युवा कवि।कई कविता संकलन तथा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।संप्रति उत्तर २४ परगना में अध्यापन।
कविता और स्मृति का एक दूसरे के साथ गहरा संबंध रहा है।स्मृतियों में लौटना, यानी फिर अतीत के गुजरे हुए पलों को जीना।स्मृतिविहीन कविता और जिंदगी दोनों नीरस हो जाती हैं।एक अच्छा कवि बार-बार अपनी छूट गई स्मृतियों में लौटता है और अपनी संचित अनुभूतियों और संवेदनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति करता है।कविता स्मृतियों को सुरक्षित रखती है।विस्मृति के इस दौर में स्मृतियों को बचाए रखना बहुत जरूरी होता जा रहा है।
आज हमारा दुख अकेला हमारा दुख है।दुख ने हमारे घरों से इतिहास और जीवंत आत्मा दोनों को निर्वासित कर दिया है।मेरी कविताओं में दुख का सत्य है, जो हमेशा वस्तुसत्य के साथ है। |
कवि नरेंद्र पुण्डरीक के नए कविता संग्रह ‘समय का अकेला चेहरा’ की कविताओं से गुजरना स्मृतियों के एक भरे-पूरे समृद्ध संसार से गुजरना है।इन स्मृतियों से ढेर सारी कहानियां जुड़ी हुई हैं जिनमें कहीं कवि की निजी जिंदगी और इसके अनुभव तो कहीं इतिहासबोध मौजूद है।कवि अपनी निजी अनुभूतियों के माध्यम से अपने समय की छवियों को दर्ज करता है।देखा जाता है कि एक समय का सच दूसरे समय में जा कर झूठ में बदल जाता है।समय का चेहरा जितनी तेजी के साथ बदलता रहा है, आम जन के सपने उतनी ही तेजी से खंडित होते रहे हैं।नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएं समय के उतार-चढ़ाव को गहन संवेदना के साथ व्यक्त करती हैं :
जिसका कोई समय नहीं था/समय के लिए उसने कई बानक बदले/कई रूप धरे/ आखिर स्वांग का भी असर होता है/सो उसे भी कुर्सी मिल गई/स्वांगी तो था ही/सो बैठते ही कुर्सी को ऐसा तोड़ा-मरोड़ा कि/इसका एक भी पाया साबुत नहीं बचा।
पिछले कई वर्षों में सत्ता और पूंजी का गठजोड़ इस कदर मजबूत होता गया है कि अमीर और अमीर होते गए तथा गरीब और ज्यादा गरीब।आज आर्थिक असमानता चरम पर है।देश की आधी से अधिक संपत्ति आज महज एक प्रतिशत लोगों के पास मौजूद है।वैश्वीकरण, बाजारवाद और पूंजीवाद के चक्रव्यूह में फंसा आम आदमी उनके लिए मात्र उपभोक्ता है।नरेंद्र पुण्डरीक ऐसी व्यवस्था पर करारा प्रहार करते हुए सत्ता और पूंजी के खेल को सबके सामने लाते हैं ः
कपड़ों से अब आदमी की गंध न आकर/चीजों की गंध आती है/तो मुझे परेशानी होती है/जैसे श्रीमान जी के कपड़ों से/श्रीमान जी की नहीं/अडानी-अंबानी की गंध आती है/जो अपने आदमी होने के लिए नहीं/चीजों के लिए जाने जाते हैं।
नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएं देश, समाज, सत्ता, राजनीति, धर्म और इन सबके बदलते स्वरूप को गहराई के साथ रेखांकित करती हैं।वे अपने समय की विसंगतियों और विडंबनाओं पर पैनी नजर रखे हुए हैं।ये कविताएं मनुष्यता के पक्ष में सत्ता की पतनशीलताओं पर कड़े प्रहार करती हैं एवं प्रतिवाद दर्ज करती हैं।कवि के शब्दों में –
कवि कविता लिख रहे हैं/यह समय की दुर्दांतता के खिलाफ कविता की ताकत है/जो एक कवि में बची हुई है।
इस संग्रह की कविताएं आशावादी एवं सकारात्मक सोच के साथ बेहतर दुनिया के स्वप्न बुनती हैं। ‘तीनों इस दुनिया की’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां देखिए-
पहाड़ के कंधों से/नदी में धीरे से उतरता है सूरज/नदी में उतरते ही धीरे से/वैसी ही स्निग्ध ऊष्मा से भरी हुई/उतरती हैं कुछ औरतें/औरतें नदी से संवाद सी करती हुई/धीरे-धीरे धोती हैं हाथ-पैर/और अपना चेहरा/सूरज हाथ-पैर और/उनके चेहरों को चूमता हुआ/हो लेता है उनके साथ/सूरज/नदी और/औरतें/तीनों इस दुनिया की सबसे नायाब चीजें हैं/जब तक ये अपनी तईं हैं/यह दुनिया, दुनिया बनी रहेगी।
नरेंद्र पुण्डरीक की कविताओं में लोक की विभिन्न छवियों एवं शब्दावलियों का भरा-पूरा संसार है जिससे गुजरते हुए पाठक लोक से गहरा जुड़ाव महसूस करने लगते हैं।मशीनीकरण और नई तकनीक के युग में कवि अपने अंदर की लोक संवेदना को बचाए हुए है।कवि कहता है :
कुछ और बड़े होने पर जाना कि/चिड़िया से पेड़ और/दरवाजे पर बंधी गाय से घर और/पेड़ों के होने से धरती अच्छी लगने लगती है/सोच रहा हूँ यदि ये तीनों न होते/तो यह दुनिया कैसी बनती।
नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएं भाषा, कथ्य, शिल्प, अंतर्वस्तु और संवेदना के स्तर पर काफी मजबूत हैं।इनमें एक ताजगी विद्यमान है।
जिज्ञासा – आपकी कविताओं का मुख्य स्वर क्या है?
नरेंद्र पुण्डरीक – दुख मुझे सर्वाधिक प्रभावित करता है।मैं देखता हूँ घर-बाहर हर जगह दुख है, कभी हमारा जीवन साझे परिवार का था।हमारा दुख साझे परिवार का दुख था।आज हमारा दुख अकेला हमारा दुख है।दुख ने हमारे घरों से इतिहास और जीवंत आत्मा दोनों को निर्वासित कर दिया है।मेरी कविताओं में दुख का सत्य है, जो हमेशा वस्तुसत्य के साथ है।
जिज्ञासा – आपकी कविताओं में नदी का क्या स्थन है?
नरेंद्र पुण्डरीक – जिस भी कवि की काव्य-चेतना नदी के किनारों से जुड़ी हो और नदी अंचल से निरंतर गहरे विस्तार पाती हो, उसके जीवन के वशों में ठेठ यथार्थ होता है।उसकी लोक संबद्धता में रोमान नहीं होता।यह बात मेरी कविताओं में आप देख सकते हैं।
जिज्ञासा – कविता आज के संकट का समाना कैसे कर रही है?
नरेंद्र पुण्डरीक – कविता हमेशा स्वप्न से चल कर यथार्थ की यात्रा करती है और यथार्थ को आनंदमयी बनाकर प्रस्तुत करती है।मेरी कविताओं में प्रबल भावावेग की सहज अभिव्यक्ति है।यह जीवन की संवेदनाओं को नए रूप में ढाल कर रम्य रूपों में प्रस्तुत करती है।इससे वह लंबे समय तक स्मृति में बने रहने की क्षमता पा लेती हैं।
मानवीय संवेदना को लेकर कविता हर काल में संघर्ष करती रही है।जब मानवीय संवेदना पर संकट गहराता है तो कविता का संघर्ष बढ़ जाता है।मानवीय संवेदना को बचाने, सुरक्षित रखने में इतिहास हो, स्मृति हो, भाषा हो, कल्पना हो, संवेदना हो, कविता सबको साथ रखती है।यह सबके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करती है।
यह भीतर की आग है, जो मनुष्यों के सपनों को जिंदा रखती है।हर मानव विरोधी शक्ति को इस आग से खतरा महसूस होता है।अतः मनुष्यता को बचाए रखने के लिए इस आग को बचाए रखना भी उतना ही जरूरी है जितना जीने के लिए ऑक्सीजन को। |
‘जब विचार कमजोर पड़ने लगते हैं/मूर्तियां खड़ी होने लगती हैं।’ सुपरिचित कवि सुभाष राय के सद्यःप्रकाशित कविता संग्रह ‘मूर्तियों के जंगल में’ की ये पंक्तियां इस समय की भयावह प्रवृत्ति की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।जब मनुष्य को विचारशून्य बनाने की कोशिशें जारी हैं, सत्ता को प्रगतिशील और मानवतावादी विचारों से सबसे ज्यादा खतरा महसूस होता है।इसलिए वह तर्क की जगह धर्म और आस्था को आगे लाकर खड़ा कर देती है।आस्था सबसे पहले तर्क की हत्या करती है और क्रूरता एवं हिंसा को प्रश्रय देती हुई मनुष्यों को बांटने का काम करती है।सत्ता को हमेशा बंटा हुआ समाज पसंद है।यही कारण है कि देश में आज शिक्षण संस्थानों से कई गुना अधिक मंदिरों का निर्माण किया जा रहा है।मनुष्य से अधिक महत्व आज मूर्तियों को दिया जाने लगा है, क्योंकि मूर्तियां प्रश्न नहीं करतीं और सत्ता को सबसे अधिक बेचैनी प्रश्नों से होती है।
एक सजग कवि के लिए ऐसी स्थिति बेचैन करने वाली है।सुभाष राय लिखते हैं-
सुन रहा हूँ/सफलता के आत्मगान सुन रहा हूँ/बिहान के पक्ष में रात का बयान सुन रहा हूँ/श्मशान और कब्रिस्तान सुन रहा हूँ/टैंक सुन रहा हूँ, तोप सुन रहा हूँ/झूठ के घंटनाद सुन रहा हूँ/सहयोग के लिए आभार सुन रहा हूँ/मूर्तियों के जंगल में पत्थर की/जयजयकार सुन रहा हूँ।
सुभाष राय पत्रकार भी हैं।वे राजनीतिक एवं सामाजिक चेतनासंपन्न जन पक्षधर कवि हैं।उनकी कविताएं समय, समाज और सभ्यता की गहरी पड़ताल करती हैं एवं समय की क्रूरता के विरुद्ध दस्तावेज की तरह सामने आती हैं।आसपास घटित हो रही घटनाएं जब कवि को उद्वेलित कर रही हैं, आत्मसंघर्ष उसके अंदर की आग को हमेशा जलाए रखता है।यह भीतर की आग है, जो मनुष्यों के सपनों को जिंदा रखती है।हर मानव विरोधी शक्ति को इस आग से खतरा महसूस होता है।अतः मनुष्यता को बचाए रखने के लिए इस आग को बचाए रखना भी उतना ही जरूरी है जितना जीने के लिए ऑक्सीजन को।
शिकार करने या बन जाने का/खेल चल रहा निरंतर/मृत्यु से बचे रहने के लिए/एक चिनगारी जरूरी है/आग मर गई तो तुम भी/जिंदा नहीं रह सकते।
सुभाष राय की कविताएं मनुष्य के भीतर दबी आग को बचाए रखने का उपक्रम करती हैं।समय का अंधकार जब गहरा रहा हो, घृणा, अविश्वास और भय का वातावरण विस्तृत हो रहा हो तो छोटी-छोटी चिनगारियां भी मनुष्य की सामूहिक चेतना को प्रभावित करती हैं।इन चिनगारियों में भी आग बनने की संभावना भरपूर होती हैं।इस संग्रह में आग को केंद्र में रखकर छोटी-छोटी ढेर सारी कविताएं हैं –
जब तक ज़ुल्म के खिलाफ/फूटती हैं चिंगारियां, हम जिंदा हैं/ जब तक हम खुद नहीं चुनते/बुझ जाना, हम जिंदा हैं।
सुभाष राय की कविताओं में व्यवस्था की मार झेलते आम आदमी के भीतर फैल रही निराशा, घुटन और अवसाद को भी जगह मिली है।इनकी कविताएं मनुष्य के दुख दर्द को आत्मसात करके लिखी गई हैं।आदमी व्यवस्था से टकराता भी है।
घड़ियों में नहीं बजता है समय/समय में बजती हैं घड़ियां/घड़ियां दर्ज नहीं करतीं/न अतीत, न ही वर्तमान कुछ भी/भविष्य बजता है साहस में/जब कोई साधारण मनुष्य जुल्म के/सामने झुकने से इनकार कर देता है/भविष्य बज उठता है वर्तमान में।
सुभाष राय की कविताएं संघर्ष के रास्ते आगे बढ़ते हुए उस आदमी की कविता है जो बेहतर भविष्य के लिए जद्दोजहद करता है।उसकी सामूहिक चेतना एक बिंदु पर बलवती हो जाती है और वैयक्तिक चेतना गौण।ये कविताएं हिंसा और विलगाव के दौर में मुर्दा चुप्पियों के खिलाफ मुखर मनुष्यता को बचाए रखने की कविता है।
जीतेंगे वे जो लड़ेंगे युद्ध टालने के लिए/भूख, बीमारी और मौतों से लोगों को बचाने के लिए/ कल सिर्फ वही जिएंगे जो/आज मरेंगे दूसरों के लिए।
सुभाष राय का ताजा कविता संग्रह वर्तमान दौर की कविता में प्रतिरोध के स्वर का एक प्रतिनिधि संकलन माना जा सकता है।
जिज्ञासा – आपकी कविताओं में ‘आग’ शब्द बार-बार आता है, जीवन में आग का बचे रहना कितना जरूरी है?
सुभाष राय – आग बहुत महत्वपूर्ण है, भीतर की आग भी और बाहर की आग भी।भीतर की आग हमें अपनी अस्मिता बनाये रखने का साहस देती है, झुकने से बचाती है।कुछ नया करने के पीछे भी यही आग होती है।वंचित, दलित और तिरस्कृत लोग अगर अपने भीतर मुक्ति की आग जला लें तो निरंकुश ताकतोेंं को सबक सिखाया जा सकता है।हर रचना का आग से कोई न कोई रिश्ता होता है।आग जीवन का सच्चा मुहावरा है।
जिज्ञासा – कविता को प्रतिरोध के सांस्कृतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करना किस हद तक सार्थक होगा?
सुभाष राय – कविता का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, वह भी अस्त्र के रूप में तो कतई नहीं।वह महज नारा नहीं होती।हां, कविता लोगों को प्रतिरोध की जरूरत के प्रति सजग कर सकती है।वह जगा सकती है, नींद उड़ा सकती है, बेचैन कर सकती है।वह उठ खड़े होने का साहस दे सकती है।कविता इतना ही करती है।
जिज्ञासा – आपके कविता संग्रह का शीर्षक है ‘मूर्तियों के जंगल में।’ इस जंगल में मनुष्य की क्या स्थिति है?
सुभाष राय – मेरी कविता जिस ‘मूर्तियों के जंगल में’ से गुजरती है, वह बहुत भयानक है।वहां हवा भी नहीं चलती।एक अजीब सी निस्तब्धता है, चुप्पी है, मुर्दनी है।यह घोर निरुपायता है, थोपी हुई अजनबीयत है।मूर्तियां वे गढ़ते हैं, जो बदलाव नहीं चाहते।कुछ भी सोचना बंद कर दें, क्योंकि सोचने से ही लड़ाइयों की शुरुआत होती है।इन सारे खतरों के बावजूद कुछ आवाजें दूर से आ रही हैं, दूर तक जा रही हैं।मानवता हमेशा विजयिनी रही है, आगे भी रहेगी।
देशकाल, राजनीति और सांप्रदायिकता से विलग होकर चलना दरअसल एक सुरक्षित खोल में खुद को छुपा कर रखना है।स्मिता यहीं पर खुद कई समकालीन कवियों से अलग दिखती हैं और अभिव्यक्ति के हर उस जोखिम को उठाने का साहस रखती हैं, जिससे दूसरे कई कवि नजरअंदाज करके चलते हैं। |
‘बोलो न दरवेश’ युवा कवयित्री स्मिता सिन्हा का पहला कविता संग्रह है।आज कविताओं में जहां हर ओर आरोपित वक्तव्य, छद्म मुहावरे और जबरदस्ती ठूंसे हुए शब्दों की भीड़ नजर आती है, स्मिता सिन्हा अपनी स्पष्ट विचारधारा और शांत-स्थिर शब्दों के साथ अपनी रचनात्मकता को लेकर प्रतिबद्ध दिखती हैं।उनके कविता-कर्म को समझने के लिए उनकी सारी कविताओं को एक साथ पढ़ना होगा।हालांकि कई कविताएं पुनःपाठ की मांग करती हैं और अपने हर पाठ के साथ अलग परिप्रेक्ष्य में खुलती हैं।यह स्पष्ट दृष्टिगत होता है कि स्मिता के पास संयमित शैली और अनुभवजन्य व्याख्या है।जीवन को लेकर एक सुलझा हुआ नजरिया है।कविताओं में मानवीय प्रेम के साथ प्राकृतिक प्रेम भी उद्घाटित होता है।स्मिता सिन्हा के ही शब्दों में-
मैं लिखूंगी प्रेम/उस दिन/जिस दिन/नदी करेगी इनकार/समंदर में मिलने से/सारस भूलने लगेंगे/पंंखों का फड़फड़ाना/और/बंजर होने लगेगी धरती/मैं लिखूंगी प्रेम उस दिन/जिस दिन/असहमतियों की जमीन पर/उगेंगे नागफनी के पौधे/मरने लगेंगी संभावनाएं जीवन की/और/घुटने लगेंगी हमारी हँसी/किसी कोहरे की धुंध में…।
इस संग्रह की पहली कविता पर्यावरण के अनियंत्रित दोहन की चिंता को लेकर सामने आती हैं।स्मिता सिन्हा विकास और विनाश के बीच मुलायमियत के साथ अपनी बात रखती हैं- पगडंडियों को प्यार था घास से/घास को नंगे पैरों से/एक दिन पैरों ने/जूते पहले/पंगडडियों को कोलतार पिलाया गया/कोलतार ने घास को निगल लिया/आगोश में ले लिया/और अगली सुबह ओस की बूंदें अपना पता भूल गईं।
‘पता’ शीर्षक कविता छोटी है, किंतु कसी हुई बनावट और वैचारिकता के साथ।हम अनजाने ही आधुनिकता की होड़ में किए गए अपने कर्मों का मूल्यांकन करने लगते हैं।
भूमंडलीकरण के दौर ने इस बहस को मजबूत नींव दी है कि विकास के नाम पर सब कुछ पा लेने की होड़ में हम सब कुछ खो देने के कगार पर हैं- नक्शे में अब भी नदियां उतनी ही लंबी/गहरी और चौड़ी दिखती हैं/जबकि जमीन पर अधिकतर के सिर्फ जीवाश्म बचे हुए हैं/कितनी विलुप्त, कितनी सूख चुकी हैं/पहाड़ों की ऊंचाई कायम है/जबकि लगातार सड़क, बांध और भवन बनाए जा रहे हैं।जंगल के पेड़ों की कटाई की तसदीक ये नहीं कर पा रहे हैं।इसी तरह की कई विसंगतियां स्मिता सिन्हा की कविताओं में यथार्थ बनकर उपस्थित हैं।
एक कवि का दायित्व होता है अपने समय को शब्दों में दर्ज करते चलना और कवयित्री इस बात को खूब समझती हैं।देशकाल, राजनीति और सांप्रदायिकता से विलग होकर चलना दरअसल एक सुरक्षित खोल में खुद को छुपा कर रखना है।स्मिता यहीं पर खुद कई समकालीन कवियों से अलग दिखती हैं और अभिव्यक्ति के हर उस जोखिम को उठाने का साहस रखती हैं, जिससे दूसरे कई कवि नजरअंदाज करके चलते हैं।
उनकी एक बेहतारीन कविता का अंश है- हालांकि यह समझना मुश्किल तो नहीं/कि इस बदहवासी में हम लगातार खोखले होते जा रहे हैं/खत्म हो रहे हैं/अपने अंत तक/और यह भी कि/यह निश्चिंत होने का वक्त तो बिलकुल भी नहीं/पर क्या करें/कहीं किसी खबर/किसी दृश्य में/हम हैं भी तो नहीं…
भाषा की सांद्रता और काव्यात्मकता की जीवंत उपस्थिति स्मिता सिन्हा की मौलिकता है। ‘दरवेश’ श्रृंखला की सातों कविताएं गहरे छूती हैं और देर तक अपने असर में रखती हैं। ‘दरवेश’ की सातों कविताएं मानो संगीत के सात सुर हैं।हम इसकी काव्य-भाषा के आरोह-अवरोह में बंधे किसी शून्य की तलाश में कवि के समानांतर चलते जाते हैं, चलते रहना चाहते हैं- और देह की इस तरलता में/जो महाशून्य मेरे साथ/अनवरत यात्रा में रहता है/बस वही प्रेम है…/प्रेम का यह अध्यात्म आख्यान अलौकिक है।दरवेश की सधी हुई कविताओं का सौंदर्य अद्भुत है।इनमें वैयक्तिकता भी है और दर्शन भी।प्रेम की तमाम उपमाओं को खारिज कर देने की उनकी हिम्मत के पीछे तर्क है और प्रेम में स्वयं की उपस्थिति को लेकर निश्चिंतता भी है कि मैं हूँ और रहूंगी तुम्हारे उदास मौसम में मुट्ठी भर उम्मीद जितनी।यहां अपेक्षाएं तो हैं, लेकिन आग्रह नहीं।मैं नहीं जानती/तुम्हारा मेरे जीवन में होने का अर्थ/मैं सिर्फ इतना जानती हूँ कि/तुम हो तो/याद हूँ मैं खुद को भी/याद है मुझे मेरा आकाश/देख पाती हूँ मैं/उस आकाश में परिंदों की ऊंची उड़ान।
स्मिता की रचनात्मकता का फलक विस्तृत है, उसमें विषय का दोहराव नहीं है।उनकी कविताओं में स्त्री-विमर्श आता भी है तो वह घिसे-पीटे मुहावरों से दूर है।कवयित्री ने विमर्श के सारे व्याकरण और पैमानों को उलट दिया है।इस कविता में कवयित्री के लिए उसका अपना एकांत किसी भी व्यक्ति या वस्तु से कहीं अधिक प्रिय है।जब तुम नहीं होते हो/मैं एकांत होती जाती हूँ/विचरती हूँ अपने अभयारण्य में/बेधड़क इधर से उधर/मैं देख पा रही हूँ कि चंपा के सूखे पौधों में/निकल आई हैं कुछ मासूम कोंपलें/मैं बड़ी हिफाजत से पानी देती हूँ उन्हें/और जंगल हुई जाती हूँ/जहां जाकर खत्म हो जाते हैं सारे अवसाद, सारी अतृप्तियां, सारे बंजर।
उम्मीद स्मिता सिन्हा का नैसर्गिक भाव है जो लगभग हर कविता में मुखरित होता दिखता है।एक कवि का सबसे बड़ा सहारा यह उम्मीद ही है- छोड़ आना अपनी सारी उदासी/तितलियों के चटक पंखों के नीचे/देखना उसी शाम/नीले आकाश में इंद्रधनुष खिलेगा।
‘बोलो न दरवेश’ की कविताएं वर्तमान स्त्री विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप करने में सक्षम हैं।
जिज्ञासा – कविता और जीवन में प्रेम का बचा रहना कितना जरूरी है?
स्मिता सिन्हा – जो चीज हमारे अस्तित्व में घुली मिली है वह जरूरत कैसे हो सकती है! जीवन है तो कविता है, कविता है तो जीवन।और प्रेम इसका प्रधान तत्व है।मेरे प्रिय कवि कुंवर नारायण की पंक्ति है, ‘अबकी अगर लौटा तो मनुष्यतर लौटूंगा।’ मेरे लिए प्रेम इसी अर्थ में संदर्भित है, जहां आप थोड़ा अधिक संवेदनशील, अधिक उदार, अधिक क्षमाशील, अधिक धैर्यवान, अधिक कोमल और अंततः थोड़ा और अधिक मनुष्य होकर लौटते हैं।प्रेम यदि आपको ऐसा नहीं बना पा रहा है तो वह कुछ भी हो सकता है, किंतु प्रेम बिलकुल नहीं।
जिज्ञासा – कविता आज के स्त्री विमर्श को किस हद तक अभिव्यक्त करने में सफल हुई है?
स्मिता सिन्हा – आज के स्त्री विमर्श का फलक बहुत विस्तृत और बौद्धिक है।यह स्त्री विमर्श का दुर्भाग्य है कि अभी भी उसे सीधे पितृसत्ता के प्रतिरोध और सामंती प्रतिशोध से जोड़कर देखा जाता है।किंतु स्त्री विमर्श इससे कहीं आगे ‘स्व’ की मुक्ति की बात करती है।वह बात करती है दैहिक, मानसिक और आर्थिक स्वतंत्रता की।स्त्रियों के बुनियादी अधिकारों का स्वर है स्त्री विमर्श।स्त्री विमर्श आत्मसम्मान के साथ वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक बराबरी की बात करता है।हर विमर्श स्त्रियों के लिए एक मुक्त समाज की बात करता है, एक ऐसा समाज जहां हर स्त्री अपने मन की बात बिना किसी डर, बिना किसी झिझक के कह सके।वह चल सके सुनसान रास्तों पर अकेले, बेपरवाह होकर, हँस सके उन्मुक्त हँसी और उड़ सके अपने सपनों के आसमान में खूब ऊंचे तक।
जिज्ञासा – स्त्री कवियों की यह पीढ़ी आखिर क्या नया दर्ज कर रही है? इसे देखते हुए भविष्य की क्या तस्वीर बन रही है?
स्मिता सिन्हा – स्त्री कवियों की पीड़ा खुद को दर्ज कर रही है।जिस जमीन पर उन्होंने खुद को स्थापित किया है, वह जमीन तैयार की है हमारी पुरखिनों ने।उन्होंने एक लंबा वक्त हमारे लिए संघर्ष में बिताया, ताकि हमें इस दुनिया में खुलकर सांस लेने की जगह मिल सके।सीधे-सीधे कहें तो आज की तारीख में एक स्त्री के लिए लिखना खुद को मुक्त करते चलना है।
आज स्त्रियां लिख रही हैं और खूब लिख रही है।अपने रसोईघर में सब्जी छौंकते हुए लिख रही हैं, अपने कमरे की छोटी सी खिड़की से बृहद आसमान को ताकते हुए लिख रही हैं, ऑफिस के लिए मेट्रो पकड़ते हुए लिख रही हैं, स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हुए लिख रही हैं, अस्पताल में अपने बुजुर्ग मां-बाप की सेवा करते हुए लिख रही हैं, प्रेम में धोखा खाई स्त्रियां भी लिख रही हैं और पति के प्रेम को तरसती स्त्रियां भी लिख रही हैं।मुझे तो लगता है वे निरक्षर स्त्रियों भी कविता ही लिखती हैं जब वे कहती हैं कि काश मैं चिड़िया होती तो उड़ती रहती आकाश में अपनी मर्जी से मन भर कर।हम स्त्रियों ने बड़े लंबे वक्त के बाद अपनी चुप्पियों को तोड़ा है।हमने लगातार खुद को साबित किया है।आप हमसे असहमत तो हो सकते हैं, हमें खारिज नहीं कर सकते।
विकास के इस दौड़ ने ऐसा जंगल तैयार कर दिया है कि अपने हिस्से की धूप और हवा भी अब मयस्सर नहीं होती।आधुनिक जीवनशैली में भौतिकता जैसे-जैसे बढ़ी है, व्यक्ति का अकेलापन बढ़ता गया है. संवेदना के साथ मनुष्य का अंतःकरण भी लगातार सिकुड़ता गया है। |
पेशे से अभियंता सुनील कुमार शर्मा के कविता संग्रह ‘हद और अनहद’ की कविताएं मशीनीकरण और प्रौद्योगिकी के इस दौर में संवेदना को बचाए रखने का उपक्रम करती हैं।आधुनिकीकरण और अंधाधुंध विकास की आंधी आज मानवता को ध्वस्त करने पर तुली है।मशीनों ने हमारे जीवन को जहां एक ओर सुविधाजनक बनाया है, दूसरी ओर इसने आदमी को आदमी से दूर भी किया है।अब हम मशीनों के जंगल में फंसे इंसान हैं।आदमी ने भले ही मशीनों का निर्माण किया हो, पर अब मशीनों का हमारे जीवन पर इस कदर नियंत्रण हो चुका है कि मनुष्य खुद मशीन में तब्दील होता जा रहा है। ‘मानव और मशीन’ शीर्षक कविता में है- रहे मशीनें भी और मानव भी/पर मानव की गरिमा/मशीनों के सामने जिंदा हो।यह कवि की रचनात्मक बेचैनी है, जिसमें मानव की गरिमा की कीमत पर मशीन को महत्व देने का निषेध है।
मानव सभ्यता आज संकटग्रस्त है।उसके सामने हर रोज नई चुनौतियां खड़ी हो रही हैं।मनुष्य की संवेदना, मानवीय मूल्य और रिश्ते उनसे प्रभावित हैं।सुनील कुमार शर्मा की कविताएं इस मुश्किल समय में उम्मीद की रोशनी लिए हमारे बीच मौजूद हैं।हिंसा और नफरत के इस दौर में कवि को प्रेम पर भरोसा है।सभ्यता के मौजूदा संकट से पार पाने के लिए दुनिया के पास प्रेम ही एकमात्र आशा और सहारा है।
भविष्य केद्वार पर लटके/अनहदी अनिश्चतताओं के ताले/कल्पनाओं की चाबी से खोले जाते रहे हैं।/तब ये भी तो संभव है/विषाणु और परमाणुओं के/घमासान के मध्य भी/बची रहें विवेकी लालसाएं/और बचा रहे बेदाग प्रेम/बचा रहे ढाई आखर।
सुनील कुमार शर्मा की कविताओं की एक बड़ी विशेषता है इनकी सहजता।हिंदी के सुपरिचित कवि एवं संपादक निरंजन श्रोत्रिय कहते हैं – ‘सरलता का शिल्प बहुत कठिन होता है।’ सुनील कुमार शर्मा ने बखूबी इस शिल्प को अपनी कविताओं में साधा है।अपनी कविताओं में संवेदना के तंतुओं को जिस खूबी के साथ बुनते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है।आज नकली और कृत्रिम शब्दावलियों से गढ़ी गईं कविताएं बहुतायत में हैं, जबकि सुनील कुमार जी अपने जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों को गहन संवेदना के साथ कविता में दर्ज करते हैं।
घरों के साथ क्या क्या होने लगा है/आई थी खबर/घरों का दम घुटने लगा है/जब से उगने लगे हैं, घर के ऊपर घर।
सुनील कुमार शर्मा की कविताएं वर्तमान जीवन की निराशा, घुटन, अंतर्द्वंद्व और विडंबनाओं को बखूबी बयां करती हैं।विकास के इस दौड़ ने हमारे आसपास मकानों का ऐसा जंगल तैयार कर दिया है कि अपने हिस्से की धूप और हवा भी अब मयस्सर नहीं होती।हम अपने पास-पड़ोस के लोगों को भी नहीं पहचानते।आधुनिक जीवनशैली में भौतिकता जैसे-जैसे बढ़ी है, व्यक्ति का अकेलापन बढ़ता गया है- पैमाना कोई होता तो/माप कर देखते/जीवन इन फ्लैटों में/कितना सिकुड़ जाता होगा।संवेदना के साथ मनुष्य का अंतःकरण भी लगातार सिकुड़ता गया है।
सुनील कुमार शर्मा के पास प्रकृति, प्रेम और मानवीय रिश्तों पर कई प्यारी कविताएं हैं।सभ्यता के बचे रहने के लिए जीवन और कविता में इन सब का बचा होना बेहद जरूरी है।इस संग्रह की कविताओं में सबसे अच्छी बात यह है कि कवि विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को हमेशा सकारात्मक बनाए रखता है।इस मुश्किल समय में करुणा और संवेदना को बचाए रखने की हर कोशिश घने अंधेरे में एक तीली जलाने के समान है।इस संग्रह की कविताएँ यह काम बखूबी कर रही हैं।
जिज्ञासा – मशीनीकरण के मौजूदा दौर में कविता की क्या जगह है?
सुनील कुमार शर्मा – मशीनीकरण के दौर में कविता की जिम्मेदारी बढ़ती जा रही है।मनुष्य एवं मशीन के संबंध पर विचार करना काव्य बोध की निजी और दुर्लभ विशेषता है।जीवन में निहित प्रश्नाकुलता, संवादधर्मिता, आश्चर्य-विस्मय और उनके बीच मशीन की सीमा को बताते हुए कवितायें बार-बार कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं।कविता को बार-बार पढ़ना उसके तह में मौजूद अर्थों की ओर जाने की प्रक्रिया है।हरेक मनुष्य के अंदर ‘बुद्ध छिपा रहता है’ उसी तरह कविता के अंदर मानवीय अर्थ छिपे रहते हैं।जहां तक पाठक को पहुंचना होता है, वहां तक की यात्रा करनी होती है।
जिज्ञासा – यंत्रों ने आपकी संवेदना को कैसे प्रभावित किया है?
सुनील कुमार शर्मा – हर रचना के केंद्र में स्वाभाविक रूप से मनुष्य होता है।जीवन और जगत को समझने, व्याख्यायित करने की कोशिश में ही रची जाती है हर रचना।एक ओर टेक्नोलॉजी हमारे जीवन से साझापन और अपनापन बढ़ा रही है, दूसरी ओर रचनात्मक अकेलापन सोख रही है।वहीं पूंजीवादी ताकतों ने मानव जीवन के तमाम क्षेत्रों को एकरैखिक बनाने का प्रयास शुरू कर दिया है।भाषा का रूप बदला जाने लगा, ताकि व्यापार की भाषा विकसित की जा सके।इसके लिए संचार माध्यमों और मनोरंजन के साधनों को प्रचार तंत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा।उससे संस्कृति पर हमले तेज हुए हैं।औद्योगिक समाज ने एक नई तरह की संस्कृति विकसित करने की कोशिश की, ताकि सारी दुनिया एकरंग दिखने लगे।मशीनीकरण और वैश्वीकरण के दौर में आर्थिकता हमारे दृष्टिकोण के केंद्र में मानवीयता को आज विस्थापित करती जा रही है।समकालीन कविता के भीतर से मनुष्य को समझने और उसे व्याख्यायित करने की जो व्यापक कोशिशें हो रही हैं, वे साहित्य के किसी भी युग से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
जिज्ञासा – एक कवि के रूप में आप समय की चुनौतियों को किस रूप में देखते हैं?
सुनील कुमार शर्मा– नई-नई चुनौतियां हमारे समक्ष आ रही हैं।ऐसे में कवि का दायित्व बढ़ जाता है।हमारे समक्ष कविता की एक समृद्ध विरासत है।इस विरासत को संजोकर तथा उससे प्रेरणा लेकर हम इस कठिन समय की बाधाओं से टकराते हुए आगामी पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।समकालीन कविता ने समय की मांग के अनुरूप मनुष्य को उसके दायित्वों का बोध कराया है
समीक्षित पुस्तकें –
(1) समय का अकेला चेहरा – नरेंद्र पुण्डरीक, लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, २०२१ (2) मूर्तियों के जंगल में – सुभाष राय, सेतु प्रकाशन, २०२२ (3) बोलो न दरवेश – स्मिता सिन्हा, सेतु प्रकाशन, २०२१ (4) हद या अनहद – सुनील कुमार शर्मा, वाणी प्रकाशन, २०२२
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