यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। दो उपन्यास व दो कहानी संग्रह प्रकाशित।
वे दोनों सातवीं कक्षा में मिली थीं, जब दोनों अपने-अपने देश से आई थीं न्यूयॉर्क के फ्लशिंग हाईस्कूल में। वह स्कूल जहाँ दोनों अंग्रेजी से ही नहीं, बहुत सारे नए बदलावों से संघर्ष कर रही थीं। नई धरती, नया माहौल, अजनबियों से घिरीं दो अनजान लड़कियाँ। एक पाकिस्तान के लाहौर जैसे बड़े शहर से तो दूसरी भारत के झाबुआ जैसे पिछड़े हुए आदिवासी इलाके से आई थी। एक इस कोने पर गुमसुम बैठी रहती, तो दूसरी दूसरे कोने पर।
एक दिन लंच के समय दोनों की नजरें मिलीं, एक दूसरे के एकाकीपन को पहचाना। कक्षा में पसरा मौन टूटने के लिए लालायित था, दोस्ती की ललक बढ़ी। धीरे-धीरे चुप रहने को मजबूर तृपित का बोलना चालू हो गया। तहरीम तो वैसे भी कम ही बोलती थी। लाहौर शहर से जरूर आई थी पर शहरी शोर से दूर रहने की आदी थी, अपने भीतर जीने वाली। इसके विपरीत तृपित, झाबुआ की झबरी बिल्ली जैसी तेज तर्राट। एक खामोश और एक चुलबुली, दो लड़कियों की ऐसी जुगलबंदी हुई कि एक दूसरे की पूरक हो गईं दोनों।
तहरीम और तृपित, त अक्षर का तो सिर्फ तुक्का लग गया था, वरना दोनों के व्यक्तित्व में जमीन-आसमान का फर्क था। तहरीम की चुप्पी और उसकी खामोशी की सारी बातें तृपित के होठों पर होतीं। एक लड़की बस चुपचाप अपना काम करने वाली तो दूसरी काम करने वालों को हँसा-हँसा कर लोटपोट करने वाली। तहरीम से उसकी गंभीरता ले लेती तृपित और अपना चुलबुलापन दे देती जो उसकी होठों की मुस्कान में दिखाई देता गहरे तक।
गुमसुम व बकबकी इन दो लड़कियों की जड़ों को खंगाला गया तो जो कुछ निकला वह और भी चौंका देने वाला था। भारत-पाकिस्तान जैसे नामों के साथ झाबुआ व लाहौर जुड़ा था, एक भीलों के इलाके से और दूसरी पठानों के खानदान से थी। दोनों ही शब्द अव्वल दर्जे के लोहे जैसे मजबूत, पर इन दोनों लड़कियों को भला इन शब्दों की गहराई से क्या लेना-देना था। तेरा तुझको मुबारक। लाहौर का लाहौर को और झाबुआ का झाबुआ को। क्योंकि अब न तो लाहौर में हैं, न ही झाबुआ में हैं– ‘अब तो हम न्यूयॉर्क में हैं।‘ छोड़ आए वे गलियाँ। नई गलियों में, नए मोड़ से नई मंजिलें तलाश करते दो दोस्त थे बस।
धीरे-धीरे एक साथ बैठना, एक साथ रहना बढ़ता रहा। एक हिंदी बोलती थी, दूसरी उर्दू, पर दोनों को इनमें कभी कोई फर्क नहीं लगा। दोनों को लगता कि नाम अलग हैं बस, एक जैसी तो हैं दोनों भाषाएँ। न इसे उर्दू लिखना पसंद है, न उसे हिंदी लिखना। हिंदी-उर्दू लिखने से पीछा छूटा इस बात से खुश तो थीं दोनों, पर अब यहाँ अंग्रेजी से पंगा लेना पड़ रहा था, रोज़ माथा फोड़ रहे थे। ईएसएल यानी इंगलिश एज़ ए सेकंड लैंग्वेज की कक्षाओं में जाना यहाँ के होशियार बच्चों की निगाहों में बहुत अपमानजनक था, पर करते क्या, मजबूरी थी। पहले दिन ही कक्षा में टीचर की गिटपिट से कुछ समझ ही नहीं आया। उन दोनों के सपाट चेहरे देखकर तत्काल उन्हें ईएसएल की कक्षाओं में भेज दिया गया। दो अपमानित इंसान एक दूसरे का सम्मान बने। किसी को बताने का या समझाने का समय ही नहीं मिला कि वे दोनों एबीसीडी तो जानते हैं, अंग्रेज़ी लिख भी सकते हैं पर यह जो गिटपिट होती है वह उनकी समझ से परे है। इतनी तेजी से कोई कैसे अंग्रेजी बोल सकता है। वे दोनों तो पहले उर्दू-हिंदी में सोचते, तौलते, फिर बोलते, तब तक तो वह धीमी गति का समाचार बुलेटिन हो जाता। आपस में बात करते हुए, सोच-सोच कर चुपचाप अंग्रेजी बोलने की कोशिश करते हुए हिंदी-उर्दू कब बीच में बोलने लग जाते पता ही नहीं चलता।
लंच ब्रेक में साथ खाना खाते हुए ऐसी जगह पर बैठते जहाँ अपने-अपने पराठों को छुपाने की जरूरत न पड़े। ईएसएल से तो किरकिरी हुई ही थी ऊपर से उनका खाना देखकर और अधिक हो जाती। तहरीम की अम्मी हिंदी फिल्मों की दीवानी थीं।
अम्मी ने उसे लाहौर में कई हिंदी फिल्मों के गानों पर डांस करना सिखाया था। वे चंद गाने उसकी जुबां पर होते तो तृपित भी सुर में सुर मिला देती। हिंदी फिल्मों के गानों के साथ जो राग तानते दोनों तो बस एक तीसरी भाषा बन जाती। उनकी दोस्ती की भाषा जो चाहे अनचाहे ही उनकी समीपता का कारण बनती।
सब कुछ जैसे तौला हुआ था, नापा हुआ था। रिश्तों की मजबूती में यह नाप-तौल होती ही है, चाहे कोई तराजू पर तौले न तौले, गिने या न गिने पर पलड़ा लगातार ऊँचा-नीचा होता ही रहता है। उन दोनों का पलड़ा समान तो नहीं होता, पर थोड़ा ऊपर-नीचे होकर, ढुलमुल करते फिर से बराबर हो जाता।
यह कहती– ‘कोई बात नहीं’
वह कहती – ‘कोई मसला नहीं’
तृपित को उसके टीचर टपित बोलते तो तहरीम ने उसे टप्पू बना दिया।
‘अरे टप्पू, मसला का मतलब मामला होता है, बात होती है।‘
‘जो भी मतलब होता है, कोई मसला नहीं है।‘
और एक मासूम-सी निश्छल हँसी में खो जाते दोनों। पढ़ने से उन दोनों लड़कियों का सरोकार कम ही था। अधिकतर समय मस्ती में ही कटता। कक्षा के दौरान जैसे-तैसे समय काटते। कक्षाओं की जरूरतें बस बैठने तक थीं, उसके बाद नई-नई शैतानियाँ करते। कभी इसके घर, कभी उसके घर, आने-जाने का सिलसिला थामे नहीं थमता।
उसकी अम्मी थीं, इसकी मम्मी थीं। दोनों पास्ता में जीरे का तड़का शुद्ध घी से लगाती थीं। पीज़ा को हरी चटनी से खाती थीं। और तो और सूप के भरे कटोरे को रोटी से डूबो-डूबो कर खाती थीं। दोनों नमाज और पूजा करते समय जीन्स-शर्ट पर दुपट्टा डाल लेती थीं। एक चिकन, बिरयानी जैसे पकवान बनाती तो दूसरी हलवा-पूरी-छोले में मगन रहती।
आसपास ही थी इन दोनों की बिल्डिंग। किसी ने पता नहीं किया कि तहरीम कहाँ से है, या फिर तृपित कहाँ से है। तहरीम के घर वालों ने सोचा होगा पाकिस्तान में ही कहीं से होगी और तृपित के घर वालों ने सोचा होगा कि भारत में ही कहीं से होगी। न भी सोचा हो, समय किसके पास था यह पता करने का कि कौन कहाँ से है। घर का हर सदस्य तो नए-नए देश में अपनी जड़ें जमाने की जुगाड़ में लगा था, पहले रोजी-रोटी फिर कोई बात दूजी। घर के बच्चे अंग्रेजी से निपटते नए माहौल में भी तरह-तरह के नए चेहरों को अपने आसपास देखने की आदत डाल रहे थे।
कुछ ही समय में वे दोनों एक दाँत से रोटी काटने वाली मित्रता के घेरे में थीं। घर आना-जाना, खाना-पीना सब कुछ, कभी इस घर में तो कभी उस घर में होने लगा। तृपित के साथ दादी भी थीं, दादा को गए तो एक जमाना हो गया था। जब दोनों स्कूल से घर आतीं तो दादी ही होतीं उन्हें खाना परोसने के लिए। एक दिन बातों-बातों में दादी को पता लग गया कि तहरीम तो मुसलमान है। मन को धक्का लगा, इस शब्द से ही उन्हें बेहद नफरत है। मानो यह शब्द बोलने और सुनने वाला भी एक अपराधी हो। लेकिन इस बच्ची की नज़ाकत भली लगती थी दादी को, सोचा चलो ठीक है। मुसलमान है तो क्या उत्तर प्रदेश में लखनऊ के आसपास की होगी। मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश तो जाने-पहचाने हैं एक दूसरे के। इतनी अदब से बोलती है कि लखनवी अंदाज झलकता है।
‘तहरीम बेटा कहाँ से हो, लखनऊ से हो या उसके आसपास से?’
तहरीम का जवाब सुनकर तो उनका मुँह खुला का खुला रह गया। हाथ से पानी का गिलास छूट गया। काँच के बिखरे टुकड़ों में अपने छोटे बेटे का चेहरा झलकने लगा। हर किरची की चुभन सीधे उनके दिल पर हमला कर रही थी। दादी की प्रतिक्रिया से बेखबर दोनों लड़कियाँ किसी बात पर ठहाके लगा रही थीं, उधर दादी बड़बड़ा रही थीं – ‘करेला तो है पर ऊपर से नीम चढ़ा भी है। यानी अपने भारत वाले मुसलमान नहीं, बल्कि पाकिस्तान वाले मुसलमान हैं।’
उस दिन घर में तूफान आना ही था। शुक्र था कि दादी ने तहरीम के जाने तक इंतजार कर लिया वरना न जाने क्या बीतती उस बच्ची के दिल पर। तहरीम के वापस जाते ही दादी ने घर सिर पर उठा लिया। तृपित की मम्मी भी काम से लौटकर उसी समय पहुँचीं थी घर। बस फिर क्या था।
‘तौबा-तौबा, ये हमारे दुश्मनों से दोस्ती करके बैठी है। संभाल इसे। अपना धर्म भ्रष्ट कर लेगी। वो छोरी पाकिस्तान की है।‘
‘कातिलों से दोस्ती कौन करता है।’
‘ये वे लोग हैं जिन्होंने मेरे बेटे की जान ली है, हत्यारे हैं।’
‘माँस-मट्टी तो खाते ही होंगे, ऐसे घर में आती-जाती है यह छोरी।‘
‘तूने देखा है कभी, हमारे पाकिस्तान से रिश्ते कभी ठीक नहीं होने देते ये हत्यारे।‘
मम्मी हक्का-बक्का थीं, पर दादी को शांत करना जरूरी था। अमेरिका में ऐसे अलगाववादी विचार ले कर रहेंगे कैसे…। अभी तो आए हैं और ठीक से सैटल भी नहीं हुए, दादी के इस वैमनस्य को यहीं दबाना जरूरी था।
‘यहाँ सबका धर्म अलग है माँ जी, सब माँस-मट्टी खाते हैं, किस-किस से दूर रहेगी यह।‘
‘किसी से दूर रहे न रहे, इन पाकिस्तानियों से दूर रहे बस।‘
‘देख तिप्पी, तू वहाँ से आए तो नहा लिया कर। और सुन, उनके फ्रिज का कुछ भी नहीं खाना तू। वहाँ ज्यादा रहना मत। इनका कोई भरोसा नहीं है। मार-काट कर हाथ भी नहीं धोते ये लोग।‘
और भी बहुत कुछ कहती रहीं दादी, न जाने क्या-क्या। इस गुस्से में, इस उम्र में, इस अनजान देश में बसने की उनकी भड़ास भी शामिल थी शायद। मम्मी ने इशारा कर दिया तृपित को अपने कमरे में जाने का। उसके लिए दादी की इस नफरत को समझना मुश्किल था। समझ भी कैसे पाती। चाचा की मौत के समय तो वह बहुत छोटी थी। फिर इसके पहले ऐसी किसी भी बात का जिक्र उसके सामने हुआ भी नहीं था।
वह तो आज में जी रही थी। कक्षाओं से घर तक आने-जाने का वह समय दिन का सबसे अच्छा समय होता था, जब दोनों एक दूसरे की छाया बने रहते थे। दोनों घरों का माहौल लगभग एक जैसा ही था। सोफे पर बिछे कसीदे वाले सोफा कवर समानताओं के संकेत थे। घर में घुसते ही जो गंध होती वह भी लगभग समान होती। किचन से सिकती हुई रोटी की खुशबू आती तो लगता यह घर अपने घर जैसा ही एक घर है।
दादी की इस चीख-पुकार का कोई खास असर नहीं हुआ। अम्मी व मम्मी दोनों अपनी-अपनी बेटियों के साथ उसकी दोस्त को भी प्यार करती थीं। एक जैसी तो शकलें थीं। लंबे बाल और मटकती आँखें। अम्मी बाहर काम नहीं करती थीं इसलिए हमेशा घर पर ही मिलतीं। स्कूल से लौटकर कर तहरीम के घर जाते तो अम्मी तृपित को बहुत प्यार करतीं। मम्मी दिन भर काम करके घर लौटतीं तो तृपित से तहरीम के बारे में जरूर पूछतीं। तहरीम और तृपित का साथ बेहद सुकून देता था उन्हें, जब से तहरीम से उसकी दोस्ती हुई थी पुरानी तृपित लौट आई थी। उसकी चंचलता और नटखटपन, जो यहाँ आने के बाद गायब हो गया था, अब लौट आया था। बहुत राहत मिली थी कि अब तृपित स्कूल से परेशान नहीं है। मम्मी को पाकिस्तानी आम और वहाँ के बारीक कसीदाकारी के कपड़े बहुत अच्छे लगते थे। गदराए-मीठे सिंध्री और चौंसा आम हर सप्ताह घर पर आते थे और खूब मजे से खाए जाते थे। मम्मी ने दादी को कभी नहीं बताया कि ये पाकिस्तानी आम हैं, वरना वे कभी छूती भी नहीं। दादी खाती थीं, चटखारे लेकर कहतीं– ‘हमारे देश में कभी न खाए ऐसे आम। मुए सब अच्छी चीजें निर्यात कर देते हैं।‘
मम्मी मुस्करा देतीं। जानती थीं कि पाकिस्तान के लिए दादी के मन में जो नफरत थी वह चाचा के जाने के बाद अमिट हो गई थी। सीमा पर जिस वहशियाना ढंग से उनकी मौत हुई थी, आज भी अपने उस बेटे की मौत के लिए हर पाकिस्तानी जिम्मेदार था उनकी सोच में। वह दिन उनके जीवन का सबसे अच्छा दिन था जब झाबुआ से किसी पहले व्यक्ति की फौज में भरती हुई थी और यह उनका अपना लाड़ला छोटा बेटा था। गर्व से अपने रिश्तेदारों को वहाँ की बातें बताती रहतीं। अभी अपने छोटे के लिए लड़की ढूँढ ही रही थीं कि उसकी पोस्टिंग सीमा पर हुई और एक दिन हाहाकार मचाती खबर आई कि दुश्मनों का सामना करते उनका बेटा शहीद हो गया। लाश भी नहीं मिली उसकी। माँ का कलेजा पत्थर का हो गया था। कई दिनों के मौन के बाद जब-तब पाकिस्तान का नाम आते ही गालियाँ शुरू हो जातीं.. नासपीटे, हत्यारे…।
दोनों बच्चियों की दोस्ती को ग्रहण तो उसी दिन लग गया था जब तहरीम के पाकिस्तान से होने की बात सबको पता चली थी। अब और अधिक नफरत फैल रही थी जब दोनों देशों के बीच बहुत तनाव बढ़ रहे थे। हर रोज नई समस्या खड़ी हो रही थी। भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की थी। पाकिस्तान ने गुस्से में एयर स्पेस बंद कर दी थी।
किराया डबल हो गया था। दादी बहुत कोसतीं – ‘ये करमजले, आकाश का रास्ता बंद कर दिए हैं, अरे मुसाफिरों की जेबें खाली कर रहे हैं। मिल क्या रहा है इनको। धरती पर कब्जा किया तो किया अब आकाश पर कर रहे हैं।‘
डबल किराए की वजह से उनका भारत जाने का जो मन बन रहा था वह वहीं टूट गया। भारत वाले तो दौड़-दौड़ कर अपने देश जाते थे, जबकि पाकिस्तान वालों के लिए डर था कि एक बार जो गए तो अमेरिका की सरकार वापस घुसने नहीं देगी। हाँ, तहरीम के मामूजान जरूर आ जाते थे सरकारी दौरे पर, और साथ में लाते थे बहुत सारे कपड़े। बहुत मन से पहनती थी तहरीम और कई बार तृपित के लिए लेकर आती थी ताकि वह भी पहन कर देखे। शरारा वाला सूट तो उसकी जान ही था। इन सब बंदिशों से तहरीम और उसके परिवार को कोई फर्क नहीं पड़ा। हाँ, अगर कोई फर्क पड़ा तो वह सिर्फ इतना कि मामू का आना लगभग बंद-सा हो गया। हर बार मामू मिलने आते और जो ढेर सारे तोहफे लाते वे कम हो गए थे।
दोनों बच्चियों की उस उम्र में अमेरिका में परवरिश हो रही थी। अपने-अपने देश से कोई खास लगाव अब नहीं रहा था। नए देश में नए माहौल को अपनाना एक बार शुरू किया तो पीछे मुड़ कर देखने का तो कोई सवाल ही नहीं था। पर हाँ, यहाँ के अपने घर की बातें होतीं। अम्मी ध्यान रखतीं, ईद पर सिवैया जरूर भेजतीं। मम्मी भी दीवाली पर मिठाई भेज देतीं। इस तरह अपनी-अपनी बच्चियों की खुशियों का ध्यान रख लेतीं दोनों माँएँ।
दादी को पता लगता कि ये तहरीम की अम्मी ने भेजा है तो सीधे कूड़ेदान में फेंक देतीं। बेटे की शहादत का वह दर्द गाहे-बगाहे तहरीम को देखकर ऐसा उमड़ता कि बस थामे नहीं थमता। उस लड़की का चेहरा देखते ही अपने शहीद हुए बेटे की याद आ जाती। एक अनजाना-सा खौफ था उनके मन में कि कहीं उनकी तिप्पी को ये लोग कुछ कर न दें।
दादी की नफरत से बेखबर ये दोनों लड़कियाँ आपस में जितनी बातें करतीं शायद उतनी बातें कोई नहीं करता। वहाँ देश और देशों की सीमाएँ नहीं होतीं, वहाँ तो होता आपस का प्यार जो उन दोनों के रिश्ते में था। कुल मिलाकर दो देशों की मिली-जुली संस्कृतियों की वाहक थीं वे दोनों। अम्मी के अ को म में बदल कर मम्मी कहना तहरीम को अच्छा लगता, वहीं तृपित को अम्मी कहना भाता। अम्मी जब सलामवालेकुम बोलकर उसके माथे पर हाथ फेरतीं तो उनके बालों से वही महक आती जो मम्मी के बालों से आती थी, जिन्हें पकड़कर वह दूध पीती रही थी, गहरी नींद सो जाया करती थी।
यहाँ बच्चियाँ माँओं की खुशबू में खोतीं, वहाँ सरहदों पर बारूद का धुआँ अपनी गंध फैलाता गहराता, और गहराता जाता। बहुत कुछ हो रहा था। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद तेज गोलाबारी और नेताओं के बयानों की गर्मी से झुलस रही थी मानवीयता। यूएन में हल्ला, टीवी वालों का चिल्ला-चिल्ला कर एक दूसरे को आघात देना कम नहीं था कि तभी कैप्टन अभिनंदन को पाकिस्तान में पकड़ लिया गया। अब तो हदें पार थीं। दोनों लड़कियों के घरवालों ने कड़ा कदम उठाया। तृपित और तहरीम दोनों का बात करना बंद करवा दिया। सख्त आदेश दे दिए गए कि अपने काम से काम रखो, सीधे स्कूल से घर और घर से स्कूल जाओ। बात करते देख लिया तो तुम्हारी खैर नहीं।
हालात ही कुछ ऐसे थे। कभी भी जंग छिड़ सकती थी। जंग तो जंग है चाहे वह सीमा पर हो, उसका असर तो देश से जुड़े हर बंदे पर होता है चाहे वह दुनिया के किसी कोने में रह रहा हो। लड़कियों की बुरी हालत थी। कक्षा में बस एक दूसरे को देख ही पातीं, बात नहीं करतीं। खाली-खाली निगाहों से देखना ऐसा होता था जैसे कि दोनों किसी काले पानी की सजा को भुगत रही हों। न भूख लगती थी, न प्यास। गुमसुम हो गई थीं दोनों। गोया मन के मीत को उनसे छीन लिया गया हो। उनकी इस चुप्पी को अम्मी और मम्मी अच्छी तरह समझती थीं। इसका कोई हल नहीं ढूँढ पा रही थीं, सिवाय इसके कि भारत पाकिस्तान दोनों देशों के संबंधों की तीखी आग में कहीं से थोड़ा-सा ठंडा पानी पड़ जाए बस।
घरों में तनाव बढ़ रहा था, देशों के बाहर भी जहाँ-जहाँ भारत पाकिस्तान के लोग थे, सारे टीवी से चिपके हुए रहते। जब कैप्टन अभिनंदन पाकिस्तान की सीमा से बाहर आ रहे थे तब सबसे ज्यादा खुशी अगर किसी को थी तो वह थी मम्मी को। उनकी अपनी बेटी की दोस्ती के लिए खुश थीं वे। अभिनंदन का आना मानो उनकी बच्ची की तहरीम से दोस्ती को आगे बढ़ाना था। इस वापसी से आग पर कुछ तो ठंडे पानी के छींटे पड़ ही गए थे। हालांकि दादी ने अभी तक हार नहीं मानी थी, पीछे पड़ी रहतीं, तहरीम से दोस्ती को खत्म करने के लिए। कहानियाँ सुनाती रहतीं – ‘इन लोगों ने हमारे साथ ये किया, वो किया।‘
तृपित समझ ही नहीं पाती कि इन सबमें तहरीम का क्या दोष है। वह क्या करे, वह तो तहरीम के लिए जान भी दे सकती है। मम्मी समझती थीं कि तृपित के मन में क्या चल रहा है। कैसे समझा पातीं कि तहरीम और तृपित के बीच, अम्मी और मम्मी के बीच हिंदी-उर्दू का फर्क ही नहीं, बल्कि दो देशों का फर्क है, दो देशों की नफरतों का फर्क है। एक माँ के दो बेटों का फर्क है जो लड़-लड़ कर एक दूसरे की जान के दुश्मन हो गए थे।
हालांकि वे अब यहाँ तीसरे देश में थे, जो किसी का नहीं था, पर सब देशों का था। एक–एक करके अलग करें तो दुनिया के सारे देश एक स्कूल में मिल जाएँ। अलग–अलग देशों के इस स्थान को भारत और पाकिस्तान की लड़ाइयाँ हों या इज़राइल–फिलीस्तीन की, कुछ फर्क नहीं पड़ता था। सब अपने–अपने मनमुटावों को परे हटाकर मिलजुल कर रहने की कोशिश करते थे। अड़ोसी-पड़ोसी चाहे एक दूसरे को न जानें मगर कभी किसी के लिए अपमान के भाव नहीं आते। सब अपने-अपने रास्ते बनाते और चलते रहते।
आज फिर से वह एक दिन आया था, जब नफरतों की नदियाँ सी बहने लगी थीं। सीमा पर तनाव था। चाचा जी की मौत का मंजर फिर से ताजा हो रहा था। शहीद हुए सारे सैनिकों की लाशें लाई जा रही थीं। उन सबकी भावनाओं से खेलते हुए जो कहीं से भी लड़ाई में साथ नहीं थे। बच्चियाँ सहमी-डरी रहतीं। उनकी दोस्ती पर एक बार फिर से कड़े पहरे-से लग गए थे।
और तब एक बड़ा हादसा हुआ। न्यूयॉर्क शहर के फ्लशिंग हाई स्कूल में किसी मनचले ने गोलियाँ बरसाईं। खबर हवा की तरह फैल गई। कई अभिभावक दौड़ गए स्कूल तक। अफरा-तफरी मची हुई थी कि एक बम विस्फोट हुआ। लेकिन तब तक स्कूल खाली हो चुका था। पुलिस के सख्त पहरे थे पर माता-पिता को इजाजत मिल रही थी अपने बच्चों को खोजने की। दौड़ते हुए जब मम्मी वहाँ पहुँचीं तो सामने धुआँ था, इतना तेज कि सब खाँस-खाँस कर दोहरे हो रहे थे फिर भी अपने अपनों को ढूँढ रहे थे। कहीं से तृपित दिख जाए बस, उसके मिलने की आशा में बौखलायी सी थीं वे, नजरें ढूँढ रही थीं बिटिया की एक झलक। उसके पापा भी दादी को लेकर आ गए थे। कहीं से भी कोई आसार नहीं दिखे कि सब कुछ ठीक है। जिधर देखते निराशा ही हाथ लगती। दिल में एक अनजाना भय था, जो बच्ची की सलामती पर प्रश्न खड़े कर रहा था।
वे ही क्यों, कई माता-पिता बौखलाए हुए से इधर-उधर दौड़ रहे थे अपने बच्चे को पुकारते हुए। लगभग आधे घंटे तक इधर-उधर खोजते रहे वे तीनों प्राणी। आखिर हार कर दादी और तृपित की मम्मी जोर-जोर से बिलखने लगीं। रुदन फूट पड़ा। पापा की आँखों से बेबसी के आँसू बहने लगे। दादी चीख-चीख कर रो रही थीं, इतनी जोर से कि बम फोड़ने वाले के कानों तक आवाज पहुँचे कि आखिर इन मासूम निर्दोष बच्चों ने उनका क्या बिगाड़ा है। दादी की तेज रोने की आवाजों में एक ही रट थी – ‘मैं जानती हूँ, ये बम मेरे बच्चे के हत्यारों ने ही फोड़ा होगा। खून के प्यासे हैं ये लोग, मेरी पोती को भी मारना चाहते हैं ये अब।‘ कोलाहल में किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, सिवाय आँसू बहाने के, कोई कुछ नहीं कर पा रहा था।
धुआँ, पुलिस के सायरन और लोगों का रुदन। उन काले दिनों में से एक था यह दिन जब आदमी की नफरत की आग हँसते-खेलते लोगों के संसार को अपनी आग में झुलसा चुकी थी। तभी सामने से कुछ आवाजें आईं। धुएँ के बादलों के छँटते ही कुछ-कुछ दिखने लगा, कुछ लोग पुलिस की बंदुकों के संरक्षण के साथ बाहर आ रहे थे। उन आते हुए लोगों की भीड़ में तहरीम की अम्मी थीं, जिनके एक ओर तृपित थी व दूसरी ओर तहरीम थी। उस धुएँ में न जमीन दिखती थी न आसमान, बस धुंधलका था, साए थे और माँ का बेटियों के सर पर हाथ था। दोनों उनसे सटकर सहमी-सी चली आ रही थीं।
वह एक ऐसा पल था जिसमें न कोई भारतीय था न कोई पाकिस्तानी, बस दहशत थी और घबराए हुए लोग थे। एक माँ थी, जो न किसी देश की थी, न ही किसी सरहद की, बस अपने बच्चों की थी। सिर पर हाथ था अम्मी का और बाँहों के अगल-बगल थीं वे दोनों, तृपित और तहरीम। मंटो साहब के टोबा टेकसिंह का वह दृश्य मानो दोहराया जा रहा था, जहाँ जमीन के उस टुकड़े पर किसी देश का नाम नहीं था। ठीक वैसे ही यहाँ अम्मी का वह हाथ था जो न भारत का था, न पाकिस्तान का, सिर्फ एक माँ का हाथ था, जो बच्चों की जननी थी। अपनी बच्चियों की सलामती को देख आज पहली बार अम्मी और मम्मी एक दूसरे के गले लगकर बिलख रही थीं। सामने खड़ी दादी की आँखों में भी आँसू थे जो शायद उस नफरत को धोने का भरसक प्रयास कर रहे थे।
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मनावता सर्वोपरि है।देशों की सरहदें होती हैं, मानवता की कोई सरहद नहीं होती । अम्मी और मम्मी कोई भेदभाव नहीं होता।हर देश की माँ एक जैसी होती है । विश्वास को बहाल करती यह कहानी बढ़िया कहानी।इसकी बुनावट पुख्ता है।हार्दिक बधाई।
सादर आभार गोविंद जी, आपकी प्रतिक्रिया मेरा संबल है, ऊर्जा से भरपूर है। आपका दिल से धन्यवाद।
जब पाठक कहानीकार को समझने लगता है तो कहानी कहाँ जाकर पहुँचेगी यह आभास होने लगता है ,इस दो दुश्मन देशों की मासूम बच्चियों की दोस्ती जो संदेश दे रहा होती है वहीं अंतिम श्रेय सत्य है जो दादी के मन के घाव भर देता है ….
आत्मीय बधाई हंसा जी ; ऐसे ही सार्थक संदेश देती रहेंं अपनी संवेदनशील और मानवीय रचनाओं के माध्यम से…
पुन: बधाई ।
बहुत-बहुत धन्यवाद गोपाल जी। आपको कहानी पसंद आयी, यह मेरा सौभाग्य है। आपकी टिप्पणी अमूल्य है, गौरवमयी अहसास की अनुभूति है। आपकी हार्दिक आभारी हूँ।
अम्मी और मम्मी की तरह ही सहज व सरल शब्दावली में भावनाओं और मानवता के ताने-बाने से बुनी यह कहानी ऐसी अद्भुत मिठास से युक्त है, जिसमें नफ़रत घुल-घुल जाती है, दादी की नफ़रत की तरह।
राजनीतिक बयानबाज़ी और चैनलों की चिल्लाहट,जो नफ़रत की चिनगारी को हवा देते है, का ख़ामियाज़ा सरहद पार के परिवारों में दृष्टिगत होता है, जिसकी ओर इंगित कर लेखिका ने चिंतन का एक दृष्टिकोण दिया है। यह कटु यथार्थ कहानी को धारदार बनाता है।
लेखिका की भावुकता और ह्रदय की मिठास कहानी के चप्पे-चप्पे में विद्यमान है।
प्रभावपूर्ण लेखन के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ, ‘डॉ. हंसादीप’ ।
———बचपन से आपकी प्यारी हँसी से प्रभावित———डॉ. बीना चौधरी
आपकी अमूल्य टिप्पणी ने कहानी लिखना सार्थक किया, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद डॉ. बीना चौधरी।