केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के सूचना एवं भाषा प्रौद्योगिकी विभाग में सहायक प्रोफेसर (भाषाविज्ञान)।
भारत का विविधतासंपन्न भाषाई मानचित्र सोच-विचार और काम करने की कुछ न कुछ गुंजाइश हमेशा बनाए रखता है। भारतीय भाषाओं की ऐतिहासिक परंपराएं, उनके परस्पर संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक भावसूत्र एक वृहत्तर भारतीय भाषा क्षेत्र की संकल्पना को मजबूत करते हैं। हालांकि यह संकल्पना जितनी मजबूती और मुखरता के साथ हमारे अकादमिक विमर्श और भाषिक व्यवहार में स्पंदित होनी चाहिए थी, वैसे हुई नहीं।
भाषाई राजनीति के अपने ब्लेम गेम हैं और चक्की में अंततः बोली-भाषाएं ही पिसती रही हैं। एक लिहाज से देखा जाए तो भाषाओं के उदय से लेकर अवसान तक उनका जीवन क्रम मानव जीवन जैसा ही है। उनके अजर-अमर होने की अपेक्षा अनुचित है। उनको जबरदस्ती जिलाए रखने की जिद, अंततः भाषाओं की ममी बनाने और उन्हें अजायबघर में सजाने से ज्यादा कुछ नहीं! लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किसी इंसान, पेड़ या नदी की तरह एक जीवित प्रणाली होने के बावजूद बोलियों और भाषाओं को किसी वजह से, या फिर बेवजह ही वंचित, अभावग्रस्त रखा जाए और मरने दिया जाए- कभी चुपचाप तो कभी चीख-चिल्लाकर!
भाषाओं के अध्ययन-अनुसंधान, सर्वेक्षण और प्रलेखन की अनेक प्रविधियां समय-समय पर विकसित हुई हैं। उनके अपने-अपने गुण-दोष भी हैं परंतु समय और समाज की जरूरत के अनुसार भाषाओं के जीवन की सभी संभावनाओं को, जहां तक संभव हो और जितना अपेक्षित हो उतनी दूर तक और उतना लंबा ले जाना एक मानवीय जिम्मेदारी है। भाषाओं की उत्तरजीविता (सर्वाइवल) में अस्मिता का संघर्ष एक अलग ढंग की भूमिका निभाता है। कभी यह वर्चस्व के हथियार की तरह काम करता है, तो कभी जीने की जिद की तरह।
यह देखने की जरूरत है कि भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के जो भी तौर-तरीके, उपकरण और संसाधन हमारे पास हैं, उनका न केवल हमारी अकादमिक-सामाजिकी के सांचे में इस्तेमाल किया जाए बल्कि समय-समय पर उनकी जांच-परख भी हो, ताकि जिस काम के लिए वे बने हैं, उसमें उनका बेहतर इस्तेमाल हो सके।
भाषाओं के सर्वेक्षण, संरक्षण और प्रलेखन की अपनी व्यवस्थित सैद्धांतिकी है लेकिन अधिकतर मामलों में, खास तौर पर भारतीय भाषाओं के मामले में यह ज्यादातर सैद्धांतिकी की उठा-पटक या उलट-पलट बनकर रह जाती है। इसका व्यावहारिक इस्तेमाल या उपादेयता बहुत सीमित है।
विशाल भारतीय भाषा क्षेत्र में पिछले लगभग डेढ़ सौ सालो में ले-देकर हुआ इकलौता सरकारी भाषा सर्वेक्षण (एलएसआई-1894) और हर दशक में सीमित तरीके से निपटाए जाने वाले भाषा-जनांकिकी सर्वेक्षण इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि भाषाओं को लेकर हमारी समझ और संवेदना कितनी गहरी है! बावजूद इसके कि हमारे पास अपने समय के बेहतरीन भाषाविज्ञानी रहे हैं और भाषा सर्वेक्षक-प्रलेखक भी।
भारत की जनगणना के हर दशक-खंड में भाषाई जनांकिकी के आंकड़ों का सबसे बाद में प्रकाशन अपने-आप में बहुत सारे सवाल खड़े करता है। यह भाषाई नियोजन और विकास की गति को भी प्रभावित करता है। इसी दौरान, बांग्ला अस्मिता के मुक्तिबोध के साथ आधी सदी पहले खड़े होने वाले पड़ोसी राष्ट्र-राज्य की हलचलों में निहित भाषा विमर्श के नए सबक भी तलाशने की जरूरत है।
इन तमाम भाषाई परिस्थितियों और विडंबनाओं के बीच भारतीय भाषाओं के विकास से जुड़े मुद्दों पर पुनर्विचार जरूरी जान पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का संदर्भ इस चिंतन विमर्श को एक अतिरिक्त आधार देता है। इस पृष्ठभूमि में भाषा नीति पर चिंतन, भाषा सर्वेक्षण-प्रलेखन और समाज भाषाविज्ञान जैसे विषय में सक्रिय देश के कुछ ख्यातिप्राप्त विशेषज्ञ विद्वानों के साथ यह परिचर्चा आयोजित की गई है।
21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर भाषा के व्यापक प्रश्नों पर आयोजित इस परिचर्चा का केंद्रीय मुद्दा है- ‘भारतीय भाषाओं के सामने चुनौतियां’। परिचर्चा के प्रश्न और उनके उत्तर में विद्वानों से प्राप्त अभिमत आगे दिए जा रहे हैं।
सवाल
(1)भारतीय भाषा क्षेत्र के विविधतापूर्ण मानचित्र का वर्णन आप कैसे करना चाहेंगे? इसमें मौजूद भाषाई अंतःसूत्रता और भाषाई अवरोधकों के बारे में आपके विचार क्या हैं?
(2)भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की प्रमुख जरूरतें और इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तौर-तरीके क्या हैं? आपने जिस भाषा क्षेत्र में विशेष रूप से कार्य किया है, वहां आपके अनुभव किस प्रकार के रहे हैं?
(3)भारत की भाषाई राजनीति अपने बहुभाषिक परिवेश से किस प्रकार जुड़ी रही है? इसने किस तरह की भाषा समस्याएं और और जटिलताएं पैदा की हैं?
(4)बहुभाषिक भारत मे भाषाई नियोजन से संबंधित सरकारी और गैर-सरकारी पहलों, उनकी उपलब्धियों और कमियों के बारे में कुछ बताएं।
(5)भारत के जनांकिकी सर्वेक्षणों के अंतर्गत भाषाई डाटा संकलन में किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है? इसके लिए भाषाविज्ञान की किन शाखाओं का अध्ययन जरूरी है?
(6)भारत की विभिन्न भाषाओं के परस्पर संबंध को आप किस नजरिए से देखते हैं, विशेष रूप से विभिन्न संपर्क भाषाओं की मौजूदगी को? इस संदर्भ में हिंदी-अंग्रेजी और अन्य संभावित भाषाओं के बीच आपसी वर्चस्व, द्वंद्व और विकल्पन की स्थितियां भविष्य में किस तरह की हो सकती हैं?
(7)आपके विचार से राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और इससे पहले की शिक्षा नीतियों में उल्लिखित भाषा संबंधी मंतव्यों और दिशा-निर्देशों की उपलब्धियां और कमियां क्या हैं?
(8)परिचर्चा से संबंधित कोई अन्य प्रासंगिक पहलू जिसका आप उल्लेख करना जरूरी समझते हैं।
समावेशी भाषा योजना और विकेंद्रीकरण से संवरेगा भारतीय भाषाओं का भविष्य |
![]() कवि–भाषाविद्–निबंधकार और अनुवाद–चिंतक। वर्तमान में गुड़गांव में एमिटी विश्वविद्यालय हरियाणा के एमिटी सेंटर फॉर लिंग्विस्टिक स्टडीज (एसीएलआईएस) में चेयर–प्रोफेसर। |
(1)अक्सर भारतीय बहुभाषिकता का वर्णन लोग ‘अनेकता में एकता’ जैसी स्टीरियोटाइप उक्तियों के जरिए करते हैं। इस विषय में मेरी राय सुनीति कुमार चटर्जी से मिलती-जुलती है। हालांकि कई हजार साल से एक साथ रहने के कारण भारतीय भाषाओं ने एक-दूसरे से काफी आदान-प्रदान किया है, फिर भी इन सबने अपनी पहचान को भी बनाए रखा है। अक्सर इसको समझने के लिए इनके आपसी संबंध को ‘हारमोनी ऑफ कंट्रास्ट’ अथवा ‘विरोधाभास में भी सामंजस्य’ के रूप में देखा जा सकता है। अब सवाल यह हो सकता है कि विरोध या अवरोध का स्रोत क्या है? क्यों कुछ भाषाएं बाजार में अन्य भाषाओं के मुकाबले में अधिक सफल हैं? दरअसल यह सफलता अकसर उस भाषा के लेखक, पाठक, प्रकाशक, शिक्षक और सबसे अधिक उसके बोलने वाले आम जन पर निर्भर करती है कि वे अपनी मातृभाषा के लिए क्या और कितना कुछ कर सकते हैं? भाषाओं के लिए बाधक भी बाजार है और सहायक तत्व भी बाजार है। इसमें उस भाषा के संचार माध्यम, रंगमंच, संगीत, टेलीविजन और फिल्म की भी अच्छी खासी भूमिका है।
(2)भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन का तौर-तरीका समझने के लिए आपको देखना पड़ेगा कि आप किस तरह की भारतीय भाषाओं के बारे में सोच रहे हैं? कुछ वे हैं जो अपनी परंपरा या अपनी धरोहर के बारे में परवाह नहीं करते हैं। इसलिए भी कि वे मानकर चलते हैं कि संरक्षण का काम सरकार का है, उनका काम मात्र उस भाषा में लिखना-बोलना है। कुछ लोग यहां तक कहते हैं कि जब कोई डूबता है तभी उसको बचाने का प्रयास दिखाई देता है। भाषाओं के पोषण और संरक्षण की यह धारणा बहुत हद तक एकांगी है।
विश्व की बहुत-सी भाषाओं में प्राकृतिक भाषा संसाधन (एनएलपी) विशेषज्ञों द्वारा कई ऐसे प्रकल्प निर्मित किए गए हैं और संचालित किए जा रहे हैं, जिनसे उनके भाषाई डेटा का संरक्षण इस तरह से होता रहता है कि उसमें यथासमय प्रॉपर टैगिंग होती रहे ताकि जरूरत पड़ने पर उसे आसानी से पुनःप्राप्त (रिट्रीव) किया जा सके। मैंने अपने फ़्रांसीसी सहयोगियों द्वारा फ्रेंच भाषा के संरक्षण के लिए बनाई गई टेक्नोलॉजी को देखकर यही सीखा है। मेरा एनएलपी का काम अधिकतर बांग्ला और कुछ हद तक हिंदी पर है। स्थिति यही है कि भारत में इसको लेकर नई टेक्नोलॉजी और जागरूकता हाल में ही आई है।
(3)किसी राजनेता से पूछिए तो वह यही कहेंगे कि राजनीति बहुजनहिताय और बहुजनसुखाय को ध्यान में रख कर की जाती है, लेकिन किसी क्षेत्र में अत्यधिक उदात्त और जीवंत पात्रों को छोड़ देंगे तो वे आपस में भिड़ते हुए दिखाई देंगे। सामान्यतः सभी राष्ट्रों के संदर्भ में भाषाई राजनीति यही तय करने की कोशिश करती है कि कौन-कौन सी भाषाएं प्रशासन की भाषा बनेंगी? किन-किन भाषाओं में पठन-पाठन की सुविधा होगी और उसके लिए सामग्री बनेगी? आदि-आदि। ऐसी राजनीति में किसी भाषा के बोलने वालों की संख्या, उनका अपना सामाजिक स्थान (वर्चस्व) और प्रशासन में उनका कितना दखल या पेनेट्रेशन है- इन सब बातों पर निर्भर करता है कि कौन बनेगा सिकंदर? राजनीति के इतिहास में ऐसा भी हुआ है कि अत्यंत जागरूक अल्पसंख्यक भाषा-भाषी भी अपने लिए वह सब हासिल कर पाए जो अन्य लोग नहीं कर पाए।
(4)बहुभाषिक भारत में भाषाई नियोजन से संबंधित सरकारी और गैर-सरकारी पहल की उपलब्धियां और कमियां क्या-क्या रही होंगी- यह एक अहम मुद्दा है। बहुभाषी भारत में भाषा-नियोजन एक जटिल प्रक्रिया से गुजरता है जिसमें विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी पहलें शामिल हैं। इनका उद्देश्य भाषाई विविधता को संबोधित करना, राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना और समान भाषा विकास को सुनिश्चित करना है।
भारत में भाषाई नियोजन से जुड़ी कुछ प्रमुख पहलों, उनकी उपलब्धियों और कमियों को आप इस प्रकार देख सकते हैं:
महत्वपूर्ण पहल :
त्रि-भाषा फॉर्मूला (1950-1960) ः इसे कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तावित किया गया था। पहली बात, इस नीति में तीन भाषाओं को सीखने पर जोर दिया गया। दूसरी बात क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा से संबंधित है : हिंदी (गैर-हिंदी भाषी राज्यों के लिए) या कोई अन्य भारतीय भाषा (हिंदी भाषी राज्यों के लिए)। और, अंग्रेजी या कोई अन्य आधुनिक भाषा।
राजभाषा अधिनियम (1963) : आधिकारिक उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी के निरंतर उपयोग की अनुमति देते हुए हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया।
अनुसूचित और शास्त्रीय भाषाओं का प्रचार : संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 अनुसूचित भाषाओं को मान्यता दी गई है। इससे उनके विकास के लिए संसाधन आवंटन की सुविधा हुई, जैसे इन भाषाओं में पाठ्य पुस्तकें और साहित्य प्रकाशित होने लगा।
राष्ट्रीय अनुवाद मिशन-एनटीएम (2008) : इसका उद्देश्य भाषाई पहुंच को बढ़ावा देने के लिए शैक्षिक और साहित्यिक सामग्रियों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करना है।
राज्य-स्तरीय पहलें : तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों ने शिक्षा और मीडिया के माध्यम से अपनी क्षेत्रीय भाषाओं की रक्षा और प्रचार करने के लिए नीतियां विकसित कीं।
गैर सरकारी संगठनों और सांस्कृतिक संगठनों की भूमिका : साहित्य अकादमी जैसे संगठनों और गैर-लाभकारी संस्थाओं ने लुप्तप्राय भाषाओं को संरक्षित करने, अनुसंधान करने और भाषाई विविधता का जश्न मनाने के लिए सक्रिय रूप से काम किया।
उपर्युक्त की उपलब्धियां
भाषाई विविधता का संरक्षण : 22 अनुसूचित भाषाओं की मान्यता ने उनके अस्तित्व और विकास में योगदान दिया।
राष्ट्रीय एकीकरण : त्रिभाषा सूत्र और द्विभाषी नीतियों ने क्षेत्रीय पहचान का सम्मान करते हुए राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा दिया।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष : साहित्य अकादमी जैसे संस्थानों ने कई भारतीय भाषाओं में साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया।
शिक्षा की पहुंच : क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्य पुस्तकों और शैक्षणिक सामग्री के बढ़ते प्रकाशन ने विविध भाषाई समूहों के लिए शिक्षा की सुविधा प्रदान की।
कमियां और कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियां:
त्रिभाषा फार्मूले को कई राज्यों में विरोध का सामना करना पड़ा, विशेषकर तमिलनाडु में, जिसने ‘हिंदी को थोपने’ का विरोध किया।
गैर-अनुसूचित भाषाओं की उपेक्षा : कई अल्पसंख्यक और आदिवासी भाषाएं, जो आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं, संसाधनों की कमी और विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हैं।
संसाधन आवंटन में असमानता : हिंदी और अंग्रेजी जैसी भाषाओं को क्षेत्रीय और अल्पसंख्यक भाषाओं की तुलना में असंगत प्रोत्साहन और धन मिलता है।
नीति में विखंडन : केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय की कमी के परिणामस्वरूप असमान भाषा नियोजन परिणाम सामने आए हैं।
गैर-सरकारी संगठनों का सीमित प्रभाव : गैर-सरकारी प्रयास अक्सर कम वित्त पोषित और स्थानीयकृत होते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर उनकी प्रभावशीलता सीमित हो जाती है।
(5) सबसे पहले, भारत के जनगणना सर्वेक्षणों में भाषाई डेटा संग्रह में सुधार के लिए यह जरूरी है कि भाषाई डेटा संग्रह की एक उद्देश्यपूर्ण अंतर्दृष्टि विकसित की जाए। इस कार्य-प्रक्रिया की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए विभिन्न भाषावैज्ञानिक अध्ययन क्षेत्रों और प्रविधियों का लाभ लिया जाए। डेटा संकलन में सटीकता, समावेशिता और व्यष्टिपरकता (ग्रेन्युलैरिटी) के मुद्दों पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
जैसे, देखा गया है कि सर्वेक्षण के दौरान कई भाषाओं को व्यापक श्रेणियों में शामिल कर लिया गया, यानी बोलियों को एक प्रमुख भाषा के हिस्से के रूप में वर्गीकृत किया गया। इसके परिष्कार के लिए जरूरी होगा कि सूचकों या उत्तरदाताओं को उनकी बोलियां या क्षेत्रीय भाषिक भेद निर्दिष्ट करने की अनुमति दी जाए। भाषाई विविधता को सटीक रूप से पकड़ने के लिए क्षेत्रीय नामों के साथ विस्तृत सूचियां बनाई जाएं। अल्पसंख्यक और जनजातीय भाषाओं को अक्सर कम महत्व दिया जाता है या उन्हें अन्य के रूप में एक साथ समूहीकृत किया जाता है।
इस संदर्भ में लुप्तप्राय भाषाओं सहित मान्यता प्राप्त भाषाओं की एक व्यापक, अद्यतन सूची प्रदान की जाए और उन्हें सर्वेक्षण में शामिल किया जाए। यह भी देखा गया है कि उत्तरदाता अक्सर माध्यमिक या तृतीयक भाषाओं की रिपोर्ट नहीं करते हैं। इससे बहुभाषावाद का उचित आकलन नहीं हो पाता। इसके लिए चाहिए कि बोली जाने वाली अतिरिक्त भाषाओं, उनके प्रवाह स्तर और उपयोग संदर्भों (घर, कार्यस्थल, शिक्षा आदि) के लिए स्पष्ट फील्ड-सूचना प्रपत्र में जोड़े जाएं।
जनांकिकी के अंतर्गत भाषा-प्रयोग संबंधी प्रश्नों का एकीकरण करने की भी जरूरत है। इस संदर्भ में वर्तमान फोकस मुख्य रूप से मातृभाषा या प्रथम भाषा पर है। इसे और विविधताओं के साथ संरचित करने की जरूरत है।
सुधार के तौर पर दैनिक जीवन में भाषा के उपयोग, मीडिया उपभोग, शिक्षा और अंतर-पीढ़ीगत भाषा प्रसारण के जुड़े प्रश्नों को शामिल किया जाना उचित होगा।
इस प्रकार के सर्वेक्षणों में डेटा सत्यापन के लिए डिजिटल उपकरणों का इस्तेमान वर्तमान समय की मांग है। मैन्युअल डेटा संग्रह और वर्गीकरण से त्रुटियां संभव हैं। अतः भाषाई डेटा के वास्तविक समय सत्यापन, वर्गीकरण और विश्लेषण के लिए डिजिटल टूल और एआई का उपयोग करना समयानुकूल होगा।
इस कार्य के लिए भाषाविज्ञान की प्रासंगिक अध्ययन शाखाओं में समाज भाषाविज्ञान, व्यतिरेकी विश्लेषण, नृवंशविज्ञान, ऐतिहासिक भाषाविज्ञान, कॉर्पस भाषाविज्ञान, भाषा दस्तावेजीकरण (प्रलेखन) और संरक्षण और मनोभाषाविज्ञान विशेष उपयोगी हैं। भारत की जनगणना में भाषाई डेटा संग्रह में सुधार के लिए अधिक सूक्ष्म, समावेशी और तकनीकी रूप से समर्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। समाज भाषाविज्ञान, बोलीविज्ञान और भाषाविज्ञान की अन्य शाखाओं से अंतर्दृष्टि का लाभ उठाने से भारत के समृद्ध भाषाई परिदृश्य की व्यापक समझ सुनिश्चित होगी। इससे प्रभावी नीति निर्माण और भाषा संरक्षण प्रयासों में सहायता मिलेगी।
(6) भारतीय भाषाएं मुख्य रूप से चार भाषा परिवारों से संबंधित हैं: इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन, ऑस्ट्रो-एशियाटिक और तिब्बती-बर्मन। उनके वंशावली मतभेदों के बावजूद, सदियों के सांस्कृतिक और भाषाई संपर्क ने अभिसरण और साझा विशेषताओं को जन्म दिया है, जिसे अक्सर भारतीय भाषाई क्षेत्र या स्प्राचबंड के रूप में जाना जाता है। इनमें समान ध्वन्यात्मक पैटर्न, रेट्रोफ्लेक्स ध्वनियां और वाक्यात्मक संरचनाएं शामिल हैं।
भारत में बहुभाषावाद व्यापक है। व्यक्ति अक्सर कई भाषाओं में पारंगत होते हैं। शहरी क्षेत्रों में हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के बीच कोड-स्विचिंग आम बात है। हिंदी, भारत के कई हिस्सों में, विशेषकर हिंदी भाषी क्षेत्र में, एक सामान्य भाषा के रूप में कार्य करती है। जबकि अंग्रेजी शिक्षा, प्रशासन और वैश्विक संचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अक्सर विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के बोलने वालों के बीच अंतर को पाटती है। इसके साथ क्षेत्रीय भाषाएं, भाषाई पदानुक्रम और पूरकता की एक जटिल प्रणाली बनाते हुए, स्थानीय संस्कृति और अस्मिताबोध को बनाए रखने में सहायक होती हैं।
भारतीय भाषाओं के भविष्य पर विचार करें तो मोटे तौर पर कुछ संभावनाएं दिखाई देती हैं। पहली संभावना, भाषाई प्रभुत्व या हिंदी-अंग्रेजी के बीच वर्चस्व के मामले में, राष्ट्रीय एवं वैश्विक संदर्भों में कार्यात्मक उपयोगिता के कारण हिंदी एवं अंग्रेजी का संयुक्त प्रभुत्व बढ़ सकता है। इससे शिक्षा और सार्वजनिक चर्चा में क्षेत्रीय भाषाओं के लिए जगह कम हो सकती है।
दूसरी संभावना यह है कि बहुभाषिक भारतीय परिदृश्य में क्षेत्रीय भाषाओं के उभार और मजबूत पहचान आंदोलन विशेष रूप से दक्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी के प्रभुत्व का विरोध कर सकते हैं। यह संभावित रूप से क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता देने वाली नीतियों को जन्म दे सकता है।
तीसरी संभावना, भाषाई ध्रुवीकरण और टकराव को लेकर यह हो सकती है कि गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी थोपने से तनाव बढ़ सकता है, जैसा कि ऐतिहासिक रूप से तमिलनाडु में देखा गया है। यदि भाषा-नीतियों को दमनकारी माना गया तो यह संघर्ष तेज हो सकता है।
चौथी संभावना विभाजनकारी कारक के रूप में अंग्रेजी की भूमिका के उभार के रूप में सामने आ सकती है। शहरी और संभ्रांत इलाकों में अंग्रेजी को प्राथमिकता देने से ग्रामीण और शहरी आबादी के बीच अंतर बढ़ सकता है, जिससे सामाजिक-आर्थिक असमानता और सांस्कृतिक अलगाव की स्थिति पैदा हो सकती है। या फिर सकारात्मक संभावना के तौर पर भाषाई पूरकता की स्थिति देखी जा सकती है।
हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं का त्रिभाषी तालमेल और संतुलित प्रचार एक पूरक प्रणाली को बढ़ावा दे सकता है, जिसमें प्रत्येक भाषा विशिष्ट कार्य करेगी (उदाहरण के लिए, पहचान के लिए क्षेत्रीय भाषाएं, अंतर-राज्य संचार के लिए हिंदी और वैश्विक पहुंच के लिए अंग्रेजी)। इसी क्रम में डिजिटल और सांस्कृतिक एकीकरण की नई कहानी लिखी जा सकती है। प्रौद्योगिकी और मीडिया में प्रगति कई भाषाओं में सामग्री को सुलभ बनाकर, प्रतिस्पर्धा के बजाय उनके सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित करके बहुभाषावाद का समर्थन कर सकती है।
भारतीय भाषाओं के उन्नत भविष्य के बारे में दूरगामी रणनीतिक विचार और नीतिगत दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके तहत दो बातें जरूरी हैं। एक, समावेशी भाषा योजना : ऐसी नीतियां जो भाषाई विविधता का सम्मान करती हैं और अल्पसंख्यक और क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता देती हैं, प्रभुत्व और संघर्ष को कम कर सकती हैं। दूसरा, विकेंद्रीकरण : राज्यों को अपनी भाषा नीतियां निर्धारित करने के लिए सशक्त बनाने से क्षेत्रीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय एकता को संतुलित करने में मदद मिल सकती है। इस संदर्भ में प्रौद्योगिकी गत्यात्मक भूमिका निभा सकती है।
मशीनी अनुवाद, डिजिटल प्लेटफॉर्म और एआई बहुभाषी संचार की सुविधा प्रदान कर सकते हैं और पूरकता को बढ़ावा देते हुए लुप्तप्राय भाषाओं को संरक्षित कर सकते हैं। साथ ही शैक्षिक सुधार के अंतर्गत क्षेत्रीय भाषाओं, हिंदी और अंग्रेजी पर समान जोर देकर बहुभाषी शिक्षा को बढ़ावा देने से भाषाई रूप से संतुलित पीढ़ी का निर्माण हो सकता है।
सारांश रूप में, भारतीय भाषाओं के बीच अंतर्संबंध साझा विरासत और विशिष्ट पहचान दोनों को दर्शाता है। जबकि हिंदी और अंग्रेजी का प्रभाव बरकरार रहने की संभावना है, भाषाई सद्भाव और पूरकता वाला भविष्य उन नीतियों पर निर्भर करेगा जो विविधता और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व को अपनाती हैं। आपसी सम्मान को बढ़ावा देकर, प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर और समाज के हर स्तर पर बहुभाषावाद को प्रोत्साहित करके प्रभुत्व और संघर्ष के जोखिम को कम किया जा सकता है।
एसीएलआईएस (एमिटी सेंटर फॉर लिंग्विस्टिक स्टडीज), एमिटी यूनिवर्सिटी हरियाणा, पचगांव–मानेसर, जिला. गुडगांव, हरियाणा–122413 मो.9830132234
विकास के कालचक्र से जूझ रही हैं हमारी बोलियां और भाषाएं |
![]() प्रसिद्ध भाषाविद और सांस्कृतिक कार्यकर्ता। भारतीय जन भाषा सर्वेक्षण (पीएलएसआई) और आदिवासी अकादमी के संस्थापक। आफ्टर एम्नेसिया (1992) सहित साहित्यिक आलोचना, नृविज्ञान, भाषाविज्ञान और दर्शन जैसे विविध क्षेत्रों में लगभग नब्बे प्रभावशाली पुस्तकों का लेखन और संपादन। सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, बॉम्बे में स्कूल ऑफ सिविलाइजेशन में निदेशक और प्रोफेसर ऑफ एमिनेंस। |
दुनिया भर में मनुष्य अब चुपचाप मानव स्मृति को त्यागने और इसे कृत्रिम मेमोरी चिप से बदलने का इच्छुक है। मनुष्य उस स्मृति से इस नई स्मृति प्रणाली की ओर बढ़ रहा है। इस प्रक्रिया में स्मृति के रूप में जो कुछ जमा हुआ है उसे नष्ट कर रहा है, तोड़-फोड़ कर रहा है और छोड़ रहा है। इसे विकास की प्रक्रिया से संबंधित एक वैश्विक घटना के रूप में सोचें, जहां मनुष्य आभासी को वास्तविक के साथ समायोजित करने में सक्षम है। यद्यपि मनुष्य ने जिसे ‘वास्तविक’ होने की कल्पना की है वह स्वयं आभासी है, जैसा कि दर्शनशास्त्र के कतिपय निश्चित दृष्टिकोणों द्वारा देखा जाता है। जिसे हम वास्तविक मानते हैं उसके संबंध में एक और प्रकार का आभासी है और हम दोनों को एक साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
हम एक नई जगह, समय की एक नई व्यवस्था की तलाश में आभासी और वास्तविक के बीच सहजता से आगे बढ़ना चाहते हैं। हम संभावना और परिणाम के बारे में सकारात्मक तौर पर आश्वस्त हैं। मनुष्य बने रहने के लिए, न कि केवल मशीन, यहां तक कि उस आभासी स्थान और समय (पारंपरिक वास्तविक और नये आभासी को एक साथ जोड़कर) में भी अगर कोई रोबोट या साइबर संसार के प्राणी बनने के बजाय मनुष्य बने रहना चाहते हैं तो हमें उस सामूहिक स्मृति के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील बनना होगा, जिसे हमारे पूर्वजों ने सहस्राब्दियों से संचित किया है। हमें विविधता के विचार के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होना होगा, जो लोकतंत्र का मूल है।
यदि मनुष्य केवल साइबरस्पेस प्राणी, या रोबोट के स्वामी बन जाते हैं, और अपनी विविधता, संवाद और लोकतंत्र खो देते हैं; वे अपने विकास की अब तक की लंबी प्रक्रिया को बर्बाद कर देंगे और प्रजाति को महज एक मशीनी जानवर की स्थिति में वापस ला देंगे।
भाषाएं और राज्य आज एक भयंकर युद्ध में उलझे हुए हैं क्योंकि ये भाषा और विचारों पर व्यापक निगरानी के माध्यम से लोगों को चुप कराना चाहते हैं। राज्य नागरिकों के दिमाग में एक प्रकार का विचार वायरस डालने में रुचि रखता है। इसलिए शब्दों, रूपकों, उत्साह, पागलपन, विचार और स्मृति के उस स्थान की रक्षा करना अत्यंत आवश्यक है।
भारत में मौजूदा भाषाई विविधता की विशाल शृंखला और अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में भाषाओं को दिए जा रहे आधिकारिक समर्थन के बावजूद, देश के भाषा भंडार में तेजी से गिरावट के संकेत दिखाई देने लगे हैं। इस गिरावट के पीछे कई ऐतिहासिक कारक उत्तरदायी प्रतीत होते हैं। जैसे उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान मुद्रण प्रौद्योगिकी ने भारतीय भाषाओं के अस्तित्व पर गहरा प्रभाव डाला। जिन भाषाओं को मुद्रण की सुविधा हासिल हुई उन्हें महत्व प्राप्त हुआ (ऑस्टेन और मैकगिल, 2011) और जो समुदाय इससे अछूते रहे उन्हें भाषाओं के बजाय बोलियों के रूप में संकुचित करके देखा जाने लगा, हालांकि इस तथ्य को सामान्यीकृत ढंग से नहीं लेना चाहिए।
इसके बाद देश में राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया में इस सिद्धांत को लागू किया गया कि कोई भाषा तभी भाषा है, जब उसमें साहित्य छपा हो। जाहिर है बड़ी संख्या में बोलने वालों के बावजूद भोजपुरी या गोंडी जैसी भाषाओं को राज्य की भाषा और स्कूली शिक्षा के लिए उपयुक्त नहीं माना गया। इस प्रकार भाषाई राज्यों के रूप में भारतीय राज्यों के पुनर्गठन ने पहले से ही हाशिये पर पड़ी और ‘गैर-मुद्रित’ भाषाओं को बरबस ‘अल्पसंख्यक’ भाषाओं में बदल दिया।
किसी भाषा की मृत्यु शब्दशः मौन से घिरी होती है। अपने स्वाभाविक रूप में, यह सतही तौर पर दिखाई नहीं देती, और इसीलिए किसी को भी आंदोलित नहीं कर पाती, सिवाय उस सबसे अंतिम भाषा-भाषी के जो इसमें किसी तरह स्पंदन बचे रहने की अनपेक्षित उम्मीद पालता है। जब कोई भाषा जाती है, तो वह सदियों से एकत्रित ज्ञान को अपने साथ लेकर हमेशा के लिए जाती है। प्राकृतिक सृष्टि के विनाश की प्रत्येक घटना के लिए व्यापक सुनामी की आवश्यकता नहीं होती है। किसी नौकरशाह का एक तटस्थ-सौम्य निर्णय भी इसका कारण बन सकता है। यहां तक कि एक नेक इरादे वाली भाषाई जनगणना भी ऐसा कर सकती है!
लोगों के अस्मितामूलक आत्मविश्वास को चाहे बाहर से पहचाना जाए या फिर ‘हाशियाबंद’, ‘अल्पसंख्यक’, ‘आदिवासी’ जैसी स्वघोषित पहचानों के माध्यम से, सभी देशों-महाद्वीपों में इनके मुद्दे लगभग एक जैसे हैं। आदिवासी अपनी प्राकृतिक पनाहगाहों से वंचित और बेदखल हो रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य नागरिक अधिकार इनकी पहुंच से बाहर हैं। इनको आधुनिक विकास की परियोजनाओं की राह में रोड़े की तरह देखा जाने लगा है। विकास के किसी भी पैमाने पर देखा जाए तो ये समुदाय हमेशा अंतिम पायदान पर आते हैं। जो चरवाहे या खानाबदोश समुदायों से जुड़े हैं, उनकी स्थिति और भी बदतर है।
इन सब भारी बाधाओं के बावजूद, जिनके विरुद्ध इन समुदायों को अब तक जीवन संघर्ष करना पड़ता है, यह किसी चमत्कार से कम नहीं कि उन्होंने अपनी भाषाओं को संजोए रखा है और दुनिया की आकर्षक एवं विस्मयकारी भाषाई विविधता में अपना योगदान बनाए रखा है। हालांकि यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही, तो हाशिए पर मौजूद लोगों की भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो जाएगा। वाचाघात या बोली का नुकसान उनकी किस्मत में सुनिश्चित लगता है।
ये कहने में कोई झिझक नहीं कि दुनिया भर में लोग अपनी भाषाई विरासत के मामले में ग्लोबल विकास की भारी कीमत चुका रहे हैं। इस भाषाई स्थिति को ‘आंशिक भाषा अधिग्रहण’ की स्थिति के रूप में वर्णित किया जा सकता है जिसमें एक पूर्ण रूप से साक्षर व्यक्ति, अपेक्षाकृत उच्च स्तर की शिक्षा के साथ, अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य भाषा पढ़ने, लिखने और बोलने में सक्षम होता है, लेकिन जिस भाषा को वह मातृभाषा होने का दावा करता है, वह केवल बोल सकता है, लेकिन लिख नहीं सकता।
(अनुवाद : अनुपम श्रीवास्तव )
188, दूसरा मुख्य, पहला क्रॉस, नारायणपुर, धारवाड़–580008, मो.9427301790
बाइनरी विभाजकताओं से परे है भारतीय भाषाओं का बहुरंगी इंद्रधनुष |
![]() चर्चित कथाकार और लेखक। मुख्यतः आदिवासियों पर लेखन। प्रमुख उपन्यास : ‘ग्लोबल गांव के देवता’, ‘गायब होता देश’। कविता संग्रह : ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ’। पूर्व–निदेशक, डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान (टीआरआई), रांची। |
भारतीय भाषा क्षेत्र के विविधतापूर्ण मानचित्र पर विचार करने पर जो पहली तस्वीर जेहन में उभरती है वह भारोपीय भाषा परिवार बनाम द्रविड़ भाषा परिवार के द्वंद्व समास (बाइनरी) की होती है। इस संदर्भ में पहली रेखांकित करने वाली बात यह है कि यह बाइनरी धारणा औपनिवेशिक काल में एक अवैज्ञानिक नस्लवादी सिद्धांत के आधार पर गढ़ी गई थी। दूसरी बात यह कि विलियम जोन्स ने जिस भाषा परिवार की अवधारणा को हमारे समक्ष रखा, उस भाषा परिवार की अवधारणा ही अम्बर्तों इको की पुस्तक ‘सर्च फॉर परफेक्ट लैंग्वेज’ के अनुसार, बाइबल में उल्लिखित ‘बेबेल’ की मीनार के निर्माण और गॉड की नाराजगी की कहानी पर आधारित थी।
टॉमस आर. ट्रॉटमान ने अपनी पुस्तक ‘लैंग्वेज एंड नैशन : द द्रवीडिइनयन प्रूफ कोलोनियल मद्रास’ में यह माना है कि भाषा परिवार की इस सैद्धांतिकी ने भारत के इतिहास को दो प्रजातियों के इतिहास के रूप में देखने की बुनियाद रख दी थी। इतिहास की बुनियादी शर्त के रूप में नस्ल की इस नई यूरोपीय परिकल्पना का भारतीय इतिहास की व्याख्या पर बहुत गहरा असर पड़ा था।
ट्राटमान ने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘आर्यन और ब्रिटिश इंडिया’ (2008) में यह भी स्पष्ट किया है कि 18 वीं सदी की ‘राष्ट्र और भाषा परियोजना’ का किसी शुद्ध विज्ञान से संबंध नहीं था।
आज जब नस्ल की अवैज्ञानिकता पर एक तरह से सर्व सम्मति है और खुद इसे जन्म देने वाली औपनिवेशिक विचारसत्ता ने नाजियों के होलोकॉस्ट जैसी बर्बरता के बाद इससे पीछा छुड़ा लिया हो, उसी नस्लीय सैद्धांतिकी पर आधारित भाषा परिवार की अवधारणा के साथ हमारे विश्वविद्यालयों के भाषाविज्ञानी क्यों चिपके हुए हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है।
इसलिए भारतीय भाषा क्षेत्र के मानचित्र पर उपर्युक्त बाइनरी से परे हट कर विचार करना होगा तभी भारतीय भाषाओं के सैकड़ों रंगों वाले इस इंद्रधनुष की खूबसूरती से हम सुपरिचित हो पाएंगे। हमें उत्तर भारत की संस्कृत से निःसृत भाषा-बोलियों के अतिरिक्त मध्य एवं पूर्वी भारत की आदिवासी भाषाओं (मुंडारी और द्रविड़), उत्तर-पूर्वी भारत की चीनी-तिब्बती और मुंडारी भाषाओं, हिमालय की तराई की चीनी-तिब्बती भाषाओं के साथ-साथ राजस्थान-गुजरात और मध्य प्रदेश में फैली हुई भील भाषाओं और समस्त दक्षिण भारत की बहुरंगी और अत्यंत संपन्न भाषाओं के बहुविध रंगों से इस मानचित्र को रंगना होगा।
हिंदी के राजभाषा होने पर हम सभी गर्व महसूस करते हैं लेकिन इस गर्व के कारण अनावश्यक श्रेष्ठताबोध और आत्ममुग्धता ने हम हिंदी भाषा-भाषियों को शेष बड़ी आबादी की भाषाओं से बिलकुल अपरिचित बनाए रखा है। यह किसी भी प्रकार से हमारे राष्ट्र-राज्य के भाषाई स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। हमारी इसी अज्ञानता और असंवेदनशीलता के कारण पिछले दशकों में हमारी दर्जनों भाषाएं-बोलियां लुप्त हो गई हैं, उदाहरणार्थ; झारखंड में चेरो, खेरबार, नगेशिया, बेदिया, गोंड आदि आदिवासी समुदाय अपनी बोली-भाषा भूल चुके हैं। कई वर्षों की तलाश के बाद भी इन समुदायों में एक भी व्यक्ति नहीं मिला जो अपनी बोली-भाषा जानता हो।
उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में बैठे हुए भाषाविज्ञानी और सरकारों में बैठे नीति-निर्धारक सभी हिंदी और हिंदी से जुड़ी ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही के अलावा अन्य बोलियों और भाषाओं के प्रति एक गहरी उपेक्षा का भाव रखते हैं। जो उनकी अज्ञानता की उपज है और जिसे स्वीकार करने में उनकी हेठी होती है। आदिवासी भाषाओं के प्रति इनकी अज्ञानता तो चरम अवस्था की है ।
झारखंड में पांच बड़े आदिवासी समुदायों के बीच मध्यमवर्ग के उभरने के बाद संताली, मुंडारी, हो, खड़िया और कुड़ुख जैसी आदिवासी भाषाओं की पढ़ाई विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में 80-90 के दशक से प्रारंभ हुई और ट्रिकल डाउन होकर उच्च विद्यालयों और माध्यमिक विद्यालयों तक पहुंच रही है लेकिन इस राज्य में कुल 32 आदिवासी समुदायों का निवास है जिनमें से 8 अत्यंत कमजोर जनजाति (पीवीटीजी) समुदाय हैं जिनकी जनसंख्या ही कुछ हजारों में सिमट कर रह गई है, यथा : असुर, बिरजिया, बिरहोर, कोरबा, सबर, परहैया, माल पहाड़िया और सौरिया पहाड़िया। पूरे देश में ऐसे ही कुल 75 अत्यंत कमजोर जनजाति समुदाय हैं जिनकी बसावट पहाड़ों के ऊपर या घने जंगलों में है। इनकी जनसंख्या अत्यंत अल्प है और कृषि भूमि के अभाव के कारण आर्थिकी बहुत ही जर्जर। इस कारण इनके विकास के अन्य मानक भी बहुत कमजोर है। इसी क्रम में इनकी भाषाएं भी अब तक अत्यंत अपराधपूर्ण उपेक्षा की शिकार रही हैं।
झारखंड राज्य में स्थित जनजातीय कल्याण शोध संस्थान ने, जिसकी स्थापना 1953 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी ने की थी, पिछले वर्षों में इन आठ समुदायों के बीच से ही किसानों और कुछ पढ़े-लिखे युवाओं के सहयोग से उनकी भाषाओं के व्याकरण और गद्य-पद्य की पुस्तकों का लेखन-प्रकाशन कार्य पूर्ण किया है। राज्य सरकार ने जिला स्तरीय सरकारी नौकरी की परीक्षा में इन भाषाओं में परीक्षा देने की स्वीकृति प्रदान करके एक बड़ा कदम उठाया है क्योंकि बिना रोटी से जुड़े भाषा केवल भावनाओं के आधार पर जिंदा नहीं रहती है।
आर्य बनाम द्रविड़ की नस्लीय बाइनरी ने न केवल भारतीय इतिहास के पन्नों को मटमैला बनाया है बल्कि इसने भाषाई राजनीति को भी घृणा और हिंसा के चरम तक पहुंचाया है। ‘पहचान की राजनीति’ ने हमेशा से ही इस भाषाई राजनीति को हवा देने का काम किया है जिसकी सैद्धांतिकी भाषा परिवार जैसे नस्लीय वर्गीकरण से प्राप्त होती रही है। इसके विपरीत किशोरीदास वाजपेयी, बाबूराम सक्सेना आदि ने भाषाई विकास के जिस स्पेक्ट्रम / कंटिनम सिद्धांत को रेखांकित किया और डॉ. राजकुमार ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता’ में ‘बहता नीर’ शीर्षक आलेख में जिसपर विस्तार से चर्चा की है, भारतीय भाषाओं-बोलियों के उक्त स्पेक्ट्रम/कंटिनम सिद्धांत को भाषाविज्ञानियों ने गंभीरता से क्यों नहीं अपनाया? यह भी एक अत्यंत विचारणीय प्रश्न है। ध्यान देना चाहिए कि इसी स्पेक्ट्रम/कंटिनम सिद्धांत के अनुसार हमारे यहां कुछ-कुछ दूरी (दस कोस-बीस कोस) के बाद बोली-बानी, भाषा का स्वरूप बदलता जाता है और दूसरे प्रांत की सीमा के निकट आते-आते वह अपने मूल से बिलकुल ही भिन्न हो जाता है।
हमारे झारखंड राज्य की संपर्क भाषाओं नागपुरिया, खोरठा, पंचपरनिया, अंगिका आदि में यह कंटिनम सिद्धांत और आंतरिक एकता स्पष्ट दिखती है। बंगाल उड़ीसा की सीमाओं से निकट के गांवों-कस्बों में अनेक मिश्रित बोलियां विकसित हुई हैं और फली-फूली हैं। झारखंडी बोलियों से मिश्रित बांग्ला, ‘राढ़ी बांग्ला’ कहलाती है तो पूर्वी सिंहभूमि की सीमा पर एक प्रखंड है बहरागोड़ा। इसकी सीमाएं बंगाल-उड़ीसा दोनों से जुड़ती है और वहां की बोली ‘डेढ़-गुजरी’ कहलाती है जिसमे झारखंडी बोलियों के अतिरिक्त ओडिया और बांग्ला बोलियों के शब्दों की छवि देखते ही बनती है। उसी ढंग से उड़ीसा और आंध्र की सीमा के गांवों की बोलियों में धीरे-धीरे उड़िया और तेलुगु का फर्क मिटता चला जाता है।
अगर इस स्पेक्ट्रम या कंटिनम सिद्धांत पर सर्वसम्मति बनती तो एक ओर आंतरिक भाषाई-एकता को बल मिलता, दूसरी ओर अवैज्ञानिक-औपनिवेशिक नस्लीय सिद्धांत पर खड़ी की गई आर्य बनाम द्रविड़ घृणा और हिंसा को जन्म देने वाली भाषाई-राजनीति का मूल आधार ही प्रश्नांकित हो जाता और धीरे-धीरे खारिज हो जाता।
हमने आजादी के बाद भाषाई एकता के लिए त्रिभाषा सूत्र को स्वीकार किया था किंतु दुर्भाग्य से उत्तर भारतीय आत्ममुग्धता की संस्कृति और आर्य भाषा के श्रेष्ठता बोध ने हमें दाएं-बाएं, उत्तर-दक्षिण के बहुविध भाषाई मानचित्र के सौंदर्य को निहारने, समझने और आनंदित होने का अवकाश ही नहीं दिया। हिंदी ने राजभाषा होने के अतिरिक्त गर्व के बोझ से न तो अपने इलाके की आदिवासी भाषाओं को समझने-जानने की कोशिश की और न तमिल-तेलुगु-कन्नड़-मलयालम की समृद्ध साहित्यिक- सांस्कृतिक परंपरा से अपने आप को संपन्न किया। नतीजतन ‘पहचान की राजनीति’ परवान चढ़ती रही। ‘आर्य बनाम द्रविड़’ या ‘आर्य बनाम अन्य’ की नस्लीय राजनीति को हवा मिलती रही। पहचान की राजनीति से जुड़े हुए विद्वतजन भी इसी बाइनरी के आधार पर अपनी दुकान चलाते रहे।
भाषा परिवार के सिद्धांत को अब तक हम अपनी राजनीतिक मजबूरी या अज्ञानता या श्रेष्ठता बोध या अन्य जिस भी कारण से स्वीकार कर कई तरह की बाइनरी-आधारित पहचान की राजनीति को हवा देते रहे हैं, यह परिदृश्य बदलने की आवश्यकता है। बहते नीर जैसी बोलियों-भाषाओं की आंतरिक एकता को समझने की आवश्यकता है। इस दिशा में ज्यादा से ज्यादा अध्ययन और शोध की आवश्यकता है और न केवल उसे अकादमिक अध्ययन और प्रकाशन तक सीमित रखना है बल्कि पॉपुलर डिस्कोर्स का भी हिस्सा बनाने की आवश्यकता है।
नारायण एन्क्लेव, ब्लॉक ए, 2 सी, घरौंदा, हरिहर सिंह रोड, मोरहाबादी, रांची, झारखंड – 834008 मो.9431114935
भाषा संरक्षण जिम्मेदारी वाला उद्यम है |
![]() सुपरिचित भाषावैज्ञानिक। लखनऊ विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग में प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त। हिंदी में भाषाविज्ञान के पारिभाषिक शब्दकोश का निर्माण। लगभग दो दशकों से अल्पज्ञात, उपेक्षित और कमजोर भाषाओं के संरक्षण के लिए सक्रिय। संकटग्रस्त और अल्पज्ञात भाषा संस्था (एसईएल) की संस्थापक (2015)। वर्तमान में एसईएल के कार्यों की देख–रेख और अनुसंधान योजनाओं से संलग्न। |
‘भारत एक बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय देश है।’ यह पंक्ति, ध्यान दीजिए तो पिछले कुछ दशकों से मात्र निबंध लेखन तक सिमट गई है। भारत में आज भी लगभग 720 भाषाएं/बोलियां प्रयोग की जा रही हैं, जबकि 22 भाषाओं को संवैधानिक अनुसूची में स्थान दिया गया है।
हम भारतीय छह परिवार की भाषाओं का प्रयोग करते हैं- भारतीय आर्य, द्रविड़, मुंडा, तिब्बती-चीनी, अंडमानी एवं ताई-कदाई भाषा परिवार, लेकिन विडंबना यह है इनमें से बहुत-सी भाषाओं के बोलने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होते हुए घर-परिवारों तक सीमित हो रही है। बहुत से परिवारों में माता-पिता ने आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक कारणों के चलते अपने बच्चों को अंग्रेजी अथवा क्षेत्रीय भाषा सिखाने पर इतना ध्यान केंद्रित कर लिया है कि अपनी मातृभाषा सिखाई ही नहीं!
परिणामतः भारत की भाषिक विविधता तीव्र गति से क्षीण हो रही है और मातृभाषा-भाषी अपनी सांस्कृतिक विरासत खो रहे हैं। भारतीय भाषा संस्थान के पूर्व निदेशक डी. जी. राव के आकलन के अनुसार भारतीय भाषाओं को उचित ध्यान और देखभाल नहीं मिली है, क्योंकि देश ने पिछले 50 वर्षों में ही 220 से अधिक भाषाएं खो दी हैं (2023)।
भाषा एक जटिल सामाजिक उपादान है जो एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती है। यह मात्र मानवीय ध्वनियों से निर्मित संप्रेषण का माध्यम अथवा सांकेतिक व्यवस्था भर नहीं है बल्कि सांस्कृतिक परंपराओं का कोश, जीवन जीने और स्वयं को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। भाषा अपने वक्ता को एक पहचान देती है। इसीलिए इसे प्राकृतिक के साथ-साथ गत्यात्मक और सांस्कृतिक उपादान भी कहा जाता है जो समय, स्थान और संपर्क से प्रभावित होता है। जब भिन्न-भिन्न भाषाएं एक-दूसरे के संपर्क में आती हैं तब वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं और प्रायः राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से समृद्ध भाषा कमजोर भाषा पर हावी हो जाती है।
समाज का आधुनिकीकरण एवं शहरीकरण भाषाओं में विलयन और फिर भाषा विलुप्ति की स्थिति को बढ़ावा देता है।
कैंपबेल ने भाषा विलुप्ति के चार प्रकारों की चर्चा की है। एक, आकस्मिक विलुप्ति – जब किसी भाषा के सभी बोलने वाले अचानक मर जाएं या मार दिए जाएं। दो, परिवर्तनवादी विलुप्ति- किसी प्रकार के राजनैतिक दबाव के कारण भाषा क्षय अत्यंत तीव्र गति से घटित होना। तीन, अन्य भाषा संपर्क के कारण- जब कोई भाषा समृद्ध भाषा की ओर धीरे-धीरे खिंचती हुई उसमें अंतर्निहित हो जाए। ऐसी स्थिति में द्विभाषिकता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। और चार, भाषा प्रयोग क्षेत्र में ह्रास- जब किसी भाषा का प्रयोग आरंभ में परिवार में फिर धीरे-धीरे विभिन्न शैलीगत प्रयुक्तियों में कम होता हुआ समाप्त हो जाए।
भाषा विलुप्ति के कारणों का उल्लेख करते हुए भाषाविद डेविसन ने बताया है कि भाषाएं किसी नियम के घिस जाने पर नहीं मरती वरन उनकी मृत्यु का प्रमुख कारण उसके बोलने वालों की अपनी भाषा के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति होती है। भाषाविद डोरियन के विचारानुसार, ‘यदि भाषा का संचरण रुक जाए और बचे हुए वक्ता धीरे-धीरे कम होते हुए समाप्त हो जाएं तो भाषा को मृत मान लेना चाहिए। ये दोनों कथन भारतीय बहुभाषिक परिवेश में जारी भाषाई-राजनीतिक द्वंद्व, अस्मिता संघर्ष और संकट के विभिन्न उदाहरणों पर सटीक रूप से लागू होते हैं। इसी क्रम में भाषा संनिघर्षण की स्थिति भी व्यक्तिगत एवं समाज दोनों स्तरों पर दृष्टिगत होती है। दो पीढ़ियों के बीच भी भाषा संनिघर्षण की स्थिति मिलती है।
भाषा की सत्ता एवं अस्मिता जिन तत्वों पर निर्भर करती हैं या जो उसको संकट की तरफ ले जाते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख तत्व हैं- भाषा विशेष के वक्ता और उनकी संख्या, भाषा का भावी पीढ़ी को हस्तांतरण, अपनी भाषा के प्रति मातृभाषा भाषी की अभिवृत्ति, उसके समाज की अभिवृत्ति, भाषा-भाषी व्यक्ति/समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, प्रयोग के आयाम, नवीन क्षेत्रों में प्रयोग, साक्षरता और शिक्षा के लिए उपलब्ध सामग्री, उच्च स्तरीय प्रलेखीकरण।
ध्यान देना चाहिए कि कुछ अल्पसंख्यक समुदाय भी अपनी मातृभाषा पूर्णतः सुरक्षित रखते हैं। कोई भी कारक अकेले भाषा के क्षरण या संरक्षण का कारण नहीं बनता वरन कई कारक मिल कर भाषा को विलुप्ति या निरंतरता की दिशा में ले जाते हैं।
भारत जैसे बहुभाषा भाषी देश में भाषाओं का पिजिनीकरण एक सामान्य बात है। यहां की भाषाई परिस्थितियों में कोड मिश्रण और कोड अंतरण स्वाभाविक तौर पर घटित होता है। इसलिए इसे भाषाई संप्रेषण में बाधक न मान कर सहायक ही माना जाता है। देवीप्रसन्न पटनायक (1999) के अनुसार इनकी सहायता से वक्ता अक्सर नए सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दबावों का सामना करने और नई परिस्थिति में बातचीत करने का प्रयास करता है।
फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि आज अनेक जनजातीय समुदायों ने विभिन्न कारणों से या तो अपनी मातृभाषा को पूरी तरह छोड़ दिया है अथवा वे छोड़ने की ओर अग्रसर हैं। परिणामतः आओ, अगरिया, आइमो जैसी अनेक भारतीय भाषाएं आज विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं।
शहरीकरण, औद्योगीकरण, अज्ञानता, व्यवसाय-परिवर्तन, आव्रजन, परसंस्कृतिग्रहण, पारंपरिक मान्यताओं एवं विश्वास का हनन, जाति व्यवस्था और धर्म परिवर्तन जैसे बाह्य कारणों के साथ-साथ अनेक मनोवैज्ञानिक कारण जैसेः अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीन भावना, संवेगात्मक दबाव, आदि भाषाई संकट और विलोपन को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारण हैं।
समस्या यह है कि कैसे निर्णय लिया जाए कि कौन-सी भाषा संकटग्रस्त है और कौन-सी नहीं? भाषाविद वुर्म ने भाषा की सुरक्षित एवं असुरक्षित स्थिति के पांच स्तरों पर किसी भाषा को आंक कर हम इस प्रश्न के उत्तर तक पहुंच सकते हैं।
प्रचलित भाषाएं – अंग्रेजी, हिंदी और चीनी जैसी भाषाएं जिनका प्रयोग वक्ता समाज के समस्त क्षेत्रों- घर, स्कूल, कार्यालय, अस्पताल, पूजा स्थल, मीडिया आदि में करते हैं। बोलने वालों की बड़ी संख्या और समस्त क्षेत्रों में निरंतर प्रयोग के कारण यह भाषाएं लंबे समय तक फलती-फूलती रहेंगी।
प्रचलित किंतु लघु भाषाएं- लगभग एक हजार से ज्यादा वक्ता वाले ऐसे समुदाय जिनकी आंतरिक सामुदायिक संरचना दृढ़ होती है जो अपनी संस्कृति और निजता के प्रति सतर्क होते हैं और जिनकी भाषा उनकी अस्मिता की द्योतक होती हैं, जैसे- अंगामी, कोडगु आदि।
संकटग्रस्त भाषाएं- इनका प्रयोग लोगों द्वारा कुछ निश्चित संदर्भों में ही किया जाता है और प्राय: इनके बोलने वालों की संख्या अल्प और प्रयोग क्षेत्र सीमित होते हैं जैसे- जाड़, जोमी, राजी आदि।
लगभग विलुप्त भाषाएं- ऐसी भाषाओं को सिर्फ समुदाय के वृद्ध लोग जानते और बोलते हैं और सिर्फ वृद्ध वक्ता होने के कारण इनके बचने की उम्मीद बहुत कम होती है जैसे- बेल्लारी, हंदूरी आदि।
विलुप्त भाषाएं- जिन भाषाओं का अंतिम वक्ता मृत्यु को प्राप्त हो चुका हो और जिसके जीवित रहने की कोई उम्मीद न हो जैसे- अंडमान निकोरबार द्वीप की बाओ भाषा।
भाषा के कमजोर और मजबूत पक्ष की चर्चा करते हुए भाषाविद फिशमैन ने किसी भाषा को प्रयोग करने तथा बोलने वालों की संख्या के आधार पर भाषाओं के आठ वर्ग स्तर निर्धारित किए हैं। वर्ग विशेष के लिए निर्धारित लक्षण या मानक के आधार पर भाषा की संकटग्रस्तता का प्रतिशत निर्धारित किया जाता है और भाषाविद आवश्यकतानुसार भाषा पुनरुद्धार कार्यक्रम का निर्माण करते हैं। कमजोर पक्ष के अंतर्गत तीन अवस्था/स्तर आते हैं –
आठवीं अवस्था- जब भाषा का एक भी धाराप्रवाह वक्ता नहीं हो और भाषा के बचाव के लिए बाह्य विशेषज्ञ की आवश्यकता पड़े।
सातवीं अवस्था- समुदाय के वृद्ध लोग भाषा का प्रयोग करें, किंतु युवा पीढ़ी जो आगे नई पीढ़ी को भाषा हस्तांतरित करने वाली है वह भाषा न सीखे।
छठी अवस्था- जब बच्चे घर पर भाषा और संस्कृति के प्रयोग द्वारा अपनी निजता बनाए रखते हैं।
मजबूत पक्ष के अंतर्गत पांच अवस्था/स्तर आते हैं-
पांचवी अवस्था- भाषा जीवित हो और उसका प्रयोग समुदाय एवं वैकल्पिक रूप में स्कूल में भी हो रहा हो।
चौथी अवस्था- भाषा का प्रयोग राष्ट्र भाषा या शासकीय भाषा के रूप में हो रहा हो और स्कूल में बच्चों की शिक्षा का माध्यम हो।
तीसरी अवस्था- भाषा समाज में कार्य स्थल में भी व्यवहार में आ रही हो तथा
दूसरी अवस्था- भाषा का प्रयोग सरकारी कार्य-कलाप हेतु किया जाए तथा
पहली अवस्था- भाषा का प्रयोग उच्च स्तरीय सरकारी कार्यों में भी होता है।
भाषा संरक्षण का कार्य एक व्यापक महत्व और जिम्मेदारी वाला उद्यम है। इसे साधने के लिए जिन कुछ बातों की सबसे अधिक जरूरत होती है वे हैं- दृढ़ संकल्पशक्ति, व्यावहारिक संरक्षण रणनीति और पुनर्प्रसार/संवर्धनात्मक उपाय। अपने तीस वर्षों के अनुभव काल में अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति सजग अनेक व्यक्तियों, परिवारों, समुदाय के सदस्यों से मेरा मिलना हुआ। इसमें केवल सरकारी, गैरसरकारी संस्थाएं ही नहीं बल्कि भाषा समुदाय, शोधकर्ता और परिवार या व्यक्ति विशेष सभी शामिल हैं।
व्यक्ति विशेष और परिवार द्वारा किए जा रहे भाषा संरक्षण के प्रयासों में, हिमाचल की पुनन भाषा और संस्कृति के बचाव में लगा श्री नीलाचंद जी का परिवार या जौनसारी के संरक्षण में रत उत्तराखंड के डॉ. सुरेंद्र आर्यन का प्रयास उल्लेखनीय है।
सामुदायिक भाषा संरक्षण पहल के तौर पर देश के उत्तर-पूर्वी राज्य की कार्बी, दिमासा और शेर्दुक्पेन भाषाओं के समुदायों की पहलें प्रेरणादायक हैं। सांस्थानिक उद्यमों के अंतर्गत भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर और यू.जी.सी. द्वारा देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में स्थापित लुप्तप्राय भाषा केंद्रों के प्रयासों को लिया जा सकता है। वहीं देश के विभिन्न भाषाविज्ञान विभागों में शोध कर रहे विद्यार्थियों द्वारा किए जा रहे भाषा संरक्षण और प्रलेखन विषयक शोधकार्यों को लिया जा सकता है।
अनेक गैर सरकारी संगठन भी इस दिशा में कार्यरत हैं, जैसे- सोसाइटी फॉर एंडेंजर्ड एंड लेसर नोउन लैंग्वेजेज (सेल)। यह संस्था भाषा संरक्षण से संबंधित प्रशिक्षण करवाने के साथ-साथ भाषा पुनरुत्थान संबंधी कार्यक्रम भी चलाती है।
विश्व के अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी भाषाविद विभिन्न भाषाओं को अनेक प्रकार से संरक्षित-सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे हैं। इनमें भाषिक प्रलेखन, भाषा विवरणात्मक अध्ययन (कोश, व्याकरण), भाषा पुनरुत्थान कार्यक्रम, भाषा नीड की स्थापना, शिक्षक प्रशिक्षु कार्यक्रमों का संचालन, आवासीय विद्यालय निर्माण, भाषा उद्धार/पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम उल्लेखनीय हैं। वन राजी समुदाय की भाषा एवं संस्कृति के पुनरुत्थान कार्यक्रम के अपने 25 वर्षों के अनुभव के आधार पर मेरा मानना है कि कोई भी प्रारूप अकेले तौर पर पूर्ण नहीं है अतः एक शोधकर्ता को समुदाय और भाषा की स्थिति का समुचित आकलन कर एक समेकित प्रारूप निर्मित कर कार्य आरंभ करना चाहिए जिसका समय-समय पर मूल्यांकन के आधार पर किया गया परिवर्तन बेहतर परिणाम देता है।
निस्संदेह भाषा संरक्षण एक जटिल कार्य है जिसके लिए स्थानीय समुदायों, भाषाविदों, सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों सहित विभिन्न हितधारकों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता होती है। कई बार संकटग्रस्त भाषाभाषी समुदाय के लोग ही अपनी भाषा-संस्कृति के प्रलेखन और पुनर्प्राप्ति के लिए अनिच्छुक रहते हैं, ऐसी स्थिति में इस काम की चुनौती बढ़ जाती है।
भाषा प्रलेखन करने वाला भाषाविद एक शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, मनोवैज्ञानिक आदि कई भूमिकाएं एक साथ निभाते हुए भाषिक समुदाय को भाषा संरक्षण के लाभ और बारीकियों से परिचित कराने का कार्य करता है। अपने देश के संदर्भ में मेरा तर्क है कि अशिक्षा, आर्थिक कमियों, सामाजिक विकृतियों से जूझते इन संकटग्रस्त भाषाई समुदायों की निष्क्रियता को निरंतर समर्पण और प्रोत्साहन के माध्यम से सक्रिय भागीदारी में बदलना संभव है।
भरत आश्रम, राजा बाजार, लखनऊ–226003 (उत्तर प्रदेश)मो. 9839241854
गांधी के सपनों वाले गांव में छिपा है भाषाओं के विकास का भारतीय नक्शा |
![]() युवा भाषाविद एवं लेखक। विगत 15 वर्षों से भाषा एवं तकनीक से जुड़े विषयों पर शोध, लेखन एवं संपादन। वर्तमान में संकटग्रस्त भाषा केंद्र, विश्वभारती, शांतिनिकेतन में सेवारत। |
(1)भारत एक सघन बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक, बहु-नृजातीय और लोकतांत्रिक देश है। भारत की भाषाओं की गणना से संबंधित अंतिम प्रयास आज से लगभग सौ साल पहले हुआ था। इसलिए यहां बोली जाने वाली भाषाओं की मौजूदा संख्या के बारे में कुछ प्रामाणिक ढंग से कहना संभव नहीं होगा।
आजादी के बाद भाषाई डेटा एकत्र करने के सरकारी प्रयास के रूप में जनगणना का उद्यम सामने आता है। चूंकि जनगणना की प्रक्रिया में सामाजिक-आर्थिक आंकड़े जुटाना प्राथमिकता होती है, इसलिए इसके भाषाई आंकड़े संदेह से परे नहीं हैं। इसका बड़ा कारण है भाषा, बोली और भाषिक विकल्पन के मध्य महीन एवं अस्थाई रेखा का होना। इसमें भाषाओं के मानकीकरण और अधिमानीकरण की भी अपनी राजनीति है।
हिंदी की जिन 50 बोलियों की संख्या बताई जाती रही है, 25 साल पहले मैथिली भी उन्हीं में से एक थी, लेकिन आज न सिर्फ वह स्वतंत्र भाषा है बल्कि शास्त्रीय भाषा बनने की प्राथमिकताओं में भी शामिल है। दूसरी तरफ भाषिक संरचना के स्तर पर इनमें से कई बोलियां ऐसी हैं, जिनमें आपसी सहज संवाद संभव नहीं है।
संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि वर्तमान भाषिक पारिस्थितिकी के आधार पर भाषाओं की सही-सही संख्या के आकलन का वह काम अभी बाकी है जिसमें राजनीति और अस्मिता से परे संरचना के आधार पर भाषाओं की संख्या पता चल सके।
फिलहाल जो ज्ञात है उसमें 22 भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान मिला है। अब तक कुल मिलाकर 11 भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला हुआ है। 99 भाषाएं गैर-अनुसूचित भाषाओं की कोटि में हैं। 24 भाषाओं में साहित्य अकादमी के पुरस्कार दिए जाते हैं।
‘भाषिनी’ नामक मशीनी अनुवाद प्रणाली, जो देश में भाषिक अवरोध को दूर करने के लिए विकसित की जा रही है, उसमें 24 भाषाओं को जोड़ा गया है। इंटरनेट बाजार के बड़े खिलाड़ी ‘गूगल’ ने अपनी अनुवाद प्रणाली में 25 भारतीय भाषाओं को जोड़ा है।
कुल मिलाकर लोकतांत्रिक और व्यापक आबादी होने के कारण इन संख्याओं में विस्तार की संभावना लगातार बनी हुई है जिससे भारतीय बहुभाषिकता का फलक उभरता है।
भारतीय भाषाओं को चार से पांच भाषा-परिवारों मे बांटा जाता है लेकिन कई बार लगता है कि इन बंटवारों का आधार भी कृत्रिम है, जैसे द्रविड़ भाषा परिवार से लेकर आस्ट्रो-एशियाई भाषाओं में भारोपीय परिवार की भाषाओं की शब्दावली पर्याप्त मात्रा में देखी जा सकती है। शब्दों के आदान-प्रदान के साथ पदक्रम के आधार पर भी देश की अनेक भाषाओं में समानता पाई जाती है।
भूमंडलीकरण के बाद बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय और अंतर-प्रादेशिक विस्थापनों में भाषा के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया है लेकिन इन सबके बीच भाषाओं की जो अपनी स्वायत्तता की स्थिति बनती है, उसे बनाए रखना चाहिए।
जहां तक अवरोध का सवाल है, देश में जितनी तानमूलक भाषाएं हैं, उनमें और दूसरी में भाषाओं के मध्य अवरोध सहज रूप से पाया जा सकता है। उदाहरण के लिए मैतेई जैसी भाषाएं, इनमें एक ही शब्द के आरोह-अवरोह के आधार किए जाने वाले उच्चारण से अनेक अर्थ निकलते हैं। दूसरा अवरोध लिपि का है, क्योंकि शब्द स्तर पर तमाम समानताओं के बीच हिंदी-उर्दू, बांग्ला-भोजपुरी आदि युग्मों में जो लिपिगत वैषम्य है, वह एक अवरोध की तरह सामने आता है।
(2)इस बात पर प्राय: सभी एक मत होंगे कि सभी भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए, क्योंकि किसी व्यक्ति की महत्तम भाषिक क्षमता उसकी मातृभाषा में होती है। अब रहा सवाल इसके स्तर का, तो यदि कोई भाषा किसी एक-दो गांवों तक सीमित है, तो यह उम्मीद करना कि उस क्षेत्रीय भाषा में इतने बड़े देश का संचालन हो यह संभव नहीं है, लेकिन उस सीमित क्षेत्र में उस भाषा की मांग-आपूर्ति बनी रहे, यही भाषिक जिम्मेदारी शासन-तंत्र की है। इसके लिए पलायन को रोकना आवश्यक है। तब फिर पलायन के कारणों की पड़ताल करनी पड़ेगी। इसमें शिक्षा और रोजगार दो प्रमुख हैं। इस तरह देखा जाए, तो उन एक-दो गांवों की आबादी का स्थानीय स्तर पर उचित भरण-पोषण होता रहे, मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होती रहीं तो पलायन रुकेगा और भाषाई खतरों को कमतर किया जा सकता है।
इसके लिए गांधी के सपनों वाले गांव बनाने होंगे, जिसमें न सिर्फ बुनियादी शिक्षा बल्कि ग्रामीण औद्योगिकीकरण पर जोर देना होगा। हर स्थान के साहित्य, संस्कृति, चिकित्सकीय अभ्यासों को बचाये रखने की पहल करनी होगी। साथ ही आज के दौर में डिजिटलीकरण को स्थानीय भाषाओं में पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए।
जहां तक मेरे अपने अनुभव का सवाल है, पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों से लेकर झारखंड तक और पूर्वोत्तर के अनेक युवा अपनी भाषाओं के लिए जागरूक दिखते हैं। बहुत से लोग अपनी भाषाओं की लिपि विकसित और प्रचारित करने के लिए प्रयासरत मिले हैं। अरुणाचल प्रदेश के एक युवा ने तो अपनी भाषा की लिपि को युनिकोड में उपलब्ध करने का प्रयास तक व्यक्तिगत स्तर पर किया है।
दूसरी तरफ यह भी जोड़ना जरूरी है कि इन्हीं क्षेत्रों में अनेक युवा ऐसे भी मिलेंगे, जो इन सभी बातों को गैर-जरूरी मानते हुए अंग्रेजी शिक्षा पर जोर देते हैं। उनका कहना है कि पहले हम खुद को बचाएं या भाषा को। बड़ी भाषा सीखने से उन्हें बड़ा परिवेश मिलता है। ऐसे में हमें घर, क्षेत्र और रोजगार की भाषाओं के साथ एकसाथ न्याय करना पड़ेगा। इन सबके लिए सबसे जरूरी है कि स्थानीय भाषाओं में शिक्षा के विकल्प को लुभावने, किंतु भरोसेमंद अंदाज में परोसना होगा। वरना बाजार तो अंग्रेजी के साथ खड़ा ही है।
(3)इस देश को भाषाई राजनीति विरासत में मिली है जो ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआत के साथ ही हो गई। संपूर्ण राजनीतिक सत्ता पाने और उसे लंबे समय तक कायम रखने के लिए यह आवश्यक था कि देश की बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत को अधिगृहीत किया जाय। इस उद्देश्य को पाने के लिए कंपनी के कर्ता-धर्ताओं में दो धाराएं थीं- एक वे जो यह मानते थे कि इस उद्देश्य के लिए भारत को उसकी अपनी भाषाई-सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप ही चलाया जाना चाहिए, जबकि दूसरी धारा, जो बाद में इस बहस में शामिल हुई और उसने अपना प्रभुत्व भी स्थापित किया। उसका मानना था कि पश्चिमी ज्ञान परंपरा उत्तम है और इसे ही भारत में स्थापित किया जाना चाहिए। कंपनी के इसी बौद्धिक संघर्ष को ‘ओरिएंटलिस्ट-एंग्लिसिस्ट’ विवाद यानी प्राच्यवाद और अंग्रेजीयत का संघर्ष कहा गया है।
भारत में लंबे समय तक अंग्रेजी शासन को कायम रखने की महत्त्वाकांक्षा के बीच यह भी भय था कि कहीं स्थानीय लोगों का कंपनी के प्रति विरोध अचानक भड़क न जाए। इसलिए आरंभिक चरण में कंपनी के अधिकारियों ने प्राच्य विद्या का संरक्षण किया। 1781 में वॉरेन हेस्टिंग्स द्वारा कलकत्ता मदरसा, 1791 में जोनाथन डंकन द्वारा बनारस संस्कृत कॉलेज और 1784 में विलियम जोन्स द्वारा कोलकाता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
प्राच्यवादी व्यावहारिकता को समझते हुए तत्कालीन नीति नियंता भारत में कार्यरत ब्रिटिश अधिकारियों को स्थानीय भाषा और संस्कृति सिखाते थे, ताकि वे प्रशासनिक रूप से बेहतर और उपयोगी साबित हों। 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की नींव के पीछे भी यही मुख्य उद्देश्य था। इन उपक्रमों का अन्य उद्देश्य स्वदेशी समाज के अभिजात वर्ग के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध विकसित करना और सांस्कृतिक सामंजस्य के जरिए अंग्रेजी शासन के लिए राजनीतिक अनुकूलता का माहौल तैयार करना भी था।
प्राच्यवादी धारा के प्रबल विरोधी स्वर इंग्लैंड में भी सक्रिय थे। ये पश्चिमी ज्ञान परंपरा की श्रेष्ठता के मुख्य समर्थकों और प्रवर्तकों में से एक मैकाले थे। उन्होंने सिफारिश की कि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारत में पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
इस श्रेष्ठताबोध का एक आधार धर्म भी था। जेम्स मिल जैसे लोग भारतीय धर्म और संस्कृति के कठोर आलोचक थे। वे सामान्य रूप से यह मानते थे कि भारतीय पिछड़ेपन की अवस्था में थे और केवल अंग्रेजी माध्यम से दी जाने वाली आधुनिक शिक्षा ही इस पिछड़ेपन को दूर कर सकती थी। कंपनी का ध्यान एक समूह विशेष को शिक्षित करने पर था, जो धीरे-धीरे शेष समाज को शिक्षित करे। दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से स्वदेशी समाज तक पहुंच बनाना और नए धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों का प्रचार करना था। लॉर्ड मैकाले के प्रस्ताव (1835) ने प्राच्यवादी और अंग्रेजीयत के संघर्ष पर पूर्ण विराम लगाते हुए तत्कालीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की बुनियाद रखी। पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और सामाजिक विचार आधुनिक शिक्षा के नए क्षेत्र बनकर उभरे। यही क्रम कमोवेश आज तक जारी है।
स्वतंत्रता संघर्ष के समय भाषा का सवाल लगातार प्रासंगिक बना रहा है। कांग्रेस के अनेक अधिवेशनों में भाषा के सवाल पर विमर्श हुआ था। इसमें महात्मा गांधी के ‘हिंदुस्तानी’ दृष्टिकोण पर आम सहमति बनाने का प्रयास भी शामिल है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह जन दबाव ही है कि एन. टी. रामाराव, सोनिया गांधी, अमित शाह जैसे हिंदीतरभाषी नेता, जिनको राष्ट्रीय राजनीति में स्थान बनाने की इच्छा थी, सबने हिंदी सीखी। लेकिन इस पूरी बहस का एक पक्ष ‘राज्य पुनर्गठन अधिनियम’ है, जिसके तहत भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण किया गया।
रामल्लु नामक एक व्यक्ति के 53 दिनों तक अनशन और उसके बाद मृत्यु के बाद तेलुगु के नाम पर बने आंध्र प्रदेश से इसकी शुरुआत हुई। इस प्रकिया से अनेक राज्य भाषा के नाम पर बने, जिससे अलगाववाद की भावना को भी बढ़ावा मिला और लोकतंत्र में भाषा जैसी अत्यंत सकारात्मक चीज को तुष्टिकरण का माध्यम बनाने की शुरुआत हुई।
(4)देश में मोटे तौर पर देखा जाए, तो सरकारी कार्यक्रमों में भाषाओं की उपेक्षा ही हुई है। इसका सीधा प्रमाण राजभाषा के प्रावधान ही हैं, क्योंकि आज भी सह-राजभाषा के आवरण में अंग्रेजी वस्तुतः सरकारी कामकाज की मुख्य भाषा बनी हुई है। किसी राष्ट्र-राज्य के निर्माण में भाषा एक महत्वपूर्ण विषय है, लेकिन अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाकर भी भारतीय भाषाओं को उनके उचित अधिकार और विकास के अवसर नहीं मिल सके। अंग्रेजी का राजभाषा के रूप में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन इस आधार पर नहीं कि देश में उसे समझने वाले बहुत हैं, बल्कि इस नाम पर है कि भारत में वह भाषा राजभाषा होनी चाहिए जिसे सीखना सभी भारतीय भाषा-भाषियों के लिए समान रूप से कठिन हो!
यह भाषा-नियोजन की समस्या ही है कि ग्रियर्सन के निष्कर्षों के आधार पर हिंदी को किसी एक पट्टी की भाषा माना गया, जबकि हिंदी किसी की मातृभाषा नहीं है। ग्रियर्सन ने जिस भू-भाग को हिंदी पट्टी माना है, वहां दरअसल मैथिली, भोजपुरी, मगही, ब्रज, अवधी आदि पट्टियां हैं। हिंदी को किसी एक भू-भाग की भाषा मानकर हमने गांधी के उन प्रयासों की भी अवहेलना की, जिसके तहत उन्होंने वर्षों तक हिंदी का अखिल भारतीय प्रचार-प्रसार किया था।
यदि देश में स्थानीयता की दृष्टि से राष्ट्र बनाने का उपक्रम किया गया होता, तो देश में आज जो अंग्रेजी का स्थान है, वहां हिंदी होती। इसका बड़ा लाभ होता कि देश के अधिसंख्य युवाओं की प्रतिभा अंग्रेजी ज्ञान के अभाववश कुंठित नहीं होती। साथ ही स्थानीय भाषाओं को फलने-फूलने का बेहतर अवसर मिलता। खुद हिंदी ज्ञान, प्रशासन, न्यायपालिका आदि की मुकम्मल भाषा बनी होती। स्थानीय भाषाएं भी इसी हिंदी के साए में बेहतर रूप से सुरक्षित रहतीं।
शब्दावली एवं संरचना के आधार पर हिंदी अखिल भारतीय स्तर की भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने की योग्यता रखती है। अंग्रेजी को एक विषय के रूप में पढ़ाया जाना उचित रहता न कि देश की राज-काज चलाने की भाषा के रूप में स्थाई रूप से स्थापित करना। शिक्षा में जितनी नीतियां आईं, उसने भी इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। हालांकि कोठारी आयोग ने त्रिभाषा सूत्र की बात की थी, लेकिन उसे लागू करने के लिए जिस तन्मयता की जरूरत थी, वह दिखाई नहीं गई। इस सूत्र में भी वही हिंदी की पट्टी वाली समस्या सामने आती है क्योंकि कथित हिंदी पट्टी के लिए तीन भाषाओं की गणना में उनकी अपनी मातृभाषाएं कहीं आती ही नहीं है।
आज देश में भाषा के नाम पर अनेक सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं, लेकिन उनमें निहित जड़ता, बजट की कमी, दूरदर्शी योजनाओं का अभाव, सरकारी उपेक्षा आदि ऐसे कारण हैं, जिनसे भाषिक नियोजन की दिशा प्रभावित होती है। देश में अनेक शोध संस्थान और शिक्षण संस्थानों में अनेक स्तर पर अच्छे कार्य भी हुए हैं, करोड़ों रुपए खर्च हुए हैं, लेकिन जिस गति से उन्हें परिणाम तक पहुंचाने की आवश्यकता थी, उस स्तर पर नहीं हुआ। हालांकि बाजार के कारण अनेक निजी संस्थान भारतीय भाषाओं में शोध कर रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल आदि ने जितना प्रभावी और परिणामोन्मुख काम भारतीय भाषाओं में किया है, उतना किसी सरकार ने नहीं किया। फॉन्ट से लेकर युनिकोड के विकास तक, शब्द संसाधक से लेकर मशीनी अनुवाद के विकास तक सब बाजार के कंधे पर चढ़कर आगे बढ़े हैं। हिंदी के विकास में हिंदी फिल्मों का अद्वितीय योगदान है। अल्पसंख्यक भाषाओं पर शोध में भारत सरकार की कई पहल उल्लेखनीय है। लेकिन एक समग्र भाषिक नियोजन की पहल अभी भी बाकी है।
(5)सबसे पहली बात यह है कि जनगणना के सर्वेक्षण भाषाई निष्कर्षों के लिए नहीं होते हैं, बल्कि लोगों की जनगणना और उनके समाज-आर्थिक विवरणों के लिए किए जाते हैं और भाषाई निष्कर्ष एक तरह के प्रत्युत्पाद (बाइ-प्रोडक्ट) हैं। इसमें लोगों से उनकी मातृभाषा पूछी जाती है। चूंकि देश में भाषाई जागरूकता का अभाव है, इसलिए यह जरूरी नहीं है कि देश में दूर-दराज के लोगों को यह पता है उनकी अपनी भाषा क्या है? वे अपनी बात बोलते हैं उससे उनका अपना काम घर-परिवार में चल जाता है। उनके लिए बस यही पर्याप्त है। ऐसे में उनसे यह पूछना कि आप हिंदी बोल रहे हैं कि भोजपुरी, मगही, मैथिली? ये सब तकनीकी पक्ष है, इसका जवाब भाषाविद के पास है। जनगणना रिपोर्ट के आधार पर भाषाई निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है।
संभवतः आगामी जनगणना में मातृभाषा के आंकड़े न सिर्फ लिए जाएंगे, बल्कि सभी आंकड़े जारी भी किए जाएंगे। ऐसे में यह जरूरी है कि मातृभाषा वाले कॉलम को और विस्तार दिया जाए और उसमें डाटा सेट के आधार पर भाषाई तथ्य संकलित हों। ताकि बाद में भाषाविद यह निष्कर्ष निकाल सकें कि वह ‘अमुक’ भाषा कौन है। इस अध्ययन की पृष्ठभूमि में भाषाविज्ञान में संरचनात्मक भाषाविज्ञान से लेकर क्षेत्र भाषाविज्ञान पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
साथ ही नृतत्वविज्ञान का ज्ञान भी आवश्यक है, ताकि जनजातीय क्षेत्रों में भाषिक और जातीय पहचान में अंतर किया जा सके। सर्वेक्षकों को विशेष रूप से ध्वनिविज्ञान से लेकर वाक्यविज्ञान में अलग से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, ताकि क्षेत्र में सर्वेक्षण के समय इन बारीकियों को ध्यान में रखकर डाटा संकलन करें। बाद में उनके उसी अनुरूप विश्लेषण और निष्कर्ष जारी किए जाएं। यह एक तरह का लघु भाषा सर्वेक्षण हो सकता है, ताकि भाषाओं की असल स्थिति देश को पता चल सके और संकटग्रस्त भाषाओं की पहचान और उनके विकास के कार्यक्रम बन सकें।
(6)फिलहाल भारत में हिंदी और अंग्रेजी मुख्य संपर्क भाषाएं हैं। हिंदी वाचिकता में जबकि अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा, और व्यापार के क्षेत्रों में मजबूत उपस्थिति रखती है। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय स्तर पर अन्य भाषाएं जैसे तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, असमिया और मराठी भी अपने-अपने इलाकों में संपर्क भाषा का कार्य करती हैं। इसमें यह भी जोड़ना जरूरी है कि देश में हिंदी जनभाषा के तौर पर, जबकि अंग्रेजी आभिजात्य वर्ग की संपर्क भाषा है। चूंकि आभिजात्य वर्ग का प्रभाव सत्ता प्रतिष्ठानों पर है इसलिए अंग्रेजी को चुनौती नहीं मिल पाती अन्यथा दो विषम भाषा-परिवारों के मध्य भी समाज में हिंदी संपर्क भाषा का काम बखूबी कर रही है।
(7)राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भाषाओं के मामले में अभूतपूर्व है। नीति में भाषा की केंद्रीयता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि 66 पृष्ठ के इस प्रपत्र में 206 बार ‘भाषा’ शब्द आया है, 126 बार बहुवचन रूप में और 80 बार एकवचन के रूप में। यहां बहुवचन रूप के आधिक्य का होना इस बात को स्थापित करता है कि किसी एक भाषा और संस्कृति की बात न करके सभी भाषाओं पर केंद्रित बहुलता पर जोर दिया गया है। शिक्षा नीति में यह आत्म स्वीकृति कि विगत वर्षों में भाषाओं के प्रति यथोचित ध्यान नहीं दिया गया है एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु की तरह दिखता है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले भारतीय भाषाओं के बारे में चिंता नहीं व्यक्त की गई है, लेकिन पिछली शिक्षा नीतियों में कामचलाऊ तरीके का इस्तेमाल किया गया। यह नीति इस मामले में सबसे मुखर है यह एक तरफ शास्त्रीय भाषाओं की चर्चा करती है, तो दूसरी तरफ अल्पसंख्यक भाषाओं के बारे में भी अनेक उपाय सुझाती है। यह नीतिगत पहला मसौदा है, जिसमें संकटग्रस्त भाषाओं की चर्चा की गई है अन्यथा इससे पहले अनुसूचित और गैर-अनुसूचित भाषाओं की कोटि ही होती थी। एक दौर के बाद शास्त्रीय भाषाओं का जुड़ाव भी हुआ था, लेकिन यह सब कुछ टुकड़ों-टुकड़ों में था। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में सबका एकत्रीकरण किया गया है। हालांकि कोठारी आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा परिचर्या-2005 में भी मातृभाषाओं में शिक्षा की बात दुहराई गई थी लेकिन इस नीति में मातृभाषाई शिक्षा को प्रमुखता से उभारा गया है।
कहना होगा कि कोई भी नीति कितनी भी सही क्यों न हो, लेकिन यदि उस पर सही तरीके से अमल नहीं हुआ तो वह बेकार ही साबित होगी। यह नीति इस मामले में आगे दिखाई देती है कि न सिर्फ सीमित समय में इस पर आम सहमति और व्यापक जागरूकता का काम पूरा हो गया, बल्कि सरकार इसे लागू करने की एक निश्चित समयावधि घोषित कर चुकी है। इस अवधि में यह काम पूर्ण हो इसलिए सबसे पहले जरूरी है कि प्रस्तावित जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो। ताकि बहुभाषी कक्षाओं को प्रबंधित करने के लिए जरूरी ढांचागत विकास हो सके। शिक्षकों की व्यवस्था और बड़े स्तर पर भाषाओं का डिजिटलीकरण हो सके।
(8)आज के दौर में भाषाई परिदृश्य को डिजिटलीकरण से बाहर नहीं देखा जा सकता। डिजिटलीकरण आज की सच्चाई है। सरकार ने ‘डिजिटल इंडिया’ नाम से व्यापक मुहिम चला रखी है। इस सबका असर भाषाओं पर न पड़े यह संभव ही नहीं। भाषा पर आयोजित किसी बहस में डिजिटलीकरण एक अनिवार्य पक्ष है। कैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे भाषाई डाटा का दोहन करके अपने उत्पाद बना रही हैं और सरकार इस मामले में पीछे रह जा रही है? यह भी इस बहस का एक विचारणीय पक्ष है। भारत के लोगों का डाटा, इंटरनेट पर उनकी उपस्थिति, सबकी जानकारी एकत्रित करना और उसका उन्मुक्त दोहन ‘डिजिटल इंडिया’ की अनिवार्य सचाई है।
हाल ही में सरकार ने ‘भाषिनी’ के माध्यम से भाषा डिजिटलीकरण के ऊपर व्यापक काम शुरू किया है और अब तक कुल 24 भाषाओं को इस मशीनी अनुवाद प्रणाली में जोड़ा गया है, लेकिन अभी बहुत आगे जाने की जरूरत है, जिससे भाषाओं पर आसन्न डिजिटल खतरों को न्यूनतम किया जा सके और हर भाषा, संस्कृति अपने परिक्षेत्र में फले-फूले और आगे बढ़े।
लुप्तप्राय भाषा केंद्र, विश्वभारती, शांतिनिकेतन, जिला: बीरभूम– 731235 पश्चिम बंगालमो.7063876259
भाषाओं के समुंदर में चलता है मत्स्य न्याय |
![]() भाषा प्रलेखन और संरक्षण के जानकार। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान, कोशकार्य और भाषाशिक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य। संप्रति केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा में सेवारत। |
भारत की भाषाई विविधता के स्वरूप की तुलना विश्व के कुछ गिने-चुने देशों से ही की जा सकती है। उसमें भी विश्व के किसी विकसित देश में भाषाओं की इतनी विविधता मौजूद नहीं है। भारत का 2021 का जननांकीय विवरण आना शेष है लेकिन 2011 के जो जननांकीय आंकड़े उपलब्ध है उसमें मातृभाषाओं के रॉ-रिटर्नस की संख्या 19,500 के लगभग है।
भाषाई अस्मिता अथवा अपनी भाषा को अलग पहचान देने के लिए विभिन्न भाषा भाषी लोग अपने हिसाब से उसका नामकरण कर लेते हैं (जैसे स्थान के नाम पर- सरगुजिया, नागपुरिया, मंड्याली, केलांग बोली आदि और कभी अपने व्यवसाय के नाम पर भी जैसे-लुहारी, सुनारी इत्यादि)। इससे मातृभाषाओं की संख्या ज्यादा नजर आती है। एक ही भाषा विभिन्न नामों से जानी जाती है, जैसे- गहरी भाषा बुनान या पुनान के नाम से, गोरूम परेंगा के नाम से, भिंजीया, बिरजिया, नेवारी प्रधान के नाम से, द्विवेही महाल या महली के नाम से, सादरी भाषा को सदानी, नागपुरी, नागपुरिया के नाम से इत्यादि।
भारत के जननांकीय आंकड़ों में 10,000 का आंकड़ा जादुई माना जाता क्योंकि भाषाओं की संख्या पर इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। 2001 के जननांकीय आंकड़े में गैर अनुसूचित भाषाओं की संख्या 100 थी लेकिन 2011 के आंकड़े में यह संख्या 99 रह गई, कारण सिमते और पर्सियन भाषा 10,000 की संख्या पार नहीं कर पाई। माओ भाषा जो 1991 में 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाती थी 2011 की जननांकीय आंकड़े में इनके बोलने वालों की संख्या जादुई आंकड़े को पार कर गई। जननांकीय आंकड़े में भाषाओं की संख्या कम या ज्यादा होने का यह तात्पर्य बिलकुल न निकाला जाय कि किसी नई भाषा ने जन्म लिया है अथवा कोई भाषा विलुप्त हो गई है।
1971 से पहले इस जादुई आंकड़े का अस्तित्व नहीं था। इसके पश्चात राष्ट्रीय सुरक्षा को आधार बनाकर इस जादुई आंकड़े का प्रावधान किया गया। इस प्रकार 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली मातृभाषाएं जननांकीय प्रतिवेदन में दृश्यमान ही नहीं हो पाती हैं। इस प्रकार हमारे पास कोई ऐसा आधिकारिक आंकड़ा नहीं बचता है जिससे यह पता लगे कि वास्तव में कितनी मातृभाषाएं विलुप्ति के कगार पर खड़ी संघर्ष कर रही हैं? यही वो भाषाएं हैं जिनके विलुप्त होने के ज्यादा खतरे हैं।
विश्व में लगभग 6000 से 7000 भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन भाषाविदों की स्वीकृति है कि इनमें से लगभग आधी भाषाओं का अस्तित्व भविष्य में मात्र कुछ पीढ़ियों के अंतराल में ही समाप्त हो जाएगा, क्योंकि इन भाषाओं का सक्रिय प्रयोग धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। नई पीढ़ी उस क्षेत्र की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त एवं प्रभावशाली भाषा को सीखने एवं प्रयोग करने में रुचि दिखा रही है।
इस समस्या की विकरालता का आभास हमें इसी तथ्य से मिलता है कि पूरे विश्व में अंग्रेजी, चीनी, हिंदी, उर्दू एवं स्पेनिश आदि विश्व की प्रमुख 20 भाषाओं के बोलने वालों की संख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत है। लेकिन वहीं कुछ भाषाएं ऐसी भी हैं, जिनके बोलने वालों की संख्या कुछ हजार या कुछ सौ के आस-पास है।
हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि बहुसंख्यक भाषाओं में ही आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक शक्तियों के केंद्रित होने की प्रवृत्ति होती है। परिणामस्वरूप वृहत्तर समाज की भाषा तो उत्तरोत्तर विकास करती जाती है, लेकिन अल्पसंख्यक भाषाएं जिनके बोलने वालों की संख्या पहले से ही तुलनात्मक रूप से कम रहती है, उनका मूल समुदाय मजबूर होकर प्रभावशाली भाषाओं की तरफ मुड़ जाता है।
भाषाओं के समुंदर में भी एक तरह से मत्स्य न्याय की अवस्था देखने को मिलती है। बड़ी भाषाएं छोटी भाषाओं को निगलने के लिए तैयार बैठी हैं, और समाज भी कभी-कभी मुख्य धारा में जोड़ने के नाम पर, शिक्षा के नाम पर, रोजगार के नाम पर तो कभी प्रतिष्ठा के नाम इस अवस्था में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग करता है। वास्तव में संख्या बल में छोटी भाषाओं के वक्ताओं की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है जब वह दूसरी भाषा में दक्ष नहीं हो पाता और अपनी भाषा भी धीरे-धीरे भूलने लगता है। अंत में वह न तो पूर्ण रूपेण अपनी भाषा का रह पाता है और न ही प्रभावशाली भाषा के लोग उसे अपनी भाषा का वक्ता मानते हैं।
बड़े-बड़े विद्वान अल्पसंख्यक भाषाएं बोलने वालों को अपनी भाषा से चिपके रहने के लिए प्रवचन देते हैं। लेकिन अपने खुद के बच्चों को अपनी मातृभाषा से इतर अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में शिक्षा के लिए भेजते हैं और बड़े इतराते हुए बताते हैं कि मेरा बेटा अंग्रेजी में बहुत दक्ष है। वह घर में भी इसी प्रभावशाली भाषा का अबाध गति से व्यवहार करता है। ऐसे दोहरे सज्जनों का गर्व तब और बढ़ जाता है जब वे कहते हैं कि मेरा बेटा अपनी मातृभाषा अब भूल चुका है। लेकिन अल्पज्ञात भाषा-भाषी समुदाय के लिए यही पैमाना उल्टा हो जाता है।
संकटापन्न भाषाओं के प्रलेखन एवं संरक्षण को लेकर भारत सरकार एवं अन्य स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किए जा रहे हैं। भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर द्वारा संकटापन्न भाषाओं के संरक्षण एवं संचयन की एक परियोजना 2014 से कार्य कर रही है जिसमें लगभग 500 मातृभाषाओं के प्रलेखन की योजना है।
इसी क्रम में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अनुशंसा पर पूरे भारतवर्ष में कुल 9 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में संकटापन्न भाषाओं के अध्ययन, प्रलेखन एवं उनके प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र खोले गए हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा भी कुछ मातृ भाषाओं का प्रलेखन अध्येता कोश के रूप में कर रहा है। साथ ही भारत के मशहूर भाषाविद गणेश देवी द्वारा स्थापित गैर-सरकारी संस्थान ‘भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर, बड़ौदा’ द्वारा पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (पी एल एस आई) के द्वारा भी भाषाओं के प्रलेखन का कार्य किया जा रहा है।
इन सभी परियोजनाओं में अल्पसंख्यक भाषाओं के प्रलेखन पर जोर दिया जा रहा है। इसके मूल में यह भय नजर आता है कि कहीं ये भाषाएं समाप्त हो गईं तो हमारे पास इन भाषाओं से संबंधित कुछ अभिलेख तो बचे रहेंगे। बात शुरू हुई थी भाषाओं के विलुप्तीकरण की चिंता के साथ और विलुप्तीकरण को रोकने या उनके पुनरुत्थान को लेकर और हमने अपने को मुख्य रूप में सिर्फ भाषा प्रलेखन तक समेट लिया!
क्या ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा कि हम सिर्फ भाषा प्रलेखन करके इससे बड़े प्रश्न भाषा संरक्षण या पुनरुत्थान की बड़ी जिम्मेदारी से नजरें चुरा रहे हैं? यूं कहें कि मूल प्रश्न से ही भटकते नजर आ रहे हैं।
ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे हम जीवित भाषाओं के कब्रिस्तान (क्षमा के साथ) बना रहे हों अर्थात उनके व्याकरणिक साहित्यिक या सांस्कृतिक अभिलेखागार बनाकर, उन्हें पुस्तकों में डंप करके भाषाई अजायबघरों की शोभा और संख्या बढ़ा रहे हैं।
मैं यह नहीं कह रहा कि अल्पज्ञात भाषाओं के प्रलेखन का काम महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन क्या सिर्फ प्रलेखित सामग्री ही विलुप्ति के कगार पर खड़ी भाषाओं को ऊर्जावान बना देगी अथवा इसके अतिरिक्त भी हमें कुछ करने की आवश्यकता है? कुछ भाषाविज्ञानी प्रलेखन को सबसे ज्यादा महत्व इस आधार पर देते हैं कि भारत की नई शिक्षा नीति मातृभाषा में शिक्षण को बढ़ावा देने की बात कर रही है और ऐसी परिस्थिति में प्रलेखित सामग्री का शैक्षणिक सामग्री के रूप में प्रयोग किया जा सकेगा लेकिन जहां तक मेरा अनुभव है अल्पज्ञात भाषाओं के प्रलेखन हेतु प्रभावशाली भाषाओं को ही माध्यम बनाया जा रहा है, ऐसे में अल्पज्ञात भाषाओं पर और दबाव ही बढ़ने की आशंका है। कुछ अल्पज्ञात भाषा-भाषियों को यह भी कहते हुए पाया गया है कि यदि मेरी मातृभाषा समृद्ध होती तो प्रलेखन के लिए किसी अन्य प्रभावशाली भाषा की आवश्यकता क्यों पड़ती?
अल्पज्ञात भाषाओं को उन्हीं की मातृभाषाओं में प्रलेखित करने के संबंध में कुछ विद्वान पहला प्रश्न लिपि का उठाते हैं कि अल्पज्ञात भाषाओं की लिपि नहीं है तो उनका प्रलेखन उनकी भाषा कैसे हो सकता है? दूसरा प्रश्न प्रलेखित सामग्री की पहुंच को लेकर उठाते हैं कि यदि अल्पज्ञात भाषाओं को उन्हीं की भाषा में प्रलेखित किया जाए तो इस सामग्री की पहुंच उस समुदाय से बाहर कैसे पहुंचेगी?
उपर्युक्त दोनों प्रश्न काफी महत्वपूर्ण और संवेदनशील हैं विशेष रूप से लिपि का प्रश्न तो अत्यधिक संवेदनशील है। लेकिन इन प्रश्नों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। लिपि का मामला बहुत कठिन नहीं है। अल्पज्ञात भाषाओं की ध्वनि साम्यता एवं समुदाय की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए समुदाय के निकट की भाषा की उपलब्ध लिपि में यथोचित परिवर्तन करके सुसंगत लिपि को भाषा प्रलेखन के लिए अपनाया जा सकता है, बशर्ते कि प्रलेखित की जा रही भाषा की ध्वन्यात्मक विशिष्टता बर्बाद न होने पाए।
जहां तक दूसरे प्रश्न की बात है हमें पहले अल्पज्ञात भाषा-भाषी समुदाय के लिए कुछ शैक्षणिक सामग्री उनकी भाषा में तैयार करने के पश्चात प्रलेखित सामग्री को शोध आलेखों के जरिए इसकी पहुंच को बढ़ाया जा सकता है।
मेरे विचार में जननांकीय आंकड़ों और प्रलेखन को लेकर निम्न बिंदु महत्वपूर्ण हैं-
(1) जननांकीय आंकड़े को एकत्रित करने के लिए लगाए गए लोगों को संक्षिप्त रूप में भाषाविज्ञान की भी जानकारी प्रदान करना अथवा प्रशिक्षित करना आवश्यक है जिससे कि वे व्यक्तिबोली, उपबोली, बोली, समाजबोली एवं भाषा की संकल्पना को समझ सकें।
(2) मातृभाषा के साथ-साथ उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा की भी जानकारी ली जाए। सिर्फ मातृभाषा पर जोर रहने के कारण अनेकों मातृभाषाएं 10,000 के जादुई आंकड़े को पार नहीं कर पातीं और जननांकीय आंकड़े में ‘अन्य’ की श्रेणी में अपना स्थान सुरक्षित कर वृहत्तर समुदाय के लिए अदृश्यमान हो जाती हैं। अल्पज्ञात भाषा-भाषियों की वास्तविक संख्या पता न होने पर भाषाओं के प्रलेखन एवं पुनरुत्थान की आवश्यकता की गंभीरता की वास्तविक जानकारी नहीं हो पाती और इस प्रकार भाषाविदों या परियोजना के पदाधिकारियों को प्राथमिकताएं निर्धारित करने में समस्या आती है।
हमारे पास अल्पज्ञात भाषाओं का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध न होने से विभिन्न व्यक्ति या संस्थाएं अपनी समझ के आधार पर प्राथमिकताएं निर्धारित करके उन भाषाओं पर कार्य कर रहे हैं। भाषाई पहचान और प्रलेखन का मुद्दा सिर्फ संकटग्रस्तता के प्रश्न तक सीमित न होकर कई प्रकार की संवेदनशील स्थितियों से भी होकर गुजरता है इसलिए इस मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की प्राथमिकताओं को भी बराबर ध्यान में रखा जाना चाहिए।
(3)अल्पज्ञात भाषा-भाषी समुदाय में से कुछ ऐसे लोगों का चुनाव कर भाषा प्रलेखन एवं पुनरुत्थान में प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है जिन लोगों में अपनी भाषा के पुनरुत्थान के प्रति लगन एवं जज्बा हो। समुदाय द्वारा किये जाने वाले कार्य की विश्वसनीयता अधिक होगी और वे खुद अपनी प्राथमिकताएं तय करके कार्य को आगे बढ़ाएंगे।
(4)प्रलेखन में पूर्ण व्याकरण या कोश बनाने से पहले, उन भाषाओं में छोटी-छोटी द्विभाषिक शैक्षणिक सामग्री तैयार करने की आवश्यकता है जिससे समुदाय के बच्चे तुरंत लाभ उठा सकें, जैसे- सचित्र शब्दावली, अर्थीय क्षेत्रों पर आधारित छोटो-छोटे आकर्षक कोश, वार्तालाप पुस्तिका इत्यादि।
(5) अल्पज्ञात भाषा-भाषी समुदाय को अपने समुदाय में भाषा-प्रशिक्षण के शिविर आयोजित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए जिसमें सिर्फ और सिर्फ मातृभाषा में ही बात करें, खेलों का आयोजन एवं सांस्कृतिक आयोजन करें। इसकी प्रबल संभावना है कि धीरे-धीरे उसमें समुदाय के बाहर के लोग भी जुड़ जाएंगे और बोलने वाले नए लोग हो जाएंगे।
(6) सोशल मीडिया एवं मोबाइल का प्रयोग भाषा प्रलेखन, संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार के लिए करना सिखाया जाए- जैसे अपनी भाषा में संदेश रिकार्ड करके अथवा टंकित करके प्रेषित करना, सांस्कृतिक आयोजन का विडीयो बनाना इत्यादि।
(7) अल्पज्ञात भाषा-भाषी समुदाय को अपनी सांस्कृतिक एवं भाषाई विशिष्टता को परिलक्षित करते हुए प्रदर्शनी का आयोजन करना चाहिए जिसमें कलाकारी से संबंधित वस्तुओं को बनाएं और बेचें। इससे समुदाय अपनी भाषा एवं संस्कृति के माध्यम से कुछ जीवन यापन के लिए अर्थ जोड़ पाएगा। अर्थ से जुड़ने पर भाषा की विलुप्ति के खतरे कम हो जाएंगे।
विश्व का विद्वत समाज गवाह है कि भाषाएं सिर्फ प्रलेखित होने मात्र से नहीं बचतीं। देखा गया है कि बहुत सारी भाषाएं विपुल प्रलेखित सामग्री होने के बावजूद भी नहीं बच पाईं और कुछ भाषाएं विलुप्त होने के बाद भी (जैसे- तो माओरी, हिब्रू, कोरनिश इत्यादि) जहां-तहां जो भी सामग्री उपलब्ध हुई, उसके साथ और अपने गहरे अस्मिताबोध के बलबूते पर सामुदायिक एवं संगठित प्रयासों द्वारा न केवल पुनर्जीवित हुईं बल्कि वर्तमान समय में खूब फल-फूल रही हैं।
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अति उत्तम, अद्यतन एवं ज्ञानवर्धक लेख
एक सार्थक और विचारोत्तेजक परिचर्चा
नमस्कार आप सभी लोगों को। आप लोगों के कोशिश बहुत बढ़िया हैं।