युवा कवयित्री। कविता संग्रह ‘ओ रंगरेज’, ‘वर्जित इच्छाओं की सड़क’ और आंचलिक विवाह गीतों का संकलन ‘मड़वा की छाँव में’ प्रकाशित। संप्रति : स्वतंत्र लेखन।
उतना ही दूर होना चाहती हूँ
तुमसे मिलने के बाद
उतना ही
दूर होना चाहती हूँ
जितना एक फूल को खिलने के लिए
मुट्ठी भर मिट्टी चाहिए
उतना ही दूर होना
जितना कि आसमान से गिरी
बूंदों को मिल सके जगह
समाने के लिए पृथ्वी में
तुम्हारे होंठों का हल्का सा चुंबन लेकर
उतना ही दूर होना चाहती हूँ
जितना कि सीप में
मोती बनने की जगह बची रहे
तुम्हारी आंखों के जल को
हमेशा बचाए रखना चाहती हूँ
ताकि जब धधकता हो लावा मन में
तो उसमें स्नान कर सकूं
तुमसे गले मिलने के बाद
उतना ही दूर होना चाहती हूँ
जितना तुम्हारी कमीज के रेशे
छूते हों तुम्हारी देह को
कस कर जकड़ने से प्रेम मरने लगता है
इसलिए उतना ही
दूर रहना चाहती हूँ
जितना कि उर्वरता बची रहे।
कविताएं वहां मिलें
मेरी कविताएं वहां मिलें
जहां मुश्किलों को पार कर
बहती हो कोई नदी
मेरी कविताएं वहां मिलें
जहां बेखौफ़ आकाश में उड़ता कोई परिंदा
मेरी कविताएं वहां मिलें
जहां कोई निकाल रहा हो
कांटे अपने तलवों से
मेरी कविताओं से
कोई छाया मेरे चेहरे पर मिले
जहां संघर्ष कर रहे हो मेरे पांव
मेरी कविता
किसी प्रेमी से
वहां मिले जब वह ले रहा हो निश्छल चुंबन।
संपर्क :ग्राम व पोस्ट-मोहनपुर भवरख, जिला-मिर्ज़ापुर, उ.प्र.- 231001/ मो. 9451185136ई मेल–anumoon08@gmail.com
अनुराधा ‘ओस’ की कविता,, उतना ही दूर होना चाहती हूं’ निश्छल प्रेम की अद्भुत बानगी है। इनकी इस कविता की हरेक पंक्ति सहज प्रेम को इस तरह परिभाषित कर रही है जैसे कोई नादान बच्चा समझना चाहता हो प्रेम का मर्म।यह सच है कि प्रेम में प्रगाढ़ता हेतु एक दूसरे के बीच दूरी होनी ही चाहिए पर उतनी भी नहीं कि दूरियां कभी बदल न सके नजदीकियों में,, प्रेम के असल स्वरूप को व्याख्यायित करती कविता,, उन्हें बहुत बधाई
*राजेश पाठक
गिरिडीह (झारखंड)
“ये कविताएं एक स्त्री मन की कलात्मक अभिव्यक्ति तो हो सकती है और अच्छी भी लग सकती है।इनमें एक तरह का समर्पण और उदार भावनात्मक सौन्दर्य भी देखा जा सकता है परन्तु ये कविताएं अपने युग बोध को प्रतिबिंबित नहीं करती है।”