चर्चित लेखिका। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र में शोधरत।कहानी संग्रह-‘नीले पँखों वाली लड़कियाँ’,‘नर्गिस फिर नहीं आएगी’,‘सुनैना! सुनो ना….’, ‘गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता’। दो कविता संग्रह, दो उपन्यास।
‘जाने क्यों लगता है कि मैं किसी अजनबी देश में हूँ जहां मेरा पासपोर्ट खो गया है। अजब ऊहापोह की स्थिति,आर्तनाद का आलम है कि कहां जाऊं…कहाँ चली जाऊं…।’
रश्मि ने नितांत रुआंसे और खोए-खोए स्वर में अपनी व्यथा रख दी थी। रजनी भी चौंक ही पड़ी थी- ‘क्यों, क्या हो गया ऐसा। क्या हो गया भई…?’
‘मेरा मन उस पति रूपी प्राणी को नहीं स्वीकार पा रहा, जिसके संग पांच वर्ष पहले मेरी अबोधता ने अग्नि के सात फेरे ले लिए थे। वह तब भी एक धनकमाऊ टीचर था, अब भी वही है। मैं तब एक अबोध बाला थी पर आज एक बिंदास युवती हूँ। …ये मेरे रेशम के फूलों जैसे ढेर सारे विमोहक प्रेमी…मेरी बलबलाती…हरहराती मादक ॠतुएं…मेरी अपनी क्रांतिकारी विचारधारा….रोमांटिसिज्म…और…मैं…ये चूल्हे चिमटे और झाड़ू बुहारू के मौसम नहीं जी सकती…कभी नहीं…’
‘तो अपने घर कह क्यों नहीं देतीं?’
‘किससे कहूँ, मेरी सास और मां सगी बहनें लगती हैं। दोनों को मेरा वही रूप पसंद है। उन्हें मुझसे नाती चाहिए, पोते चाहिए…उन्हें मेरा जीवन नहीं, मेरे लिए नर्क चाहिए।’
रश्मि मध्यम वर्ग की एक महत्वाकांक्षी लड़की। किंतु उसकी महत्वाकांक्षाएं कोई आकाश पा लेतीं, उससे पहले ही उसे किसी दूसरे आकाश की सीमा में बांध दिया गया। उस समय वह बी.ए. तृतीय वर्ष की छात्रा थी। मात्र 21 वर्ष की। ससुराल उसके माथे थोप तो दिया गया, किंतु वह वहां निहायत कसमसाहट की स्थिति में रही। उसकी बौद्धिक संपन्नता ने न उसे अच्छी पत्नी बनने दिया न ही अच्छी बहू। जिस कारण सास व ससुर से प्राय: लड़ाइयां करनी पड़तीं। घर में सास की इजाजत के बिना एक पत्ता न हिलता। पति भी मां का मुरीद। वह नितांत अकेली पड़ जाती। उसे कविताएं रचने का पुराना रोग। ठीक उस समय जब जेहन में कोई कविता जन्म ले रही होती, सास की कर्कश पुकार झिंझोड़ जाती-
‘…उंह जाकर जाले ही साफ कर दो पूरा घर गंधा रहा है।’
-और कविता फक से उड़ जाती।
‘…बुड्ढी कहीं की, कितनी मार्मिक कविता बन रही थी सब गोबर कर दिया।…दिहातिन…जाहिल…’ऐसे ही कितने ही शब्दों से वह सास को मन ही मन उलाहती झाड़ू लेकर घर के जाले छुड़ाने में जुट जाती। एक दिन देवरानी ने आकर बताया-
‘जब तुम कल ऊपर कमरे में नाच रही थी बच्चों ने अम्मा को बता दिया था। तब अम्मा बाबू जी से बोल रही थी कि हम तो कोठे पर की रंडी कर लाए हैं।’ वह झल्ला गई-
‘हुंह, उस बुढ़िया को क्या पता कि कला को सम्मान दिया जाता है। लोग कत्थक, भरत नाट्यम यूं ही नहीं करते। मैंने पैसे लगा कर कत्थक सीखा है और वह रंडी बोलती है।’
उसके पहनावे तो सास ससुर ने आते ही बदल दिए थे। सास का कहना-‘ऐसे कपड़े पहनो कि बहू लगो। ये क्या छोरियों वाले कपड़े पहन कर घूमती रहती हो।’ ससुर भी यही कहते। पति से बोलती तो वह कहते -‘अम्मा गलत नहीं कहती हैं उनकी बातें मान लिया करो।’
वह चुप मार जाती। अपनी व्यथा कहे तो किससे कहे। एक हाथ से वह अपने सिर पे आसमान थामें थी और दूसरे हाथ से अपने पांव के नीचे की बंजर जमीन, जिसपर उसकी नियति को बरबस टांक दिया गया था। कभी जमीन छूटने लगती, कभी आसमां। वह दोनों को बचाने का यत्न करती रहती। उसकी कविताई, गवाई, नचाई सब चालू थी। सास की गाली और गुफतारी भी चालू थी। न सास कम न वह कम। उसे अपनी जिंदगी जीने का सलीका चाहिए था और सास को जीवन से जूझती हुई एक नितांत घरेलू, खांटी बहू। परिणामत: दोनों में संघर्ष जारी था। इस द्वंद्व में रश्मि के पति वैभव की बुरी दशा थी। जैसे किसी अंधेरे कमरे में कैद हो और इधर-उधर की दीवारों से टकरा रहा हो। इससे बेहतर तो तब होता जब वह बाहर ड्यूटी पर होता। एक दिन रश्मि और सास के बीच कुछ ज्यादा ही बात बढ़ गई। सास ने कहा-
‘निकल जा घर से‘
रश्मि को तो इसी बात का इंतजार था। तुरंत कपड़े बांधे और यह जा वह जा। मां व पिता देख कर हतप्रभ।
उसने साफ मना कर दिया-‘अब वहां नहीं रह सकती। मेरा एम.ए. में एडमिशन करवा दो। मैं आगे पढ़ूंगी।’
कुछ दिन मां-पिता ने काफी समझाया फिर अंतत: उसे एम.ए. का फार्म भरवा दिया गया। उसे मानो कुछ दिनों के लिए ही सही एक नर्क से मुक्ति मिल गई। अपनी शर्तों पर जीने वाली वह बिंदास लड़की पुन: अपने आकाश की मालिक थी किंतु उसे उसका आकाश पूरी तरह नहीं मिला। इस आकाश पे एक परछाई-सी तैरती रहती जो उसे प्राय: डराती रहती। वह परछाई उसे कहीं न कहीं से बंधे रहने का एहसास कराती रहती। उसे उसकी हैसियत याद दिलाती रहती और सहसा बुझ सी जाती। कॉलेज में प्रेम जैसी चीजों ने भी जी में जन्म लिया किंतु लगा उसके हाथ कहीं से बंधे हुए हैं। मां का आग्रह-‘जा तो रही हो कॉलेज, पर हमारी इज्जत रखना। मत भूलना कि तुम शादीशुदा हो।’
उसका अंतस कराह उठता। लगा अपने समीप बजने वाली शहनाइयों को चुपचाप बजने दो। इन्हें जरा सा छेड़ेंगे तो सुर बदल जाएंगे। सुनती रही…। सुनती रही बस्स…। एक दिन फिर रंजीत ने पूछा था-‘अचानक इतनी गंभीर कैसे हो जाती हो। कहां विलुप्त हो जाती हो?’
‘कहीं नहीं, कभी-कभी डर सा लगता है। जिस साज पे मैं जिंदगी का गीत गाने बैठी हूँ कहीं इसके सुर न बदल जाएं। मुझे कुछ सुर उधार मिले हैं जिस पे मैं गा लेती हूँ जीवन के गीत। पीड़ा ये कि उन्हीं सुरों पे गाने के लिए अनुबंधित हूँ। इनके सिवा कोई दूसरे स्वर मेरे नहीं हैं।’
‘तुम शार्टकट अपनाओ। जितने सुर मिले हैं उन्हें अपनी तर्ज पर गाओ। कल ये फिर वापस कर लिए जाएंगे। तुम फिर सुर-विहीन हो जाओगी। फिर क्या गा पाओगी। जितना हाथ आया है वही तुम्हारा है।… यही तुम्हारा सच है।’
और फिर एक लंबा अंतराल।
रश्मि को ससुराल छोड़े पांच साल हो गए। इन दिनों उसके जेहन से ये बात पूरी तरह से खारिज हो चुकी है कि वह कहीं, किसी छोर से बंधी हुई है। उसने पढ़ाई पूरी करके प्राइवेट जॉब पकड़ ली है। वह खुश थी अपनी नौकरी और अपने दोस्तों के साथ। अपने प्रेमियों के साथ। अब वह एक तेज-तर्रार आधुनिक युवती बन गई है। पहनावे और जीवन चर्या से वह एक उच्च वर्गीय कामिनी लगती है। दोस्तों की भीड़। ये दोस्त भी उसी की तरह बुद्धिलब्ध और प्रगतिशील लगते हैं। सभी जीवन के संघर्षों से एकमेक। सभी के अपने आदर्श। अपने सिद्धांत। अपनी प्राथमिकताएं। वह सोचती है उसे ऐसे ही जीवन साथी चाहिए थे। जीवन-डगर पर साथ-साथ चलने वाले। वह कविता लिखती है, दोस्त डूब कर पढ़ते हैं। सुनते हैं। सराहते हैं और अपनी राय भी देते हैं। ऐसे नहीं, ऐसे प्रयास करो। वह गदगद। तितलियों-सी उसकी सहेलियां। एकदम रंग बिरंगी। कितने ही रंग सायास भर गए हैं रश्मि के जीवन में।
किंतु रात-बिरात एक अजब-सी परछांई उसे छू-छू के डराती रहती है। जैसे कहती हो- ‘यह तुम्हारा सच नहीं, तुम्हारा यथार्थ नहीं।’
पति का भी फोन कभी-कभार आ ही जाता है। पति, पति की तरह। कभी-कभी वह जब नितांत हल्के मूड में होती है तो बेमौसम पति का फोन आकर उसे सन्न कर देता है। वह झुंझला जाती है।-
‘या….र’
उधर से पति की आवाज- ‘कैसी हो जान?’
‘ठीक हूँ’ संक्षिप्त सा उत्तर।
‘तुम्हारी बहुत याद आती है…तुम्हें?’
‘मुझे भी आती है’वह पुन: झुंझलाती है।
‘मेरी कसम?’
‘ओह यार…ये कसम वसम क्या है। आती है तो आती है। क्या पागलपन है?’
पतिदेव सकपका जाते हैं।
‘ठीक है, तुम्हारा मूड नहीं ठीक है अभी। बाद में बात करता हूँ। आई लव यू’
‘लव यू…’वह भी रटा रटाया बोल गई और झटके से फोन बंद कर दिया। फिर बड़बड़ाई- ये कम पढ़े-लिखे लोगों का जेहन भी बौना ही होता है। प्यार करने के या जाहिर करने के और भी तरीके होते हैं। ये लव यू, लव यू क्या है। बस्टर्ड…घिन आती है ऐसे चलंतु और बिकंतु सड़कछाप शब्दों से। एक वो रंजन क्या इंसान है…..कविताओं में प्यार करता है। उसके स्पर्श में कविता बहा करती है। मगर वह…उसकी पत्नी तो कुछ और ही कहती हैं। उस दिन जब रश्मि रंजन की पत्नी से बात कर रही थी तो वह कैसा-कैसा जहर उगल रही थी।-
‘..अरे बहन जी वह आदमी है या पायजामा। खाते कविता, पीते कविता। हगते-मूतते कविता। यहाँ तक कि साथ बिस्तर पर प्रेम कर रहा हो तो लगता है कविता लिख रहा हो।’ वह ठठा के हँसी थी। अभी वह सोचने लगी है-
‘रंजीत की पत्नी को ऐसा क्यूं लगता है। वह है तो एक मुकम्मल मर्द। मैं तो उसे जी जान से लगाती हूँ। मुझे ऐसा क्यूँ नहीं लगता। हो सकता है जो फर्क मुझे अपने पति में महसूस हो रहा है वही फर्क उसे अपने पति में महसूस हो रहा हो। यार कितना डिस्बैलेंस है ये सब।
खैर पांच साल तक रश्मि ने अपना आकाश जिया। प्यार किए। यात्राएं कीं। सपने देखे। लेखन में रंग जमाया। कितु पांचवा वर्ष पूरा होते न होते अचानक मां का फरमान आ गया कि अब ससुराल जाना है। बहुत हो गया। बकरे की मां कब तक खैर मनाती। हाथ के तोते उड़ गए। मां से काफी बहस हो गई। पर मां पिता का एक ही फरमान, जाना है तो जाना है।
मां का एक ही राग- ‘फलां की बेटी को देखो कितने सुकून से रहती है ससुराल में। घर वालों का नाम ऊंचा कर रही है। दो बच्चों की मां हो गई है। वह भी तो पढ़ी-लिखी है।’
उसे झुंझलाहट-सी होती है। ये मां को तो आठवीं पास और पी-एच.डी. कर रही लड़की में कोई फर्क ही नजर नहीं आता। वह तिलमिला जाती। दोस्तों से कहती-
‘सबसे अधिक तकलीफ हमें तब होती है जब लोग हमें समझते नहीं। मां मेरी किसी से भी मेरी तुलना कर बैठती है। एक आठवीं पास लड़की भी उसे मुझसे बेहतर लग रही है, क्योंकि वह ससुराल में रह कर अपनी इच्छाएं मार रही है और मैं अपनी इच्छाएं नहीं मार पातीं। बस इसीलिए मैं बुरी हूँ। मेरा इतना सब करने का कोई मूल्य नहीं। मेरा मूल्यांकन सही ढंग से तब किया जाएगा जब मैं पति की चेरी बन कर उसके पीछे-पीछे चलूंगी।
बहरहाल, ये सब अपनी जगह था। यथार्थ यही था कि अब ससुराल की तरफ उसकी रवानगी थी। मन ही मन निश्चय किया कि वहां अपनी तरह से रहेगी। ज्यादा कुछ होगा तो तलाक मार कर चली आएगी। फिर जाते वक्त वह कितनी घबराई हुई और भयभीत थी। सहेलियों के गले लग कर ऐसा रोई जैसे वह किसी खोह में खपने जा रही हो।
दोस्तों ने भी समझाया-‘टेंस क्यूं होती हो। जाकर कुछ दिन रहो। नहीं समझ में आएगा तो तलाक लेकर चली आना। कोई जबरदस्ती थोड़े ही है किसी के संग बंधे रहने की।’
…
दो दिन का लंबा सफर तय करके वह ससुराल पहुंची। पति स्वयं स्टेशन पर उसे लेने आए थे। रास्ते में पतिदेव ने बेमतलब की दिलजोई शुरू कर दी थी। ‘तुम्हारे बिना इतने साल वनवास जैसे बीते। मां-बाबू जी कितने परेशान थे। मां अकेली ही रसोई घर में खटती रहती हैं। तुमसे कितना सहारा मिलेगा। बहन की शादी का इंतजाम भी तुम्हें ही करना पड़ेगा। अब तुम आई हो तो सब ठीक हो जाएगा।’ एक बारहवीं पास व्यक्ति इससे ज्यादा क्या सोच सकता है? वहीं उन बातों से निरपेक्ष उसके कानो में रंजीत की सरगोशियां गूंज रही थीं-
‘…तुम्हारे जाने के बाद कितना वीरान हो गया था सबकुछ। मौसम, मौसम नहीं रहे। पंछियों ने गीत गाने छोड़ दिए थे। भंवरों ने रासलीला भी छोड़ दी थी। कलियां खिलती ही नहीं थीं। आसमान जैसे टूटा पड़ा था मुझ पर। सिर्फ एक हफ्ते में।’
वह मुस्कराई सहसा। ये होता है प्रेम में डूबे रहने का मर्म। वो शब्द ही होते हैं जो हमें नैसर्गिक कामनाओं के पार ले जाते हैं। या फिर दग्ध झाड़ियों में धराशायी कर देते हैं। प्रेम चूल्हा चौकी या बेलन चक्कू-छुरी थोड़े ही है। प्रेम आकाश है …पाताल है। झील और समंदरी प्रवाह है। जिसमें हम डूबना ही चाहते हैं बस। अब रंजीत क्या करेगा, फिर से तन्हा…वह तन्हा…मैं तन्हा…।
अचानक पति ने चलते-चलते उसकी ओर देखा-‘कहां खोई हो। क्या सोच रही हो?’
‘नहीं, कुछ नहीं…’- पति के कानों में मां के कहे गए जुमले गूंज गए-
‘इस बार आए तो कोशिश करना वह मां बन जाए। एक बार मां बन गई तो वह तेरे ही खूंटे के आस-पास घूमती रहेगी। यहां वहां नहीं भटकेगी। उसके चेहरे पे एक कुटिल मुस्कान तैर गई। और लपक कर रश्मि को बांहों में भर लिया।
रोमा ने करीब साल भर तक रश्मि की प्रतीक्षा की। उसका फोन लगाती वह बंद। घर पे जाकर कभी हाल लेना चाहती तो रश्मि की मां का मूड ही खराब रहता, वह झल्ला पड़तीं-‘वह अपने घर खुश है। इतना जान लो काफी है।’ वह लौट आती। मां को डर था कि कहीं ये सारे दोस्त यार मिल कर फिर न उनकी बेटी को बहका-भटका दें। धीरे-धीरे उसने रश्मि के बारे में सोचना ही छोड़ दिया। अचानक एक दिन शाम के वक्त रोमा का फोन घनघनाया । रिसीव करने पर रश्मि की आवाज आई। वह चिहुंक पड़ी-
‘यार तू कहां मर गई थी। मैं फोन कर-कर के हलकान हो गई थी।’
‘कुछ नहीं यार, यहीं घर पे ही हूँ।’रश्मि बोली।
‘अच्छा, क्या कर रही थी?’
‘अभी बर्तन धो के उठी तो जाने क्यूं तेरी याद बरबस आ गई और तुझे फोन करने से खुद को रोक न सकी। हालांकि अब मैंने वो सब कुछ भुला दिया है।’
‘….क्या…, क्या कहा, भुला दिया। ये खुद से झूठ बोल रही है या मुझसे ही?’ वह कुछ नहीं बोली।
‘अच्छा बता वो तेरा लिखना-पढ़ना कैसा चल रहा है?’ यह रोमा थी।
‘सब खत्म यार…’एक फीकी और आहत हँसी के साथ रश्मि ने जवाब दिया।
‘क्या?’
‘हाँ यार…अब मैं एक बेटी की मां हूँ। यही और इतनी ही मेरी जिंदगी है। यही मेरा सच है।’
‘….तुझे रंजीत अब भी याद करता है। उसका तलाक भी हो गया। उसे उसकी पत्नी ने कभी पसंद नहीं किया।’
‘…क्या कहूँ रोमा…वो मेरा अतीत है अब…मेरा अनबीता व्यतीत…’
रोमा का मन कांप-सा गया। इसलिए नहीं कि वह सब छोड़ चुकी है, बल्कि इसलिए कि उसे रश्मि के शब्द किसी तूफान से टकरा कर आते हुए प्रतीत हुए। उसका वजूद हिलता-सा प्रतीत हुआ। रोमा ने फिर उसे कुरेदा-
‘…तू खुश है न…तेरा पति खुश रहता है न?’
‘…यार…’ इस बार आवाज में कुछ ज्यादा ही रीतापन घुल गया था।
‘….यार, पति के लिए खाना बनाती हूँ, उसके कपड़े धोती हूँ, उसके लिए सजती-संवरती हूँ, उसके लिए हँसती-रोती हूँ, उसके बच्चे पैदा करती हूँ, उन्हें पालती-पोसती हूँ, तो वह खुश रहेगा ही न…खुश है।’
‘..और…वो तेरा स्त्री विमर्श।…तेरा फेमिनिज्म…?’
‘…सब बकवास है यार।….एकदम बकवास…’
रोमा का चेहरा जैसे पानी का सा हो गया। अंदर एक सहम-सी तैर गई। हो न हो रश्मि मर चुकी है। वह कांपते स्वर में बोली-
‘रश्मि….रख फोन…तू मर चुकी है। तूने आत्महत्या की है….मैं मरे हुए लोगों से बात करना नहीं चाहती। रख फोन…’
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा, महाराष्ट्र मो. 9415778595
अच्छी कहनी है,रफ्तार यही है,बदलाव भी दुष्कर है.
एक स्त्री की अंतर द्वंद की बहुत ही सुंदर कहानी। हुस्न तबस्सुम निंहां की लेखन शैली भी विशिष्ट है।
बेहद खुबसुरत कहानी है. स्त्री मन के अंतर्व्यथा और अंतरद्वंद की सुदर रचना. मजी लेखनी का परिचय दे रही है. कहानी का अंत छाप छोड़े बिना नहीं रहता.
कहानी बहुत अच्छी लगी। कथानक प्रभावित करता है। पठनीय रचना बधाई।
कहानी उत्कृष्ट है। रश्मि की मनोदशा को ख़ूबसूरती से उकेरा गया है। रश्मि के बहाने यह कहानी हमारे समाज का आईना भी है।
संवेदनशील कहानी। शिवकुमारदुबे