वरिष्ठ कथाकार। दो उपन्यास, ग्यारह कहानी संग्रह, दो लेख संग्रह सहित अनुवाद की कई पुस्तकें प्रकाशित।

निमंत्रण-पत्र मिलने पर शकुन को हैरानी भरी खुशी हुई। भीतर आतिशबाजी वाला राकेट-सा छूटा था और आत्माकाश पर लाल-पीले-हरे, चमकीले सितारों का प्रकाश भर गया था। बाद में उसने जब प्रेषक के स्थान पर निमंत्रण- पत्र पर श्रीमती और श्री का नाम पढ़ा तो भीतर जगमगा रहे सारे सितारे बुझ गए थे। अंतर में बारूदी धुआं भरता चला गया था।

‘मम्मी, किसका इन्विटेशन है?… कहां से आया है?’ आद्रिका आज की डाक से आया अपनी सहेली का पत्र पढ़ने के बाद शकुन के करीब सरक आई थी।

‘यूं ही, लखनऊ में एक रिश्तेदार के लड़के का विवाह है।’ शकुन ने बेटी को टालना चाहा था।

‘हम लोग जाएंगे क्या?’

‘कह नहीं सकती। तेरे डैडी से सलाह करने के बाद ही कुछ तय हो पाएगा। अच्छा बता, तेरी सहेली का क्या हाल है? हॉस्टल में मजे से तो है?’ शकुन ने प्रसंग बदलने की कोशिश की।

‘सो सो… दिल्ली जैसे बड़े शहर में जाकर बड़ा अकेलापन महसूस कर रही है बेचारी।’

बेटी को ड्राइंगरूम में व्यस्त छोड़ कर भरे बादल सी शकुन अपने बेडरूम में आकर पलंग पर ढह गई थी। उसके भीतर धूप भी थी और बारिश भी। इस धूप और बारिश में एक नन्हा सा पौधा धीरे-धीरे वृक्ष का रूप लेने लगा। उसने पलंग पर पड़े-पड़े निमंत्रण-पत्र को लिफाफे से बाहर निकाला और मुग्ध भाव से उसकी इबारत पढ़ने लगी, गौरव वेड्स गरिमा। निमंत्रण-पत्र को उसने अपनी छाती से भींच लिया। कानों में शहनाइयां बजने लगीं, मंगलगीत गूंजने लगे।

उसने स्टील वाली अलमारी के लॉकर से अपना ज्वैलरी बाक्स निकाला और उसमें सबसे नीचे बड़े एहतियात से रखी गौरव की तस्वीर निकाली। टेबल पर रखा चश्मा केस से निकाल कर पहना और कुर्सी पर बैठ कर तस्वीर को एकटक निहारने लगी। निहारते हुए उसे अपनी दोनों छातियों और अपनी कोख में कुछ रिसता-रिसता-सा महसूस हुआ। अचानक तस्वीर हुए गौरव का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा था।

उस दिन पहली बार शेखर ने उस पर हाथ उठाया था। पांच वर्षीय गौरव अपने पापा के सामने तन कर खड़ा हो गया था- ‘क्यों मारा आपने मेरी मम्मी को? आप बहुत गंदे हैं।’

अचानक आद्रिका दरवाजे का पल्ला हौले से खोल कर शकुन के सामने आ खड़ी हुई थी-  ‘मम्मी, किसकी है यह तस्वीर? आप अचानक इतनी गंभीर क्यों हो गई हैं?’

शकुन की काया कांप कर रह गई। अंदर घुमड़ रही स्याह बदली उसके चेहरे पर उतर आई। पलकों के कोर बरबस ही पसीज गए- ‘यूं ही… बस यूं ही… कॉलेज के दिनों की मेरी सहेली के बेटे की है।’

आद्रिका के नेत्रों में संशय की परछाइयां उतर आईं- ‘मम्मी, आपको मैं कितना चाहती हूँ, कितनी रिस्पेक्ट करती हूँ आपकी, आप अच्छी तरह से जानती हैं। आपकी पर्सनल लाइफ में इंटरफेयर करने का कोई अधिकार नहीं है मुझे, पर कम से कम मुझसे झूठ तो न बोलिए।’

शकुन को लगा, वह रंगे हाथों पकड़ी गई है। उसकी पसीजीं पलकों से आंसू बह निकले-  पता नहीं, लोग झूठ कैसे बोल लेते हैं? जब भी मैंने झूठ बोलने की कोशिश की, रंगे हाथों पकड़ी गई हूँ।

आद्रिका ने मां के आंसू पोंछे और उसकी गोद में उतर आई। शकुन उसके बालों में उंगलियां घुमाने लगीआदि, अब तू उम्र के उस मुकाम पर पहुंच गई है, जहां इंसान में जिंदगी को देखने की सलाहियत पैदा हो जाती है। कुछ नहीं छुपाऊंगी मैं तुमसे। दरअसल यह तस्वीर मेरे बेटे गौरव की है और आज डाक से आया निमंत्रणपत्र उसी की शादी का है।

रियली मम्मी!आद्रिका झपाके से मां की गोद से निकली और पलंग पर खड़ी होकर नाचने लगीतुम तो छुपी रुस्तम निकली मम्मी। आज तक मुझे बताया ही नहीं कि मेरा एक भाई भी है। नाहक ही मैं राखी बांधने के लिए भाई तलाशती रही।

नाचते-नाचते आद्रिका ने शकुन के हाथ से गौरव की तस्वीर झटक ली और तस्वीर को जी भर कर निहारने के बाद उसने शकुन के गले में दोनों बांहें डाल दी- ‘मम्मी प्लीज, हम लोग गौरव भैय्या की शादी में जरूर जाएंगे।’

एक तस्वीर आद्रिका के हाथ में थी और एक तस्वीर शकुन की आंखों में तैर रही थी। आद्रिका के हाथ में जो तस्वीर वह स्कूली यूनिफोर्म में लैस नन्हे गौरव की थी, लेकिन शकुन की आंखों में जो तस्वीर तैर रही थी, उनमें घुटनों के बल चलता गौरव था, दोनों हाथ आगे फैला कर डगर-मगर चलता, कुछ दूर चलकर गिरता और फिर उठकर चलने लगता गौरव था, उंगली के इशारे से ओ…ओ… कर सड़क पर चलते जानवरों को देखकर खुश होता गौरव था। तीन पहियों वाली ट्राइसायकिल पर चढ़ने-उतरने की कोशिश करता गौरव था। स्कूल में एडमिशन हो जाने पर शुरू-शुरू में स्कूल न जाने की जिद करता गौरव था। इन तस्वीरों ने शकुन के हृदय में गौरव को प्रत्यक्ष देखने की प्यास भड़का दी थी- ‘जाने का तो मेरा भी मन बहुत कर रहा है, पर तेरे डैडी का इस बारे में क्या रुख होगा, कह नहीं सकती।’

‘डैडी को मनाने का जिम्मा मेरा रहा ममा डार्लिंग।’

‘तुम तो अब बस चलने की तैयारी शुरू करो।’ आद्रिका पूरे आत्मविश्वास से भरी हुई थी।

लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर हिमगिरि एक्सप्रेस जब जाकर खड़ी हुई थी उस वक्त अवध की शाम ढल कर रात का रूप ले चुकी थी। आद्रिका ने कुली को पुकार कर शीघ्रता से डिब्बे से सामान उतरवाया था। शकुन की संधानी दृष्टि प्लेटफार्म की भीड़ में अपने परिचित चेहरों को तलाशती ओवर ब्रिज तक जाती थी, फिर हताश हो वापस लौट आती। प्रतीक्षा परेशान करने लगी थी। कुली अलग उतावला हो रहा था। संजय रिजर्वेशन कराने के बाद शेखर को स्वयं तार दे कर आया था। फिर उन्हें कोई रिसीव करने क्यों नहीं आया? विवाह का निमंत्रण-पत्र अपने डैडी को थमाने के बाद आद्रिका उनके गले में बाहें डाल कर झूल गई थी- ‘डैडी, हमारे गौरव भैय्या की शादी है और हमें जाना ही जाना है।’

बेटी सपना थी संजय का, जिसे शकुन ने पूरा किया था। अब बेटी के हर सपने को संजय सिर- आंखों पर लेते थे। संजय ने बड़ी गहरी नजरों से शकुन की ओर देखा था और शकुन की आंखों में मौन समर्थन पा बस इतना ही कहा था- ‘सूख चुके घावों को कुरेदने से सिर्फ दर्द ही हासिल होता है कुनू। अगर तुम जाना चाहती हो तो मैं रोकूंगा नहीं। कुछ अप्रिय न घटे बस इस बात की चिंता रहेगी मुझे।’

संजय हमेशा शकुन को प्यार से कुनू कह कर बुलाते थे। यह संबोधन शकुन के अंदर रुमानी उष्मा भर देता था।

संबोधन की रुमानी उष्मा में डूबी शकुन बस यही सोचती रह गई थी, ऐसे भी होते हैं पुरुष। उदात्त और उदार। विशाल हृदय। स्त्री को भी अपनी तरह इंसान समझने वाले। पत्नी को दासी नहीं दोस्त समझने वाले। उसके हर सपने को पूरा करने वाले। उसकी हर भावना का आदर करने वाले। काश! कि यह गुण शेखर में भी हुए होते।

अगले दिन बेटी को साथ लेकर शकुन ने बेटे के विवाह के लिए जम कर शॉपिंग की थी। उसकी कल्पना ने गौरव की एक सुगढ़-सुदर्शन छवि गढ़ ली थी। उसी छवि के अनुरूप उसने गौरव के लिए जरी के काम वाली मेहरून रंग की दुपट्टे वाली शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा खरीदा था। साथ ही नफ़ीस नागरा भी। बीच में जब सोना सस्ता हुआ था तो आद्रिका के विवाह की खातिर उसने सोने का सेट ले लिया था। उसने सोचा, आद्रिका तो अभी इंटर में पढ़ रही है। पढ़ाई पूरी करते-करते छह-सात साल तो लग ही जाएंगे। तब तक वह उसके लिए नया सेट बनवा लेगी। और आद्रिका वाला सोने का सेट उसने गौरव की बहू के लिए रख लिया था।

आद्रिका भी पीछे नहीं रही थी।

उसने भी अपने भाई के लिए मोतियों की लड़ियों वाला सेहरा, सेहरे के शीर्ष पर जड़ने के लिए लाल-हरे नग जड़ी चांदी की कलगी खरीदी थी। साथ ही कई तरह के परफ्यूम और डेयोडेंट भी। अपने लिए विवाह के हर आयोजन पर पहनने के लिए अलग-अलग फैशन और डिजाइन के ड्रेस।

‘शकुन जी, नमस्कार, माफ कीजिएगा जाम में फंस जाने के कारण स्टेशन पर टाइम पर नहीं पहुंच पाया।’

अपने में डूबी शकुन चिहुंक कर वर्तमान में लौटी। शेखर का उसे ‘शकुन जी’ कहना अजीब सा लगा। क्या यह वही शेखर है, जो जब-तब गुस्से में आकर उसे ‘हरामजाद़ी सुअर की बच्ची’ कहा करता था। वक्त से बड़ा कोई मुंसिफ नहीं। क्रूर से क्रूर तानाशाह को वह उसकी औकात बता देता है।

शेखर के नमस्कार के प्रत्युत्तर में शकुन ने भी अपने दोनों हाथ जोड़ दिए थे। पल भर के लिए दोनों की नजरें एक-दूसरे से टकराई थीं। शकुन की दृष्टि में गर्व भरी चमक थी कि देखो, तुमसे तलाक लेने के बाद कितना सुखी हूँ मैं। शेखर के खिचड़ी बालों वाले बासी सूखी रोटी से चेहरे पर गहरी थकन और हताशा थी।

वक्त कुछ देर के लिए ठिठक गया था। इस ठिठकन को तोड़ा था आद्रिका ने- ‘नमस्ते अंकल, हम आद्रिका, गौरव भैय्या की छोटी बहन।’

शेखर अपने आपे में लौटा था- ‘जुग-जुग जियो बेटी…’

फिर उसने जींस और टॉप में कसी आद्रिका के सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ फेरा था और मन ही मन कहा था- ‘शकुन तुम्हारी बेटी तुम से भी अधिक स्मार्ट और सुंदर है।’

ऑटोरिक्शा के स्टेशन से घर पहुंचने तक एक झिझक भरा मौन पसरा रहा था शेखर और शकुन के बीच। हालांकि ढेरों बातें थीं, पिंजरे में बंद परिंदों सी, जो रह-रह कर पंख फड़फड़ा पिंजरे की तीलियों पर सिर पटक रही थीं, पर  पिंजरे को खोलने का साहस दोनों में से कोई नहीं जुटा पा रहा था। ऑटोरिक्शा में दोनों के मध्य बैठी आद्रिका बीच-बीच में शेखर के चेहरे की ओर ताकने लगती और शेखर की तुलना अपने डैडी से करने लगती थी। कितनी डैशिंग पर्सनैलिटी है उसके डैडी की और एक यह शेखर अंकल हैं! उसके डैडी की उम्र के होने के बावजूद अंकल कैसे थके-थके और जीवन के बोझ तले दबे नजर आते हैं। अच्छा हुआ, इनसे तलाक हो गया मम्मी का। नहीं तो मम्मी भी अबतक इन जैसी ही हो गई होती।

घर आ गया था। शकुन की सीतापुर वाली ननद लपक कर बाहर आ गई। पीछे सहमासकुचाया गौरव भी। गौरव कुछ पल तक ठिठका खड़ा, थ्री ह्वीलर के पास खड़ी अपनी मां और आद्रिका को देखता रहा था फिर तेजी से आगे बढ़ कर मां के कदमों में जा झुका था।

शकुन को यूं लगा था जैसे गौरव उसकी जिंदगी से महरूम कर दिया गया उसका पहलौठी का सपना हो, जो फिर उसके जीवन से आ जुड़ा है। उसने कस कर गौरव को अपनी बाहों में जकड़ लिया। उसकी आंखें धारासार बहने लगी थीं।

सत्या ने बामुश्किल उसे गौरव से अलग किया था- ‘अरी निगोड़ी, बस भी कर अब,  तू आ गई है तो जी भर कर साथ रहने की साध पूरी कर लेना।’

और इसी के साथ उसने शकुन को अपने अंकवार में भर लिया- ‘अरी निर्मोही, तू तो निगोड़ी अपनी इस ननद को भी भूल गई। तलाक तेरी इस निगोड़े से हुई थी, हमसे तो नहीं कि जाने के बाद एक निगोड़ी चिट्ठी तक न डाली।’ निगोड़ी, तकिया कलाम था सत्या का।

शकुन और आद्रिका के स्वागत हेतु घर के भीतर से कोई नहीं आया था। मकान के छज्जे से नीचे लटक रही जलती हुई रंगीन झालरों की रोशनी में कुछ बच्चे मकान के बाहर धमा चौकड़ी कर रहे थे, जो इन्हें थ्री ह्वीलर से उतरते देख कर इनके गिर्द घिर आए थे।

सत्या शकुन की कमर में हाथ डाले यूं उसे घर के अंदर ले चली थी जैसे वर्षों बाद मिली गुइयां हों। शकुन ने सफाई दी थी- ‘ऐसी कोई बात नहीं है दीदी। बस यूं ही एक भय भरा संकोच था। चाहते हुए भी पत्र नहीं लिख पाई आपको। भूल हो गई आपकी इस नादान गुइयां से, क्षमा कर दो।’

‘जरा-जरा सी बात पर क्षमा मांगने की निगोड़ी आदत नहीं बदली तेरी।’ और सत्या ने हौले से शकुन की कमर में चुटकी काट ली थी।

इस आत्मीय ठिठोली से शकुन फूल की तरह खिल गई। उसे लगा, वह परायों के बीच नहीं है।

जैसे वे घर के अंदर दाखिल हुए घर के किसी कमरे से शकुन के कानों में ढोलक बजने की आवाज पड़ी। ढोलक की थाप पर कोई नारी कंठ झूम-झूम कर गा रहा था- ‘बिछुवा के काटे धन्नो काहे मरी जाए’,  शकुन के अंदर बलवती इच्छा मचल उठी कि गाने वाले कमरे में जुटी औरतों के बीच पहुंच जाए और अपनी मां-दादी से सुनें सारे विवाह-गीत गा डाले।

सब ड्राइंगरूम में आ गए थे। ट्यूब लाइट के प्रकाश में सत्या ने शकुन को भर नजर देखा- ‘अरी निगोड़ी, तू तो रत्ती भर नहीं बदली। वही वैभव भरा देवियों सा रूप। वही निगोड़ी मंदिर में जलते दीप सी दिप-दिप करती बड़ी-बड़ी आंखें। ई निगोड़ा शेखरवा मूरख रहा जो तुझ जैसी देवी  को छोड़ उस ललिता पवार को ब्याह लाया।’

ड्राइंगरूम में ठहाका गूंजा। शेखर कान लपेट बाहर खिसक लिया था।

सत्या अट्टहास कर उठी- ‘उस हरामिन अलका ने जाने क्या घोल कर पिला दिया है। निगोड़ा  पालतू पिल्ले-सा उसके पल्लू से बंधा रहता है। यह तो तुझे निमंत्रण-पत्र भी भेजने को राजी नहीं था। मैंने ही लानत-मलामत की तब कहीं जाकर निगोड़े ने पत्र डाला तुझे।’

सत्या घर में सबसे बड़ी थी। हल्की सी पृथुल देह। दरमियाना कद। गोरा चिट्टा सेठानियों-सा व्यक्तित्व। हर समय पान चबाते रहने के कारण कत्थई पड़ चुके होंठ। सत्या का खाविंद पुलिस विभाग में दरोगा था। पति के पद ने सत्या को भी दबंग बना डाला था।

ड्राइंगरूम से शकुन और आद्रिका का सामान सत्या अपने कमरे में ले आई थी। मां और बहन के पीछे गौरव भी चला आया था।

सत्या और शकुन पलंग पर बैठ गई थी। गौरव भी मां से यूं जुड़ कर बैठ गया था जैसे उसके शरीर का अभिन्न अंग हो। आद्रिका फर्श पर बिछे गद्दे पर पसर गई थी।

शकुन को उनके ठहरने की व्यवस्था आत्मीय लगी थी। सत्या जानती होगी, निमंत्रण पत्र मिलने मैं पर खुद को रोक नहीं पाऊंगी। इसीलिए उसने अपने प्रभाव से की होगी यह व्यवस्था। खुद को आत्मीय परिवेश में पाकर शकुन मुखर हो गई- ‘दीदी, क्या बात है? क्यों पानी पी-पी कर कोस रही हैं अलका बहन को?’

‘कुछ न पूछ बहना, कोई एक दुख हो तो बताऊं। शेखरवा की लुटिया डुबोने के बाद अब ये नासपीटी तेरे गौरव का बेड़ा गर्क करने पर तुली हुई है।’

अपना जिक्र छिड़ते ही गौरव का खामोशी में डूबा चेहरा वर्षातुर मेघखंड सादृश्य हो गया। वह मां से और सट गया था। जैसे मां देवी दुर्गा हो।

शकुन का कलेजा जैसे किसी ने मुट्ठी में भींच लिया हो। उसका स्वर कराह में बदल गया था-  ‘क्या सर्वनाश होने जा रहा है मेरे बेटे का?’

शकुन के चेहरे की पीड़ा से सत्या विचलित हो गई- ‘अनाथ समझ कर इन कसाइयों ने मोटे दहेज के लालच में तेरे बेटे का रिश्ता एक ऐसी लड़की से तय कर दिया है, जो अपने प्रेमी के साथ मुंबई भाग चुकी है। छह महीने बाद घर वाले जब उसे जबरन वापस ले के लौटे तो वह पेट से थी। घर वाले अबार्शन करवाने ले गए तो जिद पर अड़ गई- ‘अपने पहले प्रेम की निशानी मैं नष्ट न होने दूंगी।’ किसी तरह अबार्शन करवाया गया तो अब जिद पर अड़ी है- ‘शादी तो मैं बस अपने प्रेमी से ही करूंगी।’

कमरे में सांप सूंघ सन्नाटा व्याप्त गया था। शकुन, आद्रिका, गौरव हर चेहरे पर भय पुत गया था। हर रूह को खौफ ने जकड़ लिया था। यूं लग रहा था जैसे कमरे के किसी कोने से अजगर प्रकट हो गया हो और उसने पूरे कमरे को अपनी कुंडली में जकड़ लिया हो।

पीड़ा के पहाड़ तले से सत्या का स्वर बामुश्किल निकल कर बाहर आया- ‘इस निगोड़ी अलका के अपने दोनों बेटे लोफर हैं। बड़ा नंबर वन का लौंडियाबाज़ है। छोटे को जो पाई-पैसा मिलता है, जुआ खेल डालता है। बड़े को तो तेरे ननदोई ने दो बार जेल जाने से बचाया है। इन चांडालों के चलते शेखर का रोआं-रोआं कर्ज से बिंध गया है। यह तो तेरे होनहार कमाऊ पूत की वजह से यह घर चल रहा है, नहीं तो कब का दिवाला पिट गया होता।’

कमरे के दरवाज़े का परदा हिला था। मिसरानी नाश्ते की ट्रे लेकर अंदर आ गई- ‘आओ मंथरा देवी, एक तेरी कसर बाकी थी।’

मिसरानी कट कर रह गई। नाश्ता मेज पर रखने के बाद वह गौरव की ओर उन्मुख हुई- ‘गौरव बाबू, आपको मां जी बुलाए रही हैं।’

‘हां… हां, आ जाता है। कुछ सिखा-पढ़ा नहीं रहे हमलोग। अपनी उस निगोड़ी मालकिन से कह दे जाकर, हमारी अगर जासूसी करवाई तो झोंटा उखाड़ कर हाथ में धर दूंगी।’

सत्या ने मेज से उठा कर नाश्ते वाली प्लेटें पलंग पर रख लीं। मिसरानी खाली ट्रे उठा कर तीर हो गई।

शकुन का कलेजा चिंता के गर्त में डूब गया था- ‘अब क्या होगा दीदी?’

‘चल तू पहले नाश्ता कर, सफर की थकी-मांदी आई है। सोचते हैं बाद में।’

सब ने किसी तरह नाश्ता निगला था।

नाश्ते के बाद सत्या ने बात का सूत्र फिर हाथ में ले लिया थामुझे तो इस निगोड़ी अलका ने इस रिश्ते की भनक ही नहीं लगने दी। यह तो तेरे ननदोई ने भीतर की सारी बातें पता करके हमें बताई। पता चलने पर। हमने इस अलका निगोड़ी की ऐसी ऐसीतैसी की कि क्या याद रखेंगी यहतुझे भी मैंने इसीलिए बुलाया है कि तू गौरव की सगी मां है। तू कुछ कर सकती है तो कर ले। बाद में न कहना कि इस निगोड़ी तेरी ननद ने तुझे चेताया नहीं।

सर्द सन्नाटे में घिर गई शकुन। क्या करे वह? क्या कर सकती है वह? क्या है उसके हाथ में? शेखर ने उसे तलाक इसी शर्त पर दिया था कि गौरव पर कोई अधिकार नहीं होगा शकुन का। कहां तलाक ही लेना चाहती थी वह, लेकिन शेखर तो उस वक्त अलका के इश्क में इस कदर गलतान था कि उठते-बैठते, सोते-जागते, हर समय उसे अलका ही अलका नजर आती थी। अलका शेखर के ऑफिस में कार्यरत बड़े बाबू जनार्दन प्रसाद की दूसरी बीवी थी। पचास वर्षीय जनार्दन बाबू ने तीन साल पहले एक गरीब विधवा की युवा बेटी से शादी की थी। गांव में रह रही उनकी पहली पत्नी बांझ थी। लेकिन जनार्दन बाबू अपनी इस अट्ठारह वर्षीय युवा पत्नी का देह-ताप  झेल नहीं पाए और प्रभु को प्यारे हो गए। उनके मरणोपरांत पति के स्थान पर नौकरी पाने के लिए अलका ऑफिस की यूनियन के सचिव शेखर के संपर्क में आई। अलका की नौकरी के लिए शेखर ने जी-जान लगा दी। बात बनने के आसार भी आने लगे थे कि अचानक गांव से जनार्दन बाबू की पहली पत्नी प्रकट हो गई थी। अलका को नौकरी तो नहीं मिली लेकिन शेखर के दिल में जगह जरूर मिल गई थी। दिल में जगह मिलते ही उसने अपनी देह से ऐसी जन्नत दिखाई कि वह बीवी, बच्चे सबको भूल गया और उसे अलका के सिवा कुछ सूझता ही नहीं था। कुछ वक़्फे तक उसने शकुन की उपेक्षा की, फिर वह उसकी हर बात में मीन-मेख निकालने लगा था। कुछ दिन बाद यह मीन-मेख मारपीट में बदल गई थी। शकुन ज्यादा दिन तक झेल नहीं पाई यह प्रताड़ना। पढ़ी-लिखी थी। बिलबिला उठी थी उसकी अस्मिता। मुक्त होने के लिए शेखर ने जैसा चाहा था, करती चली गई थी।

अपने अभिशप्त अतीत को पूरी तरह भूल चुकी थी शकुन, लेकिन गौरव के इस विवाह ने सब उधेड़ कर रख दिया। उसकी पलकों पर थरथरा रहे आंसू उसके कपोलों पर उतर आए थे- ‘मैं क्या कर सकती हूँ दीदी? पराई दहलीज पर मेहमान बन कर आई हूँ। किसी से तू-तकरार करूंगी तो तमाशा खड़ा हो जाएगा।’

शकुन के शब्द छत पर चल रहे पंखे से किसी चिड़िया के नुचे पंखों की तरह गिर कर हवा में तैरने लगे थे।

अचानक गौरव के भीतर चल रहे भीषण तूफान की एक सुनामी लहर उसकी अंतर्यातना को भीतर से बाहर ले आई थी। वह शकुन के पार्श्व से उठ कर उसके कदमों में ढह गया और फूट-फूट कर रोने लगा था। शकुन चुपचाप उसके बालों में हाथ फेरती रही थी।

अगले दिन उबटन की रस्म थी। आयोजन घर की छत पर था। शकुन पहली बार अलका से रूबरू होने जा रही थी।

‘अरे भाई, कोई सरसों का तेल लाओ, कुंभ जल लाओ, न्योछावर करो। देख नहीं रहे हो दूल्हे की मां आ रही है। बीस साल तक सोई रही ममता की अब कहीं जाकर आंख खुली है। यह थी अलका से उम्र में बड़ी उसकी मौसी की लड़की।

तंज तीर था। सीधा शकुन के मर्म को बेंध गया था। शकुन और आद्रिका दोनों ही तिलमिला उठी थीं। लेकिन तीर का जवाब तलवार से दिया सत्या ने- ‘हां… हां, निगोड़ियों लाती क्यों नहीं हो? चौबीस कैरेट सोने सी शुद्ध यह गौरव की असली मां। तुम्हारी अलका-फलका की तरह रोल्डगोल्ड नहीं है। निगोड़ी सारी की सारी मरभुक्खी नकली ननिहाल आ जुटी है मेरे भैया के घर।’

सारे खिलखिलाते चेहरों को पाला मार गया था। झनझनाती हुई अलका उबटन का कटोरा शकुन को थमा कर सीढ़ियों से नीचे उतर कर आंगन में किराए का सामान गिनवा रहे शेखर पर फालिन हो गई थी- ‘किस हरामजादे ने तुम्हें मेरी सौत को न्योता भेजने को कहा था? मैं पुरानी पड़ गई हूँ कि फिर से पहले वाली की तलब सताने लगी है तुम्हें?’

शकुन के कानों में जैसे किसी ने पिघला सीसा उतार दिया हो। उसके हाथ से उबटन वाला कटोरा गिर गया था और सिर में घुमेर सा आ गया था।

आद्रिका ने लपक कर मां को थाम लिया था। इधर अलका की दी हुई हरामी होने की गाली सत्या की छाती में अग्नि बाण की तरह आ धंसी थी। वह फुत्कारती हुई अलका से मोर्चा लेने के लिए सीढ़ियां उतर कर नीचे जा पहुंची थी।

नीचे महाभारत शुरू हो गया था।

आद्रिका ने मां को नीचे कमरे में लाकर उसके चेहरे पर पानी के छींटें मारे। मां को जैसे ही होश आया। उसने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया।

शकुन उठ कर बैठ गई। अपने मूर्च्छित हो जाने पर उसे शर्मिंदगी महसूस हुई। खुद पर नाराज हो उठी, घर से चलते वक्त क्या जानती नहीं थी तू कि कहां जा रही है? जहां जा रही है वहां कैसी स्थितियों का सामना करना पड़ेगा? कब तक सहनशीलता की प्रतिमूर्ति बनी रहेगी तू? नंगे के साथ नंगा बन कर ही लोहा लिया जा सकता है। अब शेखर की पत्नी नहीं संजय की जीवन संगिनी है तू। संजय जैसे आत्माभिमानी इंसान के साथ रह कर भी अभी तक तन कर जीना नहीं सीख पाई तू! अब तो सत्या दी भी तेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई है। यह सब सोचते हुए उसके अंदर की स्त्री सुदृढ़ व्यक्तित्व में बदल गई। अदम्य साहस से भर उठी। आद्रिका को सामान समेटते हुए देख कर बोली- ‘आदि, अभी से ही सामान पैक करने क्यों बैठ गई है तू?

आद्रिका आक्रोश से भरी हुई थी- ‘मम्मी, डैडी ने आज तक आपको कभी एक ऊंचा बोल नहीं बोला और ये औरत आपके चरित्र पर कीचड़ उछालने की हिमाकत कर रही है! अब हम यहां एक पल नहीं रुकेंगे।

‘आदि, माय लव! तेरा गुस्सा अपनी जगह जायज है, पर तेरी मां जब तक इस घर में रही शेखर के सामने हथियार डालती रही। तेरे डैडी से एक ही बात सीखी है मैंने, गलत को स्वीकार कर लेना जीते जी आत्महत्या है। तू ही कह, और कितनी बार मैं अपनी आत्मा की हत्या करती रहूं?’ और इतना कहते ही शकुन कुरूक्षेत्र में जा पहुंची।

जाते ही उसने अपनी बुआ के पास सहमें खड़े गौरव का हाथ मज़बूती से अपनी मुट्ठी में कस लिया- ‘चल बेटा, सामान समेट अपना। इन कसाइयों के बीच अब मैं तुम्हें एक पल नहीं रहने दूंगी।’

शेखर स्तब्ध! उसके पौरुष को जैसे पाला मार गया हो। अपने स्थान पर कीलित होकर रह गया था वह। कुछ पल तक अलका शेखर की ओर देखती रही। उसके बुत में हरकत न देख शकुन से मोर्चा लेने वह खुद आगे बढ़ी। आगे बढ़ कर बीच में ही शकुन ने रोक लिया उसे- ‘अलका बहन, मेरा बेटा लावारिस नहीं है। उसकी मां अभी जिंदा है। मेरे जीते जी उसका सर्वनाश नहीं कर पाओगी तुम।… अगर बेटे को बेच कर दहेज बटोरने की इतनी ही भूख है तो क्यों नहीं कर देती अपने बेटे की शादी उस पराये लड़के के प्रेम में पागल लड़की से?’

फिर शकुन शेखर की ओर उन्मुख हुई- ‘जानती हूँ, तुम्हारे पास मेरे साइन किए हुए स्टैंप पेपर हैं। मेरे जाने के बाद अदालत में दाखिल कर देना उन्हें। लड़ लूंगी मैं मुकदमा।’

सत्या ही नहीं आद्रिका भी उसका यह रूप देख कर दंग रह गई थी।

संपर्क :फ्लैट न. 101, गोल्डी अपार्टमेंट, 119/372 – बी., दर्शनपुरवा, कानपुर-208012 मो.6394221435