युवा समीक्षक।बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में शोधरत।

रवींद्र आरोही के पहले कहानी संग्रह ‘जादू : एक हँसी एक हीरोइन, शेषनाथ पांडेय के कहानी संग्रह ‘इलाहाबाद भी!’, सविता पाठक के कहानी संग्रह ‘हिस्टीरिया’ तथा मिथिलेश प्रियदर्शी के कहानी संग्रह लोहे का बक्सा और बंदूक को एक साथ पढ़ना हिंदी की समकालीन कहानियों को काफी करीब से जानना और समझना है।इन चारों रचनाकारों का यह पहला कहानी संग्रह है।इनकी कहानियां विषयगत वैविध्य और अनूठी किस्सागोई से पाठकों का ध्यान तो खींचती ही हैं साथ ही अपने सामाजिक सरोकार से उन्हें ठहरकर सोचने पर भी मजबूर करती हैं।गांव और शहर के विविध मुद्दे हों या जंगल और पहाड़ों में बसे आदिवासियों की समस्याएं, ये सब इनका कहन बनी हैं।कहानी कहने की अलग-अलग शैली तथा भाषाई विविधता के बावजूद इन कहानियों के मूल में हाशिए के समाज का जीवन और उनकी आशा-निराशा जीवंत हो उठी है।

 

यह हँसी एक प्रयोग है।यह दांपत्य जीवन की हँसी है।जब आप किसी के साथ इस तरह के बंधन में या फिर प्रेम में होते हैं तो वहां बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं होती।शब्द अपने आप गौण हो जाते हैं।तब हँसी मनोभावों को निर्धारित करती है।

रवींद्र आरोही के कहानी संग्रह ‘जादू : एक हँसी एक हीरोइन’ में उनकी कुल आठ कहानियां संकलित हैं।इन कहानियों में जीवन के यथार्थ को जादू के हवाले से कहा गया है।लेखक ने लोक मान्यताओं, दंतकथाओं, किंवदंतियों, मिथकों आदि के तत्वों का सहारा लेकर न सिर्फ कहानी में चमत्कार, कौतूहल और मनोरंजन पैदा किया है, बल्कि आज के जीवन के यथार्थ को भी उद्घाटित करने का प्रयास किया है।उन्होंने इसे जगह-जगह जादू का नाम दिया है।इस जादू में समकालीन लोक जीवन में फैली ऊब, निराशा, उदासी और पीड़ा बिखरी हुई है।लेखक इन्हीं के माध्यम से कहानी लिखने और उसे बचाए रखने का हवाला देता रहता है।इन कहानियों की भाषा में काव्यात्मकता है।

रवींद्र आरोही की ‘कथा में एक नदी बहती थी’ में कथावाचक और बबलू समय से दूर खुद में बीत रहे हैं।इस बीच समय के साथ कुछ ऐसा घटता है कि लापरवाह और हरफनमौला बबलू को एकाएक जिम्मेदार और बूढ़ा जैसा बना देता है। ‘बारिश की रात छुट्टी की रात’ के कथापुर में प्रो. तप्त कंचन भौमिक और उनकी पत्नी चेतना पणिकर रहते हैं, ‘पत्नी के पास हर रंग की हँसी थी …शाम, दोपहर, रात, सुबह की अलग-अलग हँसी।’ कहानी में मोड़ तब आता है जब एक दिन उनकी पत्नी सारे रंगों की हँसी भूल गई।यहीं से सब गड़बड़ होना शुरू हो जाता है। ‘कुशलपूर्वक रहते हुए’ में दिलू और सिरी हैं जो विस्थापन के शिकार हैं।वे जिस शहर में जाते हैं, उस अजनबी शहर में फैला है ढेर सारा झूठ, ‘मसलन किसी की एक दिन की कमाई आठ-दस लाख – झूठ।… अमिताभ बच्चन एक ऐड का चार करोड़ लेता है – झूठ।महेंद्र सिंह धोनी एक घंटे में दो करोड़ कमाता है – झूठ।…  भूख के कारण भी कोई आत्महत्या करता है- झूठ।… देश झूठ। …सरकार झूठ।प्रेमिकाएं झूठ। …झूठ-झूठ-झूठ…।’

‘जादू : एक हँसी एक हीरोइन’ में अनिरुद्ध भाई हमेशा कुछ सोचते रहते हैं।उनको पुष्पा की हँसी जादू लगती है।एक जादू और है कर्बला के कुएं से जुड़ी लोककथा का।हर जादू फिप्टी-फिप्टी सच होने का भी दावा करता है। ‘चित्रकथा’ के कथापुर में एक रजिस्टर है जिसमें एक बस्ती के लोगों का खोना दर्ज है।दो बूढ़े कवि हैं जो अपनी भाषा और बस्ती को खोने से बचाने के लिए आंदोलनरत हैं।ये खोना पैसे और रोजगार के लिए अपनी जड़ों और संस्कृति से दूर होते जाना है।अंत में कहानी का वाचक भी उस रजिस्टर में खोए हुए लोगों के बीच दर्ज कर दिया जाता है।इन सारी कहानियों में जीवन के विविध रंग बिखरे हैं।ये कहानियां निश्चय ही अपने विषय वैविध्य के कारण पाठकों का ध्यान आकर्षित करेंगी।

जिज्ञासा – ‘बारिश की रात छुट्टी की रात’ में प्रोफेसर की पत्नी की हँसी के बारे में कुछ बताइए।

रवींद्र आरोही – यह हँसी एक प्रयोग है।यह दांपत्य जीवन की हँसी है।जब आप किसी के साथ इस तरह के बंधन में या फिर प्रेम में होते हैं तो वहां बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं होती।शब्द अपने आप गौण हो जाते हैं।तब हँसी मनोभावों को निर्धारित करती है।

जिज्ञासा – ‘कुशलपूर्वक रहते हुए’ कहानी में आपने शहर में फैले झूठ को रेखांकित किया है।झूठ से आपका क्या आशय है?

रवींद्र आरोही – इस झूठ को आप ऐसे समझ सकते हैं कि किसी सामान्य या मजदूर व्यक्ति की अपनी आय बहुत मामूली है और उसी आय में अपना पूरा खर्च देखता है।लेकिन जब वह किसी बड़े और प्रभावशाली व्यक्ति की आय और खर्च के बारे में सुनता है तो वह उसकी सोच की परिधि से इतना बाहर होता है कि उसे कपोल कल्पित लगने लगता है।यह सच होते हुए भी उसके लिए झूठ है।

यथार्थ इतना जटिल होता है कि उसे रैखिक रूप में नहीं रख सकते।इसलिए स्वप्न की सृष्टि की जाती है।यह स्वप्न यथार्थ से टकराता रहता है।इंसान खुली आंखों से स्वप्न देखता है।मनुष्य की आकांक्षा जब पूरी होती है तो वहां सुखद स्वप्न होता है।

शेषनाथ पांडेय के कहानी संग्रह ‘इलाहाबाद भी!’ की कहानियां जीवन का सच अपने ढंग से कहती हैं।इनमें जल्दी का शोर शराबा नहीं, बल्कि कहन का ठहराव है।जीवन के कुछ ऐसे क्षण होते हैं जहां आपके निर्णय ही आगे के जीवन को दिशा देते हैं।ऐसे ही क्षण इन कहानियों के विषय हैं।इनमें एक स्वप्न की दुनिया है, जो जीवन के सच को प्रभावित करती है।कहानी के पात्र जीवन और स्वप्न में झूलते हुए एक निर्णायक अंत तक पहुंचते हैं।इन कहानियों में युवा वर्ग के प्रेम की मनमर्जियां हैं तो एकल परिवार में दांपत्य जीवन को खुशियों से भर देने की जद्दोजहद भी है।कुछ पा लेने के बाद बहुत कुछ खो जाने की तड़प है तो वहीं रिटायरमेंट के बाद अपने प्रेम से मिलने की चाहत भी है।इन कहानियों में जाति और स्त्री के प्रश्नों को भी उतने ही धारदार तरीके से उठाया गया है।

संग्रह में कुल छह कहानियां हैं और हर कहानी में स्वप्न और सच का द्वंद्व है। ‘सरस्वती घाट’ कहानी में कहानी वाचक संस्कारी हत्यारों के दुःस्वप्न से पीड़ित है।उसे लगता है कि ये हत्यारे उसे और उसकी प्रेमिका को मार डालेंगे।इसी दुःस्वप्न के चलते वह अपने प्यार से अलग हो जाता है। ‘चादर’ कहानी में शिरीष अपनी शादी की वर्षगांठ पर पत्नी माधवी के लिए कुछ गिफ्ट लेना चाहता है।उसकी जेब में सिर्फ बारह सौ रुपए हैं।अपनी पत्नी के लिए कुछ अच्छा-सा खरीदकर उसे खुश करने की चाह में वह कई दुकानों के चक्कर लगाता है।इस बीच उसके मन में चल रहे भावों को लेखक ने बड़ी बारीकी से पकड़ा है।इतनी जद्दोजहद के बावजूद इसका अंत शिरीष के लिए निराशाजनक और पाठकों के लिए हास्यास्पद है।

शेषनाथ पांडेय की ‘ठीक बीच में नदी आ गई’ कहानी में बताया जाता है कि इंसान सफल होकर कैसे अपने नैसर्गिक गुणों तक से दूर होता जाता है, ‘खुशियों की अपनी बेचैनी होती है और वो जितनी मारक होती है उतनी ही मोहक भी।’ ‘इलाहाबाद भी!’ कहानी में इलाहाबाद की सड़कों पर शिरीष और रजनी का मिलना-बिछुड़ना है।शिरीष भूमिहार जाति से है।उसमें अपनी जाति के लोगों के साथ हुए नरसंहार के कारण अन्य जातियों के प्रति काफी आक्रोश भरा हुआ है, ‘क्या तुम भी छुपा-छुपा कर नहीं बहाते आंसू/अपनी अनिच्छाकृत निष्ठुरता पर’।इसी आक्रोश के कारण वह रजनी से दूर हो जाता है।इस बीच रजनी के साथ कुछ ऐसा घटता है जो इलाहाबाद जैसे शहर के लिए अप्रत्याशित घटना होती है।इस कहानी में लेखक ने जगह-जगह कविताएं भी रखी हैं, जिनसे स्थितियां प्रभावी हुई हैं।

जिज्ञासा – आपकी कई कहानियों में स्वप्न और यथार्थ का टकराव है।इसका कोई विशेष अर्थ है?

शेषनाथ पांडेय – यथार्थ इतना जटिल होता है कि उसे रैखिक रूप में नहीं रख सकते।इसलिए स्वप्न की सृष्टि की जाती है।यह स्वप्न यथार्थ से टकराता रहता है।इंसान खुली आंखों से स्वप्न देखता है।मनुष्य की आकांक्षा जब पूरी होती है तो वहां सुखद स्वप्न होता है।जहां ये सपने टूटते हैं वहीं दुःस्वप्न हो जाता है।मनुष्य निजी जीवन में इन सपनों से ज्यादा कनेक्ट हो पाता है।इसलिए भी इसे रखा गया है।

जिज्ञासा – ‘तारीख’ कहानी के अंत से आप क्या समझाना चाहते हैं?

शेषनाथ पांडेय – बिहार में चिड़िया का पर्व होता है।इसमें अपने परिवार को नकारात्मक शक्तियों से दूर रखने के लिए टोटका किया जाता है।यह टोटके की थीम पर लिखी गई कहानी है।इसमें नैरेटर अपनी लिखी कहानी के सच होने के डर से भयभीत है।इसके कारण उसे कई नकारात्मक आशंकाएं होती हैं।उसे कहानी के अंत के इंतजार का डर है।

हमें लग सकता है कि यह मुद्दा नहीं है, जबकि यह एक गंभीर मुद्दा है।औरतों के सामने बड़े स्तर पर लड़ाई है। वह जिसको आजादी समझती है वहां भी घाघ और चालाक लोग बैठे हुए हैं।बड़ा कठिन रास्ता है।इसलिए उसे आंख खोलकर चलना होगा, झपकी लेने की सहूलियत नहीं है उसे।

सविता पाठक के कहानी संग्रह ‘हिस्टीरिया’ में छोटी बड़ी कुल १७ कहानियां हैं।इनमें लेखिका अपने शब्दों की जादूगरी से आपको ऐसे गांवों की सैर पर ले जाती हैं, जहां के लोग, उनके सरोकार, उनका हँसना-रोना, गीत-गवनई, रीति-रिवाज, प्रथा-कुप्रथा सब अपने होते हैं।शहर को भी लेखिका ने उतने ही करीब से देखा और जिया है।इसलिए शहरी परिवेश में एकाकी जीवन से उपजे घुटन और ऊब का भी सहज चित्रण है। ‘यह ऊंची तनख्वाह भी अजीब चीज है।जाने का बड़ा डर लगा रहता है, लेकिन पाने के चक्कर में नामालूम क्या-क्या चला जाता है!’ ये कहानियां उन अफवाहों और मिथकों पर भी चोट करती हैं, जो समाज के किसी भी निर्णय में स्त्रियों के खिलाफ कार्य करते हैं।लड़की के पैदा होते ही जैसे रुदन-सा वातावरण हो जाता है, ‘जब मोरे बेटी हो लीहलीं जन्म जनमवाँ /चारों ओरी घेरे अन्हियार रे ललनवाँ!’

लड़की कितनी भी गुनी हो, अगर एक बार द्वार से बारात लौट गई तो समझ लो लड़की में ही कोई ऐब है।अगर किसी के घर बहू आने पर भी उस घर की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर रही है, तो उसे बहू के भाग पर मढ़ दिया जाता है।कोई पुरुष स्त्री का पति होने के नाम पर उसे कितना भी पीटे, स्त्री उसका प्रतिकार नहीं कर सकती।ऐसे अनेक पूर्वग्रहों को तोड़ने का प्रयास लेखिका इस संग्रह में करती हैं। ‘हिस्टीरिया’ कहानी की नायिका अर्चना आगे पढ़ना चाहती है।उसे दौरा आता है।ग्रामीण मान्यताओं के आधार पर उसे कम उम्र में ही ब्याह दिया जाता है।मायके आने पर वह इम्तिहान के लिए अपने घर रुकना चाहती हैं।इसके बावजूद उसके ससुर उसको लेने के लिए आते हैं और अपना फरमान सुनाते हैं, ‘यह नाटक बंद करो।यदि आज विदाई नहीं हुई तो इसको यहीं रखो।यह सब इज्जतदार लड़कियों के लक्षण नहीं हैं।’ ‘हाँ, हम बदमाश हई, न जाब’ अर्चना बोलते-बोलते विकराल होने लगी।लेखिका ने इस प्रतिकार के द्वारा स्त्रियों को अपने लिए डटकर खड़े होने की चेतना विकसित करने का प्रयास किया है।

‘ईश्वर आए, दलिद्दर जाए’ कहानी में विमल बाबू का घर आर्थिक विपन्नता के कारण ठह-ठह के ढह रहा है।दुआर पर एक कटहल का पेड़ है जो घर की आर्थिक व्यवस्था में मदद करने के साथ-साथ पूरे गांव के किसी न किसी काम आता है।लेकिन विमल बाबू अंधविश्वास के चलते उसपर आरा चलवा देते हैं जो घातक सिद्ध होता है।हम किसी भी स्त्री पुरुष को एक दूसरे से बात करते हुए देखकर उनके संबंध के बारे में मनगढ़ंत कयास लगाना शुरू कर देते हैं।इसी सोच पर ‘कयास’ कहानी लिखी गई है।

अपनी अनूठी कहन शैली के द्वारा ये कहानियां हममें अपना कुछ हिस्सा छोड़ जाती हैं।सविता पाठक के इस संग्रह में लोक के साथ-साथ शहर से जुड़े पात्र भी अपनी परिस्थितियों के साथ उतने ही प्रभावी हैं।इसलिए लेखिका ने संवादों में ग्रामीण बोली की मिठास के साथ ही शहर के पात्रों के अनुरूप अंग्रेजी के शब्दों से मिली-जुली हिंदी रखी है।

जिज्ञासा – आपके कहानी संग्रह ‘हिस्टीरिया’ के बारे में ममता कालिया ने लिखा है कि ‘इसमें स्त्रियों के विषय में फैलाए गए भ्रमों और मिथकों पर प्रहार किया गया है।’ आपने किस तरह के भ्रमों और मिथकों को तोड़ा है?

सविता पाठक – एक तो यही हिस्टीरिया है।जिसके बारे में कई अंधविश्वास ग्रामीण समाज में फैले हैं।जैसे ‘ईश्वर आए, दलिद्दर जाए’ कहानी में सूप पीटकर घर के दलिद्दर को भगाने की मान्यता है।यह एक अंधविश्वास भी है कि द्वार पर दूध वाला पेड़ नहीं रहना चाहिए, चाहे वह घर की अर्थव्यवस्था में मदद ही कर रहा हो।ऐसे ही ‘अरजा तुम्हारी कौन है!’ कहानी में इच्छवाकु वंश के राजा का संदर्भ है।वह आदिवासी स्त्री अरजा के साथ बलात्कार करता है।अरजा जैसी आदिवासी लड़कियां आज भी पाई जाती हैं जिनके साथ मुख्यधारा से जुड़े लोगों द्वारा यह घटना दोहराई जाती है।अरजा के पिता शुक्राचार्य की तरह आज भी हाशिये के समाज से हैं जो मुख्यधारा के साथ मिले होते हैं।इसके कारण न्याय और दंड प्रक्रिया ही अवरुद्ध हो जाती है।

जिज्ञासा – अक्सर देखा जाता है कि लेखकों का झुकाव स्त्री और पुरुष में से किसी एक तरफ न होकर इनके संबंध की जटिलता को पाठकों के सामने रखना होता है, जबकि लेखिकाओं का झुकाव कहीं न कहीं स्त्रियों की समस्याओं को केंद्र में रखकर अपनी बात रखने पर होता है।क्या यह सही है?

सविता पाठक – यह जरूरी नहीं है कि स्त्री स्त्री के बारे में ही लिखे।लेकिन वह जोे सबसे प्रामाणिक लिख सकती है उसे लिखना चाहिए, क्योंकि कल्पना भी किसी न किसी यथार्थ की जमीन पर ही खड़ी होती है।करीब की अनुभूति नैसर्गिक होती है।इसलिए अपनी अनुभूतियों पर ही ज्यादा लिखना चाहिए, लेकिन इसे सीमा नहीं बनने देना चाहिए।

जिज्ञासा – वर्तमान में स्त्रियों के सामने मुख्य चुनौतियां क्या हैं?

सविता पाठक – औरत के सामने उसकी दो मुख्य लड़ाइयां हैं।एक उसकी अस्मिता की, यानी वह भी बराबर की मनुष्य है।महादेवी वर्मा कहती हैं, ‘आजादी की पहली सीढ़ी आर्थिक आजादी है!’ आर्थिक आजादी यहां से शुरू होती है कि उसकी भी कोई पहचान है।दूसरी लड़ाई है उसके अस्तित्व की लड़ाई।क्योंकि अब औरतें खत्म हो रही हैं, चाहे यह भ्रूण हत्या के रूप में हो, चाहे कुपोषण या एनीमिया के रूप में।हमें लग सकता है कि यह मुद्दा नहीं है, जबकि यह एक गंभीर मुद्दा है।औरतों के सामने बड़े स्तर पर लड़ाई है।उसे अपने घर परिवार और समाज से लड़ना है, साथ ही बाहर के समाज से भी।वह जिसको आजादी समझती है वहां भी घाघ और चालाक लोग बैठे हुए हैं।बड़ा कठिन रास्ता है।इसलिए उसे आंख खोलकर चलना होगा, झपकी लेने की सहूलियत नहीं है उसे।

आधुनिक समाज अपने मानकों पर आदिवासी समाज को तौलकर उसे पिछड़ा बताता है और उसे ‘मुख्यधारा’ में शामिल करने के लिए आक्रामक ढंग से कोशिश करता है।यह असल में एक क्रूर चालाकी है, जिसमें पिछड़ेपन और सुधार का बहाना बनाकर आप उन्हें उनके ठिकानों से निकाल उनके संसाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं।

मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानियों के विषय शहर की आपराधिक घटनाओं से लेकर आदिवासियों के सुदूर गांवों तक विस्तृत हैं।शहरी जीवन की संवेदनहीनता, अकेलापन, पुलिसिया ज्यादती, आदिवासी जीवन का प्राकृतिक सौंदर्य और सुख-दुख, उनका प्रतिरोध आदि इन कहानियों का कथ्य है।इनमें हर पल कुछ ऐसा घटित होने का रोमांच है जो हमारी कल्पना से परे हो। ‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ में कुल ६ कहानियां हैं।

‘सहिया’ कहानी में कोरई पहाड़ के आसपास बसे आदिवासियों के जनजीवन का चित्रण है।पहाड़ के उस पार रहने वाले उग्रवादियों के गिरोह के कमांडर जोवाकिम लिंडा को पकड़ने के लिए पुलिस छापे मारती रहती है।इसी बहाने वे यहां के खेतों से ताजा सब्जियां, जंगल से मीठे फल आदि लूटपाट करके अपने साथ ले जाते हैं।आगे चलकर पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में वह मारा जाता है।जोवाकिम लिंडा नाम का एक लड़का पहाड़ के इस पार भी रहता है।यहां कहा जाता है, ‘लड़का ने जिस दिन हल जोत लिया और लड़की ने जीवन की पहली चटाई बुन ली, समझो वे शादी की जिम्मेदारी के लिए तैयार हो गए।’ इस कहानी में आदिवासी जीवन की पृष्ठभूमि में उग्रवादी संघर्ष के चित्र हैं।

‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ कहानी मारकुश जैसे उन हज़ारों आदिवासियों की कहानी है जो शहर में कोई इज्जत की नौकरी करना चाहते हैं, लेकिन शहर के तामझाम में आकर शहर वालों की चालाकी और निर्ममता का शिकार हो जाते हैं।

इन कहानियों में मुख्यधारा से जुड़े लोगों और भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था की ऐसी कई परतों को खोलने का प्रयास है, जहां हर कदम पर धोखा और जालसाजी है।आदिवासियों के पेड़ों से फल, खेतों से अनाज पुलिसिया कर्मचारियों द्वारा लूट लिया जाता है।ये कहानियां हमें अपनी जादुई भाषा से चौंकाने और थ्रिल पैदा करने के साथ हमारी जिज्ञासा को चरम तक ले जाती हैं।इस तरह की किस्सागोई एक नई उम्मीद है।

जिज्ञासा – क्या आपको भी लगता है कि महानगरीय जीवन की विसंगतियों के कारण हत्या, लूटमार जैसे अपराधों की बढोतरी हुई है?

मिथिलेश प्रियदर्शी – इसे बड़े परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है।भारत के डेमोग्राफिक प्रोफाइल में १५ से २९ साल के युवाओं की भागीदारी २७.२ प्रतिशत है।अगर इस आयु-वर्ग में ३५ की उम्र तक के लोगों को शामिल कर लें तो करीब आधी आबादी रोजगार के लिए तैयार है।लेकिन काम कितने हाथों में है? देश का युवा ऊर्जा से लबरेज है, उसके पास काम नहीं है।वह खाली है, कुंठित है, अवसाद में है।महंगाई में सर्वाइव करना मुश्किल हो रहा है।उसपर उम्मीदों, आकांक्षाओं का बोझ है, वह अलग।उसके पास गर्व करने के लिए, उसे व्यस्त रखने के लिए अगर कुछ है तो वह है जातीय-सांप्रदायिक जहर।यह मौजूदा विभाजनकारी राजनीतिक ताकतों के जरिए दिन-रात उस तक पहुंच रहा है।नफरत की यह बमबार्डिंग उसे आक्रामक और हिंसक बना रही है।युवाओं के भीतर पल रहा यह फ्रस्ट्रेशन इतना खतरनाक है कि यह केवल जातीय-सांप्रदायिक मामलों तक सीमित नहीं रहता।यह दूसरे अपराधों की जमीन तैयार करता है।पूरे मसले को राज्य की विफलता और उसके वैचारिक दोषों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

जिज्ञासा – आपके कथा विन्यास की तुलना योगेंद्र आहूजा ने कहानी कला के दो उस्ताद एडगर एलन पो और जैकलंडन से की है।

मिथिलेश प्रियदर्शी – जैकलंडन मेरे पसंदीदा लेखकों में से एक हैं।उनकी रचनाओं में जीवन-संघर्षों के प्रति प्रेम और जिजीविषा अद्भुत तरीके से है।भगत सिंह ने भी अपनी जेल डायरी में जैकलंडन के ‘आयरन हिल’ का जिक्र किया है।मुझे उनके पात्रों की विपरीत परिस्थितियों में भी उठ खड़े होने की अदम्य लालसा और जिजीविषा प्रभावित करती है।कहीं पढ़ा हुआ उनका यह वाक्य मुझे हमेशा याद रहता है, ‘मनुष्य का असल काम जीना है, जीवित रहना नहीं।’

जिज्ञासा – आदिवासी लोग शहर में अपने आपको अनुकूलित नहीं कर पाते हैं।वे इसे कैसे देखते हैं?

मिथिलेश प्रियदर्शी – खुद को सभ्य समझने वाला आधुनिक समाज जीवन जीने के अपने मानकों पर आदिवासी समाज को तौलकर उसे पिछड़ा बताता है और उसे ‘मुख्यधारा’ में शामिल करने के लिए आक्रामक ढंग से कोशिश करता है।यह असल में एक क्रूर चालाकी है, जिसमें पिछड़ेपन और सुधार का बहाना बनाकर आप उन्हें उनके ठिकानों से निकालकर उनके संसाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं।यह ठीक अमेरिका की लूट और साम्राज्यवादी कार्रवाइयों की तरह है जो वह तेल और दूसरे संसाधनों की खातिर लोकतंत्र बहाली के नाम पर दूसरे देशों के साथ करता आ रहा है।अगर कोई राज्य, समाज सचमुच आदिवासियों की फ़िक्र करता है तो अपने तथाकथित सभ्य समाज में शामिल होने का चुनाव उसे आदिवासियों पर छोड़ देना चाहिए।आदिवासी समाज को तय करने देना चाहिए कि उसे क्या चाहिए।उन्हें सड़क चाहिए तो सड़क दीजिए।यह नहीं कि उनके संसाधनों तक पहुंचना है तो सड़क बना दीजिए और कहिए कि आपके लिए बनाया है।यह अश्लील धूर्तता है।

समीक्षित कथा संग्रह

(१) जादू : एक हँसी एक हीरोइन – रवींद्र आरोही, लोकभारती प्रकाशन, २०२२ (२) इलाहाबाद भी! – शेषनाथ पांडेय, लोकभारती प्रकाशन, २०२२ (३) हिस्टीरिया – सविता पाठक, लोकभारती प्रकाशन, २०२२ (४) लोहे का बक्सा और बंदूक – मिथिलेश प्रियदर्शी, लोकभारती प्रकाशन, २०२२

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