं। शिवा हक्का-बक्का हो जाता है, इंस्पेक्टर वहीं से चिल्लाता है, ‘सर मिल गया!’
शिव का चेहरा सफेद पड़ जाता है, ‘मगर ये मेरा नहीं है। मुझे ये किसी को देने के लिए कहा गया था।’
‘अब आपके बैग से निकला है तो किसी और का तो होगा नहीं। आप चलिए फिलहाल पुलिस थाने।’ पुलिस वाले ने सख्ती से उसकी बांह पकड़ी और उसे सीट से उठा लिया।
दोपहर को जब भग्गा और लूनी दोनों हवेली के लॉन पर घास काट रहे थे, तभी भग्गा को फोन आता है। वह जोर-जोर से रोने लगता है, बदहवास हो जाता है। बड़े कुंवर सा कहीं बाहर गए हुए हैं तो दोनों दौड़े-दौड़े छोटे कुंवर सा के पास जाते हैं, ‘हुकुम शिव को पुलिस ने पकड़ लिया है, ये कहकर कि उसके पास से ड्रग्स मिली है। पण हुकुम वो पैकिट थो जो आदित्य बना के देनो थो!’
बिन्नी वहीं बैठी हुई थी, बूजी हुकुम औऱ यशा भी ज्योति की तबीयत का हालचाल पूछने आई हुई थीं। भग्गा हाली की बात सुनते ही वे अपनी कुरसी को पीछे करके उठते हैं और गुस्से में भग्गा की कॉलर पकड़ लेते हैं, ‘कमीने अपने बेटे की करतूत को तू हमारे बेटों के सिर मढ़ना चाहता है? नमकहराम, इस दिन के लिए तुझ जैसे सांप के परिवार को पाल रहे थे हम…?’ इससे पहले कि कोई कुछ बोलता, बूजी हुकुम भी गरजे थे, ‘हरामखोरो, हमारी हवेली में रहकर हमारी नाक के नीचे पाप करो औऱ हमारे छोरों पर इल्जाम मढ़ रहे हो?’
लूनी थरथर कांपने लगती है, वह पहले अवाक होकर सबकी तरफ देखती है। वह देखती है कि भग्गा की कॉलर अब भी छोटे कुंवर सा के हाथ में है। बिन्नी बाई सा की आँखों से चिंगारी निकल रही थी, भग्गा कांप रहा था। बूजी हुकुम चिल्ला रही हैं, लूनी की आंखों से आंसू झरने लगते हैं। वह देखती है कि यशा का सिर्फ चेहरा ही नहीं पूरा का पूरा शरीर पत्थर का हो रहा है।
लूनी चीखती है, ‘अपने खून का तो खयाल कर ठाकुर…!’
1.रावल– राजमहल
- राजस्थान के राजपूत समाज में ‘सा’ सम्मानसूचक शब्द है। लड़कियों को ‘बाई सा’ बोला जाता है। बड़ों को सम्मान में ‘हुकुम’ बोलते हैं। ‘बना’ का संबोधन लड़कों के साथ होता है।
संपर्क : 88, लंदन विलाज़, भांग्या साँवेर रोड, इंदौर-453555 मो.9827288818
सामंती मानसिकता को उजागर करती बेधने. वाली कहानी।
बहुत दिनों बाद वागर्थ को पढ़ने का मौका मिला। साथ ही कुछ रचनाओं को पढ़ने के बाद लिखने का मन किया। इन्हीं रचनाओं में से एक कहानी यह भी है। इस कहानी पर मेरी एक छोटी सी ना समझ प्रतिक्रिया।
यह कहानी राजस्थान के रजवाड़ों के भीतर के समाज का गहन विश्लेषण करती है, जहाँ भव्यता और परंपरा के पीछे छिपे कई दमनकारी सच हैं। यशा, लूनी, भग्गा, और शिवेंद्र जैसे पात्रों के माध्यम से लेखक न केवल ऊँचे और निचले वर्ग के बीच का गहरा भेदभाव उजागर करते हैं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक समाज पर भी सवाल उठाते हैं जो अधिकार और न्याय को सत्ता के अनुसार परिभाषित करता है।
यशा का किरदार आधुनिक और पारंपरिक मूल्यों के बीच झूलता एक प्रतीक है। यशस्विनी या यशा, रजवाड़े के भीतर रहकर शिक्षा और आधुनिकता की ओर बढ़ती है, लेकिन उसकी परवरिश उसे पारंपरिक मर्यादाओं का पालन करने पर मजबूर करती है। वह जानती है कि उसकी और लूनी की स्थिति में बुनियादी फर्क नहीं है; दोनों ही पुरुष प्रधान सत्ता के हाथों विवश हैं। यशा का लूनी के प्रति सहानुभूति दिखाना उसकी समझदारी और सौम्यता को दर्शाता है, लेकिन जब वह कहती है कि “रावले में यह सब होता है,” तो यह उस व्यवस्था का मूक स्वीकार है, जो महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय को सामान्य मानती है। यशा का यह रुख उसकी बेबसी को दर्शाता है, वह चाहकर भी समाज की स्थापित व्यवस्थाओं को चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पाती।
लूनी का चरित्र भी कहानी में विशेष स्थान रखता है। निम्न वर्गीय परिवार की यह स्त्री, हवेली की चकाचौंध और रजवाड़े के आदेशों के बीच पिसती रहती है। छोटे कुंवर सा द्वारा शारीरिक शोषण और यशा के सूखे समर्थन के बाद भी लूनी का चुप रहना, उस व्यवस्था का प्रतीक है जिसमें उसकी चीखें दबा दी गई हैं। लूनी को चेतावनी दी जाती है कि “जितना कम दिखोगी, उतना अच्छा रहेगा”—यह संवाद ही यह साफ करता है कि उस समाज में एक महिला की सुरक्षा का एक ही उपाय है: छिपे रहना।
शिवेंद्र, भग्गा और लूनी के बेटे के रूप में, वर्ग संघर्ष और सामाजिक असमानता की वास्तविकता को उजागर करता है। उसने अपने माता-पिता की मेहनत और शिक्षा के बल पर जो हासिल किया, वह रजवाड़े के वंशजों को अपने आप मिलने वाली सुविधाओं से कहीं बढ़कर है। शिवेंद्र की सफलता हवेली के लोगों में जलन का कारण बनती है और जब वह अंततः किसी साजिश के तहत फंसाया जाता है, तो यह सत्ता के दुरुपयोग की चरम सीमा को दर्शाता है। भग्गा का हवेली के सामने अपने बेटे की बेगुनाही के लिए गिड़गिड़ाना और फिर हवेली के लोगों द्वारा उसे अपमानित करना, सामाजिक असमानता और अन्याय को परिभाषित करता है। इस दृश्य से यह स्पष्ट होता है कि निम्न वर्ग के लोग कभी भी अपनी मेहनत के बावजूद ऊँचे वर्ग के समकक्ष नहीं आ सकते; वे हमेशा “नमकहराम” और “हरामखोर” करार दिए जाते हैं।
कहानी का अंत करुण और विडंबनापूर्ण है, जिसमें हर पात्र अपने आप में समाज के दमन और विभेद का प्रतीक है। बड़े कुंवर सा, छोटे कुंवर सा और हवेली के अन्य सदस्य उस शक्ति संतुलन का हिस्सा हैं जो न केवल निम्न वर्ग को अपनी जगह पर रखने की कोशिश करता है, बल्कि अपने ही बच्चों के बीच प्रतियोगिता की भावना से उन्हें तोड़ता है। आदित्य और ज्योति के मन में जलन और असुरक्षा यह दिखाता है कि उच्च वर्ग के भीतर भी विभेद और अधिकार की लड़ाई है।
कहानी उस व्यवस्था की आलोचना करती है जो केवल ऊँचे नाम और खानदान की बलि पर इंसानियत, न्याय और प्रेम को दरकिनार कर देती है। यह रजवाड़ों के उन अनकहे पक्षों को सामने लाती है, जो दिखावे में समृद्ध हैं, पर भीतर से खोखले।