साल 2022 के नोबल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित फ्रेंच लेखिका एनी आर्नो का जन्म नॉरमांडी के छोटे-से गांव इगतो में हुआ, जहां उनके माता-पिता एक परचून की दुकान और कैफे चलाते थे। उस छोटे-से गांव से साहित्य के नोबल तक का सफ़र बहुत उतार-चढ़ावों से भरा रहा, जिन्हें एनी अपनी स्मृतियों में दर्ज करती रहीं। बाद में वही स्मृतियां उनके साहित्य सृजन का आधार बनीं। वह जिस असाधारण साहस के साथ अपने संस्मरणों में अपनी जड़ों, सामाजिक अलगाव और सामूहिक अवरोधों को उघाड़ती हैं, यही साहस उन्हें ‘नोबल सम्मान’ के लिए चयनित किए जाने का आधार बना।एनी की वेबसाइट पर उपलब्ध यह आत्मकथात्मक अंश मूलतः एक जर्मन संग्रह ‘व्हाइ रीड’ में २४ अन्य लेखकों के साथ प्रकाशित हुआ था|प्रस्तुत अंश का मूल भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद जो हॉलीडे ने किया. जो स्वतंत्र-पत्रकार, लेखक एवं अनुवादक हैं और लगातार साहित्य-सृजन के रास्ते पर चल रही हैं।

 

 

 

 

हिंदी रूपांतरण : उपमा ऋचा
युवा कवयित्री
, लेखिका और अनुवादक।सात महत्वपूर्ण साहित्यिक एवं ऐतिहासिक कृतियों का हिंदी अनुवादमौलिक पुस्तक एक थी इंदिरा’ (इंदिरा गांधी की जीवनी)

 

 

कई साल पहले मेरा एक कज़िन मेरी बीमार मां को देखने मेरे शहर आया और इसी दौरान वह मेरे घर भी आया।बैठक की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए अचानक वह जड़वत, स्तब्ध खड़ा रह गया।मैंने देखा; उसकी आंखें किताबों की उस अलमारी पर टिकी थीं, जिसने सामने की दीवार को पूरी तरह से घेर रखा था।

‘हेइ क्या तुमने इन सबको पढ़ लिया?’ उसने किंचित हैरानी और अविश्वास के साथ सहमे से अंदाज़ में मुझसे सवाल किया।

‘हां तक़रीबन…’ मैंने जवाब दिया, तो उसने ऐसी ख़ामोश बेजारी से सिर झटका, मानो यह बड़े-भारी जतन का काम हो।वैसे जतन का काम तो था, ख़ासतौर पर तब; जब उसे मेरी योग्यताओं और किताबों को दरकिनार करना था।क्योंकि उसे १४ की उमर में ही स्कूल छोड़कर, जहां मिल सके वहां काम पकड़ लेना पड़ा था।मुझे याद है, उसके पास, बल्कि उसके परिवार में किसी के भी पास किताबें नहीं थीं।मैंने उसके घर में केवल एक किताब देखी थी और वह थी कॉमिक बुक टार्जन।

मैं अपने कज़िन के साथ घटे उस पल, उस दृश्य को अक्सर असहजता के साथ याद करती हूँ।उस पल के भीतर एक अलग तरह का गुस्सा या खीज छिपी है।ऐसा ही एक वाकया और है।मैं तब १६ या १८ साल के बीच रही होऊंगी। ‘किसी भी बात में दिलचस्पी न लेने’ और पेरिस-नॉरमांडी न्यूज़पेपर पढ़ते रहने के लिए मैंने अपने पापा को झिड़का।अपनी इकलौती बेटी की बेचैनी के प्रति अमूमन बेहद शांत रहने वाले मेरे पापा ने उस रोज सख्ती से जवाब दिया, किताबें तुम्हारे लिए ठीक हैं, लेकिन जहां तक मेरी बात है तो मुझे जीने के लिए उनकी जरूरत नहीं।

तब से ये शब्द मेरे साथ खिंचे चले आ रहे हैं।वे मेरे भीतर कहीं गहरे जम गए हैं।जैसे कोई दर्द या अझेल सच्चाई… मैं समझ सकती हूँ कि मेरे पापा का क्या मतलब था।अलेक्जेंडर ड्यूमा, फ़्लाबेयर या कामू को पढ़ना, एक कैफे के मालिक के तौर पर उन्हें उनके काम में या ग्राहकों के साथ उनकी रोज़मर्रा की मुठभेड़ में कोई व्यावहारिक मदद नहीं दे सकता था।लेकिन दूसरी ओर कहीं न कहीं वे जानते थे कि वे मेरे भविष्य को लेकर जो सपने देखते हैं या जो उम्मीदें पाले हुए हैं, उनमें किताबें कितना वजन रखती हैं, या एक उच्चतर सामाजिक संसार के द्वार खोलने में कितनी अहम भूमिका निभाती हैं।

मैं यह सब समझती थी, लेकिन स्वीकार नहीं कर सकती थी।मैं यह सोचने से इंकार करती हूँ कि किताबों की दुनिया के दरवाज़े मेरी मां सहित उन लोगों के लिए हमेशा बंद रहेंगे, जो मेरे सबसे निकट थे, मेरे सबसे प्रिय… मेरे पापा के कहे वे शब्द उनके, खेतों में काम करने वाले उस १२ साल के लड़के और मेरे बीच पसरी दूरी और अलगाव को सही सिद्ध कर रहे थे।यह कुछ ऐसा था, मानो वे मेरी ओर पीठ मोड़कर खड़े हों।वे ठीक उसी तरह मुझे आहत कर रहे थे, जैसे शायद मैं उन्हें करती थी।कागजों पर उभरे शब्दों को पढ़ना, उनके और मेरे बीच का एक घाव था, एक साझा घाव!

जब मैं किताबें पढ़ने के लिए वजह ढूंढती थी, मेरे पापा के कहे शब्द एक व्यक्तिगत और असंभवप्राय चुनौती की तरह पलटकर मेरे सामने आ खड़े होते।नहीं; जीने के लिए पढ़ना जरूरी नहीं, लेकिन मैं हमेशा पढ़ने के लिए जीती रही।यहां तक कि ज़िंदगी के उन अंधेरे लम्हों में जब शब्द नाकाफ़ी होते हैं, तब भी मैं खुद को किताबों से अलग नहीं रख पाई।

मैंने ६ साल की उम्र में ही पढ़ना सीख लिया था।कागजों पर लिखे शब्द मुझे अपनी ओर खिंचते थे।शब्दकोश से लेकर छोटे बच्चों के लिए लिखी गई उन किताबों तक, जो भी मेरे बोध, मेरी समझ के दायरे में समा सकती थीं।उन दिनों किताबें महंगी हुआ करती थीं और मेरे लिए कभी पर्याप्त नहीं हुईं।मैं अक्सर किताबों की दुकान पर काम करने का सपना देखती थी ताकि सैकड़ों किताबें मेरी पहुंच में आ सकें।किताबें पढ़ने से मिलने वाली खुशी अलग ही होती थी।

अलावा इसके किताबें मेरे खेल में भी भूमिका निभाती थीं।वे अक्सर मेरे भीतर किसी कहानी के पात्र की कल्पना जागा देती थीं और मैं कभी जर्मन उपन्यास की ‘नंगे पैरों वाली लड़की’ कभी ऑलिवर टिवस्ट, कभी डेविड कॉपरफील्ड सहित न जाने कितने चरित्र अपने भीतर लिए फिरती थी।हालांकि स्मृति और चेतना से जुड़ी बाध्यताएं मुझे यह याद करने से रोक रही हैं कि मैंने किस उम्र में कथा-नायिकाओं की तरह व्यवहार करना बंद किया था, लेकिन मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि मेरे भीतर सेक्सुअल चेतना अथवा बोध जगाने में किताबों ने कितनी अहम भूमिका निभाई।मिसाल के तौर पर १२ की उम्र में पढ़ी ‘डेविल इन द फ्लेश’ ने मुझे मेरी किशोर (इरोटिक) जिज्ञासाओं के साथ खेलना सिखाया।आज भी मुझे चित्रों-चलचित्रों की तुलना में शब्द ज्यादा तेज और ज्यादा गहरी उत्तेजना जागते मालूम होते हैं।

टीन-एज में पापा के कहे शब्दों ने मेरे भीतर विद्रोह कर दिया।मेरे लिए पढ़ना विकल्पों की तलाश का साधन बन गया।मैं भ्रम की स्थिति में कुछ तलाश रही थी।मैं ‘इम्मोरलिस्ट’ और ‘द रिबिल’ जैसे जादुई शीर्षकों के बीच भटक रही थी कि कब कोई किताब मुझे आगे धक्का दे दे या मेरी मुट्ठी में नए विचार रख दे।१५ की उम्र तक ‘द क्वीस्ट ऑफ द एब्सोल्यूट’ (बालजाक), ‘द रोड टू फ्रीडम’ (सात्र) या ‘द डिफ़िकल्टी ऑफ बीइंग’ (कोक्टेयु) ने मुझे जीवन की समझ दे दी थी।मुझे जीने का ढंग सिखाया, जो बाद में मेरे जीवन में प्रकट हुआ।

स्त्री होने का अर्थ जानने की मेरे भीतर जो इच्छा थी, उसने मुझे सिमोन और वर्जीनिया जैसी स्त्री-लेखिकाओं की ओर मोड़ा।यह दौर था एक सीक्रेट डायरी में, उनकी बातों को किसी सत्य की तरह लिखने का और इस बात के निश्चित हो जाने का कि कुछ बातों का अनुभव करने वाली मैं अकेली नहीं दो चेहरे और हैं, जो मेरी सोच, मेरी भावनाएं साझा करते हैं; यह मेरे लिए खुशी की बात थी या कुछ नहीं तो कम से कम जीवन के लिए एक सांत्वना।पन्नों में जुड़ती हर नई सूक्ति मुझे अपने अस्तित्व के स्वीकार जैसी लगती थी और अपने पिता के शब्दों के खिलाफ एक विद्रोह जैसी।

अपने जीवन के उस बिंदु पर, अनजाने ही मैं उस विरोधाभास के मध्य जा खड़ी हुई जिसका प्रतिनिधित्व किताबें करती हैं : पढ़ना मुझे मेरे अपने लोगों से, उनकी जुबान से अलग कर रहा था और यहां तक कि मैंने खुद को उन शब्दों में अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था, जो उनसे अलग थे।लेकिन इस आदत ने मुझे उन लोगों से जोड़ा, जिनके साथ मैं खुद को आइडेंटिफाई करती थी।

शब्द हमें अलग भी करते हैं और जोड़ते भी हैं।कभी यह हमें हैरी पॉटर जैसे समूचे काल्पनिक संसार में ले जाते हैं, तो कभी निपट उघड़ी हुई सामाजिक-एतिहासिक सच्चाइयों के सामने ले जाकर खड़ा कर देते हैं।किताबें पढ़ना जीवन जीने के उस ढंग में संवेदना की राह को खोलना है; जिस ढंग से आज इंसान जी रहे हैं या चीजों को धारण कर रहे हैं।मसलन मैं बचपन से ही नाजियों के बारे में जानती थी, लेकिन क्रिस्टा वुल्फ़ की किताब ‘ए मॉडल चाइल्डहुड’ ने मुझे बताया यह नाजीवाद के बीज कहां थे और उसकी जड़ें कैसे फैलीं।

मैं जानती हूँ कि किताबें अब उस तरह ज्ञान का स्रोत नहीं रहीं, जैसे वे मेरे लिए हुआ करती थीं या गुज़रे जमाने में दूसरों के लिए।औरों की तरह मैं भी अब शब्दकोश नहीं पलटती, बल्कि इंटरनेट स्क्रॉल करती हूँ।सामाजिक मुद्दों पर बनी डॉक्यूमेंट्री देखती हूँ और किताबों की तरह ही उनसे अपने हिस्से की जानकारी, अपने हिस्से की खुशी, अपने हिस्से का पलायन सहेज लेती हूँ।फिर भी मुझे लगता है कि किताबों की जगह कोई नहीं भर सकता।हालांकि कई साल पहले मैंने अपनी डायरी में यह भी लिखा था, ‘जिन उदासियों से मेरा सामना हुआ, उन्होंने मुझे यकीन दिलाया कि कोई भी किताब उस चीज को समझने मे मेरी मदद नहीं कर सकती जिससे मैं गुजर रही हूँ और मुझे लगता है कि मैं खुद भी कभी ऐसी कोई किताब नहीं लिख पाऊंगी।’

जब मैं छोटी थी, मेरे पापा मुझे टाउन-हॉल स्थित एक पब्लिक लाइब्रेरी में ले जाते थे, जो केवल इतवार की सुबह खुलती थी।जब हम पहली बार वहां गए, मेज के उधर बैठे आदमी ने हमसे पूछा कि हमें कौन-सी किताब चाहिए।हमें इस बाबत कोई आइडिया नहीं था।तब उस आदमी ने मेरे लिए मेरीमी की लिखी ‘कोलम्बा’ और मेरे पापा के लिए मोपांसा की ‘द रोज़ किंग ऑफ मैडम हसन’ निकाली।यह इकलौती किताब थी, जिसे मैंने उनको रसोई-घर की मेज पर पढ़ते देखा था।मुझे लगता है कि मेरे लेखन का अंतिम लक्ष्य या मुझे लिखने के लिए उकसाने वाली एकलौती शक्ति वही थे, माने मुझे उन लोगों के द्वारा पढ़ा जाना है, जो नहीं पढ़ते।