शंभुनाथ

दुनिया के सभी धर्म भय और निराशा की देन हैं। ईश्वर जरूर लोगों के दुख से निकला होगा और आशा की किरण बनकर आया होगा। धर्म ही कभी खुले आसमान के नीचे जीवन के शिक्षालय थे, संवाद के स्थल थे, रोने की एकांत जगह और गाने के मंच थे। धर्म सृष्टि की उन चीजों की व्याख्या करते हुए आया, जो मनुष्यों के लिए रहस्य से भरी थीं। वह मरने-मारने के लिए नहीं, सुख-शांति से जीने के लिए था।

हमारे देश के कई बुद्धिजीवियों ने धर्म के बारे में हड़बड़ी से काम लिया। उन्होंने इसकी उपलब्धियों और समस्याओं को सामने लाने की जगह धर्म के विरोध को ‘धर्मनिरपेक्षता’ समझ लिया। वे धर्म के साथ भारतीय परंपराओं के भी अंध-विरोधी हो गए। वे प्राचीन भारतीय साहित्य, भक्ति आंदोलन और नवजागरण पर आरोप लगाकर उन्हें खारिज करने लगे। उन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारी। वे कई बार आम जनता से खीझ उठते थे, वह एक आत्मअचेत भीड़ नजर आती थी। ऐसे अंध-बुद्धिवादी रुख ने समाज में सांस्कृतिक सुधार की प्रक्रिया तेज करने की जगह कट्टरताओं को मजबूत किया। धर्मनिरपेक्षता जितनी विशिष्टवर्गी होती गई, धार्मिक कट्टरता जनमानस को उतनी जकड़ती गई। 21वीं सदी का परिदृश्य यही है और यह एक विपर्यय है।

धर्म के प्रति नए दृष्टिकोण की जरूरत

धर्म के प्रति कट्टरवादी या उच्छेदवादी दृष्टिकोण अपनाने की जगह यह देखने की जरूरत है कि सेकुलर विचारधाराओं के अभाव में भी इस देश की अनगिनत धार्मिक परंपराओं ने किस तरह मनुष्यत्व को परिभाषित किया और अपनी ऐतिहासिक सीमा में बताया कि अच्छाई क्या है और बुराई क्या है।

यह भी देखने की जरूरत है कि धर्म किस तरह उत्पीड़ित मनुष्य की आह ही नहीं, समय-समय पर अन्याय के खिलाफ उत्पीड़त जनों के प्रतिरोध की आवाज भी बना। आज भी ईश्वर की धारणा ने ज्यादातर लोगों में सामाजिकता, सुंदरता की समझ और कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध बचा कर रखा है। धर्म पर्व-त्योहार में उनके चेहरों पर खुशी लाता है, लोग आध्यात्मिक शांति का अनुभव करते हैं। नि:संदेह धर्म के भीतर से ही लंबे काल तक न्याय, नैतिकता और शांति की खोज हुई है। राजा नहीं सुनते थे, इसलिए देवता थे!

धर्म की अच्छाइयां समाज की अच्छाइयों और धर्म की बुराइयां समाज की बुराइयों के प्रतिबिंब हैं। एक समय कल्पना की जा रही थी कि विज्ञान धर्म की जगह ले लेगा, नहीं ले सका। राजनीति इसका विकल्प बनने की जगह भ्रष्ट होती गई। इसके बावजूद दुनिया भर में धर्म कठोरता से लचीलेपन की तरफ बढ़े। इस तरह भी सोचा गया कि हमें जरूरत धार्मिक दृष्टि की नहीं, धर्म के प्रति सही दृष्टि की है। धर्म में जब तक बहस थी, वह एक बहती नदी थी, क्योंकि उसमें सत्य की खोज थी। कट्टरवादी आदमी धर्म पर बहस नहीं चाहता, क्योंकि उसमें रूढ़ियों पर संदेह करने तथा सुधार-नवोन्मेष का साहस नहीं होता। उसकी नजर में उसका धर्म पूर्व-निर्धारित है, उसमें सुधार नहीं लाया जा सकता और सत्य सभी धर्मों में नहीं, सिर्फ उसके धर्म में है।

21वीं सदी में धर्म-संबंधी धारणाओं में एक बड़ा परिवर्तन यह आया कि अब राज्य के अनुसार धर्म को होना है। जीवन के लिए धर्म नहीं है, धर्म के लिए जीवन है। ईश्वर के अनुसार अपने को ढालने की जगह अपने अनुसार ईश्वर को ढाला जाना शुरू हुआ है। धर्म अब राजनीति की वस्तु है, स्वायत्त खोज और आत्मबोध नहीं। इस काल में किसी शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान की स्वायत्तता नहीं रह गई है, जो एक समय थी। समस्त ज्ञान राज्य के अधीन है, जबकि खुद राज्य मुक्त बाजार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन है। लोकतांत्रिक जलवे के बावजूद लोक के नियंत्रण में कुछ नहीं है।

क्या संस्कृति अभेद्य है

धर्म और संस्कृति एक नहीं हैं। धर्म की तुलना में संस्कृति में अधिक समावेशिकता, अधिक स्वतंत्रता और अधिक स्थान-काल संवेदनशीलता होती है। धर्म कठोर हो, तब भी उस धर्म में आस्था रखनेवाले आमलोगों के सांस्कृतिक जीवन में उदारता, बुद्धिपरकता और रचनात्मकता के तत्व हो सकते हैं। धर्म यह देखता है कि सत्य क्या है, जबकि संस्कृति यह देखती है कि सुंदर क्या है। धर्म के सैकड़ों बंद दरवाजे देखा गया है कि संस्कृति में खुले हैं। आखिर कालिदास का धर्म संप्रदायवादी उत्तेजना देने की जगह सौंदर्यानुभूति क्यों कराता है? बौद्ध होकर अश्वघोष ने अपनी कृति ‘बुद्ध चरित’ में हिंदू परंपरा के वाल्मीकि का आदर से स्मरण क्यों किया? सूरदास ने कृष्ण के बाल रूप और राधा-कृष्ण के प्रेम में ही सबसे अधिक सौंदर्य क्यों देखा?

हिंदू धर्म की जितनी उन्नति वेदांत, भक्ति आंदोलन, नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के युगों में हुई, उतनी कभी नहीं हो सकी। ये चारों राज्याश्रय के बाहर की घटनाएं हैं। वस्तुतः ये भारतीय संस्कृति के विविधतापूर्ण उत्थान और कई धार्मिक बुराइयों से छुटकारा पाने के काल थे। कई बुद्धिजीवियों की दृष्टि में भारतीय संस्कृति का पिछले 1000 सालों में कोई उत्थान नहीं हुआ, कोई बड़ी सोच सामने नहीं आई और मानो एक बड़ा कालखंड हिंदू धर्म के लिए बस एक प्रतीक्षालय था। कहा जाना चाहिए, इससे बढ़कर घटावपरक और नकारात्मक सोच नहीं हो सकती।

धर्म के प्रसार में समाज की अच्छी और बुरी दोनों ताकतें रही हैं, इसी तरह संस्कृति में भी। इनमें धान बोया गया है और धतूरा भी। इनकी उदारता, बुद्धिपरकता और रचनात्मक कल्पनाशीलता को अवरुद्ध करना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और खासकर कृत्रिम मेधा के युग में आसान होता जा रहा है। खासकर धर्म की बुरी दशा तब होती है, जब राजनीति ही यजमान बन जाए!

फिर भी संस्कृति में आत्मरक्षण की शक्ति होती है, जिसके प्रमाण साहित्य, कलाओं, दर्शन, लिटिल मीडिया और कई शैक्षिक गतिविधियों में मिलते हैं। छोटे-छोटे कला-सांस्कृतिक ग्रुप हैं, जो अच्छी परंपराओं को बचाकर रखते हैं। वे बहस की जगह बनाते हैं, संवाद संभव होता है।

संस्कृति है क्या, यह भिन्नताओं के बीच जीने की कला है। इस देश की संस्कृतियों ने विपरीत स्थितियों में भी किसी न किसी प्रकार अपने गुणों की रक्षा की है। इन्होंने सुधार और विकास किया है। सांस्कृतिक विध्वंस पर पुनर्निर्माण संभव हुए हैं। लेखक, कलाकार और सोचने-समझने वाले अन्य लोग गिरते-गिरते भी बार-बार उठे हैं।

कला की क्षमता

कला व्यक्ति को हमेशा अधिक मानवीय और समावेशी बनाती है, उसे उदार संस्कृति से जोड़ती है। यदि दुनिया में कलाओं का इतिहास देखा जाए, कलाओं ने आमतौर पर धर्म और राजनीति की चौहद्दियों को कम माना। इटली का प्रसिद्ध कलाकार माइकेल एंजेलो एक धार्मिक व्यक्ति था, पर उसने अपनी एक कलाकृति में आलोक को अंधकार से इस तरह अलग किया मानो यह ‘रिनेसां’ का प्रतीक हो और यह पोप को एक चुनौती हो। यह वह काल था, जब कोपरनिकस ने यह कहकर चर्च को नाराज कर दिया था कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ नहीं, बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ घूमती है।

भारतीय कला के संबंध में कहा जा सकता है कि इसने धर्म का हमेशा अतिक्रमण किया और अपूर्व कल्पना की। होयसल साम्राज्य (11वीं से 14वीं सदी) के समय का एक विराट शिव मंदिर हेलिबिदु में है। हेलिबिदु का अर्थ है भग्न गांव। चट्टान पर उकेरे गए मूर्तिशिल्प में शिव एक हाथी के पेट में नृत्य कर रहे हैं! सरस्वती नृत्य मुद्रा में हैं। दक्षिण भारत में वेल्लुर के 11वीं सदी में बने विष्णु मंदिर में विष्णु का एक विशिष्ट ‘मोहिनी’ रूप है। मोहिनी के केशों के शृंगार में गांधार शैली का मिश्रण है। इन मंदिरों में शृंगारिक अभिव्यक्तियां भी हैं। मथुरा के आसपास ऐसी कई मूर्तियां मिली हैं, जिनका धर्म से कोई संबंध नहीं है। कई मूर्तियों में सुरापान और आमोद-प्रमोद के दृश्य हैं। उनमें सामंती समाज की आकांक्षाएं हैं, पर निवृत्ति मार्ग की जकड़न से बाहर निकलकर जीवन से जुड़ने की आकांक्षाएं भी हैं!

कला तब से है, जबसे मनुष्य ने सभ्यता में कदम रखा। वह तब तक रहेगी, जब तक धरती पर मनुष्य है। वह सदा से हमारे जीवन का हिस्सा है चाहे हम घर बना रहे हों, सात सुरों से खेल रहे हों या किसी से बात कर रहे हों। कलाकार ऐसी हस्ती है जो किसी प्रभाव, प्रशिक्षण और वैचारिक नियंत्रण की परवाह नहीं करता। वह दीवारें और चौहद्दियां तोड़ता है- मूर्ति, स्थापत्य, चित्र, संगीत, नृत्य, काव्य, कोई कला हो। कलाएं इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे हमारे भावों को झकझोरती हैं, मन को बड़ा करती हैं और एक संदेश देती हैं। वे हमें एकांत देती हैं और अपरिचित जगहों से जोड़ती हैं। वे समय और दूरियों को लांघ जाती हैं। वे कई बार सांस्कृतिक विशिष्टता प्रदर्शित करती हैं। वे असहमति की आवाज होती हैं। प्रेम की भूख पैदा हुए बिना कला की भूख पैदा नहीं हो सकती!

धर्म का जब भी कलाओं से संबंध बना, धर्म में नई खिड़कियां खुलीं। खासकर धार्मिक कट्टरताओं के दौर में सैकड़ों साल तक कलाओं ने धर्म में ‘स्पेस’ पैदा किया, लोगों के मन में विशालता पैदा की तथा उन्हें सौंदर्य प्रेमी बनाया।

दुनिया में जब भी नगर बने, विभिन्न जगहों और विचारों के लोग वहां आए। इन नगरों में कलाओं के कारण ही धर्म का एक समावेशी और सौहार्द-भरा रूप सामने आया। हम मथुरा को अयोध्या की तुलना में काफी पहले से, 15वीं सदी से एक बड़े नगर के रूप में विकसित होता हुआ देखते हैं। वहां चैतन्य और वल्लभाचार्य के व्यक्तित्वों के अलावा सूरदास के प्रेम से आपूरित संगीतमय पदों का प्रभाव था। मथुरा में उस समय विभिन्न मत के लोग रहते थे और भक्त दूर-दूर से आते थे।

मुख्य बात है, सैकड़ों साल से दुनिया में लाखों कलाकारों ने जो कलात्मक स्मारक और धर्मस्थल बनाए हैं, वे उदार और सौंदर्य-प्रेमी हृदय की अभिव्यक्तियां हैं। यही वजह है कि ऐसे स्मारक सबको विस्मित करते हैं, चाहे किसी धर्म के हों। ऐसे स्मारक हमें आनंद, वैश्विक भावना और अच्छाई के अनुभव की ओर ले जाते हैं। ये हमारे आत्मविश्वास को मजबूत करते हैं। हम भिन्न धर्म-मत का होकर भी भूलकर नहीं सोचते कि ये चीजें ध्वस्त हों, क्योंकि ये सैकड़ों साल की मानवता की निशानी हैं।

आधुनिकता विवेक और परंपरा विवेक का अभाव

हिंदी के शैक्षिक-बौद्धिक संसार में इस समय आधुनिकता विवेक और परंपरा विवेक दोनों का भारी अभाव है। राहुल सांकृत्यायन ने दिमागी खुलेपन का परिचय देते हुए ‘प्रगतिशीलता का प्रश्न’ शीर्षक एक लेख में लिखा था, ‘यदि प्रगतिशीलता के नाम पर कोई हमारे पुराने अमर कलाकारों वाल्मीकि, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति, बाण, सरहपा, जायसी, सूर, तुलसी से लेकर प्रेमचंद, प्रसाद तक से हाथ धो लेना अपना कर्तव्य समझता है तो यह प्रगतिशीलता नहीं है।…  प्रगतिशीलता के नाम पर उनको अपमानित और स्थानच्युत करने का प्रयास पागलपन या लड़कपन के सिवाय कुछ नहीं है।’ इस उद्धरण में वाल्मीकि से लेकर प्रसाद तक की सूची राहुल सांकृत्यायन के उदार विवेक को प्रतिध्वनित करती है।

कभी पश्चिम से वैयक्तिक स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक दृष्टि, बुद्धिपरकता और मानवीय गरिमा का बोध होता था। आज का पश्चिम इन दिशाओं में नहीं ले जाता और न लोगों के मन को बड़ा बनाता है। कभी पश्चिम से पश्चिम के साम्राज्यवाद से भिड़ने की प्रेरणा मिलती थी। आज का पश्चिम आधुनिक दर्शन देने वाला पश्चिम न होकर माइकेल जैक्शन, मेडोना, रिहाना, बिल गेट्स, और जुकेरबर्ग का पश्चिम है जिसकी तरफ ज्यादातर लोग आकर्षित हैं।

पश्चिमवाद की तरफ आकर्षित लोग भारतीय परंपराओं के सुंदर, उच्चतर और श्रेष्ठ तत्वों से विच्छिन्न होते गए। यह कैसे हो सकता है कि मोर नाचे और नंगा न हो!

यह भी देखा जा सकता है कि पश्चिम की ओर दिमाग को खुला रखने के बावजूद, भारत के अधिकांश लोगों का अतीत के मरे हुए हिस्सों के इर्द-गिर्द चक्कर काटना नहीं छूटा, बल्कि यह तेज हो गया। धर्म का सारतत्व फिसल गया, हाथ में उसका छिलका रह गया।

लोगों का अतीत की जीवंत विरासत से संपर्क खत्म होता गया। स्वतंत्र भारत में ‘आधुनिकीकरण और धार्मिक रूढ़ियों’ का युग्म आम भारतीयों के जीवन का प्रमुख लक्षण बन गया। इस तरह न आधुनिकता विवेक पनप पाया और न परंपरा विवेक।

कई क्रांतिकारी विद्वान सोच रहे थे कि सत्ता हाथ में आते ही सामाजिक बुराइयां अपने आप दूर हो जाएंगी। उन्होंने जरा भी चिंता नहीं की कि ढहती उदारवादी राष्ट्रीय भावना और मानवीय मूल्यों को कैसे बचाया जाए। ऐसे अधिकांश बुद्धिजीवी अंतरराष्ट्रीयतावाद में मगन थे और वस्तुतः संकीर्ण होते जा रहे थे। उनमें व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के विचार पनपने लगे और धीरे-धीरे उनमें जातिवाद सहित भारत की सभी सामाजिक बुराइयां प्रवेश कर गईं। एक दौर ऐसा आया, जब शासन में धर्मनिरपेक्षता और भ्रष्टाचार प्रायः पर्यायवाची हो गए। राजनीति नैतिकता-विहीन होती गई। वह समाज में कोई नया विश्वास, एक भिन्न जीवनबोध प्रतिष्ठित नहीं कर पाई।

अंध-आधुनिकीकरण और धार्मिक कट्टरता  वस्तुत: हमजोली हैं। दोनों में कोई भी मानवीय गरिमा और सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनशील नहीं है। दोनों ने मनुष्य की नगण्यता और निस्सहायता बढ़ाई है। वर्तमान दौर में आधुनिकीकरण पश्चिम से और धार्मिक कट्टरता अतीत से निर्बुद्धिपरक संपर्कों पर टिकी है।

भारतीय संस्कृति के गुण

भारतीय संस्कृति के चार मुख्य गुण हैं- निरंतरता, पुनर्रचनात्मकता, आलोचनात्मक समावेशिकता और नवोन्मेष। इन गुणों को पहचाने बिना भारतीय संस्कृति को जाना नहीं जा सकता। इस देश की संस्कृति सिर्फ प्राचीन नहीं है। इसने अपने को बार-बार रचा है। इसका शुद्धतावाद की जगह ज्ञान की विभिन्न धाराओं से संबंध बना है। वह एक या दो परंपराओं में कैद रहने वाली न होकर विविधतापूर्ण, परिवर्तन-संवेदी और नवोन्मेषशील है। रामकथा भवभूति और तुलसीदास के यहां बिलकुल वही नहीं है, जो वाल्मीकि की रामायण में थी।

भारत का मनुष्य गहरा है। निश्चय ही वह अपने ‘प्राचीन’ से विच्छिन्न होना नहीं चाहता, पर वह नवोन्मेषों को पसंद करता रहा है। किसी प्रदेश में नवोन्मेषों की ग्राह्यता ज्यादा रही है, किसी में कम। दरअसल भारत की सांस्कृतिक बहुलता किसी डिपार्टमेंटल स्टोर या कबाड़खाने की बहुलता नहीं है। उसमें संवाद, अंतर्क्रिया और अंतर्मिश्रण की प्रवृत्तियां पहले भी रही हैं और अब भी है।

भारत एक देश भर नहीं है। वह एक विजन है, जिसमें हमेशा खुलापन रहा है। हम जानते हैं कि हमारे देश ने पुनर्निर्माण की अपनी क्षमता का परिचय ध्वंसावशेषों पर खड़ा होकर भी दिया है। इसने शून्य से भी शुरू किया है। भारत लंबे-लंबे समय तक बौद्धिक मूर्च्छा में रहा हो, पर इसने बार-बार उठकर नया इतिहास रचा है।

पिछली दो सदियों से भारत जिस बुद्धिपरक, राष्ट्रीय और मानवीय संस्कृति की खोज में है, वह धर्मों की विरोधी नहीं है। उसमें सिर्फ धार्मिक अंधविश्वास, असहिष्णुता और कुप्रथाओं से एतराज है। इसमें सभी धर्मों के प्रति आदर भाव है। पहले भी उदारवादी भारतीय संस्कृति में मनुष्य और मनुष्य के बीच ‘कृत्रिम भिन्नता’ का विरोध हुआ। भक्त कवियों ने इसका सक्रिय रूप से विरोध किया।

सत्य के लिए किसी से नहीं डरना

खासकर 1990 के बाद ‘भिन्नता के खेल’ ने आम लोगों को तर्क की जगह उन्माद की तरफ ठेल दिया। मनोरंजन उद्योग ने मूल्य की जगह मजा को प्रधान बना दिया। लोग ज्ञान की खोज से विच्छिन्न होकर नेताओं, अभिनेताओं और खिलाड़ियों की तरफ ज्यादा आकर्षित होने लगे। वे इनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे और बौद्धिक सतहीकरण के शिकार हुए। खासकर हिंदी क्षेत्र के शिक्षितों के बीच पहले की तरह साहित्यिक संवाद, वैचारिक बहस और गंभीर पुस्तकों में दिलचस्पी नहीं रह गई।

आजादी मिले करीब आठ दशक होने जा रहे हैं। वर्तमान दौर में आर्थिक उदारीकरण के बावजूद समाज में उदारवाद का लगातार क्षय हुआ है। शिक्षा के पांच सितारा भवनों के बावजूद आम बौद्धिक दरिद्रता बढ़ गई है। अधिक शिक्षा अधिक खुदगर्जी ला रही है। संवेदना के अनगिनत शिविर बन गए हैं। अधिक राजनीति अधिक वि-मानवीयकरण ला रही है। लोग शत्रुता की हद तक आपस में विभाजित हैं। बदले की भावना बढ़ी है, हिंसा बढ़ी है।

सामाजिक स्मृति के ऐसे चिह्नों को उभारा जा रहा है, जिनसे ‘पर’ का बोध निर्मित हो और तात्कालिक स्वार्थ सिद्ध हों। उच्च आदशार्ेंं का विघटन हुआ है। अब किसी की मदद के पहले लोग धर्म-जाति देख लेते हैं। ‘परहित सरसि धरम नहिं भाई’ उनके लिए एक घिसा सिक्का हो गया। नागरिक अपने सुख और उच्च जीवन शैली के लिए समझौते करने लगे हैं। उन्हें अब सिद्धांत नहीं, सिर्फ वे आकर्षित करते हैं जो लाभ देते हैं। ये स्थितियां क्यों पैदा हुईं और मानवता क्यों विडंबनाओं से घिर गई, इन मुद्दों पर विस्तृत विचार करने से आजकल बचा जाता है।

पहले भाषणों में कहा जाता था, ‘जनता बहुत समझदार है’। सामान्यतः जनता आज जो समझती है, वह उसका अर्जित सत्य न होकर उसके बीच ‘प्रचलित और प्रचारित अज्ञान’ है। बड़े न्यूज चैनल, सोशल मीडिया, ह्वाट्सएप विश्वविद्यालय आदि का व्यापक प्रसार हुआ है। ये झूठ के कारखाने बन गए हैं। भाषा में फर्क आया है, शब्दों का अर्थ विस्थापित हैं। जनहित का अर्थ जनहित नहीं है। अब साधारणतः सादगी पर पहले-सा जोर और कपटहीन मन नहीं है। धर्म के वेश में अधर्म, सकारात्मक के वेश में नकारात्मक, इतिहास के वेश में अफवाह और सत्य के वेश में झूठ है। सत्ता और ज्ञान पर्यायवाची हो गए हैं।

विचारधारा का संकट शब्द और कर्म के बीच दूरी का नतीजा है। जब विचारधारा पर बाजार का प्रभुत्व स्थापित होगा, स्वाभाविक रूप से यह बौद्धिक-लोकतांत्रिक परिवेश को दूषित करेगा। हमारे युग में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार छुट्टा सांड है, वह आज राज्य से अधिक शक्तिशाली हो चुका है। बाजार आम नागरिक का लालच ही नहीं बढ़ा रहा है, उसकी संपूर्ण सोच को खंड-खंड-पाखंड में बदल रहा है। यह तय कर पाना मुश्किल है कि अपने संपूर्ण व्यवहार में व्यक्ति पुनरुत्थानवादी अधिक है या उपभोक्तावादी अधिक है। ऐसी दशा में धर्म का मूल्यों के स्रोत की जगह ‘ताकत’ का चिह्न बन जाना स्वाभाविक है। धुआं दशकों से उठ रहा था, आग अब फैली है।

देश में धर्म और जाति को लेकर पहले कभी इतना लोक उन्माद नहीं देखा गया, उन्माद ही जैसे कल्पवृक्ष है। इस समय ‘भीड़’ से जो व्यक्ति बाहर है, वह अकेला है, पर वह अपने पास है! हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में लिखा है, ‘सत्य के लिए किसी से न डरना- गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’

उदात्त आधुनिक सोच दुर्लभ क्यों है

यह सोचकर चिंता हो सकती है कि समाज में अब अन्याय के प्रतिवाद का स्वर कमजोर होता जाएगा। एक जगह के लोग विरोध करेंगे तो दूसरी जगह के लोग चुप रहेंगे। असहमति विभाजित रहेगी। साहित्य की आधुनिक परंपराएं और हाशिए के विमर्श संकट में पड़ेंगे। धर्म रस और वीर रस का साहित्य ही साहित्य माना जाएगा। स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों पर अंकुश बढ़ेंगे। जंजीरें बढ़ेंगी। यह एक अनोखे भय का युग होगा।

ऐसे में कुछ प्रश्न उठते हैं, क्या इस देश की बौद्धिकता को पश्चिमवाद और अतीतवाद के बीच सैंडविच बनने से बचाया जा सकता है, क्या राजनीति का पुनर्मानवीयकरण संभव है और क्या उदारवादी दुनिया के लोग आलोचनात्मक आत्मनिरीक्षण कर सकते हैं और मिलजुल कर मानवतावादी पुनर्निर्माण के पथ पर चल सकते हैं? मुश्किल होता है आत्मनिरीक्षण और पुनर्निर्माण, यदि अहं से भरी सामंती मानसिकता प्रबल हो।

लक्षित किया जा सकता है कि नगरों के छोटे-छोटे बौद्धिक-साहित्यिक संसार विलुप्त हो रहे हैं। लेखकों के अड्डे मिट गए हैं। किताबें अलमारियों में बंद हैं, लोगों के बीच पढ़ने की संस्कृति का ह्रास हुआ है। बहस का स्तर गिरा है। संवाद की जगह एकतरफा विमर्श ने ले रखी है। आरोप-प्रत्यारोप में अपशब्दों की चमक बढ़ गई है। एक सार्वभौम सांस्कृतिक विध्वंस की दशा है। पहले छोटे-छोटे स्थानीय संगठनों द्वारा नियमित रूप से बौद्धिक आयोजन होते थे। अब सिर्फ राजकोष-पोषित बड़े मंच हैं, उत्सव हैं और दादुर मुखर हैं!

तुलसीदास की कोयल वर्षा ॠतु में कहती है, ‘अब तो दादुर बोलिहं हमें पूछिह कौन’। उन्होंने इस पंक्ति में कहना चाहा कि यह ढोंगियों और पाखंडियों का युग है, गुणी जनों का सम्मान नहीं होगा!

19वीं सदी में अतीत का गौरव गान बृहत्तर मानवता के गान से जुड़ा था। इन दिनों यह चिंता ज्यादा है कि तड़क-भड़क के साथ कोई बड़ा धार्मिक आयोजन कैसे संपन्न किया जाए। अब ऐसा साउंड सिस्टम हो कि कानफोड़ू गाने बजें और नाचा जा सके। कौन बताएगा कि इन दिनों हमारी सभ्यता धार्मिक मानसिकता को किस जगह ले आई है। इसपर सोचने की जरूरत है कि समाज में उदारवाद और सुरुचि की चिंता करने वाले लोग क्यों कम होते जा रहे हैं, यदि किसी की प्री-बेडिंग के नृत्य पर 75 करोड़ का खर्च हो, तो इस अश्लीलता को कितने लोग समझते हैं और आज उदात्त आधुनिक सोच दुर्लभ क्यों है?

सपने देखना हमारे मिजाज में है

किसी जमाने में लोक-संस्कृति हुआ करती थी। उसका उत्तर-औद्योगिक समाज में व्यापक क्षरण होता गया। उसे ‘पॉप कल्चर’ ने निगल लिया या वह सजावट और मंचों पर प्रदर्शन की चीज होकर रह गई। लोक संस्कृति थी तो नगरों में भी परिवार, सामाजिक संबंधों और नैतिकता का अहसास बचा हुआ था। मनुष्य की सरलता बची हुई थी। लोक कलाओं के जरिए स्थानीय रचनात्मकता को अवसर मिलता था। लोग मेला-उत्सव, विवाह, सेवा कार्य, जीनी-मरनी में खुले मन से मिलते थे। इन दशकों में आम लोगों की संस्कृति के रूप में पॉप कल्चर है। इसने मनोरंजन को प्रधान चीज बना दिया है। ‘पॉप कल्चर’ और ‘पॉप म्यूजिक’ युवा पीढ़ियों की मानसिकता को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। विस्मयजनक लग सकता है कि ‘अतीतवाद’ और ‘पॉप कल्चर’ दोनों में ही न तर्क के लिए जगह है और न संवेदना के लिए!

इधर अति-व्यक्तिवाद, पारिवारिक-सामाजिक भावना के विलोप तथा उपभोक्तावादी अतियों की वजह से ही नहीं, धार्मिक-सांस्कृतिक एकरूपता के अभियान की वजह से भी लोक संस्कृतियों के उदात्त तत्वों का क्षरण हुआ है। बाजार लोक संस्कृति का विकृतिकरण कर रहा है तो धार्मिक कट्टरता लोक संस्कृति की विविधता और स्थानीय आस्थागत विशिष्टता को मिटा रही है। यह स्पष्टतः आत्मसातीकरण का मामला है। कई धार्मिक बुद्धिजीवी संस्कृति की बार-बार चर्चा करते हैं, पर उनकी संस्कृति का स्रोत सैकड़ों साल की विविधतापूर्ण लोक संस्कृति के उदात्त तत्व न होकर सत्ता की संस्कृति है। उनकी संस्कृति में कृष्ण महाभारत के युद्ध-रथ पर होते हैं, जबकि उदात्त लोक संस्कृति में त्रिभंगी कृष्ण हैं और उनके हाथ में बांसुरी है!

कहना न होगा कि इधर लोक संस्कृति की परंपराओं से विच्छिन्नता लोगों की सत्ता और बाजार सभ्यता के पार देखने की क्षमता को कुंद कर रही है। धर्म का अर्थ बदल गया है, विश्वास हिजैक कर लिए गए हैं। ऐसी घड़ियों में जरूरी है मानवता के दो प्रमुख तत्वों-तर्क और संवेदना का पुनर्जन्म। आज की दशा यह है कि लोभ के कारण हर तरफ बौद्धिक चारण भर गए हैं। बुद्धिपरक और मानवतावादी साहित्य की पूछ घट गई है। यह एक बड़ी राष्ट्रीय क्षति है। धर्म, बाजार और राजनीति की कठोर त्रिआयामी व्यवस्था में साहित्य नक्कारखाने में तूती की आवाज है, फिर भी आखिर किस जमाने में तूती ने बोलना छोड़ा?

इस समाज में ऐसी चीजें ज्यादा छाई हुई हैं, जिनका तार्किक आधार नहीं है। जाहिर है, जो जितना अधिक शक्तिशाली है, वह उतना अधिक हास्यास्पद होता जा रहा है। कोई भी जीवित समाज हास्यास्पद को ज्यादा समय तक ढो नहीं सकता।

निश्चय ही लेखकों, कलाकारों और साहित्य प्रेमियों के हाथ में नहीं है कि वे किसी सपने को यथार्थ में बदल सकें। लेकिन सपने देखें, यह उनके हाथ में है, उनके मिजाज में है!

vagarth.hindi@gmail.com (All paintings : Moonassi, Artist)