मोती लाल:‘वागर्थ’ का मार्च 2024 का अंक स्वागत योग्य है। संपादकीय एवं अन्य सामग्री पठनीय एवं संग्रहणीय है।
एक सजग पाठक के लिए इसे पढ़ते रहना अनिवार्य जैसा है। धर्म और स्त्री को लेकर लिखा गया लेख बहुत मार्मिक है। इनका गठजोड़ सदियों से भारतीय जनता के शोषण का बड़ा हथियार रहा है।
संध्या नवोदिता, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ के मार्च अंक में वर्षा अड़ालजा की गुजराती कहानी ‘डेथ क्लीनिंग’ बहुत मार्मिक है। जीवन एक उत्सव है, उसी तरह मृत्यु भी उत्सव है। जैसे हम सब भरते रहते हैं, वैसे ही धीरे-धीरे खाली करना भी सीखना होता है। जिस मोह से चिपके होते हैं, उससे खुद को मुक्त करना होता है। इससे जीवन हल्का, प्यारा और सहज होने लगता है। कोई भी बोझ क्यों रखना!
आखिर तक आते आते मन भर आता है, जब स्मृतियों को गंगा के हवाले किया जाता है। कहानी मन को छू गई। वर्षा अड़ालजा को बहुत बधाई और इतनी अच्छी कहानी के अनुवाद के लिए रजनीकांत एस शाह का आभार। बहुत से नए शब्द उन्होंने कहानी में प्रयोग किए जैसे मधु रजनी, उंधियापार्टी आदि। ‘वागर्थ’ का शुक्रिया कि इसने उम्दा कहानी पाठकों तक पहुंचाई।
भास्कर चौधुरी, कोरबा (छत्तीसगढ़):‘वागर्थ’ फरवरी 2024। कैलाश वनवासी और परदेशीराम वर्मा की कहानियां पढ़ीं। हिंदू-मुसलमान के बीच वैमनस्य बढ़ाने का कुत्सित प्रयास लगातार ज़ारी है। इसी विषय पर कैलाश वनवासी की कहानी है ‘जागरूक नागरिक’। आज हिंदू-मुसलमान की राजनीति, स्कूल-कालेजों में चरम पर है और शिक्षा की बदहाली सबसे अधिक यहीं है। स्कूल के दो शिक्षकों अरोड़ा और सक्सेना की कहानी सच के बेहद करीब है।
‘वागर्थ’ में अमूमन छोटी कहानी छपती है, पर परदेशीराम वर्मा की लगभग बारह पृष्ठों में फैली कहानी ‘दोगला’ इतनी दिलचस्प है कि पाठक इसे आरंभ से अंत तक एक सांस में पढ़ सकता है। कहानी पढ़ते-पढ़ते कई बार मैं मुस्कुराए बिना न रह सका।
सेराज खान बातिश, कोलकाता: वागर्थ का फरवरी (2024) अंक। इसमें निराला पर विशेष सामग्री दी गई है, जो पठनीय है। परिचर्चा के तहत कवि सूर्य देव राय ने जो प्रश्न रखे हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। विश्वबोध के साथ सामाजिक मुद्दे भी इस परिचर्चा में समेटे गए हैं। निराला की कई दुर्लभ तस्वीरें यहां देखने को मिलीं। उनका सौम्य-सुंदर मुखमंडल वाली वह छवि भी सामने आई, जो प्रायः नहीं दिखती है।
‘वागर्थ’ के फरवरी अंक में ‘आलोचना के तीन रूप’ के तहत अवधेश प्रधान के लेखों का संग्रह ‘परंपरा की पहचान’, वैभव सिंह की पुस्तक ‘रवींदनाथ टैगोर-उपन्यास, स्त्री और नवजागरण’ और रश्मि रावत की पुस्तक ‘हाशिए की आवाज़ : स्त्री अनुभव के आर-पार’ पर समीक्षा है। इनपर आलोचक मृत्युंजय श्रीवास्तव ने बड़ी निष्पक्षता और निष्ठा से विचार किया है। कभी नामवर सिंह ने कहा था कि आलोचक पढ़ने के लिए अभिशप्त होता है, लेखक नहीं! आजकल पढ़ना कम होता जा रहा है।
इस अंक में कैलाश वनवासी की ‘जागरूक नागरिक’ एक अद्भुत कहानी है। इसके माध्यम से लेखक ने मौजूदा सोशल मीडिया के पावर को दर्शाना चाहा है। यह बताने की कोशिश की है कि मीडिया मिनटों में किसी को बदनाम और ख़ुशनाम कर सकता है। आज सारा खेल मीडिया ही कर रहा है चाहे धर्म हो, कुसंस्कार फैलाना हो या राजनीति हो, सबमें मीडिया की प्रधानता है।
अजय प्रकाश, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ का जनवरी अंक। सबसे पहले नीतू सिंह भदौरिया द्वारा आयोजित परिचर्चा ‘हिंदी कहानी का वर्तमान’ पढ़ा। सबसे बड़ी बात यह है कि ‘वागर्थ’ ने ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर परिचर्चा आयोजित की। नई कहानी, साठोत्तरी पीढ़ी, अकहानी, समांतर कहानी आंदोलन के बाद आज हिंदी कहानी किसी भी आंदोलन से परे है। आज कहानी आलोचक का संकट है, इसलिए कथाकारों पर भी संकट है।
रामभरोस झा, हरिहरपुर : दमन, हिंसा और भय वस्तुतः प्रेम के आगे कुछ भी नहीं हैं। आज धर्म और जाति के नाम पर साझी संस्कृति की आत्मा को घायल किया जा रहा है। सुख के आगे सद्विचारों की कोई अहमियत नहीं रह गई है। जो राजनीति समाज की सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब और परिवर्तन की सूत्रधार थी, वह विरूपित और विकृत होती जा रही है। राजनीति अब जन-कल्याण का उपकरण न होकर, सुविधाएं और पद- सम्मान पाने का हथियार है। आज ऐसा लगने लगा है कि स्वार्थ से ऊंचा कोई आदर्श न हो! दिसंबर अंक का संपादकीय आज की चिंतनीय स्थिति से अवगत ही नहीं कराता, कुछ सार्थक सोचने को भी प्रेरित करता है।