केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के सूचना एवं भाषा प्रौद्योगिकी विभाग में सहायक प्रोफेसर (भाषाविज्ञान)।
भारतीय भाषा–चिंतन के साथ भाषा, संस्कृति और मीडिया अध्ययन में रुचि।
सूचना क्रांति की तेज रफ्तार से गुजरता विश्व कृत्रिम बुद्धिमता के नए दौर में प्रवेश कर चुका है। आज से कुछ साल पहले तक एआई, एएनएन, आईओटी, डेटा माइनिंग, बिग डेटा, डीप लर्निंग और रोबोटिक्स जैसे कई शब्द जो केवल किताबी सिद्धांत के रूप में अधिक पढ़े जाते थे, अब हकीकत बनकर हमारी जिंदगी में अपनी पैठ बना रहे हैं। आधुनिक बुद्धिमत्ता जो बौद्धिक तत्परता के साथ-साथ स्मार्ट क्रियात्मकता और व्यापक उत्पादकता के गठजोड़ के लिए सराही और पहचानी जाती है, उसका स्रोत अब केवल मनुष्य न होकर मशीनें भी हैं- सटीक गणितीय एवं तर्कपरक विश्लेषण क्षमता वाली इंटेलिजेंट मशीनें। मेधावी मानव की बौद्धिक यात्रा सूचना क्रांति के अनेक विस्मयकारी आविष्कार और नवाचार गढ़ने के बाद एक नए दौर में प्रवेश कर रही है। यहां जिज्ञासा, इच्छा या विचार का बीज लेकर उसे मनचाहे स्वरूप में संसाधित कर लेने की अभूतपूर्व सुविधा है। यह कुछ-कुछ पुराकथाओं या परीकथाओं वाले जादुई चिराग, आईना, छड़ी, चटाई या वैसी ही कोई चीज हासिल हो जाने जैसा है। लेकिन इसमें प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न खतरे कम नहीं हैं। एआई और रोबो यंत्रों के जरिए किसी क्लस्टर या सेक्टर को व्यापक तौर पर सुविधा तथा सामर्थ्य संपन्न बनाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर यहां बहुत फैले औऱ बेतरतीब, जटिल और समस्यात्मक डेटा की उलझनों को सुलझाया जा सकता है। भाषाओं की सीमाओं के आर-पार ज्ञान और संवाद की आवाजाही के रास्ते बनाए जा सकते हैं। इतना ही नहीं, इनके जरिए विभिन्न रूपों में अशक्त और वंचित लोगों को सक्षम बनाया जा सकता है। उत्पादन की प्रक्रिया, गुणवत्ता और मात्रा को संवर्धित किया जा सकता है। यह कम चमत्कारपूर्ण नहीं है कि कुछ सरल-सामान्य संकेतों के इनपुट से विभिन्न माध्यमों में टू-डी, थ्री-डी रचनात्मकता के नए आयाम गढ़े जा सकते हैं। इसके अलावा, अलक्षित संभावनाओं को संभव और साकार बनाया जा सकता है। दूसरी तरफ, एआई और रोबो तकनीकी के जरिए पूंजी बाजार के नव-उपनिवेशी खतरों और सत्ता और सूचना के परस्पर-वर्चस्ववादी संघर्ष को भी नज़र में रखना होगा। इन सबके बीच एक सामान्य मनुष्य भी है जिसकी जेनेटिक पहचान होमो सेपियंस यानी मेधावी मानव की है लेकिन शासन से बाजार तक अब वह एक बायोमीट्रिक डेटा इकाई के रूप में संचित और संकुचित है। तकनीक को ऑटोमेटेड से स्मार्ट और अब स्मार्ट से इंटेलिजेंट बनाने में सारा जरूरी निवेश उसका है, लेकिन उसकी निजता का हक ही सबसे अधिक चिंताओं के घेरे में है। एआई समर्थित आईटी का ताना-बाना समाज के ताने-बाने को प्रभावित कर रहा है। इसकी चिंता तमाम लोग कर रहे हैं, लेकिन इसके प्रभाव से निकल पाने की स्थिति में नहीं हैं। मशीनी डीप लर्निंग का परिणाम डीप फेक की शक्ल अख्तियार कर रहा है, जो इनसान का इनसान पर भरोसा ही नहीं, बल्कि तकनीक पर इनसान के भरोसे को भी डिगा दे रही है। कुल मिलाकर सूचना तकनीकी का यह समूचा दौर मानव बुद्धिमत्ता का स्मारक बनते-बनते कृत्रिम बुद्धिमत्ता का स्मारक बन रहा है। आधुनिक मनुष्य और मशीन, यानी नेचुरल और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आपसी संबंधों को बहुत सतही और एक आयामी तरीके से देखना किसी भी मायने में इंटेलिजेंट निर्णय नहीं होगा। तकनीकी विकास की नित नई ऊंचाइयां छूते वर्तमान समय में मनुष्य के जीवन का स्वरूप, उसका मन, विचार, भाषा और नजरिया, चिंताएं और चुनौतियां, ये सब कैसे बदल रहे हैं, विचार करना जरूरी है। हालांकि सामाजिक अनुप्रयोग की दृष्टि से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अभी अपने शुरुआती चरण में है, लेकिन जिस तरह से आते ही उसके वजूद और जरूरत को लेकर सवाल उठना शुरू हो गए हैं, उससे मुंह फेरा नहीं जा सकता। हमारे वास्तविक संसार के समानांतर अब बुद्धिमान मशीनी तकनीकों का एक आभासी संसार विकसित हो रहा है। यह संसार मनुष्य के लिए अपने तमाम आकर्षण, अनिवार्यता और संबद्धता के बावजूद तेजी से हमारी पहचान को खा रहा है। इंटेलिजेंट तकनीक मनुष्य की सर्जनात्मकता को सीमित और संकुचित करने की आशंका को भी साथ ले आई है। इसके बावजूद, इस तकनीक की सकारात्मक संभावनाओं और समग्र विकास के लिए इसकी जरूरत को नकारा नहीं जा सकता। हाल ही में आयोजित भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ के दूसरे दीक्षांत समारोह में भारत की राष्ट्रपति ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अपार संभावनाओं को स्वीकार करते हुए इससे जुड़ी सामाजिक चिंताओं को दूर करने की जरूरत जताई। उन्होंने कहा कि विकसित लोकतांत्रिक भारत का सपना देखने के लिए यह जरूरी है कि मानव जीवन को आसान बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृत्रिम मेधा को एक उपयोगी उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाए। लेकिन तकनीकी अनुप्रयोग की सामाजिक चिंताओं को दूर करने के लिहाज से जरूरी होगा कि निश्चय ही इसके साथ कृत्रिम बुद्धिमत्ता के इस्तेमाल से जुड़ी हुई चिंताओं को दूर करना जरूरी है। ये चिंताएं बेरोज़गारी, जीवन की असुरक्षा, शैक्षिक-आर्थिक असमानता, डिजिटल डिवाइड और डिजिटल फ्राड, निजता में सेंघमारी आदि के रूप में ये चिंताएं सामने आई हैं। इन समस्याओं का मनुष्य और मनुष्यता के हक में सकारात्मक समाधान निकालना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की गतिशीलता के साथ-साथ इमोशनल इंटेलिजेंस के महत्व को भी पहचानना चाहिए। इस मुकाम पर अनायास ‘तॉलस्ताय और साइकिल’ के कवि केदारनाथ सिंह की ये पंक्तियां साथ याद आती हैं- हो सके तो हर धड़कन के साथ एक अदृश्य तार जोड़ दिया जाए/कि एक को प्यास लगे तो हर को बेचैनी हो/अगर एक पर चोट पड़े तो हर आंख हो जाए थोड़ी देर नम/और किसी अन्याय के विरुद्ध अगर एक को क्रोध हो/तो सारे शरीर झनझनाते रहें कुछ देर तक। विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले देश के साथ ही भारत की पहचान आज सबसे अधिक इंटरनेट डाटा खपत करने वाले देश के रूप में भी है। डिजिटल युग में आगे बढ़ते देश के तौर पर बेशक यह एक सरल समीकरण हो सकता है, लेकिन डाटा खपत किन प्रयोजनों से हो रही है और यह खपत व्यक्ति, समाज और देश के लिए कितनी उत्पादक है, इसकी चिंता करना जरूरी है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के समय में एक व्यक्ति के तौर पर हमारी भूमिका क्या होगी? केवल एक डिजिटल मजदूर की या डिजिटल उपभोक्ता की, डिजिटली शातिर की या डिजिटली वंचित की- इस पर सोचना जरूरी है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की पारिस्थितिकी और सामाजिकी यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मानव समाज के परस्पर संबंधों से जुड़े कई प्रश्न ध्यान में आते हैं। इस मुद्दे से जुड़े कुछ सामान्य लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्नों को लेकर सूचना और भाषा-तकनीकी क्षेत्र में सक्रिय देश के कुछ वरिष्ठ विद्वानों के विचार यहों दिए जा रहे हैं।
सवाल (1)आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की अवधारणा क्या है? यह विश्व के लिए और खासकर शैक्षिक और व्यापारिक हित के लिए किस तरह उपयोगी है? (2)मानवाकार रोबो का अधिक प्रयोग आगे चलकर मनुष्य के लिए कौन सी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याएं पैदा कर सकता है? (3)क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम मेधा मानवाधिकार के मामलों में समस्या पैदा कर सकती है? यह चिंता व्यक्त की जाती है कि मेधारोबोट के अधिक प्रयोग से खासकर शैक्षिक, प्रबंधन और तकनीकी संसार के लाखों लोग बेरोजगार हो सकते हैं, यह कहां तक ठीक है? इस स्थिति में, भविष्य में मनुष्य के लिए रोजगार के किस प्रकार के क्षेत्र विकसित हो सकते हैं? (4)क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मनुष्य की कल्पनाशीलता और सर्जनात्मकता के क्षेत्र को पूरी तरह मिटा सकता है? मानवाकार रोबो और मनुष्य में से अंततः कौन किसको नियंत्रित करेगा? (5)आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के संबंध में विश्व में इधर सामने आए स्वागत भाव और चिंताओं दोनों से थोड़ा परिचित कराएं। |
कृत्रिम मेधा मानव मेधा और रचनात्मकता का विकल्प नहीं बन सकती |
इम्तियाज़ हसनैन प्रसिद्ध समाज–भाषाविज्ञानी। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग से सेवानिवृत्त प्रोफेसर। वर्तमान में मौलाना अबुलकलाम आजाद चेयर, मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में चेयर प्रोफेसर। |
इनसान कुदरती तौर पर एक इंटेलिजेंट प्राणी है। जिंदगी के तमाम क्षेत्रों में तरक्की करने के लिए वह अपनी इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करता है। अपने काम-काज को आसान बनाने और अपनी काबिलियत और हुनर को निखारने के लिए नई-नई तकनीकों को ईजाद करना, सीखना और उसका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना उसका शगल रहा है।
इनसानी वजूद की एक और खासियत है, यह है उसकी भाषाई कुशलता। भाषाओं के जरिए लोगों ने न केवल एक-दूसरे से बात करना, संबंध बनाना सीखा, अपने ज्ञान और अनुभव को साझा किया बल्कि आपसी सहयोग से इनका लगातार विकास भी किया। सूचना क्रांति की वर्तमान सदी में आपसी संवाद, ज्ञान और कौशल की नई विधाओं को सीखने के लिए मशीनों के जरिए अनुवाद की बात सोची गई। यह आइडिया शुरुआत में बहुत आकर्षक लगा, लेकिन जल्द ही सबको समझ में आ गया कि मशीनों के जरिए सौ फीसदी खरा अनुवाद पूरी तरह संभव नहीं हो पाएगा। जितनी भी कोशिश की जाए, मशीन मशीन है और आदमी आदमी।
मशीन कितनी भी समर्थ क्यों न हो जाए, लेकिन उसे इनसान ने ही बनाया है। इसलिए इनसानी इंटेलिजेंस की तमाम खूबियां और खामियां मशीनों में भी हैं। सूचना शक्ति के बढ़ते प्रभाव के बावजूद किसी भी स्थिति में हम नहीं सोच सकते कि एक दिन मशीनें हमारे सामने एक दुर्निवार चुनौती बनकर खड़ी हो जाएंगी और हम उनपर नियंत्रण नहीं कर पाएंगे।
इसे फिर से मशीनी अनुवाद की मूलभूत तकनीकी के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि मशीनी अनुवाद की पूरी तरह मशीनी नहीं होता है। यह या तो मशीन-साधित मानव अनुवाद (एमएएचटी) के रूप में संपन्न होता है या फिर मानव साधित मशीनी अनुवाद (एचएएमटी) के रूप में। मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में किसी भी तौर पर इनसान का मौजूद होना बताता है कि केवल मशीनी ढांचों तक सीमित रहकर मशीनी अनुवाद संभव नहीं हो पाएगा। यह भी देखना चाहिए कि मानव भाषा में जो संरचनात्मक, प्रक्रियात्मक और सर्जनात्मक खूबियां और संभावनाएं हैं, उनके मुकाबिल पूरी तरह कुछ खड़े कर पाना मशीन के लिए संभव नहीं है।
इसके बाद कृत्रिम मेधा (एआई) की बात आती है जिसके पीछे डीप लर्निंग और लॉर्ज डाटा एनालिसिस की ताकत काम करती है। इस ओर जिस तेज रफ्तार से हम आगे बढ़ रहे हैं, लगता है कि इसे कंट्रोल करना बहुत मुश्किल होगा। विभिन्न कार्य क्षेत्रों में एआई और मानव रोबोट का इस्तेमाल बढ़ने से इनसान अपनी मौलिक कार्य क्षमता और विचार क्षमता को खो रहा है। चाहे बात उसके रचनात्मक स्पेस की हो या तर्क-विश्लेषणपरक चिंतन क्षमता की, इनसानी जिंदगी में मशीनों का अत्यधिक दखल इन दोनों को बाधित करता है। फिर भी किसी मुकाम पर आकर एआई इंसान पर हावी हो जाए, यह मुमकिन नहीं लगता। क्योंकि जैसे-जैसे मशीन की ताकत बढ़ेगी, इनसानी दिमाग उसके आगे-आगे चलेगा। कुल मिलाकर यह मृग मरीचिका जैसा मामला है जिसमें पानी का आभास यानी हमारा लक्ष्य हमेशा हमारे अनुमान से आगे ही रहेगा और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा।
कृत्रिम मेधा तकनीकी का दावा है कि आप जो टास्क देंगे, वह उसे तत्काल अंजाम तक पहुंचाएगी। चाहे वह काम-काज के किसी मामले में हो या क्रिएटिव प्रोडक्शन के स्तर पर कृत्रिम मेधा और रोबोट तकनीकी एक स्तर तक तो इनसान के हक में है, लेकिन इससे मानव बौद्धिक क्षमता कम हो रही है। जीवन में जैसे-जैसे तकनीक का दखल बढ़ रहा है, आदमी अपनी काबिलियत खो रहा है। उसका ध्यान गैर जरूरी चीजों में लग रहा है। सामाजिक जीवन के संदर्भ में क्लोनिंग के खतरे पर भी ध्यान देना होगा। आवाज और व्यक्तित्व की क्लोनिंग की वाजिब एथिकल चिंताएं हैं। व्यक्ति की मौलिक पहचान, उसकी सामाजिक उपस्थिति और जीवंतता को इसने वैकल्पिक बनाना शुरू कर दिया है।
अब यह खतरा नजर आने लगा है कि कहीं यह तकनीक आने वाले वक्त में पूरी तरह व्यक्ति के वजूद को उपेक्षित न कर दे। एक बार किसी व्यक्ति ने अपनी आवाज मशीन को दे दी। चाहे कैसे भी दी, स्वेच्छा से, लापरवाही से या फिर मजबूरी में। लेकिन एक बार जब हमने अपनी कोई पहचान मशीन के हवाले कर दी तो मशीन उसको प्रोसेस करने के लिए आजाद है। उसपर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं रहता। हमने सचमुच में नहीं कहा, लेकिन हमारी तरह से या ‘हम’ बनकर कुछ भी कहला दिया गया या हमारी इमेज, हमारी आवाज, हमारे ऑडियो-विजुअल गलत तरीके और गलत इरादे से क्रिएट या मैनिपुलेट कर लिए गए, तो यह सीधे-सीधे मानव अधिकारों का उल्लंघन है। इसके काफी मामले इस समय देखने में आ रहे हैं जिनके भुक्तभोगी लोग दुनिया भर में है।
कृत्रिम मेधा आधारित तकनीकी फ्रॉड के तरीके हमारी उम्मीद से परे हैं। इनसे कोई नहीं बच पाता। न अनपढ़, न आम पढ़ा-लिखा और न कोई बहुत समझदार या बहुत प्रभावशाली इनसान। यहां तक कि बड़े-बड़े इंस्टीट्यूशन भी इसके शिकार हो सकते हैं। यह एक एथिकल मुद्दा तो है, साथ ही कानूनी मुद्दा भी है जिसको लेकर समाजशास्त्री लोग विशेष रूप से चिंतित हैं।
इसी सिलसिले में प्लेजरिज्म यानी साहित्यिक चोरी का मुद्दा भी आता है। जो आपने लिखा नहीं उसे आपने अपने लिखे के तौर पर प्रस्तुत कर दिया और उसका लाभ भी ले लिया। आपने कहीं और से आइडिया लिया और अपना बनाकर पेश कर दिया। या फिर आपके लिए मशीन ने आइडिया डेवलप कर दिया। आइडिया को प्लेजराइज और री-स्ट्रक्चर करना एक चुनौती है और एक तकनीकी कौशल भी। इसे नेक नीयत के साथ काम में लिया जा सकता है, लेकिन इसका अक्सर गलत तरीके से इस्तेमाल ही देखा गया है। एक बार अगर यह काम कामयाबी से कर लिया गया तो उससे जुड़े तमाम एथिक्स और नियम कानून धरे के धरे रह जाते हैं। यानी मौलिक प्रतिभा के बजाय तकनीकी चतुराई के बल पर एक व्यक्ति का दूसरों से आगे निकल जाना अकादमिक और सामाजिक न्याय के रास्ते में एक बहुत बड़ी चुनौती है। इतनी बड़ी कि बड़ी प्रतिष्ठित शोध संस्थाओं और प्रकाशनों को भी आज समझौतावादी रुख अख्तियार करना पड़ रहा है। अनियमितताओं को नियमित करना पड़ रहा है। यह कि एक निश्चित सीमा तक आप अपने रिसर्च वर्क में एआई की मदद से आइडिया डेवलप और टेक्स्ट जनरेट कर सकते हैं।
यह मामला यहीं तक खत्म नहीं होता। यह व्यवस्था विभिन्न सोशल सेक्टर में इनसानी श्रम यानी शिक्षण संस्थानों में अध्यापकों और इंडस्ट्री में कामगारों को वैकल्पिक बनाने जा रही है। यानी आपके संस्थान या फैक्ट्री के ज्यादातर काम मशीन जेनरेट होने लगेंगे चाहे वह श्रम से संबंधित काम हो, कार्यालय का पत्राचार या फिर से डेटा विश्लेषण। कुल मिलाकर आने वाले समय में जो लोग औसत, दोयम या अकुशल दर्जे के होंगे, सिस्टम में उनकी जरूरत लगभग नहीं रहेंगी। जो लोग अब तक कामकाज में थे वे कृत्रिम मेधा के बढ़ते प्रभाव की वजह से बेकार हो जाएंगे या बेकार करार दे दिए जाएंगे।
इसका दूसरा और ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि सूचना क्रांति के नए चरणों में दाखिल होने, खास तौर पर कृत्रिम मेधा के जमीन पर आने के बाद हम खुद से सोचना छोड़ रहे हैं। सूचनाओं की शेयरिंग, मल्टीमीडिया डेटा का अपलोड-डाउनलोड एक मानसिक बीमारी बन रहा है। हमारा लिखना और पढ़ना सीमित हो रहा है और इनसे जुड़ी मौलिक और विशिष्ट तकनीक या तौर तरीकों को हम भूल रहे हैं। लिखने-पढ़ने की रणनीतियां भी बेमानी हो रही है। अंततः हमारी रचनात्मक और बौद्धिक दक्षता भी खतरे में पड़ रही है। कल्पनाशीलता और सर्जनात्मकता पर भी संकट है। केवल वही लोग बचेंगे जो इस एआई से प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे।
एआई भविष्य के सूचना समाज में नए किस्म का श्रेष्ठता-क्रम तैयार करेगी, इसके पैकिंग ऑर्डर भी नए किस्म के होंगे। आम लोगों और समाज के साथ सिस्टम की अब तक की जवाबदेही और वचनबद्धता को भविष्य में कैसे देखा जाएगा, इस पर चिंता करने की जरूरत है। यह देखना होगा कि कृत्रिम बौद्धिकता के इस दौर में कौन है जो सुरक्षित रहेगा? पक्के तौर पर यह आम आदमी तो नहीं है, बेशक कृत्रिम मेधा का समूचा तंत्र उसी के डेटा पर खड़ा है। समझना चाहिए कि जो एक्सपर्ट एआई एल्गोरिथम के नियत नए मॉडल रच रहे हैं, जो टॉप लेवल पर डेटा संसाधन की जिम्मेदारियां देख रहे हैं या उसके मैनिपुलेशन की उच्चतर रणनीतियां बनाने में लगे हुए हैं, उनकी जगह तो सुरक्षित रहेगी लेकिन इनके अलावा बाकी सब लोग भविष्य के समाज और कार्य तंत्र में या तो सूचना नियामकों के रहमो-करम पर निर्भर होंगे या फिर उपेक्षित पड़े रहेंगे। जो मशीनी इंटेलिजेंस के मॉडल बना रहे हैं और इस हायरेर्की में सबसे ऊपर हैं, कुल मिलाकर वही सीमित वर्ग आने वाले समय में सरकार और समाज को प्रभावित करेगा।
मौजूदा समय में, कुछ मामलों में प्रतिस्पर्धी देशों की सरकारें एक-दूसरे के बाजार और ताकत को नियंत्रित करने के लिए आईटी कंपनियों की मदद हथियार की तरह ले रही हैं तो वहीं दूसरी ओर बड़ी आईटी कंपनियों और राज्य की सत्ताओं के बीच कुछ मुद्दों को लेकर टकराहटें देखी गई हैं। आईटी कंपनियां राज्य, समाज और व्यक्ति के जीवन में अपनी विशेष उपस्थिति का फायदा लेने के लिए मनमानी तरीके से काम कर रही हैं जिसको नियंत्रित करने के लिए सरकारों को नए उपायों पर काम करना पड़ रहा है।
रचनात्मक क्षेत्र में एआई के बढ़ते दबाव की वजह से आज मनोरंजन उद्योग में हंगामा है। प्रेस और प्रकाशन उद्योग में भी हंगामा है। कला जगत में सन्नाटा है। स्क्रिप्ट लेखकों की नौकरियां भी खतरे में है। यही नहीं इसका प्रभाव दूसरे क्षेत्रों में भी देखने को मिल रहा है। इसके गंभीर नतीजे भी सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए विदेश के कोर्ट में एक ऐसा मामला देखा गया जिसमें वकील ने अपनी याचिका में 12 से अधिक पुराने केसों की नजीर पेश की थी, लेकिन जब जज ने याचिका को ध्यान से देखने के बाद आपत्ति की तो पता चला कि वह सब कुछ एआई की मदद से जेनरेट किया गया था उनका कोई वास्तविक आधार नहीं था। इस गैरकानूनी प्रेक्टिस के चलते उस वकील की कानूनी प्रेक्टिस का लाइसेंस खत्म हो गया।
यह समझना चाहिए कि जब इंटेलिजेंट मशीन किसी भी प्रकार का प्रोडक्शन कार्य करेगी तो निश्चित रूप से उसकी क्षमता, परिशुद्धता और गतिशीलता तीनों इनसान से बेहतर होंगी। इनसान सामान्यतः उनसे होड़ नहीं ले पाएगा। लेकिन मशीन चाहे कितनी भी इंटेलिजेंट हो जाए, यह पूरी तरह से ह्यूमन स्पेस को रिप्लेस नहीं कर पाएगी। कुल मिलाकर एआई पूंजीवाद की शोशेबाजी है जिसमें ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ का खतरा तो है, लेकिन उससे बचने के कुछ रास्ते भी हैं। वे रास्ते हर हाल में इनसानी मूल्यों और योग्यता के आधार पर तय होंगे। केवल कृत्रिम मेधा की कसौटी पर योग्यता का नियम ही अगर समाज पर हावी होगा तो भविष्य में सामान्य और वंचित लोगों के अधिकार का क्या होगा, इसकी चिंता करना और इसके प्रभावी उपाय तलाशना जरूरी है।
(लिप्यंकन एवं पाठ संपादन : प्रस्तुतिकर्ता)
चेयर प्रोफेसर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद चेयर, मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, गाचीबावली, हैदराबाद-500032. संपर्क – imtiaz.hasnain@gmail.com
कृत्रिम बुद्धिमत्ता से होगा कायाकल्प भाषाएं भी अछूती नहीं रहेंगी |
बालेंदु शर्मा दाधीच न्यू मीडिया और भाषा तकनीकी विषयों के प्रसिद्ध लेखक। वर्तमान में माइक्रोसॉफ्ट में स्थानीकरण एवं सुगम्यता के निदेशक। |
आज कृत्रिम बुद्धिमत्ता जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रही है। ऐसा माना जा रहा है कि अगले एकाध दशक में कृत्रिम बुद्धिमत्ता की बदौलत हमारी दुनिया का कायाकल्प होने वाला है। हिंदी सहित हमारी भाषाएं भी इस बदलाव से अछूती नहीं रहने वाली हैं और न ही उन्हें इससे अप्रभावित रहना चाहिए। जो भाषाएं बदलते युग के साथ तालमेल बिठाकर नहीं चल पातीं, उनके स्थायी अस्तित्व की गारंटी नहीं ली जा सकती। वैसे ही, जैसे अपने दौर के विकास, बदलाव, नवाचार आदि से अछूते रह जाने वाले समाज न सिर्फ प्रगति की दौड़ में पिछड़ जाते हैं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो बैठते हैं। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे देशों के उदाहरण आपके सामने हैं।
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, बाजार और बदलाव एक वास्तविकता है। उनका अकारण प्रतिरोध करने में कोई लाभ नहीं। हां, अपनी वाजिब जरूरतों के साथ उनके साथ आने में हम सबका लाभ है, हमारी भाषाओं का भी।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता का अर्थ है कंप्यूटरों को ऐसे काम करने में सक्षम बनाना जिनके लिए इंसान अपना बुद्धि का प्रयोग करता है। हमारा मस्तिष्क अपने आस-पास के पैटर्नों को पहचान सकता है, भाषा को समझ सकता है, लोगों को पहचान सकता है, तर्क दे सकता है, निर्णय ले सकता है और कुछ नया क्रिएट कर सकता है, यानी कि रचना कर सकता है। कंप्यूटरों को यही क्षमता देने के लिए उनमें बहुत ही ज़्यादा बड़ी मात्रा में डेटा फीड किया जाता है, यानी कि डेटा सेट्स। और फिर ऐसा एल्गोरिद्म यानी कि कोड तैयार किया जाता है जिसकी बदौलत कंप्यूटर पैटर्नों को पहचानने लगता है।
मशीनें अथाह डेटा का विश्लेषण करके पैटर्नों की तुलना करते हुए ऐसा करती हैं जैसे उनके पास बुद्धि हो। ये निर्णय ले सकती हैं, सवाल पूछ सकती हैं और तर्क कर सकती हैं। मुस्कुराते हुए इंसानों के लाखों फोटोग्राफ का विश्लेषण करके वह जान जाती है कि ऐसी मुद्राओं का मतलब है, आप मुस्कुरा रहे हैं। इसी तरह हिंदी और अंग्रेजी के करोड़ों अनूदित वाक्यों के पैटर्नों का अध्ययन करके वह समझ जाती है कि नए वाक्यों का अनुवाद कैसे होगा। इसके आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ रहे हैं।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अथाह शक्ति के अनगिनत उदाहरण हमारे सामने हैं। इस शक्ति के बारे में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की चर्चाएं हैं। एक तबके को लगता है कि यह मानव सभ्यता के भविष्य के लिए संकट खड़ा कर देगी। इसलिए इससे बचना श्रेयस्कर है। दूसरे तबके को लगता है कि यह हमारी तरक्की के ऐसे नए रास्ते खोलने वाली है, जिनकी अब तक हमने कल्पना भी नहीं की। इसलिए इसका अधिकतम दोहन किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि सही रास्ता दोनों के बीच से आता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता को तय सीमाओं के भीतर, जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल किया जाए तो वह मानव सभ्यता की प्रगति का सबसे शक्तिशाली माध्यम बन सकती है।
खास तौर पर भाषाओं के संदर्भ में हिंदी की बात करें तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि हिंदी भाषा के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता की क्या प्रासंगिकता है और वह इस भाषा के भविष्य को किस तरह प्रभावित कर सकती है? इसका उत्तर समझने के लिए हमें हिंदी की वर्तमान चुनौतियों, अवसरों तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता में निहित शक्तियों पर विचार करने की आवश्यकता है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का अर्थ तकनीक की उस शक्ति से है जिसका प्रयोग करते हुए वह इंसानों की ही तरह (किंतु उनकी तुलना में बहुत बड़े पैमाने पर) सीख सकती है, विशाल स्तर पर आंकड़ों का विश्लेषण कर सकती है, चीजों पर निगरानी (ऑब्जर्वेशन) कर सकती है, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का मंथन कर सकती है, अपनी क्षमताओं में वृद्धि कर सकती है, निर्णय ले सकती है और परिणाम दे सकती है।
यह सामान्य प्रौद्योगिकी से अलग है जो पहले से निर्धारित काम करती है, अपनी सीमाओं में रहती है और पहले से दिए गए निर्देशों (प्रोग्रामिंग) के आधार पर परिणाम देती है। वह स्वयं को बदलती नहीं है और स्वयं को निरंतर बेहतर बनाने में सक्षम नहीं है। दूसरी ओर कृत्रिम बुद्धिमत्ता अधिक से अधिक कुशल, शक्तिशाली बनने में सक्षम है। पारंपरिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने के लिए हम पूर्व-निर्धारित माध्यमों (कीबोर्ड, माउस, टचस्क्रीन, ग्राफ़िकल यूज़र इंटरफेस, मेनू आदि) का प्रयोग करते हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता इनके साथ-साथ हमारी भाषा को समझने में भी सक्षम है और उससे संवाद किया जा सकता है। यह संवाद लिखकर भी संभव है तो बोलकर भी संभव है और यहां तक कि हस्तलिपि में भी, फोटोग्राफ के जरिए भी तथा दर्जनों दूसरे तरीकों से संभव है।
कंप्यूटर के क्षेत्र में प्रचलित इनपुट, प्रोसेसिंग और आउटपुट- तीनों के तौर-तरीके बदल रहे हैं। इसके जरिए डिजिटल प्रौद्योगिकी को काफी हद तक देखने, भाषा को समझने, ध्वनि का प्रयोग करने, इशारों को समझने और स्पर्श को भांपने जैसी शक्तियां मिल गई हैं। जो भाषाएं इन शक्तियों का दोहन करने की स्थिति में होंगी, वे अपना कायाकल्प कर सकेंगी।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता हिंदी के स्थायी भविष्य को सुनिश्चित कर सकती है। यूनेस्को ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि दुनिया की 7200 भाषाओं में से लगभग आधी इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी। अगर हम हिंदी को विलुप्त होने वाली इन भाषाओं की सूची में नहीं देखना चाहते, तो हमें कृत्रिम मेधा को खुले दिल से अपनाना चाहिए। वजह यह है कि यह प्रौद्योगिकी भाषाओं के बीच दूरियां समाप्त करने में सक्षम है।
आज हम अंग्रेजी की प्रधानता से त्रस्त हैं और कृत्रिम मेधा तथा दूसरी आधुनिक प्रौद्योगिकियां अंग्रेजी के दबदबे से मुक्त होने में हमारी मदद कर सकती हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि हिंदी जैसी गैर-पश्चिमी भाषाएं अगले कुछ दशकों में प्राकृत और पालि की स्थिति में आ सकती हैं, उन्होंने संभवतः इस पहलू पर विचार नहीं किया कि जहां इन भाषाओं के सामने कई दिशाओं से ढेरों चुनौतियां आ रही हैं, वहीं प्रौद्योगिकी भाषाओं के बीच दूरियों को पाटने में लगी है।
जिस अविश्वसनीय और चमत्कारिक अंदाज में कृत्रिम बुद्धिमत्ता चीजों को बदल रही है, उसे देखते हुए अगले एक-दो दशकों में हम भाषा-निरपेक्ष विश्व की ओर बढ़ सकते हैं। ऐसा विश्व जिसमें हिंदी जैसी भाषाएं बोलने-लिखने वाला व्यक्ति अवसरों से वंचित न हो, क्योंकि प्रौद्योगिकी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद को इतना सटीक, सहज, सरल तथा सार्वत्रिक बना सकती है कि आप अंग्रेजी की सामग्री को हिंदी में पढ़ सकेंगे और हिंदी की सामग्री को अंग्रेजी में। आप हिंदी में बोलेंगे और लोग आपको अंग्रेजी में सुन सकेंगे, जबकि अंग्रेजी बोलने वाले व्यक्ति को आप हिंदी में सुन सकेंगे।
ऐसी स्थिति में यह बात अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगी कि आपने किस भाषा में पढ़ाई की और आप किस भाषा में अपना कामकाज करते हैं। फिलहाल यह सब तिलस्मी प्रतीत होता है, लेकिन कुछ वर्षों के बाद ये परिकल्पनाएं मशीनी नहीं रह जाएंगी, बल्कि हमारे दैनिक जीवन का सहज हिस्सा होंगी। कृत्रिम मेधा या तकनीकी बुद्धिमत्ता हमें फिर से बदलाव के उसी मोड़ पर ले आई है, जैसा बदलाव सदियों में एक बार घटित होता है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता का दूसरा बड़ा प्रभाव होगा अन्य प्रमुख भाषाओं के साथ हिंदी के गहरे संबंधों का विकसित होना। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुब्रमण्य भारती, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी के साहित्य से लेकर रामायण, महाभारत, श्रीमद्भग्वद्गीता, वेद, पुराण, उपनिषद् जैसे ग्रंथ, आयुर्वेद-योग जैसी ज्ञान संपदा, हमारी पत्रकारिता और विश्वविद्यालयों के शोध आदि दुनिया भर में गैर-हिंदी पाठकों तक पहुंच सकते हैं। यह हमारी साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक तथा शैक्षणिक संपदा को वैश्विक पहचान दिलाने में योगदान देगा।
इतना ही, बल्कि इससे कहीं अधिक आवश्यक है विश्व के ज्ञान, शोध, साहित्य का हिंदी भाषी लोगों तक पहुंचना। हिंदी में विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा, अर्थव्यवस्था आदि विषयों पर विश्व-स्तरीय सामग्री की कमी है। जहां हम स्वयं ऐसी सामग्री तैयार करने में कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद ले सकते हैं, वहीं हम मशीन अनुवाद के माध्यम से वैश्विक ज्ञान को अपनी भाषा में ग्रहण कर सकेंगे। यह ज्ञान अंग्रेजी तक सीमित नहीं होगा बल्कि पूर्वी-पश्चिमी, उत्तरी तथा दक्षिणी- सभी क्षेत्रों से हम तक आ सकेगा, भाषाओं की सीमाओं के बिना। वैश्विक भाषाओं के साथ ज्ञान के इस आदान-प्रदान से एक बड़ा अंतराल भरा जा सकेगा।
मशीन अनुवाद को लेकर अब भी कुछ लोगों के मन में शंकाएँ हैं किंतु आप यह मानकर चलिए कि वह निरंतर बेहतर होता चला जाएगा, क्योंकि मशीन अनुवाद कृत्रिम बुद्धिमत्ता का एक हिंस्सा है और कृत्रिम बुद्धिमत्ता हमारे व्यवहार, कामकाज, नए-पुराने विशालतम डेटा भंडारों, मानवीय फीडबैक, अपनी गलतियों आदि से सीखने तथा स्वयं को निरंतर निखारने में सक्षम है। पांच साल पहले जैसा मशीन अनुवाद होता था, वैसा आज नहीं होता और आज जैसा होता है, वैसा पांच साल बाद नहीं होगा।
कुछ वर्षों के भीतर हम ऐसे मशीन अनुवाद की स्थिति में पहुंच सकते हैं जो मानवीय अनुवाद की ही टक्कर का होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि यह अत्यंत स्वाभाविक रूप से उपलब्ध होगा- कंप्यूटर तथा मोबाइल के जरिए ही नहीं बल्कि दर्जनों किस्म के डिजिटल उपकरणों के जरिए, जो हमारे घरों, दफ्तरों, विद्यालयों और यहां तक कि रास्तों और इमारतों में भी मौजूद होंगे।
एआई के साथ हिंदी में शिक्षण सामग्री तैयार करना आसान तथा तेज हो जाएगा। आज केंद्र सरकार तथा कुछ राज्य सरकारों के निर्देश पर हिंदी में पाठ्य-सामग्री तैयार करने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग होने लगा है। यह प्रक्रिया निरंतर सटीक और तीव्र होती चली जाएगी। अंग्रेजी-फ्रेंच या जर्मन की किताबों को स्कैन करके चंद मिनटों में सीधे हिंदी में अनुवाद करना संभव हो गया है।
कल्पना कीजिए कि हम हिंदी में जिन विषयों में अच्छी सामग्री की कमी से परेशान रहे हैं, उन विषयों में अचानक ही दर्जनों या सैंकड़ों पुस्तकें उपलब्ध हो जाएं। तकनीकी बुद्धिमत्ता से हिंदी में पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण आसान हो जाएगा। वाचिक ज्ञान को डिजिटल स्वरूपों में सहेजा जा सकेगा। हिंदी भाषी लोग वैश्विक संस्थानों में पढ़ सकेंगे, भाषाओं की सीमाओं से मुक्त रहते हुए कौशल प्राप्त कर सकेंगे और विश्व को अपनी सेवाएं दे सकेंगे। हिंदी बोलने-लिखने वाला व्यक्ति प्रौद्योगिकी के प्रयोग से अंग्रेजी, जापानी, चीनी, स्पैनिश, फ्रेंच या अन्य भाषाभाषी लोगों को कंटेन्ट और सेवाएं उपलब्ध करा सकेगा, बिना उन भाषाओं की जानकारी रखे। तकनीक की मदद से भाषायी चुनौतियों तथा दूरियों का सिमटना और अप्रत्याशित अवसरों का घटित होना संभव है। ऐसी अकल्पनीय घटनाएं आने वाले वर्षों में सामान्य परिपाटी बन सकती हैं, यदि हमारी भाषा अपने दौर के इन आधुनिक अनुप्रयोगों को आशंका, उपेक्षा या घृणा की दृष्टि से न देखे बल्कि उनके प्रति खुला दृष्टिकोण रखे।
आज हिंदी में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य घटित हो रहा है। ध्वनि प्रसंस्करण की बदौलत वाक् से पाठ और पाठ से वाक् (स्पीच टु टेक्स्ट) प्रौद्योगिकी उपलब्ध हो गई है।
कंप्यूटर विजन के कारण हिंदी के दस्तावेजों को स्कैन करके उनके पाठ को कंप्यूटर में टाइप किए गए पाठ के रूप में सहेजना संभव हो गया है। डेढ़ सौ से अधिक वैश्विक भाषाओं और बीस से अधिक भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी के पाठ का दोतरफा अनुवाद संभव है। अलेक्सा, कोर्टाना, सिरी और गूगल असिस्टेंट जैसे डिजिटल सहायकों के साथ या तो हिंदी में संवाद करना संभव है या इंटरनेट सर्च तथा अनुवाद आदि के लिए उनकी मदद ली जा सकती है। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों की एपीआई का प्रयोग करके हिंदी में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से युक्त एप्लीकेशन बनाना संभव हो गया है। बात चैटजीपीटी तक जा पहुंची है जो ऐसी कृत्रिम मेधा है जिसके साथ संवाद किया जा सकता है और अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए जा सकते हैं।
निदेशक, भारतीय भाषाएं और सुगम्यता, माइक्रोसॉफ़्ट, गुरुग्राम-122022ई-मेल : balendu@gmail.com
भारत में कृत्रिम मेधा को लेकर सकारात्मक माहौल है |
मुहम्मद जहांगीर वारसी प्रसिद्ध कंप्यूटर-भाषाविज्ञानी और भाषा-शिक्षणविद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग में प्रोफेसर-विभागाध्यक्ष। |
(1)आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जिसे हम कृत्रिम बौद्धिकता भी कहते हैं, दरअसल कंप्यूटर साइंस की वह उन्नत शाखा है जिसका कार्य मशीनों में मानव-मस्तिष्क की तरह सोचने-समझने तथा निर्णय लेने की क्षमता विकसित करना है। मानव मस्तिष्क जिस प्रकार किसी भी समस्या को हल करते समय उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है और फिर तर्क के आधार पर किसी निर्णय तक पहुंचता है, उसी प्रकार एआई के माध्यम से मशीनों के भीतर भी ऐसी बुद्धि को विकसित किया गया है जो हू-ब-हू हम मनुष्यों की तरह सोच सके।
कृत्रिम तरीके से विकसित की गई मेधा का उपयोग करने के लिए कंप्यूटर प्रोग्राम और कौशल का प्रयोग किया जाता है। इसकी अद्भुत कार्य-क्षमता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे सभी कार्य, जो पूर्व में एक मशीन के लिए परंपरागत रूप से असंभव माने जाते थे, आज एआई ने उन सभी को सच कर दिखाया है। इस प्रकार, मानव और मशीन के बीच जिन बिंदुओं के आधार पर सामान्यतः अंतर किया जाता है, उसे व्यापक स्तर पर कम करने में एआई ने बड़ी भूमिका निभाई है।
कृत्रिम मेधा का उपयोग आज शिक्षा, वित्त, रक्षा, कृषि से लेकर स्वास्थ्य सेवा तक विभिन्न क्षेत्रों में किया जा रहा है। विश्व के अग्रणी स्वास्थ्य संगठन अनुसंधान, परीक्षण, निदान, उपचार और निगरानी में सहायता के लिए इसका उपयोग कर रहे हैं। इसके माध्यम से ऊतकों के नमूनों (टिश्यू सैंपल) का न केवल विश्लेषण किया जा सकता है, बल्कि अधिक सटीक निदान भी उपलब्ध कराया जा सकता है। कई स्वास्थ्य कंपनियां असंख्य रासायनिक यौगिकों का विश्लेषण करने में कृत्रिम इसकी सहायता ले रही हैं जिससे कि चिकित्सकीय खोजों में तीव्रता लाई जा सके और औषधीय परीक्षणों में लाभकारी तत्वों की पहचान सरलता से की जा सके। गंभीर बीमारियों जैसे कैंसर, स्ट्रोक आदि के निदान में भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सफल उपयोग हो रहा है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी कृत्रिम मेधा के नए-नए अनुप्रयोग लगातार उभर रहे हैं। यह विद्यार्थियों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप शिक्षण सामग्री को तैयार कर सकता है। इस प्रकार एआई द्वारा विकसित शिक्षण-अधिगम प्रणाली न केवल छात्रों की प्रगति के साथ समायोजित हो सकती है बल्कि आवश्यकतानुसार मूल्यांकन व ग्रेडिंग में भी अतिरिक्त सहायता प्रदान कर सकती है। दोहराव वाले कार्यों के एआई के माध्यम से संपन्न हो जाने के परिणामस्वरूप शिक्षकों को छात्रों के साथ परस्पर विचार-विमर्श हेतु अतिरिक्त समय मिल सकेगा। साथ ही साथ, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अथवा रोबोटिक्स से आभासी प्रशिक्षक का भी कार्य लिया जा सकता है जिससे सीखने के अनुभव को और बेहतर बनाया जा सके।
(2)चूंकि कृत्रिम मेधा, अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग विश्व भर में तेजी से हो रहा है, ऐसे में सुरक्षा, गोपनीयता और पारदर्शिता से संबंधित चिंताओं का उभरना स्वाभाविक है। यद्यपि यह चिंताएं बहुस्तरीय हैं, तथापि मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्तर पर उभरती समस्याओं पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। कार्यस्थल पर निगरानी हेतु आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अथवा मानवाकार रोबो के प्रयोग से कर्मचारियों में तनाव एवं दबाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। मशीन के समक्ष निरंतर स्वयं को सिद्ध करने की स्पर्धा, कालांतर में उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
इसके अतिरिक्त आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तकनीकी दक्षता और उन्नत कार्य-क्षमता के सामने टिके रहने तथा स्वयं को निरंतर प्रासंगिक बनाए रख पाने की चुनौती भी लगातार बनी हुई है। आजकल डीपफेक वीडियोज़ से लेकर ऑनलाइन बॉट्स तक प्रचलन में हैं जो किसी भी व्यक्ति की निजता और अस्मिता का खुलेआम उल्लंघन कर सकते हैं, साथ ही लोगों में आम सहमति का दिखावा कर उनके मतों, विचारों को भी प्रभावित कर सकते हैं। फर्जी ख़बरों, वीडियोज़ आदि के तीव्र प्रसार से सामाजिक अस्थिरता एवं अशांति का खतरा बराबर बना रह सकता है।
तात्पर्य यह है कि भय के वे सभी रूप जो कभी कल्पना तक सीमित थे, अब एआई के माध्यम से वास्तविकता में परिवर्तित हो सकते हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के तकनीकी विस्फोट ने एक ऐसा भयावह परिदृश्य रच दिया है जिसमें ‘ऑरिजिनल’ और ‘फेक’ के बीच अंतर करना लगभग असंभव हो सकता है।
(3)यह सही है कि कृत्रिम मेधा के कारण मानवाधिकार से जुड़ी विभिन्न चुनौतियों के उभरने की संभावना प्रबल हो उठी है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण तेज़ी से बदलते परिदृश्य में डेटा सुरक्षा, निजता, मानव सुरक्षा, गरिमा, रोज़गार, समानता, गोपनीयता आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर मंडराते खतरों के संदर्भ में समय रहते सचेत हो जाने की आवश्यकता है। हमें इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा कि जैसे-जैसे कृत्रिम मेधा से जुड़ी प्रौद्योगिकियां विकसित होती जाएंगी, पारदर्शिता के अभाव में मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के विश्लेषण और समीक्षा की आवश्यकता भी सघन होती जाएगी।
चाहे शिक्षा, प्रबंधन, तकनीक आदि के क्षेत्र हों, अथवा कोई अन्य; कार्य-स्थलों पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स का बढ़ता प्रभाव वैश्विक स्तर पर गहन चिंता का विषय बनता जा रहा है। तकनीकी दक्षता, अद्भुत विश्लेषण क्षमता और दोहराव वाले कार्यों में एआई की कार्य-कुशलता से भविष्य में श्रमिकों अथवा कर्मचारियों की मांग में अपेक्षाकृत कमी देखने को मिल सकती है। उन्हें भेदभाव व असमानता संबंधी समस्याओं से भी जूझना पड़ सकता है जो उनके पारिश्रमिक और सामाजिक सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। भविष्य में एआई द्वारा नौकरियों के स्वचालन से मानव श्रमबल की आवश्यकता कम होती चली जाएगी। विशेषज्ञों द्वारा चिकित्सा, क़ानून, विपणन, लेखांकन आदि क्षेत्रों के अत्यधिक प्रभावित होने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
ऐसे में, मानव श्रमबल पर मंडराते खतरों को कम करने के उद्देश्य से उपयुक्त रणनीति बनाने की जरूरत होगी। श्रमिकों अथवा कर्मचारियों के प्रशिक्षण को निरंतर अद्यतन करना होगा। नवाचार को अधिक से अधिक प्रोत्साहन देना होगा। यदि एआई-केंद्रित परिदृश्य में अपना स्थान सुनिश्चित करना है तो स्वयं में तकनीकी कौशल विकसित करने पर ध्यान देना होगा। सॉफ्ट स्किल्स विकसित करना लाभकारी सिद्ध हो सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अभी भी विवेक, चेतना और रचनात्मकता से कोसों दूर है; ऐसे में बदलती परिस्थितियों में शीघ्रता के साथ सामंजस्य स्थापित कर विशिष्ट कौशल और ज्ञान विकसित करना मानव समुदाय के लिए महत्वपूर्ण और हितकारी हो सकता है।
(4)मनुष्य की सर्जनशीलता उसके व्यक्तिगत अनुभवों, कल्पनाशीलता तथा बाह्य जीवन-जगत् से अर्जित ज्ञान-संपदा की आंच में तपकर रचनात्मक अभिव्यक्ति का साकार रूप ग्रहण करती है परंतु आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पूर्णतः डेटा विश्लेषण एवं निर्धारित पैटर्न पर निर्भर है। यह मानवीय संवेदनाओं के अनुरूप व्यवहार नहीं कर सकता। इसमें भावनात्मक गहनता, विवेकसम्मत दृष्टि तथा परिवेश जनित परिस्थितियों के प्रति व्यापक समझ का अभाव है। अभी भी संवेदना, कल्पनाशीलता, चेतना, रचनात्मकता जैसे गुण मनुष्यों की ही थाती हैं, कृत्रिम बौद्धिकता उनसे पूर्णतः रहित है। ऐसे में यह चिंता व्यक्त करना निरर्थक है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मानव सर्जनात्मकता को पूरी तरह नष्ट कर देगा।
मानव जीवन में एआई का अत्यधिक हस्तक्षेप चिंताजनक जरूर हो सकता है परंतु यह आश्वस्त भी हुआ जा सकता है कि एआई कभी भी पूरी तरह मनुष्यों का स्थान नहीं ले सकेगा। अंततः मनुष्य ही मौलिकता तथा नवाचार का अंतिम स्रोत बना रहेगा। इसके लिए हम मनुष्यों को भी अपने स्तर पर अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। हमें न केवल अपनी सतर्कता व जागरूकता बढ़ानी होगी बल्कि इसके सुरक्षित एवं हितकारी उपयोग के संबंध में स्वयं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने की भी आवश्यकता होगी।
(5)कृत्रिम मेधा ने मानव जीवन को थोड़ा और सरल-सुविधाजनक बना दिया है, लेकिन यह भी सच है कि यदि इसमें अपार संभावनाएं निहित हैं तो इससे उभरती चुनौतियों और जोखिमों को भी नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। आज कृत्रिम मेधा जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुका है। संचार, रक्षा, स्वास्थ्य, कृषि आदि विभिन्न क्षेत्रों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग से भविष्य में क्रांतिकारी बदलाव लाए जा सकते हैं। हमारे देश भारत में भी एआई को लेकर प्रारंभ से ही सकारात्मक माहौल रहा है। हालांकि वर्तमान में अपने प्रभावशाली अनुप्रयोगों के माध्यम से यह मानव जाति के लिए हितकारी ही सिद्ध हो रहा है परंतु सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक धरातल पर एआई से जुड़े ऐसे अनेक प्रश्न वैश्विक समुदाय के मन में उभर रहे हैं जो उसके संभावित खतरों की ओर अनिवार्यतः संकेत करते हैं।
अनियंत्रित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस नागरिक-राजनीतिक अधिकारों को ख़तरे में डाल सकता है, यह पूर्वग्रह से युक्त और पक्षपाती भी हो सकता है। यह भी आशंका है कि तार्किक क्षमता से लैस मशीनें यदि भविष्य में कभी मानव-समुदाय को ही अपना शत्रु मान बैठीं तो ये समूचे मानव-अस्तित्व को जोखिम में डाल सकती हैं। इन सबसे इतर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सत्य को नियंत्रित कर सकता है। संभवतः यही कारण है कि अमेरिका तथा यूरोपीय देशों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के संभावित खतरों की गंभीरता को भांपकर इसके विरोध में न केवल रोष व्यक्त किया है, बल्कि कड़े क़ानूनों का भी समर्थन किया है।
प्रो़फेसर एवं अध्यक्ष, भाषाविज्ञान विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़–202001/ ईमेल – warsimj@gmail.com
कृत्रिम मेधा शीर्ष कारपोरेट घरानों के सशक्तिकरण का औजार है |
मृत्युंजय श्रीवास्तव प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी। |
हम कृत्रिम मेधा के प्री-ट्रेंड जमाने में हैं। प्री-ट्रेंड माने प्री-स्कूल। प्री स्कूल वाली उम्र की कृत्रिम मेधा की हरकतों से चमत्कृत और दहशत में है यह जमाना। यह एक ऐसी टेक्नोलॉजी है, जो पहले सॉयकोलोजी समझती है। यह तार्किक रूप से अंतर्यामी और परोपकारी डिवाइस है। मानव मन से शारीरिक व्याधि को यह स्वस्थ कर सकेगा। खेती से दफ्तरी काम तक को यह निबटा देगा। धरती से चांद तक का हिसाब-किताब रखेगा। आदमी को फुरसत देगा। उत्पादन बढ़ाएगा। लाभ बढ़ाएगा। एआई एक व्यवसायिक टूल है।
इसने बहुसंख्यक आबादी के आलस्य को अपनी ताकत बना लिया है। दूसरी ओर आदमी की सुविधाभोगी प्रवृत्ति को अपनी ऊर्जा। आदमी को खाना-पीना और सोना मिलता रहे तो उसे निकम्मा बनने से कोई परहेज नहीं है। विलासिता आदमी का सबसे बड़ा सपना है 21वीं सदी का। विलासिता आदमी का वह बेशकीमती सपना है जो जमाने को जमीर से आजाद करता है। तकनीक ने आदमी की इस आकांक्षा को हकीकत में बदलने के लिए बहुत लंबी यात्रा की है अब तक। अब उसने एक लंबी छलांग लगाई है। एआई इसी छलांग का नाम है। आदमी अब उसकी जद में है। गिरफ्त में है।
1956 में पहली बार आर्टिफिशियल इंटिलिजेंस की बात सामने आई थी। इसका एक लक्ष्य विकास को मानवीय हस्तक्षेप से बचाना है। दूसरा लक्ष्य मनुष्य को शारीरिक श्रम से बचाना है।
विकास ने आदमी को क्रमशः कड़ी मेहनत और शारीरिक श्रम से मुक्त किया है। एआई भी आदमी को कई कामों को करने से मुक्त करेगा। अनुभव गवाह है कि दिन-रात शारीरिक मेहनत करने वालों की मेधा एक्टिवेट नहीं होती। भारत को स्त्रियों की मेधा का जितना भी लाभ मिल रहा है, वह शारीरिक श्रम से उसकी कुछ हद तक मुक्ति का सुफल है।
शारीरिक श्रम और दासप्रथा का गहरा संबंध है। शारीरिक श्रम का खरीददार मानव सम्मान का सौदागर होता है। आदमी को उसका मेधा-श्रम ही मनुष्य साबित करता है। मगर क्या आदमी के आदमी होने का गौरव बरकरार रहने देगी कृत्रिम मेधा?
कृत्रिम मेधा अर्थात एआई का लक्ष्य है दुनिया को मनुष्यविहीन बनाना। मतलब मनुष्य को केवल काया में बदल देना, अन्य प्रणियों की तरह। अगर उसके पास मेधा का कोई अंश बच जाए तो वह पशुओं की मेधा से अधिक हरगिज न हो। अपने में मस्त रहना और फुरसत में रहते हुए आपस सें सींग लड़ाना -पशुओं का स्थायी स्वभाव है। एआई अपने इस लक्ष्य की तरफ जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह मनुष्य की कल्पना से बाहर है। इस जगत का सबसे सामर्थ्यवान प्राणी होने के एहसास से भरा हुआ आदमी आज हीनतम प्राणी होने की चुनौती के सामने असहाय खड़ा है।
आदमी के स्वभाव में शुमार है पहले अनदेखा करना, फिर अस्वीकार करना, फिर तीसरे चरण में भयाक्रांत होना और अंतिम चरण में समर्पण कर देना। कृत्रिम मेधा मानव-व्यवहार का यह वैशिष्ट्य भलीभांति पढ़ चुकी है। कृत्रिम मेधा का अर्थ है मानव मेधा से कई गुना समर्थ मेधा क्लोन। मनुष्य की तीव्रता से सीखने की क्षमता से कई गुना तीव्र गति से सीखने की क्षमता वाला मानवाभ क्लोन है यह। इसे ही मशीन लर्निंग कहते हैं। यह मानवाभ क्लोन कदम-कदम पर ऐसा वरदान अर्जित करता रहेगा कि हर कदम पर वह अपने शिव का संहार करता जाएगा।
एआई के साफ्टवेयर की एक खूबी यह है कि जैसे-जैसे उसका इस्तेमाल बढ़ता जाएगा, उसी अनुपात में स्वतः उन्नत होता जाएगा। एक वह समय था, जब मौखिक ज्ञान और अनुभव को लिपि में बदला गया। वह दौर व्यक्ति के ज्ञान और अनुभव को सामाजिक ज्ञान में बदलने का था। यह सामाजिक ज्ञान संपूर्ण मानव जाति के उन्नयन के काम आया।
अब वह दौर है, जब एआई व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव, आदत, आचार-व्यवहार के साथ-साथ उसके मनोविज्ञान और उसके शरीर से संबंधित सभी जानकारी अपने पास इकट्ठा कर रहा है, उन सब आदमियों के संबंध में जानकारी जो उसके संपर्क में आता है। मगर क्या यह मनुष्य के चौतरफा उन्नयन में सहायक होगा? क्या मनुष्य को मानसिक आजादी दे सकेगा या उसे अपनी निजी कल्पना शक्ति बढ़ाने के लिए अधिक अवसर देगा? नहीं, वह इसकी जगह दुनिया के शीर्ष कॉरपोरेटों का सशक्तिकरण करेगा। धन और संपत्ति का एकमुश्त केंद्रीकरण होगा। यह विरोधाभास सामान्य बात हो जाएगी कि देश की आर्थिक शक्ति बढ़ेगी और अवाम की माली हालत खास्ता होगी। बेशक एआई आने वाले समय में उत्पादन-तंत्र को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लेगा। कृषि-व्यवस्था को मानव-श्रम से मुक्त कर देगा। वह राजनीतिक सलाहकार बनकर सरकार को सर्कस कंपनी की तरह कलाबाजी में उस्ताद बनाएगा।
जिसे कृत्रिम मेधा कहा जा रहा है, वह दरअसल समवेत मेधा है। यह समवेत मेधा समाज की बहुसंख्यक मेधा को अपनी चेतना बना लेती है। इसका दावा यह है कि वह भौतिक जगत को उन्नत होने का वह मुकाम देगी और उसके कार्य-व्यापार को ऐसी गति देगी, जिसकी कल्पना मनुष्य ने अलादीन के चिराग से निकले जिन्न के रूप में की है। जिन्न वह है जो विवेक-बुद्धि को ताक पर रखकर तत्पर और मुस्तैद रहता है। इसके लिए असंभव कुछ नहीं। क्या एआई के लिए एक दिन कुछ भी करना संभव हो जाएगा? क्या कृत्रिम मेधा मौलिक हो सकती है? जिन्न कभी मौलिक नहीं होता!
मानव-सभ्यता के विकास में उसकी तीन प्रवृत्तियों का अतुलनीय योगदान है। एक है मनुष्य में मौलिकता का गुण, दूसरी प्रवृत्ति है उसकी चौर्य-प्रवृत्ति और तीसरी प्रवृत्ति है हिंसा पर भरोसा करना और इसकी निरंतर तैयारी करना। भरोसे की बात यह है कि एआई मनुष्य के इन गुणों पर छापेमारी नहीं करता।
कृत्रिम मेधा तोता है। कृत्रिम मेधा दोहराने का काम कर सकती है। तोता की सीमा यह है कि तोता को एक आदमी सिखाता है और तोता सीखता है। तोता उतना ही दुहराता है जितना वह सीखता है। कृत्रिम मेधा का सॉफ्टवेयर हर उस आदमी से सीख रहा है जो उसका इस्तेमाल कर रहा है। यह हर उस आदमी का दिमाग हरण कर रहा होता है जो उसमें अपना दिमाग लगाता है। यह कुछ ऐसा ही है कि आदमी जिस प्राणी को अपना खून देगा वह उस आदमी का सारा खून खींच लेगा।
मनुष्य ने अपने कल्पना लोक में कभी ऐसे चरित्र की कल्पना नहीं की, मगर अपनी मेधा से उसने ऐसी एक मेधा तैयार कर दी है। मनुष्य अपनी गति से अधिक गति से दौड़ने वाले जीव घोड़ा को न केवल पसंद करता रहा है, उसने घोड़े के पराक्रम से सदियों तक अपना साम्राज्य विस्तार किया है। लेकिन आदमी चीते की सवारी की आकांक्षा से पीड़ित है। शेर की सवारी हिंदी का एक अर्थपूर्ण मुहावरा है। घोड़े की नकेल आदमी के नियंत्रण में थी, अब आदमी की नकेल एआई के हाथ में है। आदमी घबराया हुआ है और मस्त भी है।
आदमी ने हमेशा ऐसा आविष्कार किया है जो उसकी गति को बढ़ाता है। वह गति के मामले में अपने साथ पंख की कल्पना करता है। उसने यह भी कल्पना की कि पलक झपकते ही उसकी मुराद पूरी हो जाए। एआई के आगमन मात्र से चमत्कार का थ्रिल कम हो जा रहा है। किसी वैज्ञानिक ने किसी कवि से कहा था – तुम कल्पना करते जाओ और हम साकार करते जाएंगे। इसका एक अर्थ यह है कि वैज्ञानिक की रचनात्मकता एक हद तक कवि की रचनात्मक कल्पना पर निर्भर है।
यह कवि की कल्पना है कि कानी अंगुली में इतनी शक्ति समा जाए कि पहाड़ उठाया जा सके। उड़ने वाला हनुमान भी कवि की कल्पना है। अपनी पूंछ में आग लगा कर एक साम्राज्य को तहस-नहस कर देने की कल्पना कवि की है। यह और बात है कि हिंदी का कवि अब कल्पना नहीं करता। कल्पना की छोड़िए, ‘जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि’ वाली नजर भी कवि खो चुका है। संभव है, इसलिए वैज्ञानिक और तकनीकविदों के हाथों ऐसे भी आविष्कार संभव हो रहे हों, जो मनुष्य को सीधे वजीफा न देते हों।
भारत के खेत खेतिहर बैल और शारीरिक श्रम के दौर से निकल कर मशीन और तकनीक के युग में आ चुके हैं, मगर हिंदी के लेखन का एक हिस्सा वहीं अटका है। साहित्य भले अतीत में विचरण करता रह सकता है, विज्ञान और तकनीक का आविष्कार हमेशा भविष्य को संबोधित होता है।
भारत का बच्चा-बच्चा एक कवि की इस कल्पना से वाकिफ है कि रावण धरती से स्वर्ग तक एक सीढ़ी बनाना चाहता था। आज दूसरे ग्रहों पर मानव-सभ्यता के विस्तार का संजाल काम कर रहा है, इसे हम कवि की कल्पना का साकार होना समझ सकते हैं! एआई इस कल्पना को सच करने के लिए अपना दिमाग चला रहा है।
एआई मानव मेधा की संतान है। अगर आदमी आदमी के खिलाफ षडयंत्र रचेगा, एआई भी रचेगा। आदमी एआई से भयभीत इसलिए है कि आदमी आदमी से डरा हुआ है।
यह केवल आदमी का मामला नहीं है, एक पूरी व्यवस्था का मामला है। समाज व्यवस्था, राजनीति, धर्म और बाजार एक ऐसी चंडाल चौकड़ी है जो अपने हित के लिए जनता को बरगलाती है। एआई के सक्रिय होने के पहले से बरगलाने का काम होता आया है। बरगलाने में एआई से पहले की तुलना में अब ज्यादा बड़ा काम लिया जाएगा। एआई वैश्विक-स्तर पर जनता को मैन्युपुलेट करेगी। वह वैश्विक वर्चस्व को हासिल कराने में मददगार होगा। एआई एक वैश्विक व्यावसायिक टूल है, मगर स्वतंत्र नहीं है। पूंजी के खेल में केवल पूंजी आजाद होती है।
भारत में पत्रकारिता ही पूंजी के खानदान से आई थी। आज मीडिया किसके काम आ रहा है? क्या आज मीडिया शोषण और असमानता बढ़ाने वाली पावरलूम नहीं है? चंडाल चौकड़ी जब अपना चक्कर चलाती है तो उसके मायाजाल से न्यायालय भी कहां बच पाता है? एआई उपर्युक्त चंडाल चौकड़ी का खिदमतगार जिन्न साबित नहीं होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
एआई वस्तुतः असमानता को असीमित कर देनेे का काम करेगा। किसी भी देश के आर्थिक मामलों की योजना बनाने वाले अगर बेरोजगारी की चिंता न कर रहे हों, तो समझ लेना चाहिए कि एआई रोजगार के मामले में क्या गुल खिलाएगा।
विकास का मतलब ही है गति का विकास। हैंडलूम से पावरलूम। घोड़े से भाप इंजन। भाप इंजन से डीजल इंजन। कबूतर से पोस्ट आफिस। पोस्ट ऑफिस से व्हाट्सएप। पोस्टमैन से ड्रॉन। मैन्युअल से डिजिटल। यह सब गति के विकास की यात्रा है। भारत की दिक्कत यह है कि वह गति का संधान नहीं करता है। भारत गति का ऑपरेटर होता है या उपभोक्ता। एआई गति का आखिरी गंतव्य नहीं है। चूंकि भारत गति का संधान नहीं करता, गति के प्रति भारत अपनी हिचक जबरदस्त तरीके से जाहिर करता है। आजादी के बाद नया भारत रचने में नेहरू का योगदान बेमिसाल है। वे मशीन और तेज रफ्तार के कायल थे। गांधी से उनकी दृष्टि-भिन्नता का एक मुद्दा यह भी था।
20वीं सदी के आठवें दशक में कंप्यूटर के प्रति इस हिचक का सैलाब देखा गया था। उस समय भी बेरोजगारी के मुद्दे पर कंप्यूटर को लेकर शंकाओं-आशंकाओं का उबाल था। कुछ निर्मूल साबित हुईं और कई सही भी निकलीं।
भारत अब डिजिटल भारत है। इस देश में एआई को लेकर फिलहाल गहरी हिचक तो नहीं है, मगर सवाल हैं। लोगों के मन में यह सवाल है कि एआई से किस सीमा तक दूरी बनाई जाए। इसे रोकने का सवाल तो दुनिया में कहीं नहीं है। कृत्रिम मेधा विकल्पहीन दुनिया को विकल्पहीन साबित करने का जबरदस्त टूल है, मगर आखिरी नहीं।
एआई आदमी को अधिकांश दोहराव वाले काम से हल्का कर देगा। संभव है, आदमी के पास रचनात्मक होने के लिए अधिक अवसर हों। हो सकता है कि वह अपनी मेधा का पहले से अधिक इस्तेमाल करे।
एआई कभी मौलिक नहीं हो सकता। मौलिक होने का वरदान केवल आदमी को है। एआई का भविष्य आदमी के मौलिक होने पर निर्भर करता है। हर युग में आदमी के लिए मौलिक सोचना और रचनात्मक होना चुनौतीपूर्ण रहा है। एआई के जमाने में आज यह चुनौती ज्यादा जटिल हो गई है।
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यंत्र मानव से लोगों की मनोवैज्ञानिक समस्याएं बढ़ सकती हैं |
जवरीमल्ल पारख वरिष्ठ आलोचक। साहित्य, संस्कृति, मीडिया और सिनेमा पर नियमित लेखन। अद्यतन पुस्तक -‘साझा संस्कृति, सांप्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’। |
(1)कृत्रिम मेधा या बौद्धिकता एक नवीन अवधारणा है जिसका संबंध तकनीकी विकास से है। यह कंप्यूटर और अन्य तकनीकी यंत्रों के विकास का बहुत अग्रिम चरण है जो ऐसे बहुविध कार्य करने में सक्षम होता है जिसे अब तक मनुष्य अपने मस्तिष्क की मदद से करता रहा है। मनुष्य द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया में केवल उसके शारीरिक बल का ही उपयोग नहीं होता, बौद्धिक बल का भी उपयोग होता है। बोझ उठाने से लेकर भोजन बनाने तक के शारीरिक श्रम आधारित काम भी तब तक सफलतापूर्वक नहीं किए जा सकते जब तक कि व्यक्ति अपने मस्तिष्क का उपयोग नहीं करता।
एक अन्य उदाहरण से इस बात को समझें। गणित का अब तक का विकास मनुष्य के उन्नत बौद्धिक विकास का परिणाम है। इसकी मूलभूत अवधारणा जोड़ना और घटाना है, लेकिन धीरे-धीरे उसने ऐसी कई प्रविधियां विकसित कीं जिनके द्वारा बहुत बड़ी और जटिल संख्याओं को कुछ सूत्रों का उपयोग करके बहुत अल्पसमय में आसानी से हल किया जा सकता है। केल्कुलेटर इसी हिसाब-किताब का अग्रिम चरण है जिसमें सूत्रों को याद कर उन्हें लागू करने की जरूरत नहीं होती, बल्कि केल्कुलेटर ही यह काम कर देता है, क्योंकि उसे इस तरह निर्मित किया गया है, जिसमें वे सभी सूत्र भंडारित होते हैं जिनकी मदद से बड़ी से बड़ी और जटिल से जटिल संख्याओं का कई स्तरों पर जोड़, बाकी, गुणा और भाग किया जा सकता है। इन कार्यों को करने के लिए केल्कुलेटर को यह निर्णय लेना होता है कि कहां पर कौन-सा सूत्र लागू होगा और किन-किन चरणों से गुजरते हुए सही उत्तर प्राप्त करना होगा।
स्पष्ट है कि यह एक तरह की बौद्धिक प्रक्रिया है जिसे मनुष्य अपने मस्तिष्क का उपयोग करके करता है। प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क इस काम को करने में सक्षम होता है, लेकिन सभी इस काम को तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि मनुष्य का मस्तिष्क भी विचार की एक तार्किक प्रक्रिया से नहीं गुजरता। मनुष्य जिन बातों को सीखता है, उन्हें अपने मस्तिष्क में भंडारित भी करता जाता है जिन्हें हम स्मृति कहते हैं। जब जिस ‘ज्ञान’ की जरूरत होती है, वह स्वत: ही स्मृति के भंडार में से आगे आ जाता है और हम उसका उपयोग करते हैं। यह कार्य आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस, अर्थात कृत्रिम मेधा की यांत्रिक प्रक्रिया द्वारा भी किया जा सकता है और किया जाने लगा है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शैक्षिक और व्यापारिक कार्यों को करने में मददगार इस रूप में होता है कि जहां उन बौद्धिक और यांत्रिक प्रक्रियाओं का ही उपयोग किया जाना है जिनके प्रत्येक चरण को मनुष्य ने अच्छी तरह से सीख लिया है और जिन्हें आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस में भंडारित किया जा सकता है और उनके द्वारा अब मनुष्य को अपनी शारीरिक और मानसिक श्रम और समय का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं होती।
केल्कुलेटर का जो उदाहरण पहले दिया गया है वह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बहुत आरंभिक चरण का उदाहरण है लेकिन अब उसका इस हद तक विकास हो सका है कि अन्य कई कार्य उसके द्वारा किए जा सकते हैं और श्रम और समय की बचत की जा सकती है।
यहां दो मामूली से उदाहरण देना उपयुक्त होगा जिनसे हमारा वास्ता लगभग रोज पड़ता है। कंप्यूटर या मोबाइल पर जब हम कुछ लिखते हैं तो किसी शब्द की पूरी वर्तनी लिखने से पहले ही कंप्यूटर संभावित शब्द के कई विकल्प पेश कर देता है और आप उनमें से एक का चयन कर अपना समय बचा लेते हैं। लिखने की यह प्रक्रिया जितनी ज्यादा होगी, तो आपका कंप्यूटर आपके लिखने के पैटर्न का अध्ययन कर आगे लिखे जाने वाले शब्दों को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता जाएगा और इस तरह आपका समय बचेगा। यह कार्य कंप्यूटर आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस प्रविधि द्वारा करता है।
इसी तरह यदि आप किसी हाइवे से गुजर रहे हैं और रास्ते में पड़ने वाले टोल पर आपको रोड टैक्स का भुगतान करना है, तो पहले आपको रुकना पड़ता था। आपको वहां उपस्थित कर्मचारी को नकद में टैक्स का भुगतान करना होता था और वह आपको रसीद देता था और उसके बाद वह आपको जाने देता था। इस प्रक्रिया में प्रत्येक गाड़ी के गुजरने में कम-से-कम चार-पांच मिनट लग जाते थे। लेकिन अब फैसटैग द्वारा इस प्रक्रिया को पूरी तरह से यांत्रिक बना दिया गया है। आपने एक निश्चित राशि फैशटैग के एकाउंट में पहले से ही जमा करा दी है जिसके बदले में आपको एक खास तरह के कोड की पट्टी मिली है जो आप अपने वाहन के आगे चिपका देते हैं। जब आप टोल से गुजरते हैं तो वहां लगा यंत्र आपकी उस पट्टी पर छपे कोड को पढ़ता है। वह आपके फैशटैग एकाउंट से जितना टैक्स को काटना होता है, वह काट लेता है। उस कोड से यंत्र आपका मोबाइल नंबर और कार नंबर दोनों रीड करता है। यंत्र द्वारा फैशटैग को रीड करने की यह प्रक्रिया एक-दो सैकंड से ज्यादा नहीं होती और वाहन को रोकने के लिए जो डंडा लगा हुआ था, वह हट जाता है और इस तरह आपका वाहन टैक्स का भुगतान करके बिना समय गंवाए आगे बढ़ जाता है। यही नहीं कुछ ही सैकेंड में, आपके मोबाइल पर जो भुगतान आपने किया है, उसकी सूचना भी आ जाती है और अब फैशटैग एकाउंट में कितनी राशि शेष है उसे भी जान जाते हैं।
इन दोनों उदाहरणों में समय और श्रम दोनों की बचत को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह दोनों प्रक्रियाएं इंटरनेट के उपयोग के साथ-साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपयोग से भी संभव हुई है। ये दोनों आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बहुत आरंभिक उदाहरण हैं। अब इसमें बहुत अधिक विकास हो चुका है जिनका उपयोग शिक्षा, उत्पादन, प्रबंधन और सेवा तीनों क्षेत्रों में होने लगा है। अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उन क्षेत्रों में भी प्रवेश कर रहा है जिनमें जटिल बौद्धिक प्रक्रियाओं की जरूरत होती है।
(2)मानवाकार रोबो या यंत्र-मानव दरअसल उन कार्यों को करने के लिए निर्मित किए जाते हैं जिन्हें अब तक मनुष्य अपने शारीरिक और बौद्धिक श्रम का उपयोग करते हुए करता रहा है। मानव सभ्यता का विकास ऐसे तकनीकी यंत्रों के विकास पर निर्भर करता रहा है जिसने मनुष्य की सभ्यता की गति को बढ़ाया है।
उदाहरण के लिए पहिए के आविष्कार ने मनुष्य के पैरों की गति को ही तेज नहीं किया उसके चलने में खर्च होने वाले श्रम को भी काफी कम कर दिया। इसी तरह कंधों पर बोझ उठाने के श्रम को ठेलों, बैल गाड़ियों, क्रेनों, ट्र्कों आदि ने भी काफी कम कर दिया। मार्क्सीय शब्दावली में जिसे उत्पादन के साधन कहा जाता है, उनका विकास सभ्यता के विभिन्न चरणों को दर्शाता है। यहां उनकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है।
यंत्र मानव दरअसल एक ऐसा यंत्र है जिसने मनुष्य को पूरी तरह विस्थापित कर दिया जाता है और उन्हीं सब कार्यों को जो मनुष्य करता रहा है, उसे यंत्र मानव द्वारा कराया जाता है। एक उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। वाशिंग मशीन या डिश वाशर ऐसे यंत्र हैं जिनकी मदद से कपड़े और बर्तन साफ किए जाते हैं। यह दोनों काम इन यंत्रों द्वारा कराए जाते हैं। लेकिन वाशिंग मशीन में मैले कपड़े डालना, पानी चलाना, डिटर्जेंट पाउडर डालना, मशीन चलाना और कपड़े धुल जाने पर मशीन से कपड़े निकालने का काम घर का ही कोई सदस्य या नौकर करता है। लेकिन इन सब कार्यों को यदि घर के किसी सदस्य या नौकर द्वारा न कराकर एक यंत्र मानव का उपयोग किया जाए तो कपड़े धोने की लगभग पूरी प्रक्रिया यांत्रिक हो जाएगी।
आपको सिर्फ यह करना होगा कि यंत्र मानव को यह आदेश देना होगा कि उसे कपड़े धोने हैं। उसके बाद वह यह समस्त कार्य यांत्रिक रूप से करता रहेगा और जब तक कार्य पूरा नहीं होगा तब तक वह यंत्र-मानव गतिशील रहेगा। निश्चय ही इससे श्रम और समय की बचत होगी। लेकिन जब इन्हीं यंत्र-मानवों का उपयोग उत्पादन, सेवा, प्रबंधन और शिक्षा के क्षेत्र में किया जाता है, तो वह उन सब लोगों को उन कार्यों से बाहर कर देगा जिन्हें अब तक मनुष्य करता आया है।
उत्पादन की विभिन्न प्रक्रियाओं को रोबो के द्वारा कराया जाएगा तो वे उन श्रमिकों को विस्थापित कर देंगे जो अब तक इन कार्यों को करते रहे हैं। स्पष्ट ही वे बेरोजगार हो जाएंगे। या उन्हें केवल उन्हीं क्रियाओं तक सीमित रखा जाएगा जिनमें अभी ऑटोमाइजेशन और मैकेनाइजेशन की प्रक्रिया मुमकिन नहीं हुई है या जहां मानव श्रम की तुलना में इन प्रक्रियाओं का उपयोग ज्यादा महंगा पड़ता है।
यंत्र मानवों का अधिकाधिक उपयोग उत्पादन की प्रक्रिया से मनुष्य के विच्छेद को मुमकिन करता है और इससे एक तरह की सामाजिक विच्छिन्नता पैदा होती है। जो कुछ भी यंत्रों द्वारा उत्पादित हो रहा है उसमें मनुष्य की सर्जनात्मक क्षमता का उपयोग नहीं होता और तब उसमें नवीनता और मौलिकता की संभावना भी खत्म हो जाती है। अलोकतांत्रिक राजसत्ताएं इन यंत्र-मानवों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग जनता का दमन करने के लिए भी करती है। अपने शत्रु देशों पर विशेष रूप से जो कमजोर देश हैं उन पर सैकड़ों-हजारों मील दूर से हमला करके उन्हें तबाह करने के लिए भी करती हैं। अगर घरों में यंत्र-मानवों का उपयोग बढ़ता है तो काम के माध्यम से घर के सदस्यों के बीच जो रागात्मक संबंध निर्मित होते हैं, वे भी शिथिल पड़ने लगते हैं। माता-पिता, भाई-बहन या पति-पत्नी के बीच संबंधों में उनके द्वारा साझा रूप में किए गए कामों की बड़ी भूमिका होती है। अगर उनके बीच कुछ भी साझा करने के लिए नहीं है, तो उनके संबंध भी यंत्र-मानव की तरह हो जाएंगे और यह कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं और मानसिक बीमारियां पैदा कर सकता है।
(3)मानवाधिकार की समस्या तब उत्पन्न होती है जब कृत्रिम मेधा का उपयोग लोगों के रोज़गार को छीनने के लिए किया जाता है या इसके द्वारा समाज में पहले से व्याप्त आर्थिक और सामाजिक भेदभाव को और बढ़ाया जाता है या मजबूत किया जाता है। अगर कृत्रिम मेधा का उपयोग लोगों को अधिकाधिक रोज़गारविहीन करने के लिए किया जाता है तो इसका सबसे बुरा असर उन समुदायों पर पड़ेगा जो पहले से आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से हाशिए पर हैं। एआई का सबसे ज्यादा उपयोग ऐसे क्षेत्रों में हो रहा है और आगे और बढ़ सकता है जिनमें अर्धकुशल या अकुशल श्रमिकों की जरूरत पड़ती है।
शिक्षा के क्षेत्र को लिया जा सकता है जहां यदि विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए अध्यापकों की बजाय ऐसे यंत्रों का प्रयोग किया जाता है जो उनका स्थान ले सके तो धीरे-धीरे अध्यापकों की जरूरत ही महसूस नहीं होगी। लेकिन कोई यंत्र अध्यापक की जगह नहीं ले सकता, क्योंकि दो व्यक्तियों (अध्यापक और विद्यार्थी) के बीच अध्ययन-अध्यापन के दौरान जो संवाद और संबंध स्थापित होते हैं वह किसी मशीन के साथ संभव नहीं है। प्रत्यक्ष संबंध में नवीन, मौलिक और रचनात्मक संभावनाएं छिपी होती है।
(4)यह तो नहीं कहा जा सकता कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मनुष्य की कल्पनाशीलता को मिटा देगा, लेकिन उन लोगों की कल्पनाशीलता पर इसका नकारात्मक असर पड़ सकता है जो इस पर बहुत अधिक निर्भर रहने लगेंगे। यह स्थिति तो कभी नहीं आएगी कि मनुष्याकार रोबो मनुष्य जाति को नियंत्रित करने लगेगा। लेकिन इस बात का खतरा जरूर है कि दमनकारी राजसत्ताएं मनुष्याकार रोबो का इस्तेमाल अपने देश की जनता को अधिकाधिक नियंत्रित करने के लिए कर सकती है।
हॉलीवुड की फिल्म शृंखला ‘मेट्रिक्स’ में एक ऐसे समय की कल्पना की गई है जहां कंप्यूटर के वायरस ही मानवजाति पर शासन करने की कोशिश करेंगे और जिसका परिणाम अंतत: मनुष्य और कंप्यूटर जनित वायरस के बीच के युद्ध में निकलता है। लेकिन यह सिनेमाई कल्पना है। वास्तविक भय उस शासक वर्ग से है जो अपने देश की जनता को या दूसरे देशों पर शासन करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मनुष्य रोबो का इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसी कुछ कल्पना जॉर्ज आरवेल के उपन्यास ‘1984’ में की गई थी।
(5)इस बात में कुछ हद तक सच्चाई है कि प्रत्येक तकनीकी विकास का उपयोग मनुष्य किस रूप में करता है, यह बहुत कुछ स्वयं मनुष्य पर निर्भर करता है। यह बात कृत्रिम मेधा पर भी लागू होती है। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के क्रम में बहुत-सी ऐसे यंत्र, सूत्र, विषाणु आदि विकसित हो जाते हैं जिनका इस्तेमाल मानवजाति के विनाश के लिए किया जा सकता है। परमाणु विखंडन का जो सिद्धांत अल्बर्ट आइंस्टीन ने आविष्कृत किया था, उसका व्यवहारिक प्रयोग एटम बम बनाने के लिए भी किया जा सकता है और मानवहित में परमाणु ऊर्जा के लिए भी। परमाणु बम के उपयोग का नतीजा हम देख चुके हैं और यह खतरा अब पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ गया है। ऊर्जा की व्यापक जरूरत को देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि परमाणु शक्ति का उपयोग ऊर्जा उत्पादन के लिए किया जा सकता है, किया जाना चाहिए।
लेकिन सोवियत युनियन में चेर्नोबिल में हुई 1986 की दुर्घटना यह चेतावनी भी देती है कि यह ऊर्जा उत्पादन का एक ऐसा खतरनाक माध्यम है जो कभी भी और कहीं भी मानवजाति के विनाश का कारण बन सकता है। कृत्रिम मेधा में इस तरह का जोखिम अंतर्निहित नहीं है, लेकिन इसका उपयोग ऐसे कामों में किया जा सकता है जो मानवजाति के अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। यही नहीं कृत्रिम मेधा का उपयोग ऐसे कई छोटे-बड़े कामों में किया जा सकता है, जो लोगों की निजता में हस्तक्षेप करने और आपराधिक कामों को करने के लिए किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए हमारी या हमारे परिवार के किसी सदस्य की आवाज़ की हू-ब-हू नकल करके हमारे साथ बड़ी धोखाधड़ी की जा सकती है और ऐसी घटनाएं आजकल रोज हो रही हैं। इसका परिणाम परिवारों की तबाही से लेकर हत्याएं और आत्महत्याएं तक में निकल रही है। इसलिए बहुत जरूरी है कि किसी भी तरह के तकनीकी विकास का उपयोग बहुत सावधानी से और मानवहित में ही किया जाए। यह तभी मुमकिन है जब दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों की सत्ताएं लोकतांत्रिक ढंग से संपूर्ण मानवजाति के हित में काम करें और शोषणकारी और उत्पीड़नकारी सत्ता वर्गों को सत्ता पर काबिज होने से रोकें। अगर नए विकास से हित की संभावना से ज्यादा अहित होने की संभावना है तो उन पर रोक भी लगायी जानी चाहिए। जैसे मनुष्य के क्लोन बनाने पर रोक लगाई गई है।
802, टावर-3, पाम टेरेस सेलेक्ट, सेक्टर-66, गोल्फ कोर्स एक्सटेंशन रोड, गुड़गांव-122101 मो. 9810606751
कृत्रिम मेधा का एक नतीजा सामाजिक असंतोष के रूप में देखना पड़ सकता है |
गिरीशनाथ झा प्राच्य भाषाओं और प्राच्य विद्याओं के संरक्षण के लिए सक्रिय प्रसिद्ध कंप्यूटर–भाषाविज्ञानी, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जे.एन.यू. में प्रोफेसर। वर्तमान में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष। |
(1)कृत्रिम मेधा कुछ उन्नत प्रकार की मशीनों में मानव बुद्धि के समान निर्णय लेने और कार्य निष्पादन की क्षमता के विकास और अनुकरण (सिम्युलेशन) को इंगित करता है। ये ऐसी मशीनें हैं, जिनको खास तौर पर मनुष्यों की तरह सोचने, सीखने और समस्या-समाधान के लिए प्रोग्राम किया जाता है। इनमें वाक अभिज्ञान (स्पीच रिकॉग्निशन), निर्णयकारिता (डिसीजन मेकिंग), भाषा-अनुवाद और दृश्यात्मक धारणा (विजुअल परसेप्शन) और कई अन्य कार्य शामिल हैं। मशीन लर्निंग, प्राकृतिक भाषा संसाधन, रोबोटिक्स और एक्सपर्ट प्रणाली आदि विभिन्न उपक्षेत्रों में कृत्रिम मेधा का लगातार विकास हो रहा है।
कृत्रिम मेधा की अवधारणा में दक्षता निर्माण, निर्णयकारिता और वैयक्तिक अनुकूलन (पर्सनलाइजेशन) को संवर्धित करते हुए शिक्षा, व्यवसाय और अन्य अनेक क्षेत्रों में सकारात्मक परिवर्तन और नवाचार लाने की व्यापक संभावनाएं समाहित हैं। हालांकि, इसके लिए कृत्रिम मेधा के साथ जुड़े संभावित जोखिमों को बिलकुल सीमित करते हुए इसके लाभों को अधिकतम रूप में बढ़ाने के लिए दो पक्षों पर ध्यान दिया जाना बहुत आवश्यक है। पहला, तकनीकी से जुड़े नैतिकता संबंधी मुद्दों का खयाल रखना और दूसरा, जहां कहीं आवश्यक हो वहां इनका जिम्मेदारीपूर्वक निर्वाह करना।
व्यावसायिक कार्य क्षेत्र में एआई तकनीकों का अनुप्रयोग काफी व्यापक है। प्रमुख क्षेत्र हैं- ग्राहक सेवा (चैटबॉट्स), आपूर्ति शृंखला प्रबंधन (भविष्य की संभावनाओं का विश्लेषण) और मानव संसाधन (रेज्यूम स्क्रीनिंग और पात्र अभ्यर्थियों की तलाश)। इनके अलावा शिक्षा के क्षेत्र में एआई तकनीक विद्यार्थियों के लिए उनके सीखने के अनुभव को वैयक्तीकृत (पर्सनलाइज) कर सकती है। यह विद्यार्थियों की व्यक्तिगत अधिगम शैली यानी सीखने के तौर-तरीकों और गति के आधार पर उपयुक्त सामग्री और फीडबैक उपलब्ध करा सकती है। एआई-संचालित ट्यूशन सिस्टम विशेष रूप से गणित और भाषा जैसे विषयों को सीखने में विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्त सहायता प्रदान कर सकते हैं।
(2)मानवाभ (ह्यूमनॉइड) रोबोट का उपयोग अब बहुत अजूबा नहीं रहा। विशेषतापूर्ण क्षेत्रों के साथ ही रोजमर्रा के कामों में और सार्वजनिक स्थानों पर इनकी उपस्थिति बढ़ रही है। यह आगे और भी बढ़ेगी। लेकिन भविष्य में मानवाभ रोबोट का अत्यधिक उपयोग मनुष्यों के लिए कई मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याएं पैदा कर सकता है। आम जिंदगी में इनका दखल बढ़ने से निर्वैयक्तीकरण (डीपर्सनलाइजेशन), अकेलापन, संवेदना-क्षय, स्मृति भ्रंश, जीविका विस्थापन, आर्थिक असमानता बढ़ रहा है। जेनरेटिव तकनीकी के अनुप्रयोग से अनेक प्रकार की नैतिक दुविधाएं और यंत्र (हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर) निर्भरता बढ़ी है। व्यक्ति और समाज पर अत्यधिक तकनीकी नियंत्रण और निगरानी के साथ व्यक्तिगत पहचान का संकट और गोपनीयता संबंधी चिंताएं भी उभरी हैं। साथ ही सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन मानकों पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
साहचर्य या सामाजिक संपर्क के लिए मानवाभ रोबोट पर अत्यधिक निर्भरता से व्यक्तित्व-प्रतिरूपण हो सकता है, जहां व्यक्ति रोबोट के साथ अपने संबंधों को मानवीय संबंधों के विकल्प के रूप में देखते हैं। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में अकेलेपन और अलगाव की भावनाएं बढ़ सकती हैं, खासकर तब जबकि हम कई जगह मानव-से-मानव का संपर्क कम होता देख रहे हैं। इनसानों के बजाय ज्यादातर मानवाभ रोबोट या ऐसी ही दूसरी चैट-बॉट प्रणालियों के साथ संवादरत रहने से व्यक्ति की दूसरे व्यक्तियों के साथ संवाद या संपर्क-सहानुभूति रखने की इच्छा और क्षमता कम हो सकती है। रोबोट में वास्तविक भावनाओं और अनुभवों का अभाव होता है, इसलिए वह अधिकाधिक मामलों में व्यक्ति की रुचियों या उसके चयन की प्राथमिकता के आधार पर ही व्यक्ति से संवाद करेगा। इससे परस्पर संवाद-कौशल और भावनात्मक बुद्धिमत्ता में गिरावट आ सकती है, जिससे वास्तविक सामाजिक संबंधों पर असर पड़ सकता है।
अगर मानवाभ रोबोट मनुष्य की तुलना में अत्यधिक उन्नत और अनिवार्य हो जाते हैं तो व्यक्तियों को पहचान-संबंधी भ्रम या अस्तित्व संबंधी चिंताओं का अनुभव हो सकता है जिसके कारण वे खुद अपनी अस्मिता और चेतना पर प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं। विभिन्न उद्योगों में ह्यूमनॉइड रोबोटों को व्यापक रूप से जगह दिए जाने से लोगों के सामने जीविका का संकट आ सकता है। खासकर उन क्षेत्रों में जहां शारीरिक श्रम पर निर्भरता बहुत अधिक है। ऐसे में यदि श्रमिकों को फिर से उन्नत रूप में प्रशिक्षित करने या वैकल्पिक रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए गए तो समाज में आर्थिक असमानता बढ़ सकती है। इसका एक और नतीजा सामाजिक असंतोष के रूप में देखना पड़ सकता है।
जैसे-जैसे मानवाभ रोबोट जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अधिकाधिक सम्मिलित हो रहे हैं, उनके अधिकार क्षेत्र, उपचार (देख-रेख) और जिम्मेदारियों के संबंध में नैतिक दुविधाएं उत्पन्न हो सकती हैं। रोबोट के अधिकारों, स्वामित्व और उनके कार्यों के लिए जवाबदेही के बारे में उठने वाले सवाल नई सामाजिक बहस और संघर्ष को जन्म दे सकते हैं। कार्यों के निष्पादन या निर्णय लेने के लिए ह्यूमनॉइड रोबोटों पर अत्यधिक निर्भरता से व्यक्तियों में मशीन पर निर्भरता की भावना पैदा हो सकती है। इस स्थिति में वे मशीनों को जिम्मेदारियां आउटसोर्स करने के आदी हो जाते हैं।
इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की स्वायत्तता और स्वयं के जीवन पर नियंत्रण की क्षमता का ह्रास हो सकता है। यदि मानवाभ रोबोट उन्नत सेंसर और निगरानी क्षमताओं से लैस हैं तो इनसे व्यक्तिगत और संस्थागत गोपनीयता के उल्लंघन और व्यक्तियों के व्यवहार और गतिविधियों की निरंतर निगरानी को लेकर वाजिब चिंताएं उत्पन्न हो सकती हैं। इससे कई स्तर पर चिंता और अविश्वास बढ़ सकता है। सामाजिक कार्य क्षेत्र में मानवाभ रोबोट के आगमन से मानवीय रिश्तों, जेंडर-भूमिकाओं और सामाजिक अपेक्षाओं को लेकर मौजूदा सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंड प्रभावित हो सकते हैं। भविष्य में रोबोट को समाज के वैध सदस्य के रूप में स्वीकार करने की दुविधा एक अन्य स्तर पर बहस या संघर्ष को जन्म दे सकती है।
(3)निश्चित रूप से कृत्रिम मेधा के अनुप्रयोग से कई तरह की मानवाधिकार संबंधी चिंताएं जन्म लेती हैं। यह जीविका-विस्थापन सहित अनेक मानवाधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। एआई और ऑटोमेशन पहले से ही कुछ क्षेत्रों में नौकरियां खत्म कर रहे हैं, खासकर रूटीन और मैन्युअल श्रम कार्यों में। हालांकि जहां कुछ परंपरागत नौकरियां ख़त्म होंगी, वहीं कृत्रिम मेधा की वजह से नई नौकरियां पैदा होने की भी संभावना है। इनमें ऐसे कार्य-क्षेत्र शामिल हो सकते हैं जिनमें रचनात्मकता, विश्लेषणात्मक विचार-क्षमता, सामाजिक बुद्धिमत्ता या मानव-मशीन सहयोग से जुड़ी विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होगी। अगर लोगों के पास एआई के अनुप्रयोग के कारण सृजित हो रही नई नौकरियों में जाने के लिए विशिष्ट कौशल प्रशिक्षण की कमी है तो इससे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर सुनिश्चित चिंताएं और व्यवधान पैदा हो सकते है।
सरकारें, शैक्षणिक संस्थान और दूसरे रोजगार नियामक निकाय एआई-संचालित अर्थव्यवस्था के अनुरूप रोजगार के नए अवसर तैयार के लिए तैयार करने के लिए लोगों के पुनः प्रशिक्षण और कौशल संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में एआई का प्रयोग बढ़ने के बावजूद कुछ खास नौकरियां मानव हाथों में ही रहने की संभावना है। इनमें सहानुभूति, भावनात्मक बुद्धिमत्ता, जटिल परिस्थितियों में समस्या-समाधान और नैतिक निर्णय लेने की आवश्यकता वाले क्षेत्र विशेष उल्लेखनीय हैं।
जैसे-जैसे एआई अधिक परिष्कृत होगा, नए रोजगार क्षेत्रों के उभरने की उम्मीद है। ये विशिष्ट मानव कौशल के पूरक या आवश्यक होंगे। इनमें एआई सिस्टम (एआई विकास और रखरखाव) की डिजाइन, निर्माण और रखरखाव करना, उनके लिए जिम्मेदार और नैतिक उपयोग (एआई नैतिकता और अनुपालन) को सुनिश्चित करना और उनके द्वारा उत्पन्न डेटा की विशाल मात्रा को समझना (डेटा विश्लेषण और व्याख्या) और सम्हालना शामिल होगा। इसके अतिरिक्त, मानव और एआई (मानव-मशीन) के बीच प्रभावी सहयोग को बढ़ावा देने वाले कार्य क्षेत्र भी उल्लेखनीय हैं। इनके लिए मानव-केंद्रित अभिकल्प और सहयोग प्रक्रियाओं जैसे क्षेत्रों में विशेषज्ञों की आवश्यकता होगी। साथ ही, कृत्रिम मेधा के साथ प्रभावी ढंग से काम करने के लिए लोगों को विशिष्ट कौशल और ज्ञान से लैस करना (एआई शिक्षण और प्रशिक्षण) भी आवश्यक होगा।
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि एआई जीविकाओं के भविष्य के लिए चुनौतियां और अवसर दोनों प्रस्तुत करता है। एआई-संचालित नौकरियों में विस्थापन का जोखिम और नए अवसर, दोनों के बीच जटिल संबंध है। शिक्षा, पुनर्प्रशिक्षण और विशिष्ट मानव कौशलों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करने से इसके नकारात्मक प्रभावों को कम करने और लोगों को भविष्य की नौकरियों के लिए तैयार करने में मदद मिल सकती है। सक्रिय रूप से चुनौतियों का समाधान करके और अवसरों के लिए तैयारी करके, हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि एआई से पूरी मानवता को लाभ हो।
(4)कृत्रिम मेधा ने विभिन्न कार्य क्षेत्रों में अपनी अभूतपूर्व क्षमताएं दिखाई हैं और इसका तेजी से विकास जारी है। वर्तमान समय में उपलब्ध एआई मॉडल सूचनाओं को पर्याप्त गुणवत्ता के साथ संसाधित करने और इसके आधार पर रचनात्मक आउटपुट दे सकने में सक्षम हैं। अब भी यह ऐसे कई जरूरी सवालों और मुद्दों से जूझ रहा है जो मानवीय रचनात्मकता के लिए केंद्रीय महत्व रखते हैं। व्यक्तिगत अनुभवों, विशिष्ट संवेदनाओं और विश्व-परिवेश के मौलिकतापूर्ण अनुभवों का इस प्रकार अंकन करना, जो निर्मित रचनाओं को पर्याप्त गहराई, नवीनता और भावनात्मकता से भर दे, एआई के लिए पूरी तरह संभव नहीं हुआ है। एआई में मानव रचनात्मकता को पूरी तरह प्रतिस्थापित करने के बजाय उसको संसाधित और पुनरुत्पादित करने वाला एक शक्तिशाली उपकरण बनने की क्षमता रखता है।
एआई विचारों को उत्पन्न करने, प्रेरणा के लिए, बड़ी मात्रा में डेटा की खोज और विश्लेषण करने या रचनात्मक परियोजनाओं के तकनीकी पहलुओं में सहायता करने जैसे कार्यों में व्यापक तौर पर सहायता कर सकता है। जैसे-जैसे एआई का विकास जारी है, यह इन सहायक भूमिकाओं में और भी अधिक कुशल हो सकता है। भविष्य में इससे मनुष्य और मशीन के बीच एक सह-विकासवादी संबंध बन जाएगा जहां मनुष्य और एआई अपनी रचनात्मकता की सीमाओं को एक साथ आगे बढ़ाएंगे।
यह प्रश्न कि अंततः कौन किसे नियंत्रित करता है, मनुष्य या मानवाभ रोबोट, काफी जटिल है और इस प्रस्थान बिंदु पर इसका कोई निश्चत उत्तर नहीं है। वर्तमान में, ह्यूमनॉइड रोबोट बुद्धिमत्ता, निर्णय लेने और आत्म-जागरूकता के मामले में मानवीय क्षमताओं को पार करने से बहुत दूर हैं। मनुष्य इन रोबोटों को अभिकल्प, निर्माण और नियंत्रित करते हैं, जिससे निकट भविष्य में रोबोट द्वारा मनुष्यों को नियंत्रित करने का विचार अवास्तविक हो जाता है। निकट भविष्य में अथवा दूर भविष्य में भी कभी मानव कल्पना और रचनात्मकता की भूमिका को एआई द्वारा पूरी तरह से मिटाए जाने की संभावना नहीं है।
हालांकि, जैसे-जैसे एआई तकनीक आगे बढ़ेगी, इसके तकनीक के जिम्मेदारीपूर्ण विकास और उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत नैतिक और कानूनी ढांचे को विकसित करना और उसे लागू करना महत्वपूर्ण होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि अंततः एआई मानव के नियंत्रण में ही रहे और इसका उपयोग मानवता के लाभ के लिए किया जाए।
(5)कृत्रिम मेधा के साथ जुड़ी दुनिया भर के लोगों की भावनाएँ एक जटिल तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। इसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार की भावनाएं गुंथी हुई हैं। एक ओर, स्वास्थ्य सेवा और वैज्ञानिक अनुसंधान से लेकर शिक्षा और मनोरंजन तक विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति लाने की एआई की क्षमता को लेकर उत्साह है। लोग दक्षता में सुधार करने, जटिल समस्याओं को हल करने और अंततः हमारे जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने में एआई की क्षमता के बारे में आशान्वित हैं।
दूसरी ओर, इसके साथ कुछ चिंताएं और आशंकाएं भी जुड़ी हैं। अत्यधिक स्वचालन के चलते लोगों में नौकरी छूटने का डर है। कुछ अपराधी या फिर शरारती किस्म के लोगों द्वारा दुर्भावनापूर्ण उद्देश्यों को पूरा करने के लिए एआई के दुरुपयोग की संभावना है। इंटेलिजेंट मशीनों के निर्माण और अत्यधिक प्रयोग के पीछे कुछ नैतिक चिंताएं भी हैं। इनको लेकर बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर आम लोगों तक सभी के मन में कुछ न कुछ बेचैनी है। इसके अतिरिक्त, कुछ लोग मानव नियंत्रण के नुकसान और एआई के मानव बुद्धि से आगे निकलने की क्षमता के बारे में चिंता करते हैं, जिससे अप्रत्याशित परिणाम होंगे।
कुल मिलाकर, एआई के बारे में जनता की धारणा आशा और सावधानी का मिश्रण है, जो इतनी तेज तकनीकी प्रगति के साथ आने वाली असीमित संभावनाओं और अंतर्निहित जोखिमों दोनों का प्रतिबिंब है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कृत्रिम मेधा समग्र रूप से मानवता को लाभान्वित करे, खुली बातचीत और जिम्मेदार विकास के माध्यम से इन चिंताओं को स्वीकार करना और संबोधित करना महत्वपूर्ण है।
(अनुवाद एवं पाठ संपादन : प्रस्तुतिकर्ता)
अध्यक्ष, भाषाविज्ञान वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग, पश्चिम खंड–7, आर.के. पुरम, सेक्टर–1, नई दिल्ली–110066
ई–मेल: girishjha@jnu.ac.in
कृत्रिम मेधा में मानव कल्पनाशीलता को खत्म करने की क्षमता नहीं है |
सुनील कुमार शर्मा कवि, लेखक और विशिष्ट तकनीकविद। |
(1)आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस दो अलग-अलग घटकों- आर्टिफिशियल (कृत्रिम) और इंटेलिजेंस (बुद्धि या मेधा) से बना है। यह मनुष्यों द्वारा बनाई गई एक ऐसी वस्तु को दर्शाता है जो संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं की क्षमता को संदर्भित करता है। एआई को कंप्यूटर द्वारा नियंत्रित उन बुद्धिमान मशीनों या रोबोट के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है जो अपने अनुभव से सीखते हैं, धारणाएं बनाते हैं और निर्देशित कार्य करते हैं।
कृत्रिम मेधा अर्थात एआई में बृहद डेटा-सेट का विश्लेषण करने की क्षमता है, जिससे विभिन्न उद्योगों एवं व्यावसायिक संगठनों को अपने संचालन में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में मदद मिलती है। इसके बल पर संसाधन आवंटन को श्रेष्ठतम बनाया जा सकता है- निर्णय लेने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किया जा सकता है। साथ ही उत्पादकता और नवाचार में वृद्धि लाई जा सकती है। दरअसल एआई प्रौद्योगिकियां अपनी दक्षता और सटीकता के लिए जानी जाती हैं, खासकर उन गतिविधियों के मामले में जिनमें बार-बार और विस्तार-उन्मुख कार्य शामिल होते हैं। इसका प्रयोग ग्राहक सेवा, नए व्यापारिक मॉडल के विकास एवं गुणवत्ता नियंत्रण जैसे नए क्षेत्रो में भी हो रहा है।
शिक्षा के क्षेत्र में कृत्रिम मेधा सीखने के अनुभवों को निजीकृत करने तथा प्रशासनिक कार्यों तथा उनसे संबंधित दायित्वों को निभाकर, छात्रों के परिणाम में सुधार ला सकती है। यह शैक्षिक सामग्री को छात्रों की व्यक्तिगत जरूर है, सीखने की गति और शैलियों के अनुसार अनुकूलित करने में भी मददगार हो सकती है। छात्रों को जरूरत के समय सही मार्गदर्शन के लिए भी उपयोग में लाया जा सकता है। हालांकि इस दिशा में आगे बहुत कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि शिक्षण विधियां और शिक्षा के परिणाम के बेहतर बनाने के लिए डाटा-संचालित अंतर्दृष्टि के साथ शिक्षकों को एक सशक्त माध्यम प्रदान किया जा सके।
(2)कृत्रिम मेधा से संपंन्न मानवाकार रोबो आज एआई उपकरणों का ही एक प्रकार है। ऐसा कहा जा रहा है कि आज एआई-संचालित विभिन्न उपकरण वैश्विक आबादी के आधे से अधिक हिस्से तक विस्तारित हो गए हैं, जो परिवेश संबंधी जानकारी और अन्य अवसर प्रदान करते हैं। यह नेटवर्कयुक्त कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानव उत्पादकता बढ़ाएगी किंतु साथ ही मानव स्वतंत्रता, अधिकार और क्षमताओं के लिए खतरा भी पैदा करेगी। विश्लेषकों का अनुमान है कि जटिल डिजिटल प्रणालियों के भीतर, एआई पर निर्भरता अनुचित रूप से बढ़ सकती है। यह निर्भरता अनेक प्रकार के जोखिम पैदा कर सकती है।
कृत्रिम मेधा-संपन्न रोबो के संदर्भ में ऐसा कहा जा रहा है कि मनुष्य बुद्धिमान रोबोटों में भावनात्मक जुड़ाव के गुण भी विकसित कर सकता है, यदि ये रोबोट खासकर मानव-समान व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए डिज़ाइन किए गए हों। इससे जटिल भावनात्मक गतिशीलता पैदा हो सकती है और मानवीय रिश्तों पर असर पड़ने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। उन्नत और बुद्धिमान रोबोटों के ऊपर अनुचित निर्भरता से उसके उपयोगकर्ता के व्यक्तिगत मानवीय संपर्कों में कमी आ सकती है, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। परिणामस्वरूप सामाजिक अलगाव घटित हो सकता है।
एआई प्रौद्योगिकियां और बुद्धिमान रोबोट सामाजिक असमानताओं को बढ़ाने में योगदान दे सकते हैं। यदि इन प्रौद्योगिकियों तक पहुंच और उनसे होने वाले लाभों को समान रूप से वितरित नहीं किया जा सका तो उन लोगों के बीच एक नया डिजिटल विभाजन पैदा हो जाएगा जिनके पास उन्नत प्रौद्योगिकियों तक पहुंच है और जिनके पास उन्नत प्रौद्योगिकियों तक पहुंच नहीं है।
क्रेमर और कास्पारोव (2021) के अनुसार सबसे पहले, इंसानों और गैरइंसानों- एआई संचालित मशीनों की एक साथ काम करने के लिए जो टीम बनेगी उससे एक नई प्रकार की विविधता जन्म लेगी। यह बदलाव संस्थाओं में नई विविधता का मनोविज्ञान भी अपने साथ लाएगा। इसके अलावा, बुद्धिमान रोबोटों में अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत डेटा इकट्ठा करने और उसका विश्लेषण करने की क्षमता होती है। यह गोपनीयता की समस्याएं पैदा कर सकता है। मेधा रोबो में मानवीय संवेदनाओं का अभाव होता है जिसके चलते औद्योगिक परिवेश में उनके साथ कार्य करने वाले व्यक्ति असहज महसूस कर सकते हैं।
इस संदर्भ में चैट जीपीटी जैसे उपकरणों के बारे में उल्लेख करना आवश्यक है। हालांकि इनके द्वारा आज मनगढ़ंत जानकारी, गलत या हानिकारक कंटेंट उत्पन्न करने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में, शोधपत्रों में निबंध इत्यादि के लिए एआई उपकरणों के अनुचित उपयोग की बात सामने आई है। इससे शिक्षकों के बीच चिंता बढ़ गई है। इस प्रकार की प्रवृत्तियों को यदि रोका न गया तो इससे मौजूदा शिक्षा व्यवस्था को नुकसान हो सकता है।
(3)मानवाधिकारों पर एआई के प्रभावों के संदर्भ में चिंताएं विशेष रूप से उद्योगों में रोजगार के अधिकार, गोपनीयता, समानता इत्यादि विषयों पर रही हैं। एआई का व्यापक कार्यान्वयन, जैसे कि शिक्षा, प्रबंधन और तकनीकी क्षेत्रों में, विशिष्ट कार्यों को स्वचालित कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप बहुत सी नौकरियां विस्थापित हो सकती हैं। उदहारण के लिए ऑक्सफोर्ड के शिक्षाविदों कार्ल फ्रे और माइकल ओसबोर्न द्वारा किए गए एक मौलिक अध्ययन के अनुसार एआई के कारण 47% अमेरिकी नौकरियों पर खतरा है। इसी प्रकार की संभावनाएं कई रिपोर्टों में दर्शाई गई हैं, हालांकि वास्तविक प्रभाव का सटीक अनुमान लगाना कठिन है।
यद्यपि एआई नए रोजगार के अवसर पैदा करता है, लेकिन पुराने कौशल वाले लोगों को बदलते श्रम बाजार के साथ तालमेल बिठाने में कठिनाई हो सकती है। यदि तकनीकी प्रगति के लाभों को उचित रूप से साझा नहीं किया गया और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा की पहुंच और कौशल उन्नयन की संभावनाएं उपलब्ध नहीं कराई गई तो एआई का प्रभाव रोजगार और आर्थिक असमानता को बढ़ा सकता है। कुछ लोग और समूह पीछे छूट सकते हैं, जिससे वर्तमान सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और बिगड़ सकती हैं।
एआई की तीव्र प्रगति ने स्वायत्त हथियारों का निर्माण किया है। इन स्वायत्त हथियारों के संभावित उपयोग को भी मानाधिकार की अवधारणा के अनुरूप नहीं माना जा सकता है। दरअसल कंप्यूटरों में नैतिक निर्णय की कमी ने उनकी अविश्वसनीयता और निर्णय लेने में त्रुटियों की संभावना बढ़ा दी है। इसके कारण अप्रत्याशित मौतें हो सकती हैं अथवा संघर्ष बढ़ सकते हैं। एआई के बढ़ते प्रभुत्व से एआई और मानवाधिकारों के बीच संघर्ष की संभावना है, क्योंकि प्रौद्योगिकी हमारे दैनिक जीवन और सामाजिक संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सख्त डेटा सुरक्षा नियमों की अनुपस्थिति कंपनियों को समाज का डिजिटल रूप से शोषण करने की स्पेस प्रदान करती है।
(4)एआई में मानव कल्पनाशीलता को खत्म करने की नैसर्गिक क्षमता नहीं है। वह एक ऐसे शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम कर सकता है जो मानव रचनात्मकता बढ़ाने में मददगार हो सकता है। हालांकि एआई के ऊपर अनुचित और अत्यधिक निर्भरता नुकसान भी पहुंचा सकती है। अतः मानव कल्पना पर एआई का प्रभाव इसके विकास, कार्यान्वयन और समाज में एकीकरण पर निर्भर करेगा।
मनुष्याकार रोबो और मनुष्य में अंततः कौन किसको नियंत्रित करेगा- यह एक जटिल प्रश्न है। इसे बाइनरी दृष्टिकोण से सीमित करना उचित नहीं है। मनुष्य और एआई के बीच संबंध, एआई के विकास की सीमाएं और उपयोग के नियम व्यक्तियों, संगठनों और समाज द्वारा लिए गए निर्णय से निर्धारित होंगे। रोबोट और मनुष्य में जो मूलभूत अंतर संवेदना का है, उसे एआई के माध्यम से रोबोट में भी निर्मित किया जा रहा है। यह जरूर परीक्षण का प्रश्न है। जहां तक लगता है, मनुष्य और रोबोट इस मामले में कभी एक जैसे नहीं हो सकते और होना नहीं चाहिए। एआई की क्षमताओं का विस्तार अगर मनुष्य अपनी सुविधाओं के हिसाब से अनियंत्रित तरीके से शुरू करता है तो भविष्य में इसके परिणाम घातक होंगे। यह मनुष्य और रोबोट के आपसी नियंत्रण के ताने-बाने को ध्वस्त कर सकता है। हमें अपने जेहन में इस बात को रखना है कि एआई का प्रयोग कितना और कहां तक करना है।
(5)आजकल एआई द्वारा उत्प्रेरित सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक प्रगति पर हर तरफ व्यापक बातचीत हो रही है। एआई की उत्पादकता में सुधार करने और आर्थिक विस्तार को बढ़ावा देने की उसकी क्षमता के चलते वैश्विक स्तर पर अधिकांश कंपनियां उस पर अनुसंधान कर रही हैं।
एआई ने कई नए अवसर पैदा किए हैं, जिनमें स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा से लेकर सस्टेनेबल डेवेलपमेंट के लक्ष्य भी शामिल हैं। विभिन्न क्षेत्र- जैसे विनिर्माण, रिटेल बिक्री, परिवहन, वित्त, कानून, विज्ञापन, बीमा, मनोरंजन, चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र एआई की क्षमता का लाभ उठा रहे हैं। लेकिन एआई के बढ़ते प्रयोगों से नई प्रकार की नैतिक, कानूनी और शासन संबंधी चुनौतियां भी उत्पन्न हो रही हैं। इन चुनौतियों में मुख्यतः मानवाधिकार, गोपनीयता, अनपेक्षित भेदभाव, पूर्वग्रह, ग्राहकों की जागरूकता और ज्ञान से संबंधित मुद्दे सम्मिलित हैं।
विभिन्न हितधारकों के बीच आज इस बिंदु पर चर्चा चल रही है कि इसके संभावित नकारात्मक प्रभावों और जोखिमों को कम करते हुए कृत्रिम मेधा की शक्ति का उपयोग सभी के कल्याण के लिए कैसे किया जाए। विशेषज्ञों के अनुसार आज हमारे पास कृत्रिम मेधा-सक्षम भविष्य को आकार देने के लिए अभी एक अवसर है- इसकी अवधि कुछ वर्ष मानी जा सकती है। एआई के विकास संबंधी विचार, मानदंड, मूल्य और रणनीतियां इस अवधि में आकार ले लेंगे। इसके पश्चात इनमें परिवर्तन करना बहुत कठिन होगा।
ऑड्रे अज़ोले के अनुसार, एआई मानवता की एक ऐसी सीमा है, जिसके पार होते ही एआई मानव सभ्यता को एक नए रूप में परिवर्तित कर देगा। एआई के मार्गदर्शक सिद्धांत स्वायत्त रूप से बनने लगेंगे। निश्चय ही उनका लक्ष्य मानव बुद्धि को प्रतिस्थापित करना नहीं होना चाहिए। इसके प्रयोगों को इस तरह निर्देशित करने की आवश्यकता है कि विकास नैतिक मूल्यों के साथ हो। मानवाधिकारों का सम्मान किया जाए और जोखिमों और संभावित नुकसान को कम करते हुए ही सामाजिक लाभ को अधिकतम करने में एआई को सहायक बनाया जाए।
फ्लैट नं.-3, ब्लॉक नं.-21, दक्षिण पूर्व रेलवे ऑफिसर्स कॉलोनी, 11, गार्डनरीच रोड, कोलकाता-700043 मो.8902060051
कल्पना से परे भविष्य को आकार देती हैं बुद्धिमान मशीनें |
ज्योत्स्ना डोंगरदिवे कंप्यूटर विज्ञान और सूचना एवं संचार तकनीकी विषयों की जानकार। एआई, मशीन लर्निंग, कंपाइलर डिजाइन और बायोइनफॉर्मेटिक्स क्षेत्र में विशेषज्ञता। मुंबई विश्वविद्यालय में कंप्यूटर साइंस विभाग की अध्यक्ष। |
कृत्रिम मेधा (एआई) हमारे वर्तमान और भविष्य को आकार देने वाली एक अपरिहार्य शक्ति बनती जा रही है। वह अपने समय की तमाम संभव कल्पनाओं की सीमा पार कर गई है। इस अन्वेषण यात्रा में अपने समय और जीवन में कृत्रिम मेधा की रूपरेखा बनाना, इसकी शुरुआती परिकल्पनाओं पर दृष्टिपात करना और इसकी मूर्त अभिव्यक्तियों के बीच वैचारिक खाइयों को पाटना जरूरी है। निश्चय ही कृत्रिम मेधा में गहन परिवर्तनकारी शक्ति निहित है जो शैक्षिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में विकास और नवाचार के अभूतपूर्व अवसर लेकर आ रही है।
अवधारणा से वास्तविकता तक
अब तक विज्ञान कथाओं के रहस्य में डूबा रहने वाला आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधुनिक युग में एक मूर्त वास्तविकता के रूप में उभर रहा है। अपने मूल रूप में एआई वस्तुतः मशीनों को मानवाकर संज्ञानात्मक क्षमताओं से युक्त करनेके ऐसे उपायों और उपचारों की खोज करता है जो इन मशीनों को समझने, तर्क करने और स्वायत्त रूप से कार्य करने में सक्षम बनाते हैं। दैनिक कार्यों को सुव्यवस्थित करने वाली आभासी सहायक युक्तियों से लेकर जटिल इलाकों में नेविगेट करने वाले स्वायत्त वाहनों तक आज कृत्रिम मेधा हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ घनिष्ठता से जुड़ रही है। परिभाषिक दृष्टि से यह केवल स्वचालन तक सीमित न रहकर एक ऐसी व्यापक तकनीकी है जिसमें डेटा-संचालित अंतर्दृष्टि और कम्प्यूटेशनल कौशल का संश्लेषण शामिल है।
कृत्रिम मेधा की परिवर्तनकारी शक्ति : शैक्षिक और व्यावसायिक सीमाएं
शैक्षिक और व्यावसायिक परिदृश्य में एआई का एकीकरण ज्ञान और वाणिज्य के प्रति हमारे दृष्टिकोण और उसके साथ जुड़ने के हमारे तरीकों में एक युगांतरकारी बदलाव ला रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में एआई सीखने के व्यक्तिगत अनुभवों के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। यह शैक्षिक सामग्री को व्यक्तिगत आवश्यकताओं और सीखने के निजी तरीकों के अनुरूप बनाता है। अनुकूलन-योग्य एल्गोरिदम और पूर्वानुमान-योग्य विश्लेषण के माध्यम से शिक्षक अधिक गतिशील और समावेशी शिक्षण परिवेश का निर्माण कर सकते हैं। वे विद्यार्थियों की क्षमताओं और कमजोरियों की पहचान के लिए एआई की ताकत का उपयोग कर सकते हैं। इसके अलावा एआई-संचालित प्लेटफॉर्म विश्वव्यापी स्तर पर ज्ञान के प्रसार के साथ ही पहले से अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक रूप में शिक्षा तक लोगों की पहुंच को आसान बनाने की सुविधा प्रदान करते हैं।
इसी तरह व्यवसाय के क्षेत्र में एआई नवाचार और प्रतिस्पर्धी लाभ की आधारशिला रखता है। आपूर्ति शृंखला-प्रबंधन का अनुकूलन करने वाले पूर्वानुमानित विश्लेषण से लेकर ग्राहकों के साथ जुड़ाव को सुविधाजनक बनाने वाले प्राकृतिक भाषा संसाधन तक, एआई विभिन्न क्षेत्रों में संगठनात्मक क्षमताओं को बढ़ाता है। उद्यमिता- केंद्रित सूक्ष्मबोध के साथ एआई-संचालित अंतर्दृष्टि बाजार की गतिशीलता को नेविगेट करने और उभरते अवसरों का लाभ प्राप्त के लिए स्टार्टअप और अन्य उद्यमों को समान रूप से सशक्त बनाती है।
इसके अलावा, एआई-संचालित स्वचालन व्यावसायिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करता है। वह अधिक रणनीतिक प्रयासों के मोर्चे पर काम करने से मानव मेधा को मुक्त करते हुए दक्षता और उत्पादकता बढ़ाता है। संक्षेप में, एआई की परिवर्तनकारी शक्ति कल्पना की सीमाओं से परे है। बौद्धिक अन्वेषण की इस यात्रा में मानवीय सरलता और मशीनी बुद्धिमत्ता का सुनियोजन एक ऐसे भविष्य की आश्वस्ति है, जहां सीमारेखाएं धुंधली पड़ जाती हैं और संभावनाओं का अनंत आकाश फैला दिखाई देता है।
मानव–रोबोट इंटऱफेस : मनोवैज्ञानिक और सामाजिक निहितार्थ
कृत्रिम बुद्धिमत्ता के विकासशील परिदृश्य में, मनुष्यों और रोबोटों के बीच का अंतर्संबंध वस्तुतः वायदे और जोखिम दोनों का संश्लिष्ट प्रतीक है। जैसे-जैसे हम मानवाभ रोबोट एकीकरण के क्षेत्र की गहराइयों में उतरते हैं, हमें असंख्य चुनौतियां सामने दिखाई देती हैं जो तकनीकी नवाचार से परे मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आयामों तक फैली हुई हैं। रोबोटिक्स क्षेत्र में हो रही प्रगति कृत्रिम मेधा और मानव मेधा के बीच की सीमाओं को धुंधला कर देती है। अनिश्चितताओं से भरे इस क्षेत्र में अवधारणात्मक सीमाओं से लेकर नैतिक विचारों तक, बहुआयामी चुनौतियां हैं। चेहरे के हाव-भाव से लेकर शारीरिक अंग-भंगिमाओं तक, मानव व्यवहार की तमाम बारीकियां मशीनों और मनुष्यों के बीच की दूरी को पाटने मे लगे रोबोटिक इंजीनियरों के लिए एक कठिन चुनौती प्रस्तुत करती हैं। इसके अलावा मानवाभ रोबोट एकीकरण के नैतिक निहितार्थ बड़े हैं, जो अस्मिता की पहचान, व्यक्ति की स्वायत्तता और मानवीय अनुभव-बोध की शुचिता के बारे में विचारणीय सवाल और आपत्तियां उठाते हैं।
मानव कल्याण और सामाजिक गतिशीलता पर प्रभाव :
बुद्धिमान मशीनें हमारे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मौजूद हैं। वे हमारी भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक दशा पर गहरा प्रभाव डालती हैं। साहचर्य से लेकर देखभाल तक, मानवाभ रोबोट सदियों पुरानी चुनौतियों का नया समाधान पेश करते हैं। वे इस प्रक्रिया में हमारे रिश्तों और सामाजिक संरचनाओं को नया आकार देते हैं। मानवाभ रोबोट का आगमन तेजी से डिजिटल होती दुनिया में मानवता के सार और पारस्परिक संबंधों की प्रकृति पर सवाल उठाता है। चूंकि हम पारंपरिक रूप से मनुष्यों के लिए निर्धारित कार्यों को बुद्धिमान मशीनों को सौंपते हैं, इसलिए हम मानवीय संपर्क के ताने-बाने को कमजोर करने और इस प्रक्रिया में सहानुभूति और विश्वसनीयता को नष्ट करने का जोखिम भी उठाते हैं। इसके अलावा, मानवाभ रोबोट के प्रसार से मौजूदा सामाजिक विभाजन के बढ़ने का खतरा है, जिससे तकनीकी रूप से विशेषाधिकार प्राप्त और हाशिए पर मौजूद लोगों के बीच अंतर बढ़ है।
नैतिक विचार और सामाजिक–आर्थिक बदलाव
जैसे-जैसे बुद्धिमान मशीनें हमारे जीवन में गहराई तक प्रवेश करती हैं, नैतिक विचार और सामाजिक-आर्थिक बदलाव हमारे विमर्श का महत्वपूर्ण बिंदु बनकर उभरते हैं। मानव अस्तित्व के विभिन्न क्षेत्रों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का एकीकरण मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के संरक्षण को लेकर बड़े सवाल उठाता है। मानवीय क्षमताओं को बढ़ाने और सामाजिक प्रगति को सुविधाजनक बनाने का वादा करने के बावजूद एआई व्यक्तिगत गरिमा और समाज के स्थापित मानदंडों और नैतिक ढांचे के लिए कठिन चुनौतियां भी प्रस्तुत करता है। इसके केंद्र में गोपनीयता, स्वायत्तता और लाभ तथा भार के समान वितरण से जुड़ी चिंताएं हैं।
जैसे-जैसे एल्गोरिदम निर्णय लेने की प्रक्रियाओं पर प्रभाव बढ़ा रहा है, पारदर्शी और जवाबदेह एआई शासन की आवश्यकता अनिवार्य हो गई है। इसके अलावा एआई सिस्टम के भीतर कोडित पूर्वग्रह और भेदभाव से सुरक्षा के लिए नैतिक निरीक्षण और नियामक ढांचे की जरूरत है। मानवीय गरिमा और समानता को बढ़ावा देने लिए एआई की परिवर्तनकारी शक्ति का उपयोग करने से हम भविष्य की उन संभावनाओं का द्वार खोल सकते हैं जहां वह तकनीकी शोषण के बजाय सशक्तिकरण के उपकरण के रूप में कार्य करेगी।
बेरोज़गारी बनाम नवप्रवर्तन : तकनीकी विस्थापन की दुविधा
एआई-संचालित स्वचालन (ऑटोमेशन) जीविकाओं के भविष्य और मानव श्रम के विस्थापन के बारे में गहरी चिंताएं लेकर आता है। जैसे-जैसे बुद्धिमान मशीनें रोजमर्रा से लेकर संज्ञानात्मक तक के कार्यों में मनुष्यों से बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं, व्यापक बेरोजगारी का खतरा मंडरा रहा है। अगर एआई-संचालित स्वचालन वास्तव में पारंपरिक रोजगार प्रतिमानों को बाधित करता है तो यह नए नौकरी बाजारों और आर्थिक अवसरों के उद्भव की शुरुआत भी करता है। डेटा साइंस और मशीन लर्निंग इंजीनियरिंग से लेकर एआई एथिक्स और गवर्नेंस तक, एआई से संबंधित क्षेत्रों में विशेष विशेषज्ञता की मांग लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा, यह स्वास्थ्य देखभाल, वित्त और परिवहन जैसे पारंपरिक उद्योगों के साथ एआई का अंतर्संबंध अंतःविषय-सहयोग और कैरियर विकास के लिए नए रास्ते खोलता है। विभिन्न कार्यों को स्वचालित करके और मानवीय क्षमताओं को बढ़ाकर, बुद्धिमान मशीनें अधिक रचनात्मक और रणनीतिक प्रयासों के लिए मानव पूंजी को मुक्त करती हैं। इसके अलावा, एआई उपकरणों और प्रौद्योगिकियों का लोकतंत्रीकरण व्यक्तियों और संगठनों को अभूतपूर्व तरीकों से नवाचार करने और मूल्य बनाने के लिए सशक्त बनाता है।
कृत्रिम मेधा बनाम मानव प्रतिभा
एआई और मानव रचनात्मकता के बीच जारी संवाद में हम एक गतिशील परस्पर क्रियात्मकता देखते। नवाचार और कल्पना के भविष्य को आकार देती है। मानव और कृत्रिम मेधा का बौद्धिक संघर्ष दो प्रमुख आयामों में सामने आता है- स्वचालन से परे मानव कल्पना का भविष्य और मानव-रोबोट संपर्क की निरंतर विकसित होती गतिशीलता। जैसे-जैसे बुद्धिमान मशीनें मानव प्रतिभा के लिए पहले से आरक्षित कार्यों को खुद स्वचालित करना विस्तृत करती जाती हैं, मानव रचनात्मकता और कल्पना के भविष्य के बारे में सवाल उठने लगते हैं। एक ओर एआई प्रक्रियाओं को अनुकूलित करने और मौजूदा डेटा के आधार पर समाधान उत्पन्न करने में उत्कृष्टता रखता है, तो वहीं मानव रचनात्मकता का सार ही अज्ञात की कल्पना करने और ज्ञान की पारंपरिक सीमाओं को पार करने की क्षमता में निहित है। इस दृष्टि से मानव जीवन की परिधि में एआई का आगमन मानव रचनात्मकता के लिए खतरा नहीं बल्कि इसके विकास के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है।
मानव कल्पना का भविष्य एआई के साथ परस्पर प्रतिस्पर्धा में नहीं, बल्कि सहजीवन में निहित है, जहां बुद्धिमान मशीनें मानवता की रचनात्मक क्षमताओं को बढ़ाती हैं। जैसे-जैसे एआई सिस्टम अधिक परिष्कृत होते जा रहे हैं, मानव निर्णय और मशीन निर्णय के बीच की रेखाएं धुंधली होती जा रही हैं। इससे जवाबदेही और पारदर्शिता के बारे में नैतिक दुविधाएं बढ़ रही हैं।
एआई को लेकर वैश्विक धारणाएं
कृत्रिम बुद्धिमत्ता से जुड़े वैश्विक विमर्शों में, धारणाओं और भावनाओं का एक ऐसा स्पेक्ट्रम उभरता है जो बुद्धिमान मशीनों की परिवर्तनकारी क्षमता के बारे में आशावाद और चिंता दोनों को दर्शाता है। एआई स्पेक्ट्रम के केंद्र में आशावाद और चिंता के बीच एक नाजुक संतुलन है, जो मानव समाज पर बुद्धिमान मशीनों के प्रभाव को लेकर दो अलग दृष्टिकोणों को दर्शाता है। एआई को लेकर आशावादी नजरिए के बीच इसके संभावित नुकसान और अनपेक्षित परिणामों से जुड़ी वैध चिंताएं छिपी हुई हैं। नौकरी में विस्थापन और आर्थिक असमानता की आशंकाओं से लेकर गोपनीयता और स्वायत्तता को लेकर उभरती नैतिक दुविधाओं तक, एल्गोरिदम-पूर्वग्रह और दुरुपयोग की आशंकाएं बुद्धिमान मशीनों की अपरिमित ताकत को सवालों के घेरे में ला खड़ा करती हैं।
जैसे-जैसे हम बुद्धिमान मशीनों द्वारा परिचालित एक नए युग की दहलीज पर खड़े होते हैं, सीमाओं से परे एक परस्पर सहयोगी भविष्य को आकार देने की अनिवार्यता अधिक प्रासंगिक हो जाती है। दरअसल एआई के युग में सहयोगात्मक भविष्य की ओर यात्रा प्रौद्योगिकी, समाज और मानवता के बीच जटिल अंतरसंबंध की सूक्ष्म समझ की मांग करती है। इस दिशा में की जाने वाली कोशिशों के लिए नैतिक सिद्धांतों, समावेशी नवाचार और जिम्मेदार शासन के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बुद्धिमान मशीनें विभाजन और नुकसान के उपकरणों के बजाय सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम करेंगी।
एआई के विकास और तैनाती में ऐसे नैतिक विचारों को सबसे आगे रहना चाहिए जो मानवीय गरिमा, समानता और न्याय को बनाए रखने वाले परिणामों की दिशा में हमारे कार्यों और निर्णयों का मार्गदर्शन करें। गोपनीयता और स्वायत्तता की रक्षा करने से लेकर एल्गोरिदम-पूर्वग्रह को कम करने और पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने तक, नैतिक सिद्धांत एक ऐसे भविष्य की दिशा में आलोक स्तंभ के रूप में काम करते हैं जहां एआई पूरी मानवता को लाभ पहुंचा सकता है।
(अनुवाद एवं पाठ संपादन : प्रस्तुतिकर्ता)
अध्यक्ष, कंप्यूटर विज्ञान विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, विद्यानगरी, सांताक्रूज (पू.), मुंबईई–मेल : jyotss.d@gmail.com
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