अब तक दो काव्यसंग्रह यह मौसम पतंगबाज़ी का नहीं हैऔर अचानक कबीर’| संप्रति स्वतंत्र लेखन

धूल-गर्द में सना
पुराना ही नहीं
बहुत पुराना
तांबे का एक बड़ा-सा देग है
जिसका तांबई रंग फीका पड़ गया है
थके हुए देग से
उदास काई की बदबू आने लगी है
यह इस इलाके का बचा हुआ
इकलौता तांबे का देग है
जिसे अब लकड़ियों की आंच नसीब नहीं होती
कोई इसे अपनी खुशियों में नहीं करता शामिल
उस जमाने के पुलाव की
बहुत ही हल्की-सी महक से
अपने खालीपन को भरने की कोशिश में
उसका पूरा दिन बीत जाता है
किसी तरह अंधेरे में कट जाती है रात
बिना हिले-डुले
घर के एक कोने में पड़ा है बरसों से
अब वही जवान होते बच्चे
इसे हिकारत भरी नजरों से घूरने लगे हैं
जो बचपन में लुकाछिपी खेलते हुए अकसर
पकड़े जाने के डर से
इसी देग में घुसकर छुप जाया करते थे
तांबे का यह देग
अब किसी बीमार बूढ़े की तरह
रात-दिन
कराहता रहता है…!

संपर्क :मिल्लत कॉलोनी, वासेपुर, धनबाद ८२६००१ (झारखंड)