वरिष्ठ आदिवासी लेखिका और समीक्षक। दस पुस्तकें प्रकाशित, ‘मेघदल साहित्यिककी संपादिका।

मानव समाज का वह वर्ग, जो जीवन में सहजता, सरलता में विश्वास रखते हुए परंपरा का निर्वाह करता है ‘लोक’ कहलाता है। लोकसाहित्य ही लोक जीवन का प्रतिबिंब है। इसकी वाचिक परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी मानव संस्कृति। साहित्य के अन्य रूपों की भांति लोकसाहित्य कई विधाओं में मिलता है।

मेघालय की खासी जनजातीय लोक कथाओं में सृजन, प्रेम, कायांतर, पशु-पक्षी, नैतिक उपदेश और कई तरह की सांस्कृतिक-सामाजिक कथाएं हैं। प्रकृति के सतत साहचर्य के कारण वृक्ष-पुष्प, पशु-पक्षी, नदी-नाले, छोटे-बड़े पर्वत इनके अंग हैं। इन धारणाओं से विभिन्न मिथक स्थापित होते गए। इस धरोहर में सामान्य जीवन-शैली मिलती ही है, साथ ही यह सामाजिक जीवन का मार्गदर्शन करती है और नैतिक मूल्यों की स्थापना भी करती है।

खासी लोक कथाओं के अनुसार इस जनजाति का प्रारंभ ‘खाड हिम्युट्रिप’ की सोलह झोपड़ियों और ‘सोलह घोंसलों’ से हुआ था।  खासी जनजाति में सूरज को संसार की सबसे सुंदर स्त्री माना जाता है और चांद को पुरुष, जो बहन-भाई हैं। कहते हैं युवा चांद की नीयत अपनी बहन सूरज के प्रति खराब हो गई। उसने एक दिन अपनी बहन के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया, जिसके कारण सूरज ने उसके मुंह पर जलती राख फेंकी। जलती राख से चांद के चेहरे पर दाग पड़ गए और भयभीत होकर वह सूरज से मुंह छिपाता फिरता रहा। जब सूर्यास्त होता है, तब चांद निकलता है। यह खासी जनजातीय समुदाय की कल्पना की सहज अभिव्यक्ति है, जहां अपनी बहन के प्रति कामुक दृष्टि रखना वर्जित है।

पवित्र मुर्गे का खासी जनजाति में विशेष सम्मान प्राप्त है। कहते हैं कि कई वर्ष पहले सभी जानवर, पक्षी और जीवित प्राणी मनुष्यों की भाषा बोलते थे और मनुष्य के कुकर्मों के कारण उसका स्वर्ग, पृथ्वी और ब्रह्मांड के रचयिता से आत्मिक संबंध टूट गया। संसार में उथल-पुथल मच गई। पशुओं ने उस समय तक इंसानों की प्रभुता भी स्वीकार कर ली थी। एकबार मनुष्य ने सभी प्राणियों को संदेश भेजा कि निर्धारित समय पर रंगभूमि में सभी का नृत्य होगा। अत: निधारित समय पर सभी प्राणी रंगभूमि पहुंच गए। सभी ने नृत्य करना आरंभ कर दिया। कार्यक्रम को सुचारु रूप से चलाने का भार सूरज (चांद की बहन) पर था, पर वह नृत्य में देर से पहुंची। जब वह अपने भाई चांद के साथ नृत्य कर रही थी, तो उस समय छछूंदर, उल्लू, मेढक, बंदर और दूसरे प्राणी भाई-बहन के अनैतिक संबंध को लेकर दोषारोपण करने लगे। उनके ऐसे व्यवहार ने सूर्य को बहुत दुखी किया। उसने अपने आपको बहुत अपमानित और हीन महसूस किया। अत: वह गुस्से एवं शर्म से नृत्य को बीच में ही छोड़ कर चली गई और अपने आपको एक गुफ़ा ‘का क्रेम लमेट क्रेम लतांग’ में छिपा लिया।

फिर तो पूरी धरती पर अंधेरा छा गया। हर कोई डर गया। वे सोचने लगे कि अचानक यह क्या हुआ? चारों ओर हलचल मच गई। सृष्टिकर्ता द्वारा सभा बुलाई गई और निर्णय लिया गया कि मानव प्रायश्चित करे।

सूर्य को मनाने के लिए कोह्करंग (यह पक्षी केवल मेघालय में पाया जाता है) को चुना गया, जो स्वार्थी और घमंडी था। अत: सूर्य ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। लोगों ने अंतिम कोशिश के लिए एक मुर्गे को चुना। मुर्गे की शर्त यह थी कि यदि वह इस कार्य में सफल हुआ तो पवित्र वेदी में उसकी बलि चढ़ाई जाए। उसने बहुत विनम्रतापूर्वक सूर्य से पृथ्वी के पुनरुद्धार की बात रखी और उसे सफलता मिली। सूरज की शर्त यह थी कि मुर्गा लगातार तीन बार बांग देगा, तब अंधकार के बाद सवेरा होगा और सूर्य की जीवनदायिनी किरणें चमकेंगी। इस प्रकार पृथवी को ज्योति के दूत के रूप में स्वीकार कर धार्मिक स्तंभ पर स्थान दिया गया।

खासी जन-जीवन में पशु-पक्षी, जलचर, पर्वत, नदियां और बनस्पतियां मानव की भांति संवेदनशील हैं। ये मानव की ही तरह जीवंत चीजें हैं। ये समाज और संसार के निर्माण में अहम भूमिका निभाती हैं। आदिवासी कथाओं में ये मानवीय कार्य-कलाप करती दिखती हैं।

चेरापुंजी का प्रसिद्ध झरना ‘नौ-का-लिकाई’ ‘लिकाई’ की दर्द भरी दास्तां सुनाता है। विधवा लिकाई कोयले के खदान में काम करने वाली श्रमजीवी है, जिसकी एक छोटी बेटी है। घर की जिम्मेदारियों का वहन एकाकी करते हुए उसे कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अत: वह दूसरा विवाह कर लेती है। खासी समाज में विधवा विवाह स्वीकृत है। इसके बाद वह बेटी को लेकर आश्वस्त हो जाती है, पर उसका दूसरा पति बेटी से नफ़रत करता था। एक दिन जब लिकाई काम के लिए बाहर गई और देर से लौटी; वह बहुत भूखी थी। उसने खाना खाया; मांस बहुत स्वादिष्ट था। खाने के बाद पान-सुपारी खाने के लिए टोकरी उठाई तो उसे उसमें बच्चे की कटी उंगलियां मिलीं। वैसे भी अपनी बच्ची को घर में न पाकर वह बहुत व्याकुल थी। उसने कई बार अपने पति से पूछा। कटी उंगलियां देखकर उसको सब समझ में आ गया। वह पागलों की भांति रोती-चीखती झरने की ओर दौड़ी और उसने उसमें छलांग लगा ली। वहां की वीरानगी यह बताती है कि आत्महत्या करना और उसे होते देखना दोनों ही पाप है। घृणा की पराकाष्ठा ने एक निरपराध के प्राण ले लिए, एक मां को उसकी बेटी का मांस धोखे से खिला दिया और उसे आत्मग्लानि से आत्महत्या के लिए विवश किया। यह लोककथा यह संदेश देती है कि आत्महत्या करना और आत्महत्या करते देखना दोनों ही पाप है।

सताडगा हिमा राज्य खासी गणतंत्र का पुरातन और शक्तिशाली राज्य था। इसकी स्थापना का ली डोखाकी संतानों ने की थी। ये ऊ वा रिंदीतथा थवाई उमदीनदी की सुनहरी मछली, जो मत्स्य कन्या थी, की संतानें हैं। कहा जाता है कि का ली डोखापुन: लौट कर मछली के रूप में नदी में चली गई। उसका दुखी पति मछली पकड़ने की वंशी को उलटा कर नदी के किनारे गाड़ दिया। आज तक उस किनारे के आसपास बांस के झुरमुट उलटे ही उगते हैं।

मानव-मन महत्वाकांक्षी होता है। कुछ लोग प्रयास करते हैं और कुछ अपनी कमियों के लिए ईश्वर पर दोषारोपण करते हैं पर भूल जाते हैं कि उनकी दुर्बलता का कोई गलत लाभ उठा सकता है। ऐसा ही हुआ ‘का ब्लांग’ (बकरी) के साथ। वह सदैव अपनी तुलना शेर से कर अपनी कमजोरी के लिए ‘उ ब्लेई’ को कोसती थी, पर उसे नहीं मालूम था कि उसकी हिलती दाढ़ी देखकर शेर भी डर जाता है। एक दिन शेर ने का ब्लांग को पहाड़ी पर जोर-जोर से अपनी दुर्बलता के बारे में कोसते सुना। सत्य जानते ही शेर ने ब्लेई को धर दबोचा। अत: अपनी दुर्बलता को कोसने के बजाय उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। सृष्टि के हर प्राणी, वनस्पति, नदियां और पर्वत मानवीय मूल्यों का संवहन करते हैं।

खासी लोक कथाओं में उपदेशात्मक कथाएं कम मिलती हैं। इन लोककथाओं में घटनाएं ही इस रूप में होती हैं कि वे स्वत: व्यक्ति में अच्छे-बुरे की समझ पैदा कर देती हैं जैसे- खासी लोककथा ‘पान-क्वाई’ (सुपारी) चूने की उत्पत्ति की कथा है। एक गरीब दंपति अपने धनी मित्र का अभाववश अच्छी तरह स्वागत-सत्कार न कर सका और आत्महत्या कर लेता है। इतना ही नहीं, यह अभिन्न धनी मित्र भी रसोईघर के खाली बर्तन देखकर अपराध-बोध से आत्महत्या कर लेता है। यह कथा एक महत्वपूर्ण आचारसंहिता प्रस्तुत करती है कि पान-चूना और सुपारी के साथ स्वागत भी पर्याप्त है। मित्रता में आडंबर का कोई स्थान नहीं है।

जनजातीय लोककथाओं में दिन-प्रतिदिन की छोटी-छोटी बातों पर उपयोगी संदेश होते हैं। एक लोककथा के अनुसार ‘यू ब्लेई’ (मूल खासी के देव) लोगों को भोजन न बर्बाद करने का संदेश बैल के माध्यम से देते हैं। स्वर्ग से पृथ्वी तक की दूरी तय करते समय बैल की पीठ पर बैठे कीड़े-मक्खियों ने उसे काट-काट कर तंग कर दिया। उस समय एक कौआ उधर से गुजरा और उसने चोंच से उन्हें मार भगाया, जिससे बैल को बहुत राहत मिली। वह थोड़ी देर आराम करने के लिए बैठ गया। बातों-बातों में कौए को उ ब्लेई के संदेश के बारे में पता चल गया। उसने बैल से कहा – तुम मनुष्य को पूरा संदेश मत सुनाओ। यदि वे बचा हुआ खाना नहीं छोड़ेंगे तो मेरा पेट कैसे भरेगा? मैंने तुमपर उपकार किया है अब तुम्हारी बारी है। भोला-भाला बैल कौए की बातों में आ गया और आंशिक संदेश मनुष्य तक पहुंचाया। इससे उ ब्लेई बहुत नाराज हुए; उन्होंने बैल के मुंह पर इतनी जोर से मारा कि बैल के ऊपरी सारे दांत टूट गए और दाहिने तरफ मारा, जिससे उस स्थान पर गड्ढा हो गया। उसे स्वर्ग से निकाल दिया। उन्होंने कौए के पंखों पर हड़िया की कालिख लगा दी। इस लोककथा के जरिए अन्न बर्बाद न करने के साथ अपने काम को ईमानदारी से करने और अपने बुजुर्गों की बुद्धिमत्ता पर विश्वास करने का संदेश दिया गया है।

प्रचलित खासी लोककथा ‘का स्केई’ में हिरण को अपनी तेज रफ्तार पर बहुत घमंड था। वह सदा आत्मप्रशंसा करता रहता था और घोंघे का तिरस्कार करता था। उसे सबक सिखाने के लिए घोंघों ने एक योजना बनाई और हिरन को लूरी-लूरा (साप्ताहिक बाज़ार) तक दौड़-प्रतियोगिता के लिए चुनौती दी। अपनी बुद्धिमत्ता से घोंघा जीत जाता है और हिरण का सिर नीचा होता है। जीत का रहस्य यह था कि घोंघे ने दौड़ के मार्ग में अपने समाज के सभी सदस्यों को गुप्त रूप से खड़ा कर दिया था। यह कथा संगठन-शक्ति, सुनियोजित योजना और विवेक के प्रयोग जैसे मूल्यों को संप्रेषित करती है।

खासी आदिवासियों की इन लोककथाओं और मिथकों में मानव मन में जीवन को लेकर जन्मीं जिज्ञासाएं हैं। इनसे अनेक प्रश्न जन्म लेते हैं। इनका हल खोजते-खोजते कल्पना की एक भूमि निर्मित होती है और उसी से एक न एक निष्कर्ष तक जनजातीय लोग पहुंचते हैं। खासी आदिवासी समाज में आदर्श मानवीय मूल्यों पर सहज चिंतन  है। ये प्रकृति के उपादानों के समान ही संप्रेषणीय हैं और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर हैं।

द्वारा सिद्धार्थ पांडा, 101 ब्लॉक 2, सन सिटी अपार्टमेंट, ओआरआर सरजापुर जंक्शन, इब्लुरे गांव, बेंगलुरु560102, मो. 9437630101