डॉ. अंबेडकर विश्वविद्यालय में एकेडमिक फेलो। ‘नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी’ नामक किताब प्रकाशित।
भारतीय समाज की निर्मिति में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान है, उनके बिना देश के लोगों के विविधतापूर्ण जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।भारत में छोटी-बड़ी नदियों से सिंचित इलाके न केवल धन-धान्य से परिपूर्ण हुए, बल्कि उन्होंने एक विशिष्ट प्रकार की संस्कृति, भाषा, संगीत और आर्थिक प्रणालियों को जन्म दिया।गंगा नदी के जल ग्रहण क्षेत्र के रहने वाले निश्चित ही चंबल नदी के किनारे के निवासियों से भिन्न हैं।जो संगीत ब्रह्मपुत्र के किनारे उपजा, उससे जुदा किस्म का संगीत ब्यास नदी या महानदी के किनारे पल्लवित-पुष्पित हुआ।मौर्योत्तर काल से लेकर विजयनगर के सुलतानों के काल तक दकन और उससे भी नीचे की ओर विभिन्न नदियों के कांठे में विशिष्ट प्रकार की आर्थिक व्यवस्थाएं, सामाजिक गढ़ंत और धार्मिक विचार पैदा हुए।इसमें संदेह नहीं है कि भारत की विविधता को नदियों ने विकसित किया है।
नदियों के किनारे विभिन्न प्रकार के समुदाय और पेशे बने तथा विकसित हुए।नाव बनाने वाले, नाव चलाने वाले, निषाद, मछुआरे, धोबी, शराब बनाने वाले, फूल बेचने वाले, पुजारी और संन्यासी इनके किनारे बसते रहे हैं।नगरों को इन्होंने बार-बार बसाया।नदियों ने कभी-कभी नगरों को त्याग भी दिया।नगरवासियों को यह बात याद रखनी चाहिए।जब नदी नगर को त्याग देती है तो नगर मर जाते हैं।सिंधु सभ्यता के दौर में ऐसा हो चुका है और इतिहास अपने को दोहरा भी देता है।
सदियों से नदियों में मल्लाह हैं।इन्होंने अर्थव्यस्था के एक प्राथमिक क्षेत्र को मछलियों के जरिए चलायमान रखा है।राज्यों को मछली और मछली मारने वाले लोगों ने एक लंबे समय तक जीवित रखा।नदियों ने देश को पोषण प्रदान किया, लेकिन पिछले चार-पांच दशकों में इनको राज्य और समाज के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
नदियों में विभिन्न प्रकार का प्रदूषण बेतहाशा बढ़ा है।पीने को तो जाने दीजिए, नदियों का पानी नहाने लायक भी नहीं बचा है।मछलियों, कछुओं और विभिन्न प्रकार के जलीय जीवों का अस्तित्व संकट में आ गया है, उनकी कई प्रजातियां नष्ट हो गई हैं।नदियों के प्रति आम जनमानस में जो पूर्ववत सम्मान था, वह लुप्तप्राय होता गया है।यमुना दिल्ली के किनारे से होकर बहती है।दिल्ली में देश के सर्वाधिक शक्तिशाली लोग रहते हैं, लेकिन दिल्ली में बाईस किलोमीटर तक यमुना नदी की जो दुर्दशा हुई है, वह किसी से छिपी नहीं है।
पूर्ववर्ती समय में, पूरी दुनिया में पर्वतों और समुद्र तटों पर बसे समुदायों में प्राकृतिक संसाधनों को लेकर एक सामूहिक भावना काम करती थी।भारत के प्राचीन समुदायों के संदर्भ में अनुपम मिश्र ने इसे ‘स्वामित्व विसर्जन यानी मिल्कियत मिटाने का विचार’ कहा था।इसी प्रकार एलिनर ओस्ट्रम ने कनाडा के न्यू फाउंडलैंड और नोवा स्काटिया के तट पर बसे मछुआरों के गांवों के फील्ड अध्ययन के बाद दिखाया था कि वहां बसे हुए लोग किस प्रकार मत्स्य संसाधनों का प्रबंधन करते हैं।यहां मिल्कियत मिटती नहीं, लेकिन उसपर खेसरा-खतौनी वाला दावा भी काम नहीं करता है।बल्कि एक समझदारी काम करती है, जिसके आधार समुदाय द्वारा निर्धारित किए मानक होते हैं।यह समझदारी कम होते-होते लुप्त होने के कगार पर है।
नदियों के किनारे छोड़ी गई विशाल भूमि पर इधर लगातार हिंसक संघर्ष बढ़े हैं।न केवल नदी आश्रित समुदायों के भीतर शक्तिशाली लोग इसपर काबिज हो जाना चाहते हैं, बल्कि रियल इस्टेट वाले तो नदी की धारा पर भी अपार्टमेंट बना देना चाहते हैं।इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय को एक आदेश पारित करना पड़ा था।एक गंभीर नैतिक संकट नदी के किनारे और उससे बाहर की दुनिया में पसर रहा है, जिसमें संसाधनों की अनियंत्रित लूट और ध्वंस शामिल है।
इसी के साथ नदियों के किनारे विभिन्न समुदायों का राज्य और इसकी एजेंसियों के साथ संघर्ष बढ़ा है।इसके कारण एक पर्यावरणीय राजनीति विकसित हो रही है, लेकिन वह अभी राजनीति की मुख्यधारा को प्रभावित करने की हैसियत में नहीं आ पाई है।यहां एक बात और जोड़ी जानी चाहिए कि नदियों पर आधुनिक राज्य की एकाधिकार भावना पनपी है।उसने अपने आपको नदियों की नियति का कर्ता-धर्त्ता मान लिया है और उनके जीवन में समुदायों की भूमिका को अत्यंत सीमित कर दिया है।उधर मुख्यधारा का समाज है जो इसमें अपनी कोई भूमिका नहीं खोज पा रहा है और ज्यादा से ज्यादा एक कर्मकांडपरक श्रद्धा प्रकट कर नदियों से अपना पीछा छुड़ा लेना चाहता है।
नदियों पर शोध, विशेषकर उस तरह के शोध जिनमें समुदायों की भूमिका का मूल्यांकन हो, अभी शैशवावस्था में है।विद्वानों का एक छोटा सा लेकिन प्रतिबद्ध वर्ग जरूर उभरा है जिसने पिछले ३० वर्षों में नदी प्रदूषण, समुदाय, शहरीकरण और उसकी चुनौतियों पर काम किया है।कई उपन्यासकार इस दिशा में आगे आए हैं।अभी हाल ही में अनीता अग्निहोत्री ने ‘महानदी’ और उसके किनारे के जीवन पर एक उपन्यास बांग्ला भाषा में लिखा, फिर उसे अंग्रेज़ी और हिंदी में अनूदित किया गया।इसके पहले नागार्जुन, मायानंद मिश्र, अद्वैत मलवर्मन और माणिक बंद्योपाध्याय ने नदियों के किनारे की जिंदगी को अपने उपन्यासों में जगह दी है।
संस्कृत सहित लगभग सभी भारतीय भाषाओं में नदियों को सांस्कृतिक, धार्मिक और लौकिक संदर्भों में प्रस्तुत किया गया है।वाल्मीकि रामायण के बालकांड में गंगावतरण की कथा है।यह कथा एक रात में विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को सुनाई गई है।ऋग्वेद में सरस्वती एक प्रमुख नदी है।वह मनुष्यों की मेधा बढ़ाने वाली बताई गई।वह लोगों को समृद्धि देती है।इसी के साथ ऋग्वेद के तीसरे मंडल में विश्वामित्र विपात एवं शतुद्रि नदियों से संवाद करते हुए नदियों को बहन कहते हैं।
महाभारत तक आते-आते गंगा नदी पार्थिव संदर्भों और मानवीय देह के साथ हमारे सामने उपस्थित होती है।महाभारत का कवि गंगा नदी के शारीरिक सौष्ठव का वर्णन करता है और एक सुदर्शन पुरुष गंगा नदी से प्रणय निवेदन करते हुए देखा जा सकता है।हम एक लंबे कालखंड में वाल्मीकि, कालिदास, शंकराचार्य, विद्यापति, पंडितराज जगन्नाथ, तुलसीदास, पद्माकर, गालिब, भारतेंदु हरिश्चंद और निराला को नदियों की प्रशंसा में कविता और प्रार्थना लिखते हुए देख सकते हैं।
ब्रज प्रदेश में सूरदास ने यमुना नदी से उलाहना देते हुए कहा था कि मैं तुम्हारा कवि हूँ और तुम्हारे सम्मान के लिए गाता हूँ।साहित्य में नदियों के प्रति यह सम्मान क्षीण हुआ है।बनारस और इलाहाबाद में, आधुनिक समय में गंगा नदी पर केंद्रित कविताएं लिखी गई हैं, चंबल, कर्मनाशा और कुआनो पर कविताएं लिखी गई हैं, लेकिन बहुत सारी चीजों की तरह साहित्य में वे प्रमुख रूप से नहीं, बल्कि सकुचाते हुए आती हैं और वह भी थोड़े से समय के लिए।
नर्मदा के किनारे के आंदोलनों पर अभी ओजस एस वी और उनके साथी एक किताब ‘नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं’ लेकर आए हैं, लेकिन अन्य नदियों के किनारे जो राजनीति विकसित हुई है, उसपर काम बहुत कम हुआ है। ‘नदी पुत्र : उत्तर भारत में नदी और निषाद’ नामक किताब में मैंने एक छोटी सी कोशिश की है।अभी इस दिशा में बहुत काम किया जाना बाकी है।यह अच्छी बात है कि इधर पिछले दस वर्षों में भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में युवा नदियों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर शोधकार्य कर रहे हैं।
देखा जाए तो जिस दौर में उत्तराखंड में ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ था, लगभग उसी समय में बिहार के भागलपुर में ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ चला था, १९८२ के बाद।इस आंदोलन की एक प्रमुख मांग गंगा में मछली मारने और नदी के किनारे प्रदूषणकारी उद्योग न लगाने की थी।इस आंदोलन को कोई वैसा इतिहासकार और अंतरराष्ट्रीय ध्यानाकर्षण नहीं मिल पाया, जिस प्रकार चिपको आंदोलन और मध्य भारत के जंगलात प्रतिरोधों को मिला है।
मैं वर्ष २०२२ में भागलपुर के कहलगांव गया था।वहां के मछुआरों का कहना था कि जिस तरह ‘नदी का अपहरण’ कर लिया जाता है, वह चिंताजनक है।यहां अगस्त के बाद जब मछलियां अंडे देने के लिए उथले किनारों पर विकसित हुई ‘कोल और ढाब’ नामक जल-संरचनाओं के अंदर प्रवेश करती हैं तो उन्हें दबंग समूहों द्वारा कृत्रिम रूप से रास्ता रोककर दुबारा गंगा में नहीं जाने दिया जाता है।इस प्रकार गंगा नदी की मत्स्य संपदा कम हो जाती है और मछुआरों की आय पर इसका असर पड़ता है।मछुआरे इसका विरोध करते हैं।इन सब बातों पर अध्ययन नहीं हुए हैं।इससे नदी, समाज और समाज विज्ञान में एक दूरी बन गई है।
इस पृष्ठभूमि में हम नदियों की सेहत और उसकी सामाजिकी पर एक परिचर्चा आयोजित कर रहे हैं जिसमें शोधछात्र के अलावा प्रमुख पर्यावरणीय कार्यकर्ता, सामुदायिक नेता, संत, पत्रकार और समाज विज्ञानी भाग ले रहे हैं।
सवाल
(१) आप नदियों से संबंधित शोध/एक्टिविज्म से कब और कैसे जुड़े? क्या इसने दुनिया के प्रति आपके नजरिये में कोई परिवर्तन किया?
(२) आज के भारत में नदियों के सामने कौन-सी चुनौतियां हैं? क्या बड़ी नदियों और छोटी नदियों से संबंधित मामले अलग-अलग देखे जा सकते हैं?
(३) नदियों के किनारे रहने वाले कौन से समूह हैं जो उससे प्रभावित हुए हैं और भारतीय राज्य से वे किस प्रकार संघर्षरत हुए हैं?
(४) जिस तरह से विकसित और समृद्ध लोगों का जीवन नदी से जुड़ा है, उसी प्रकार कमजोर और गरीब लोगों, हाशियायी तबकों का जीवन नदी से नहीं जुड़ा है।आप इसे कैसे देखते हैं?
(५) नदियों की बेहतरी के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
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धनंजय चोपड़ा पत्रकारिता और जनसंचार के क्षेत्र में विपुल कार्य।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के पाठ्यक्रम समन्वयक।हालिया प्रकाशित पुस्तक, ‘लोक गायन कजरी संचार, शोध और मीडिया’। |
नदियों और नदियों से नातेदारी रखने वालों का क्या हाल है?
(१) २००१ जनवरी का महीना था।मैं एक अखबार के संवाददाता के रूप में २१वीं सदी के पहले प्रयाग महाकुंभ की रिपोर्टिंग करने के लिए संगम की रेती पर था।ऐसा लग रहा था कि पूरा भारत सिमटकर अपनी विशाल सांस्कृतिक संचेतना के साथ गंगा और यमुना नदियों के तट पर उपस्थित हो गया है।मैंने देखा था अथाह जनसमूह को बड़े ही विश्वास और आस्था के साथ इन दोनों नदियों की ओर जाते हुए।सदियों से अनवरत चली आ रही एक अद्भुत सी तीर्थ यात्रा, जो अपनी सामाजिक ताने-बाने के केंद्र में नदियों को रखकर पूरी होती है।
लोगों की अंजुरी भर पानी पाने की ललक बता दे रही थी कि ये दोनों नदियां उनके लिए क्या मायने रखती हैं।मेरे लिए अप्रतिम था यह देखना कि किस तरह असंख्य लोग इन नदियों के बहाने अपनी संस्कृति, परंपराओं, संस्कारों, अनुष्ठानों और सरोकारों को बचाने का उपक्रम करते हैं।मैं तब चालीस दिनों तक संगम की रेती पर रहा था।
मैंने देखा था नदियों के सान्निध्य में धर्म की आवाज बुलंद होते हुए, संस्कृति और परंपराओं को नदियों के विस्तृत पाट पर कुलांचे भरते हुए, राजनीति की गुहार लगते हुए, सत्ता को मदमस्त होते हुए, बाजार को सजते हुए, चूल्हे और हवन का धुआं एक साथ उड़ते हुए, लोगों को दुख और सुख से परे होते हुए, कई-कई पीढ़ियों को खुशियों का कुंभ सहेजते हुए।यह पहला मौका था, जब मैं संस्कृति की किताबों के उन पृष्ठों को सच होते देख रहा था, जिनमें नदियों के किनारे सभ्यताओं के बसने की बात कही गई थी।मेरी आंखों के सामने एक भरी पूरी कुंभ नगरी बसी, फिर अपनी पूर्णता को प्राप्त करके खत्म भी हो गई।
नदियों में इतनी ताकत है कि वह लोगों को आपस में जोड़ सकती है।वह संस्कृतियों को जीवन दे सकती है।लोगों को जीने की ताकत दे सकती है।जीने के उपक्रम मुहैया करा सकती है।यही नहीं, नदियां जीवन के विविध सरोकारों को निभाने में लोगों की मदद करती हैं।यह अनायास नहीं है कि जो नगर नदियों के किनारे बसे, उनके नागरिकों ने सामाजिक नातेदारियों को बखूबी निभाया और निभाते आ रहे हैं।सच कहूं तो ये वे दिन थे, जब मैं नदियों के करीब होता चला गया और उन तक पहुंचना और उनसे बतियाने का सुख उठाना मेरा पसंदीदा काम बन गया।
(२)हमें यह बात माननी पड़ेगी कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ नदियों का विकास नहीं हुआ।हमने शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करने में ही सारा ध्यान लगाया।नदियों की तरफ तो हमारा ध्यान ही नहीं गया।हमने उन्हें बांधने की जुगत तो लगाई, लेकिन कभी उससे खुद को बांधने का प्रयास नहीं किया।विकसित होते शहरों को जीवन देने वाली इन नदियों को हमने यूं ही छोड़ भर नहीं दिया, बल्कि शहरी विकास के लिए उनका भरपूर दोहन भी किया।लोग नदियों को पूजते रहे, लेकिन उनकी दशा पर किसी को भी तरस नहीं आई।
आजादी के बाद कितने चुनाव हुए, लेकिन कभी भी राजनीतिक एजेंडे पर नदियां नहीं आईं।अपने क्षेत्र की नदियों को किसी भी विधायक या सांसद ने अपने चुनावी वादों तक में शामिल नहीं किया।नतीजा यह हुआ कि नदियां जमकर प्रदूषण और खनन का शिकार होती चली गईं।
पिछले दो-तीन दशकों में बुंदेलखंड की नदियों से जिस तरह अवैध बालू खनन की बाढ़-सी आ गई है, उससे यहां की नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है।कई स्थानों पर नदियां जीवन रेखा होने का भाव खो चुकी हैं।इलाके के लोग अपनी आंखों के सामने अपनी नदी को मरते देखने के लिए अभिशप्त हैं।वास्तव में जिन नदियों को सामाजिक नातेदारी का हिस्सा होना चाहिए था, वे परंपराओं और अनुष्ठान का हिस्सा तो बनीं, लेकिन सामाजिक हमजोली से वंचित रह गईं।
आज बहुत सारी छोटी-बड़ी नदियां अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।कहने को ढेर सारी योजनाएं हैं, कई कई नदियों को लेकर चलने वाले कई-कई आंदोलन हैं, मंत्रालय हैं, मंत्री हैं, अफसर हैं और नदियों को लेकर चिंता रखने वाले लोग हैं, फिर भी लोग अपनी नदियों के लिए जागरूक नहीं हैं।इसलिए हर पल अपनी कल-कल छल-छल से अपने इलाके को जगाए रखने वाली नदियों के प्रति लोगों को जगाना सबसे बड़ी चुनौती है।लोग जग जाएंगे तो व्यवस्था भी जगेगी।केवल ढोल पीटने से कुछ नहीं होने वाला।आवाज लोगों के भीतर से आनी है, तभी अपनी हालत पर बिसूरती नदियों की आवाज या यूं कहें उनका क्रंदन लोग सुन पाएंगे और अपनी जीवनदायिनी नदियों को बचा पाएंगे।नदियां बचेंगी तो हम सब बचेंगे।
एक गलती और हमने की है।वह यह कि हमने कुछ नदियों को बड़ी या इलीट मान लिया और पूरी शक्ति उन्हें बचाने में लगा दी।नतीजा है, छोटी नदियां उपेक्षा का शिकार होती चली गईं।कुछ खो ही गईं।मैं नदियों को छोटी-बड़ी में बांट कर देखना नहीं चाहता।नदियों के विभेदीकरण के वैसे ही खतरे हैं, जैसे खतरों का सामना हम जातीय और धार्मिक व्यवस्था में करते आ रहे हैं।लेकिन ढेर सारी ऐसी छोटी नदियां हैं, जो स्थानीय लोगों की स्मृति परंपराओं में बहुत बड़ी हैं।बहुत सी ऐसी बड़ी नदियां हैं, जिन तक अभी भी लोग नहीं पहुंच पाए हैं।मां, पिता, ईश्वर, गुरु, नदियां, पर्वत ऐसे शब्द हैं, जिनके ‘भाव पर्याय’ हो ही नहीं सकते।जब भाव पर्याय नहीं हो सकते तो फिर किसी विभेद की गुंजाइश नहीं रह जाती।
(३) नदियों से जिनका सीधा रिश्ता कहा जा सकता है, वे केवल और केवल निषाद जाति के लोग हैं।प्रायः हम मानकर चलते हैं कि ये लोग नावों के संचालन या मछली पालन से आजीविका चलाने वाले लोग हैं।मैं यह मानता हूँ कि यही वे लोग हैं जो दिल से चाहते हैं कि नदियां बनी रहें।ये वे लोग हैं, जो अपनी नदियों से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य और उनसे जुड़ी ढेर सारी पौराणिक, सामाजिक तथा धार्मिक कहानियों का बखान कर सकते हैं।पिछले दिनों केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय ने ‘नदी शहर गठबंधन’ नामक योजना की शुरुआत की है।सरकार का कहना है कि यह ‘नदी शहर गठबंधन’ योजना एक ऐसा प्लेटफार्म उपलब्ध कराएगी, जहां शहर के लोग नदी की स्वच्छता, नदियों के संरक्षण, जल से जुड़े मुद्दों सहित अन्य विषयों पर एक दूसरे के अनुभव साझा करेंगे, उनसे सीखेंगे तथा प्रगतिशील कार्य योजना पर काम करेंगे।इस योजना में निषादों की भूमिका के संदर्भ में न के बराबर कहा गया, जबकि ये सारे काम नदियों पर गुजर-बसर करने वाले निषाद सदियों से करते आ रहे हैं।सरकार यदि इन्हें ही यह काम सौंप दे तो ये अपनी नदियों की रखवाली भी करेंगे और लोगों को उनसे जोड़ने का काम भी बखूबी कर देंगे।
यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि अपने देश में नदियों पर गुजर-बसर करने वालों के विकास को ध्यान में रखकर कोई समेकित योजना नहीं बनी है।गंगा की सफाई पर सैकड़ों करोड़ रुपए १९८५ से अब तक स्वाहा हो चुके हैं, लेकिन गंगा के किनारे अपनी जिंदगी चलाने वालों के लिए कुछ भी सोचा-समझा नहीं गया।
(४)नदियों से नातेदारी, कुछ की सहज होती है और कुछ की स्वार्थ से जुड़ी होती है।जाहिर है, सहज नातेदारी हाशिए पर पड़ी रह जाती है और स्वार्थ कूद-कूद कर अपनी उपस्थिति जताता है।मुझे यह कहने में कतई गुरेज नहीं है कि समृद्ध लोगों ने अपने स्वार्थ को प्राथमिकता दी, कभी धर्म के नाम पर, कभी अनुष्ठान के नाम पर, कभी व्यापार के नाम पर।अपना मतलब साधा और निकल लिए।उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि इन नदियों से सहज नातेदारी रखने वालों का क्या हाल है, उनकी स्वार्थपरकता से उन पर क्या गुजर रही है या वे किस तरह प्रभावित हो रहे हैं।दरअसल समृद्ध लोग नदियों से तब तक जुड़े रहते हैं, जब तक उनका मतलब सिद्ध नहीं हो जाता, वहीं दूसरी ओर गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोग नदियों से उस तरह की नातेदारी नहीं बना पाते।इनकी नातेदारी बड़ी ही सहज और सरल होती है।मतलब का कुछ हिस्सा इनके पास भी होता है, लेकिन इनमें कुटिलता और बेपरवाही कम होती है।
(५)नदियां बहाव का पर्याय हैं।हम अपने शरीर में रक्त के बहाव को महसूस करते हुए अपनी धरती पर नदियों के बहाव पर सोचेंगे, तभी शायद हमें पता चल पाएगा कि दोनों ही बहाव, जीवन के पर्याय हैं।
मेरी नजर में बांध, बाढ़, खनन, प्रदूषण वे चार मुद्दे हैं, जिन्हें नदियों के अस्तित्व को बचाने में जूझने के एजेंडे में प्रमुखता से शामिल किया जा सकता है।हां, हम जैव-विविधता की सुरक्षा के मुद्दे से भी मुंह नहीं चुरा सकते।खेती, बिजली उत्पादन और जल परिवहन से नदियों की नातेदारी की समीक्षा होनी चाहिए।शहरों को स्मार्ट बनाने वाले विकास के मॉडल में नदियों की संरक्षा व संवर्धन की बात को मुख्य स्थान मिलना चाहिए।नदियों को नाले में बदलने वाले स्थानीय कारकों की पहचान करके ही प्रदूषण से निपटने की मुहिम चलानी होगी।जब मैं स्थानीय कारक कहता हूँ तो इसके मायने हैं।अभी तक कागज पर कही गई बातों पर अमल करने का नतीजा सामने है।अब अगर जमीनी सचाई को नकारा तो संभालने और बचाने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नदियां हमारे संग-संग उत्सव मनाती हैं, नदिया हमारी संस्कृतियों की गाथा कहती हैं, नदियां हमारे जीवन के प्रवाह को सुनिश्चित करती हैं।हम कह सकते हैं कि नदियां जीवन की निरंतरता बनाए रखने का पाठ पढ़ाती हैं।सच यह भी है कि जिन लोगों ने अपने संग बहने वाली नदियों को सूख जाने दिया है, वे बहुत कष्ट में रहे हैं।
संपर्क सूत्र :९८४/६ए, मीरापुर (इमली की ढाल, तिकोना पार्क के निकट) प्रयागराज- २११००३ ईमेल – c.dhananjai@gmail.com
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राघवेंद्र दास रामानंद संप्रदाय से संबंध रखनेवाले धार्मिक एक्टिविस्ट जो यायावर हैं। |
साधु–संतों का नदी आंदोलन मुख्यधारा में चर्चा का विषय नहीं बन पाता
नदी अक्सर सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ में लेखकों का प्रिय विषय रही है।सभ्यता-संस्कृति का दायरा विशाल है, जिसमें धर्म और जीवन की सूक्ष्मता पर विस्तार से प्रकाश किया जाता रहा है।नदियां सभ्यताओं की जननी के रूप में प्रतिष्ठापित हैं।इन विषयों के विद्वानों की मीमांसाएं सुस्पष्ट हैं।लोक में और शास्त्रीय आख्यानों में, नदियों का महत्व है और ये सिद्धियों के लिए अभीष्ट स्थान बताई गई हैं।
वैष्णव, शैव और शाक्त आचार्यों की जन्मस्थली – तपस्थली नदी ही रही है।धार्मिक लोग इसे संयोग नहीं मानते, नदी की पवित्रता महत्व की दृष्टि से देखी जाती है।नदियों से इतर धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती।आज जब नदियां जीवंतता के संकट से गुजर रही हैं, स्पष्ट कहा जा सकता है कि धर्म भी संघर्ष कर रहा है।भारत में नदी और धर्म का अन्योन्याश्रित संबंध है।किसी भी पूजा में नदियों का आवाहन और जल द्वारा शुद्धि की जरूरत होती है।आज जब नदियां संकट से गुजर रहीं, ऐसे में शास्त्रीय पूजा की प्रामाणिकता का संकट भी तेज हो रहा।इसे दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में नदी संकट से कर्मकांडीय परंपरा संकट में है।पिछली सदी में जीवन यात्रा करने वाले साधु-संन्यासियों में बहुतेरे थे, जिन्होंने कभी चापाकल या नल का जल नहीं पिया।इस सदी के तीसरे दशक में ऐसे साधु-संन्यासी अंगुली पर गिने जा सकते हैं।उस दौर में नदी जल की गुणवत्ता और आज के दौर का जो फासला है, वह भी मुख्य कारक है, इस प्रकार के व्रतियों के अभाव में।
धर्म और परंपरा की दृष्टि से देखें तो यह पूंजीवाद और भोगवाद में संक्रमण का दौर है।धर्म के प्रतीकों के राजनीतिक उभार के दौर में तथाकथित धार्मिक लोगों ने नदियों को प्रदूषित करने का कार्य अविच्छिन्न रूप से जारी रखा है।
ऋग्वेद का नदी सूक्त हो या पौराणिक आख्यानों में गंगा-नर्मदा प्रभृति के पृथ्वी पर प्राकट्य की कथा हो, नदियों के महत्व का वर्णन होता रहा है।कबीर भी जब ध्यान और समाधि के संबंध में कोई उदाहारण देते हैं तो गंगा-यमुना से तुलना करते हैं, इससे लोक जीवन पर नदियों के धार्मिक प्रभाव को समझा जा सकता है।
भारत में अब नदी आंदोलन ने अपना रूप बदला है, विभिन्न आंदोलनों में साधु-संतों की भूमिका रही ही है, वे ही नदी रक्षार्थ बलिदान भी करते रहे हैं।हरिद्वार का मातृसदन आश्रम, अपनी तरह का अकेला आश्रम हो संभवत: भारत में।संस्कृत और अन्य भाषाओं-विधाओं के विद्वान संन्यासियों ने सरकारों की उदासीनता गंगा-यमुना आदि के प्रति होने के कारण लगातार अनशन-विरोध किया है और मातृसदन कर रहा है।इस आश्रम के प्रमुख स्वामी शिवानंद हैं।इनके तीन शिष्य निगमानंद, गोकुलानंद और सानंद (प्रो. जी. डी. अग्रवाल) ने अपने जीवन को गंगा आंदोलन की वेदिका के कुंड पर हवि दी है।एक शिष्या साध्वी पद्मावती का जीवन उत्तराखंड सरकार की उदासीन और शोषणात्मक रवैये के कारण विस्मृति में चला गया था।
स्वामी शिवानंद कहते हैं कि सरकारी षड्यंत्र के कारण हमारे संन्यासियों की जानें गईं।केरल में जन्मे और पेशे से इंजीनयर रहे आत्मबोद्धानंद भी गंगा प्रदूषण, अवैध खनन, हाइड्रो पावर प्लांट के विरुद्ध और सरकार के अपने ही बनाए नियमों का परिपालन न करने से क्षुब्ध होकर लगातार आंदोलन करते रहते हैं।लगभग अस्सी वर्ष की अवस्था में भी स्वामी शिवानंद अपने तीन आध्यात्मिक पुत्रों के बलिदान और शिष्या की मानसिक-शारीरिक अवस्था खराब होने के बाद भी अनशन करते रहे हैं।वहां गंगा आदि के क्षरण से लोक और शास्त्र का क्षरण हो रहा है, ऐसा वे मानते हैं।धर्म की दुनिया और आश्रम जहां पांच सितारे होटलों की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे में मूल विषय पर कार्य करना कठिन है।मातृसदन, हरिद्वार का नदियों के प्रति समर्पण और संघर्ष के संबंध में कई किताबें लिखी जा सकती हैं।
तीर्थों के कायाकल्प के दौर में भी तीर्थ के आधार नदियों के प्रति उदासीनता और हिंदू प्रतीकों का राजनीतिक दौर नदियों को माता आदि मानने वाले लोगों को मुखर नहीं होने दे रहा है।मातृसदन द्वारा आहूत आंदोलन को ही देखें, तो जो गति और प्रभाव २०१४ के पूर्व रहा है, वह अब नहीं है।यह एक जमीनी सचाई है कि साधु-संतों के प्रत्येक आंदोलन को भारत के राजनीतिक दलों ने लपका और बाद में उन्हें ही अप्रासंगिक कर दिया।
ऐसे में समाज से असंपृक्त माने जाने वाले साधु-संतों का नदी आंदोलन मुख्यधारा में चर्चा का विषय नहीं बन पाता।जबकि छोटे स्तर पर विभिन्न नदियों के अस्तित्व रक्षा के लिए साधु-संत आंदोलन कर रहे हैं।पिछले वर्ष शिप्रा में गिरने वाले तेरह कारखानों के विषाक्त जल प्रवाह को रोका गया।सर्व संत समाज के अध्यक्ष महंत रामेश्वर दास के नेतृत्व में किए गए आंदोलन से मध्यप्रदेश सरकार की तंद्रा टूटी और संतों के प्रतिनिधि मंडल को बुलाकर मांगों को सुना गया और कार्रवाई की गई।
यमुना की स्थिति चिंताजनक और भयावह है, जल अब आचमन योग्य भी नहीं, ऐसा विशेषज्ञ बता रहे हैं।यमुना की शुचिता से ब्रज और कृष्ण भक्तों की शुचिता और आध्यात्मिक अस्तित्व का संबंध है।यमुना को लेकर अनेक आंदोलन हुए और अब भी हो रहे हैं, एक यक्ष प्रश्न यह है कि २०१४ के पूर्व मीडिया में जो हौवा इन आंदोलनों का रहा है, ’१४ के बाद नेपथ्य में क्यों चला गया?
यमुना रक्षा दल के प्रमुख संत जयकृष्ण दास हैं।इन्होंने अनेक सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को जोड़कर यमुना आंदोलन चलाया।२०११ से शुरू आंदोलन ने कई बार जोर पकड़ा और अब भी वे गांधीवादी तरीके से आंदोलन कर रहे हैं।ब्रज के प्रसिद्ध संत रमेश बाबा सरकारों की वादा खिलाफी के विरुद्ध यमुना मुक्तिकरण-शुद्धिकरण आंदोलन के सूत्रधार रहे हैं।वे यमुना का अस्तित्व ब्रजभूमि को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं।हथिनीकुंड से यमुना का प्रवाह बाधित है।इसके लिए ब्रज के साधु-संत आंदोलन करते आए हैं।
बदरिकाश्रम के प्रतिष्ठित शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती जी भी गंगा आंदोलन से जुड़े रहे हैं।वे उत्तराखंड में सरकार द्वारा गंगा-यमुना पर किए गए विभिन्न प्रयोगों को विभीषिका का कारण मानते हैं।उन्होंने काशी विश्वनाथ कोरिडोर निर्माण के दौरान गंगा मृदा उत्खनन और एक क्षेत्र विशेष में भराव पर भी मुखर होकर आंदोलन और विरोध किया है।
मध्य प्रदेश के नर्मदा तट पर वृक्षारोपण भारतीय राजनीति का अब एक प्रमुख अध्याय बन गया है।इस घटना के विरोध में साधु-संतों ने आंदोलन किया और इसके नेतृत्व ने राजसुख लिया, मंत्री बने।आंदोलन नेपथ्य में चला गया।अब नर्मदा आंदोलन अप्रासंगिक हो चुका है और जनता भी उदासीन हो गई है।
दक्षिण के प्रसिद्ध धर्मगुरु, अंग्रेजी में प्रवचन करने वाले और अभिजात लोगों के बीच अत्यंत लोकप्रिय जग्गी वासुदेव ने कावेरी के कायाकल्प का कार्यक्रम ‘कावेरी कालिंग’ चलाया।उन्होंने दो अरब बयालीस करोड़ पेड़ कावेरी बेसिन में लगाने का संकल्प लिया है, भारत में इस तरह का पहला प्रयोग है।उन्होंने नदी संरक्षण जागरूकता निमित्त तिरानबे सौ किलोमीटर की यात्रा कर एक रिपोर्ट भारत सरकार को सौपीं और वे दावा कर रहे हैं कि सरकार उस पर काम कर रही है।
ऐसे बहुत से साधु-संत हैं जो अपने स्तर पर छोटी नदियों को बचाने का कार्य अपने स्तर से कर रहे हैं।
धर्म और नदी का स्पष्ट संबंध है।लोकजीवन में अधिकतर धार्मिक परंपराएं नदियों से संबद्ध हैं, निश्चित रूप से नदी संकट से धर्म का उपपदीय स्वरूप खंडित होगा।
संपर्क सूत्र :गंगातट गोड़ौली धाम, कछवां, वाराणसी-२२१३१३, मो.९९३९२००४०७
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पंकज चतुर्वेदी कवि और पत्रकार।नदियों और पर्यावरण पर कई पुरस्कृत किताबों के लेखक।इस समय नेशनल बुक ट्रस्ट में हिंदी भाषा के संपादक। |
हजारों छोटी नदियां गुम हो रही हैं
(१)नदी तालाब को समझने और उनसे सीखने के कार्य मैं १९८८ से कर रहा हूँ।इसमें कोई शक नहीं कि अब आम लोग इस बारे में बात करते हैं।यह भी सच है कि जब जल सहित कई संकट उनके सामने खड़े हो गए, तब उनकी तंद्रा भंग हुई, वरना प्रकृति पर हो रही निर्ममता से आम इंसान आज भी तब तक बेखबर है जब तक उसपर असर सीधे नहीं होता।
जल निधियां महज इंसान की प्यास बुझाने, या खेत के लिए पानी देने या मछली या अन्य जीवकोपार्जन का जरिया मात्र नहीं होतीं।ये धरती का ऐसा अनिवार्य अंग हैं जिस पर इस पृथ्वी का अस्तित्व निर्भर है।यह सच है कि सालों तक मैं समझता रहा कि मेरे शब्द नदी-तालाब को बचाने के लिए हैं, लेकिन धीरे-धीरे समझ में आ गया कि मेरे शब्द वास्तव में मानवता को बचाने के लिए हैं- न नदी को खतरा है, न तालाब को, हम उनपर ज्यादा अत्याचार करेंगे तो वे रूठ कर और कहीं चले जाएंगे।इनसान नदी-तालाब के बगैर जी नहीं सकता।
(२)नदी को लेकर सरकार और समाज की सोच में खोट है।हम केवल बड़ी नदियों पर पैसा लगा रहे हैं, वह भी सौंदर्यीकरण पर अधिक, जबकि जरूरत है छोटी नदियों को बचाने की जो बड़ी नदी की शिराएं हैं।हम नदियों में प्रदूषण रोकने के लिए खर्चा करते हैं, लेकिन इस बात की कोशिश नहीं करते कि नदी या तालाब या सागर के जल में गंदगी न मिले।हमारा इस तरह कोई प्रभावी कदम नहीं है कि जल निधियों के बाढ़-विस्तार क्षेत्र में कम से कम रसायन-गंदगी जाए।
उन्नीसवीं सदी तक बिहार में (आज के झारखंड को मिला कर) कोई छह हजार नदियां हिमालय से उतर कर आती थीं, आज इनमें से महज ४०० से ६०० का ही अस्तित्व बचा है।मधुबनी, सुपौल में बहने वाली तिलयुगा नदी कभी कोसी से भी विशाल हुआ करती थी, आज उसकी जलधारा सिमट कर कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है।सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को सरकारी इमारतें ही चाट गईं।नदियों के इस तरह रूठने और इससे बाढ़ और सुखाड़ के दर्द साथ-साथ चलने की कहानी देश के हर जिले और कसबे की है।लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है।उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही है कि धरती की कोख में जल भंडार तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदियां हँसती खेलती हों।
अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़-क्षेत्र में स्थायी निर्माण ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं।दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको शातिर तरीके से नाला बता दिया जाता है।
जिस साहबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत-सा रिकार्ड ही नहीं हैं।झारखंड- बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हजार से ज्यादा छोटी नदियां गुम हो गईं।हम यमुना में पैसा लगाते हैं, लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं।कुल मिला कर यह नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है।
(३) नदी किनारे किसान भी हैं और कुम्हार भी, मछुआरा भी और धीमर भी।नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से लेकर कुएं तक में जल का संकट हुआ – सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो।नदी-तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा खत्म हुआ तो मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा।इससे एक तरफ जल निधियां दूषित हुईं तो दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महानगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं।स्वास्थ्य, परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केंद्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक संतुलन भी गड़बड़ा रहा है।जाहिर है कि नदी-जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है।
(४) राष्ट्रीय पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देश की १४ प्रमुख नदियों में देश का ८५ प्रतिशत पानी प्रवाहित होता है।ये नदियां इतनी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की ६६ फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है।इस कारण हर साल ६०० करोड़ रुपये के बराबर सात करोड़ तीस लाख मानव-दिवसों की हानि होती है।ये जो मानव श्रम के नुकसान के आंकड़े हैं न, इसमें वे ही लोग शामिल हैं जो नदियों के किनारे सदियों-पीढ़ियों से बसे थे।उनके लिए जल निधियां आराध्य और जीवन-रेखा रहीं, भले ही वे पर्यावरण या प्रदूषण जैसे शब्दों से कम वाकिफ हों।नदी हो या पेड़ – नैसर्गिकता, कभी भी जाति-धर्म, लिंग, आर्थिक स्थिति आदि का भेद नहीं करती।हां, बस जिनके जीविकोपार्जन का माध्यम ही नदी की धारा है वे उससे सीधे प्रभावित हो रहे हैं।यदि गंगा-यमुना किनारे रहने वाला सौ रुपये की बोतल से पानी पीने को मजबूर है, तो इससे जाहिर है कि उच्च आय वर्ग को भी नदी की दुर्गति का खामियाजा चुकाना पड़ रहा है।
(५) सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तंत्र का दस्तावेजीकरण हो।फिर छोटी नदियों की अविरलता सुनिश्चित हो।फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव- द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए।नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें।नदी में पानी रहेगा तो तालाब, जोहड़, समृद्ध रहेंगे और इससे कुएं या भू-जल।स्थानीय इस्तेमाल के लिए वर्षा जल को पारंपरिक तरीके से एक-एक बूंद एकत्र की जाए।नदी के किनारे कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक तंत्र विकसित हो।सबसे महत्वपूर्ण बात है, नदी को सहेजने का जिम्मा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए, जैसे कि मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के लिए जल-पंचायतें हैं।
एक बार फिर एसटीपी (सिवेज ट्रिटमेंट प्लांट) के नारे से बचना जरूरी है।आम लोगों को ऐसी जीवन शैली अपनानी होगी ताकि उनके घर की नाली से निकला पानी जब नालों, छोटी नदियों के जरिए बड़ी नदी में मिले तो उसमें कम से कम रसायन हो।कारखानों को नदी किनारे लगाने की रिवाज बंद हो।दुर्भाग्य है कि जब कभी नदियों में प्रदूषण की बात होती है—सरकारें महज एसटीपी लगाने पर ध्यान देती हैं, जबकि हमारा उद्देश्य नदियों में कम से कम कचरा बहाने का होना चाहिए।
देश में सालों से नदियों पर एसटीपी की १६० परियोजनाएं हजारों करोड़ के बजट से चल रही हैं।२०२२ तक इनमें से ७४ ही पूरी हुईं हैं।इस पर गोलमोल जवाब है कि इनमें से संचालित कितनी हैं।यह जानना जरूरी है कि नदियों की सफाई, संरक्षण तो जरूरी है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि नदियों के नैसर्गिक मार्ग, बहाव से छेड़छाड़ न हो।उनके तटों पर लगे वनों में पारंपरिक वनों का संरक्षण हो, नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले इलाकों के खेतों में रासायनिक खाद व दवा का कम-से-कम इस्तेमाल हो।
नदी तो कायनात का वह वरदान होती है कि वह अपने मार्ग में आने वाली अशुद्धियों, गंदगी को पावन बना देती है, लेकिन मिलावट भी प्रकृतिसम्मत हो तभी।नदियों से खनन, उसके तट पर निर्माण कार्य पर पाबंदी में यदि थोड़ी भी ढील दी जाती है तो जान लें कि उसके संरक्षण के लिए व्यय की गई राशि पानी तो नहीं ला सकती, लेकिन एक बार फिर पानी में चली जाएगी!
संपर्क सूत्र : संपादक, पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, ५ नेहरू भवन, वसंत कुंज सांस्थानिक क्षेत्र, नई दिल्ली–११०९७० मो.९७१६०४३४४६
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रुचि श्री भागलपुर के तिलकामांझी विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका।साथ ही यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन के स्कूल ऑफ़ ओरिएण्टल एंड अफ्रीकन स्टडीज (सोआस) में रिसर्च फेलो। |
नदियों से प्रेम की भावना बचपन से पैदा की जानी चाहिए
(१) मेरे जीवन में नदियों पर शोध की शुरुआत करीब डेढ़ दशक पहले हुई थी।२०१८ में हिमाचल प्रदेश में सूखी नदियों और दिल्ली में लगातार गंदी होती यमुना को देखने पर नदियों को देखना और खासकर अनुपम मिश्र का लेख ‘यमुना की दिल्ली’ को पढ़ने से मेरे नजरिए में परिवर्तन आया और भविष्य में नदियों पर काम करने की इच्छा बलवती हुई।उन्हीं दिनों पहले पढ़ी हुई दिनेश मिश्र की किताब ‘दुई पाटन के बीच में’ के माध्यम से कोसी नदी के इर्द-गिर्द बांध, विस्थापन, तटबंध की गुत्थियों का ख्याल भी मन में आता रहा।२०११ में ओडिशा में पानी, नदी आदि पर आयोजित सप्ताह भर लंबे प्रवास कार्यक्रम में लता अनंता जी से और २०१८ में ढाका में शेख रोक्कोन से मिलना नदी पर शोध के इरादे को मजबूत करने में कारगर रहा।
लता जी केरल में ‘रिवर रिसर्च सेंटर’ चलाती थीं।वे समय-समय पर स्कूल के बच्चों के साथ नदी यात्रा (रिवर वाक) आयोजित करती थीं।शेख रोक्कोन ‘बी रिवराइन’ नामक कैम्पेन के माध्यम से बांग्लादेश में लोगों और नदियों को जोड़ने का बेहतरीन काम कर रहे हैं।शोध के दिनों में साउथ एशियन नेटवर्क फॉर रिवर्स, डैम्स एंड पीपल (सैनड्रप) नामक संस्था के वेबसाइट पर उपलब्ध लेखों को पढ़ना और २०१८ से इसके लिए लेख लिखने का सिलसिला मेरे लिए नदियों पर शोध से एक्टिविज्म की ओर बढ़ने जैसा था।२०१९ के अंत में भागलपुर आने पर उन दिनों यहां एक अखबार द्वारा ‘कहां गुम हो गई चंपा’ अभियान चलाया जा रहा था।मुझे तब इस नदी के बारे में जानने का मौका मिला था।निजी अनुभव के तौर पर कहना चाहूंगी कि नदियों पर काम से जुड़ना निश्चय ही जीवन को अधिक समृद्ध और संवेदनशील बनाता है।
(२) भारत में नदियों के समक्ष अनेक समस्याएं हैं, पर मुख्य रूप से तीन चुनौतियों का जिक्र करना चाहूंगी।नदी के प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ (बांध/पुल/तटबंध), बालू खनन और प्रदूषण देश के विभिन्न हिस्सों में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को प्रभावित कर रहे हैं।इनके कारण और परिणाम के विस्तार में जाने से नदियों को लेकर दो परस्पर विरोधाभासी नजरिए के बीच संघर्ष जान पड़ता है।एक, जिसमें हम नदियों को साझी धरोहर मानें।दूसरी, जिसमें नदियां महज एक जलनिकाय या पानी का स्त्रोत है।दूसरे शब्दों में, एक जिसमें नदियां जीवन के केंद्र में हों तो दूसरा, जिसमें जीवन की परिधि पर।बात केवल छोटी और बड़ी नदियों की ही नहीं है, बल्कि शहरी और ग्रामीण नदियों की भी है, मुख्य और सहायक नदियों की भी है।कई जगहों पर एक नदी का पानी लगभग समाप्त और गंदा कर देने पर दूर की नदियों से पाइपलाइन से पानी खींचकर लाने की घटना देखने को मिल रही है।जैसे दिल्ली में यमुना को नाममात्र की नदी बनाकर अब सुदूर हिमाचल प्रदेश की रेणुका नदी से पानी लाने की तैयारी है।
आधुनिक होने के क्रम में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से पानी की लगातार बढ़ती मांग ने नदियों को बेहद प्रभावित किया है।जलवायु संकट के गहराते दौर में लोग बाढ़ और सुखाड़ की दोतरफा मार झेलने को मजबूर हैं।बिहार में छोटी नदियां अतिक्रमण और गाद की समस्या से जूझ रही हैं।मसलन- पूर्णिया की सौरा, जहानाबाद की दरधा, गया की फाल्गु, बांका की चांदन एवं अंधरी, सुपौल की गजनी तेजी से विलुप्त होने के कगार पर हैं।हाल में सीतामढ़ी में लखनदेई नदी को राज्य और समाज द्वारा साथ मिलकर पुनर्जीवित करने का प्रयास सराहनीय है।ऐसे प्रयासों को अन्य जगहों पर भी अपनाने की और नदियों को मृतप्राय होने से रोकने की जरूरत है।
(३) नदियों के किनारे रहने वाले तथा इनपर आश्रित समूहों में छोटे किसान, मछुआरे, धोबी, माली आदि प्रमुख हैं।कमोबेश पूरे देश में नदियों के तेजी से मृतप्राय होने से एक तरफ कृषि पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है तो दूसरी तरफ भूजल स्तर लगातार नीचे गिर रहा है।समाज का एक बड़ा हिस्सा, जो पहले खेती-किसानी एवं अन्य परंपरागत जीवन यापन के स्रोत- जैसे मछली मारना, नाव चलाना आदि पर निर्भर था, अब अपने लिए रोजगार के अन्य अवसर तलाशने को बाध्य है।
भागलपुर जिले में कहलगांव और सूजागंज क्षेत्र के मछुआरों से बातचीत के दौरान मैंने जाना है कि ये लोग इधर छोटी-मोटी दुकान खोलने, सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने और मजदूरी करने के कामों में संलग्न हुए हैं।नाथनगर ब्लॉक में चंपा नदी के किनारे दो गांवों के अध्ययन में मैंने पाया कि विगत कुछ वर्षों में लोग काम के लिए गांव से सूरत, लुधियाना और मुंबई जैसे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।उनमें से कई कृषि के काम के दिनों में वापस गांव आते हैं।इस तरह गरीबी और रोजगार की अनिश्चितता के बीच उनका जीवन शहर और गांव के बीच तारतम्य स्थापित करने की एक कोशिश जान पड़ती है।
अगर नई पीढ़ी की बात करें तो आप शायद ही किसी किसान, मछुआरे या नाविक से मिलेंगे जो अपने बच्चे को अपने ही पेशे में जाने देने की मंशा रखते हों।आधुनिक शिक्षा ने महत्वाकांक्षा के साथ अवसर की समानता की सुविधा दी है।हालांकि विगत तीन वर्षों में बिहार में रहने और समाज को नजदीक से महसूस करने का अनुभव साझा करूँ तो लगता है कि जनसंख्या और गरीबी का विकराल रूप न जाने हमें किस ओर ले जा रहा है।दिशाहीन युवावर्ग के हाथ में मोबाइल फोन है, पर खाने को अन्न का गहरा संकट है।उनमें राज्य के प्रति रोष या नदियों की बदहाली के प्रति चिंता का भाव लगभग नगण्य है।दूसरी तरफ, नदियों के सूखने और गंदा होने से कृषि और खाद्यान्न के संकट अधिकाधिक बढ़ने के आसार तेज हैं।
(४) विकसित और समृद्ध लोगों के लिए नदी या तो प्रकृति के रोमांच से जुड़ी है या फिर उसका किनारा नगरपालिका द्वारा कूड़ा फेंकने की एक जगह बन गई है।यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि रोज नल से पानी मिलता रहे तो लोगों को नदियों के गंदा होने या गायब हो जाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
रही बात गरीब और कमजोर लोगों की तो समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने जीवन यापन के लिए इसपर आश्रित रहा है।खेती-किसानी से लेकर मछली मारने तक।उनके लिए नदियों का दूषित होना या मृतप्राय होना जीवन स्रोत बाधित होने जैसा है।भागलपुर में गंगा की एक छोटी सहायक नदी चंपा (जो बांका में चांदन से अंधरी के रूप में निकलती है और कालांतर में भागलपुर के आसपास इसकी एक धारा का नाम चंपा के नाम से अलग होती है) पर शोध के दौरान मुझे तीन और लगभग मृतप्राय नदियों अंधरी, नाडा और बलधराय को समझने का मौका मिला।
विगत दसेक साल से अंधरी के सूख जाने पर हाल के दो-तीन सालों में पर्यावरण दिवस पर वन विभाग द्वारा भागलपुर के कजरैली इलाके में इस नदी के पाट पर लगभग दो तीन किलोमीटर लंबे क्षेत्र में वृक्षारोपण कर दिया गया है।इसे देखने पर समझ नहीं आया कि पौधारोपण देखकर खुश हुआ जाए या नदी को मृत देखकर दुखी।आनेवाले सालों में ये पौधे पेड़ बन जाएंगे और नदी का नाम लोगों की यादों में रह जाएगा।इस तरह एक नदी स्मृति में तब्दील हो जाएगी।ठीक वैसे ही जैसे चंपा नदी क्रमशः नाले में बदल गई और देश भर में न जाने कितनी छोटी नदियां बदहाली की स्थिति में हैं।
यहां यह बताना चाहूंगी कि गांव के लोग अब भी चंपा को न सिर्फ नदी, बल्कि छोटी गंगा के नाम से पुकारते हैं, जबकि शहर के लोग इसे नाला ही कहते हैं।एक ही जल निकाय के लिए नदी-नाले का ऐसा द्वंद्व निश्चय ही नजरिए में गहरा फर्क जान पड़ता है।
(५) नदियों की बेहतरी की शुरुआत इसे गंदा करना बंद करने से हो।चाहे औद्योगिक कचरा और गंदा पानी हो या नगरपालिका का कूड़ा और शहर का गंदा पानी।हमने कानून ढेर सारे बना रखे हैं, लेकिन उन्हें सख्ती से अपनाने से कोसों दूर हैं।छोटे-छोटे कई प्रयास जमीनी स्तर पर हों, मसलन लोगों को नदियों से जोड़ने की कोशिश हो।स्कूली बच्चे हों या कॉलेज के – उन्हें नदियों के करीब जाने का मौका मिले।पर्यावरण शिक्षा महज पढ़ने का विषय न होकर प्रकृति के करीब जाने का मौका बन सके।
हमारी नई पीढ़ी सौंदर्यीकरण के नाम पर हो रहे कंक्रीटीकरण को देखकर इन दोनों के बीच फर्क समझ सके।रिवरफ्रंट डेवलपमेंट तथा नदी के साथ अन्य छेड़-छाड़ को होते देखकर वे जैव विविधता पर इनके प्रभाव के बारे में सोचें।इसी तरह अपने आस-पास हो रहे बालू का अवैध खनन, नदियों का प्रदूषण, उनके जलीय मार्ग के रूप में अधिकाधिक प्रयोग आदि के फायदे और नुकसान को तोल मोल सकें।
हाल के अखबारी रिपोर्टों के हवाले से कहूँ तो विगत कुछ वर्षों में बिहार की एक चौथाई छोटी नदियां बेपानी हो गई हैं।कमोबेश ऐसी ही स्थिति देश के अन्य हिस्सों में भी है।बिहार में महानंदा के बाद अब बागमती और कमला की धाराएं (सहायक नदियां) भी सूख रही हैं।दूसरी तरफ गंगा और कोसी में हर साल बाढ़ से लाखों जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है।बांका में चांदन, मोतिहारी में धनौती, समस्तीपुर में बूढ़ी गंडक जैसी नदियों के सूखने से भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है।
चंपा नदी पर शोध के दौरान बालू खोदकर पानी निकालते और सबमर्सिबल पंप लगाकर नदी के पानी को अंतिम बूंद तक खींच लेने की कोशिश प्रकृति के प्रति मानवीय क्रूरता का प्रत्यक्ष अनुभव जान पड़ा।
शायद हम भूल गए हैं कि नदी एक जीवित इकाई है जिसपर हमारी संस्कृति और मानव तथा अन्य जीवों का अस्तित्व टिका हुआ है।ऐसे में, हमें गौर करना होगा कि नदियों के प्रति प्रेम की भावना बचपन से ही मन में बीज की तरह कैसे बोया जाए? किस तरह प्रकृति के प्रति प्रेम मानव स्वभाव का हिस्सा बने? लोग शहरों को नदियों से जानें पहचानें और नदियों को पाटकर घर और खेत बनाना बंद करें।
मेरी समझ से नदियों की बेहतरी समाज में मानव सामूहिक कर्तव्य बोध की भावना पैदा करके ही संभव है जिसके लिए राज्य और समाज को साथ आने की जरूरत है।ऐसे प्रयास से ही एक बेहतर समाज की संभावना बनती है।
संपर्क सूत्र :सहायक प्राध्यापक, राजनीति विभाग, तिलका माझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर-८१२००७ मो.९८१८७६६८२१
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गोविंद निषाद युवा कवि।इस समय गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, झूसी, प्रयागराज में शोधछात्र। |
नदियों पर किसी भी नीति का पहला शिकार मल्लाह है
नदी आधारित शोध से जुड़ने का एक बड़ा कारण यह है कि नदी पर निर्भर समुदाय एक तरह से इतिहास लेखन और शोध के दायरे से बाहर रहा है।मैंने ‘नदी पर नियंत्रण : औपनिवेशिकता एवं नदी आधारित समुदाय’ विषय चुनकर औपनिवेशिक काल में नदियों पर स्थायी नियंत्रण स्थापित होने की प्रक्रिया, उसमें पुलों की भूमिका और इसका नदी आधारित समुदाय पर पड़ने वाले प्रभाव को देखने की कोशिश की है।
भारतीय नदियां एक साथ कई समस्याओं से जूझ रही हैं।ये समस्याएं एक लंबी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आई हैं।इस घटना में एक बड़ा मोड़ औपनिवेशिक शासन की शुरुआत में देखा जा सकता है, जब नदियों पर नियंत्रण स्थायी हो गया।नदियों पर बांध बनाकर नहरें निकाली गईं।नदियों को एक मशीन में बदल दिया गया।दूसरी ओर, बड़ी संख्या में नगरीकरण होने लगा, फलस्वरूप शहरों से निकलने वाला सीवेज सीधे नदियों में गिराया जा रहा था।अनियमित नगरीकरण ने नदियों के पानी को उत्तरोत्तर दूषित किया।आज नदियों का पानी पीने लायक नहीं रह गया है।
एक बड़ी समस्या नदियों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण है, जहां वे नदियों को माता तो मानते हैं, लेकिन उनका दुख नहीं देख पाते।नदियों में होने वाले अनियमित बालू खनन ने नदीय पारिस्थितिकी को संकट में डाल दिया है।कई नदियों में गर्मी के समय सिर्फ मशीनें ही दिखाई देती हैं।छोटी नदियां किसी बड़ी नदी की जीवनरेखा होती हैं।बड़ी नदियों को आवश्यक पानी उपलब्ध कराती हैं।नदियों पर आए संकट का पहला शिकार छोटी नदियां हुई हैं।छोटी नदियों के साथ निश्चित तौर पर अलग तरह की समस्याएं हैं।छोटी नदियां धीरे-धीरे गुम होती जा रही हैं।उनका अपवाह क्षेत्र सिमट गया है और कहीं-कहीं तो उनका अस्तित्व ही मिट गया है।
कुछ छोटी नदियां आज सिर्फ कागज पर हैं और नदियों की जमीन पर कृषि क्षेत्र या आवासीय परिसर विकसित हो गए हैं।नदी-आधारित शोध या एक्टिविज्म से जुड़े लोग भी छोटी नदियों के प्रति उदासीन होते हैं।नदियों को बचाने के सभी प्रयास बड़ी नदियों तक सिमटकर रह जाते हैं।इस तरह देखें तो बड़ी और छोटी नदियों की समस्याएं अलग-अलग हैं।
नदियों के किनारे कई समुदाय रहते आए हैं, लेकिन जो प्रमुखता निषाद समुदाय को हासिल है, वैसी किसी अन्य समुदाय को हासिल नहीं है।निषादों की बस्तियां आज भी सघनता से नदियों के किनारे बसी हुई हैं।उनका सामाजिक-आर्थिक जीवन नदियों के ऊपर निर्भर है।निषाद समुदाय अपने ज्ञात इतिहास से नदियों के ऊपर निर्भर रहा है।नदियों पर नियंत्रण के प्राचीन और मध्यकालीन प्रयासों में राज्य को विशेष सफलता नहीं मिली।लेकिन जैसे ही अंग्रेज आए, नदियों पर नियंत्रण स्थायी होने लगा।पुलों के बनने और रेलवे के आने के बाद निषादों की नदीय परिवहन से प्रमुखता समाप्त हो गई।नदियों पर बनाई गई किसी भी नीति का पहला शिकार मल्लाह/निषाद समुदाय ही हुआ।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने नदियों से संबंधित नियम बनाया है।इसने निषाद समुदाय के द्वारा किए जाने वाले बालू खनन की पारंपरिक विधि पर प्रतिबंध लगा दिया है।निषाद सिर्फ ग्रहण करने वाला समुदाय नहीं रहा है।उसने अपने ऊपर राज्य द्वारा किए गए आघातों का हमेशा प्रतिरोध किया है।जब औपनिवेशिक शासन ने नदियों पर आधारित पारंपरिक नियमों में दखलंदाजी की, तब उनका प्रतिरोध १८५७ के विद्रोह में उभरकर सामने आया।उन्होंने कई जगहों पर नावों के पुल नष्ट कर दिए या उनपर विद्रोहियों को कब्जा कराने में मदद की।कानपुर में सती चौरा की घटना उनके प्रतिरोध का एक बड़ा उदाहरण है।
२०२१ में यमुना नदी के किनारे बसे बंसवार गांव में घटी घटना निषादों के उग्र प्रतिरोध के रूप में सामने आई।इससे पहले भी प्रयागराज तथा अन्य जगहों पर बालू खनन पर निषादों के हक को लेकर धरना प्रदर्शन होते रहे हैं।गंगा नदी और निषाद समुदाय से संबंधित समस्याओं को लेकर बिहार के भागलपुर में ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ कई वर्षों से चल रहा है।ऐसे ही कई उदाहरण हैं, जब निषाद समुदाय ने राज्य द्वारा लागू नीतियों के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराया है या वह करा रहा है।
विकसित और अमीर लोगों का जीवन नदियों से आध्यात्मिक और रोमांटिक दो रूपों में जुड़ा हुआ है।दूसरी तरफ, कमजोर, गरीब और हाशियायी तबकों का जीवन नदियों के साथ आर्थिक रूप से जुड़ा है।पहला तबका नदी को सौंदर्य की मूर्ति के रूप मे देखता है।वह उसपर कविताएं भी उसी ढंग से लिखता है।यह तबका नदियों के दुख से अनजान है।यह मल्लाह समुदाय को भी रोमांटिक नजरिए से देखता है।उसे लगता है कि मल्लाह कोई हीरो है जिसे कोई दुख ही नहीं है, जबकि मल्लाह समुदाय और अन्य समुदाय का जीवन रोजमर्रा का संघर्ष है।नदियों के साथ उसका दिन-प्रतिदिन का जीवन जुड़ा है।वह नदियों में स्नान के लिए कोई दिन या तारीख नहीं निश्चित करता है।नदियों को वह किसी जीवित मनुष्य की तरह देखता है, जिसके अपने दुख-सुख हैं।यह तबका नदियों के दुख से आत्मीय रूप से जुड़ा होता है।
निषादों का ‘नदी पुत्र’ के रूप देखा जाना इसी आत्मीय जुड़ाव का प्रतीक है।नदी में प्रदूषण अमीर और विकसित तबका फैलाता है, फिर यही तबका नीति निर्धारकों में शामिल होता है।यही तबका नीतियां बनाता है और इन नीतियों से पैसे कमाता है।वह गंगा में प्रदूषण को रोकने के नाम पर नदीय समुदायों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है और सीवेज को नियंत्रित करने का ढोंग रचता है।
नदियों की बेहतरी के लिए नदी पर बनने वाली नीतियों मे परिवर्तन की आवश्यकता है।नीति निर्माण में सबसे बड़ी समस्या है कि जो समुदाय इन नीतियों से प्रभावित होंगे, उनको नीति निर्धारकों में शामिल नहीं किया जाता है।नदियों पर आधारित एक देशज ज्ञान निषाद समुदाय के पास है, जो किसी भी आधुनिक ढंग से प्रशिक्षित विशेषज्ञ के पास नहीं है।जिस तरह एक आदिवासी जंगल को जानता है, ठीक उसी प्रकार एक निषाद नदियों की रग-रग से वाकिफ होता है।नीति निर्धारकों को नदी आधारित किसी भी नीति में इन समुदायों को शामिल करना चाहिए, क्योंकि वे नदियों से संबंधित समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण होंगे।
दूसरी बात यह है कि नदियों को सीवेज को बहाने और कूड़ा फेकने की जगह बनने से बचाना होगा।सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को उस हद तक बढ़ाना होगा, जहां तक वह संपूर्ण सीवेज का शुद्धिकरण करने के लिए पर्याप्त हो।नदियों पर बांध बनाने और नहरें निकालने को कम से कम करके अन्य उपायों को विकसित करना होगा।मशीन द्वारा बालू खनन पर नियंत्रण लगाना होगा और पारंपरिक बालू खनन पद्धतियों को बढ़ावा देना होगा।नदी के कछार को अतिक्रमण से बचाना होगा।इसके साथ ही छोटी नदियों के जीर्णोद्धार पर कार्य करना होगा।इन नदियों को अतिक्रमण से मुक्त करके उन्हें पुनर्जीवित करना होगा।नदी और नदीय समुदायों के दुख से जुड़ना होगा।
नदी पारिस्थितिकी में आए बदलाव का प्रभाव नदी के किनारे रहने वाले समुदायों पर सबसे ज्यादा पड़ता है।नदियों में प्रदूषण और उसके सूखते जाने के कारण मछलियों की उपलब्धता सीमित हो जाती है।इसके कारण व्यावसायिक स्तर पर मछली पकड़ने का कार्य बहुत खर्चीला हो गया है।इस कार्य में रसूखदार लोगों के प्रवेश ने इसे और भी खर्चीला बना दिया है।इसलिए मछली व्यवसाय से जुड़े लोग विस्थापित होकर बड़े शहरों में चले गए, जहां उन्हें असंगठित क्षेत्रों में मजदूर के रूप में कार्य करना पड़ रहा है।
नदी के किनारे होने वाले अनियमित बालू खनन से खेत नदी की धारा में समा जाते हैं।कई बार ऐसा होता है कि गांव भी उसी धारा में विलीन हो जाता है।लोगों को बार-बार विस्थापित होकर अन्यत्र बसना पड़ता है।नौका चालन का कारोबार पुलों के बनने के बाद खत्म हो गया है।इस समय नदी आधारित पेशे से आजीविका चलाना बड़ा मुश्किल है।नदियों के किनारे रहने वाले समुदायों ने नदी से जुड़े कारोबार को छोड़कर अन्य कामों में खुद को लगा लिया है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि उदारीकरण के बाद की पीढ़ी नदियों को कम जानती है।वह आधुनिक चकाचौंध से प्रभावित है।वह नहीं चाहती कि वह पारंपरिक कार्यों को करे।वह आधुनिक दुनिया से जुड़ना चाहती है।
संपर्क सूत्र :११३ बसंत विहार, योजना संख्या-३, झूंसी, प्रयागराज-२११०१९ मो.९१४०७३०९१६
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : सी आर ए–आई आई एल के एस, डॉ. बी.आर. अंबेडकर यूनिवर्सिटी, लोथियन रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली–११०००६ मो.७३८०४५७१३०
Fascinating. Very best wishes. The write ups provide a lot of interesting insights. Two key aspects missing in these are: Science of Rivers and Governance of RIvers.
The suggested solutions while many of them are pertinent, provide no road map how it can be achieved. In that sense they are bordering on wishful thinking.
Plz keep me posted. Thanks