शंभुनाथ

भारत में आदिवासी 2011 की जनगणना के अनुसार कुल आबादी के 8.6 प्रतिशत हैं, अर्थात आज के समय में करीब 11 करोड़।ये नई शब्दावली में ‘जनजाति’, ‘देशज लोग’ (इंडिजिनस पीपल) कहे जाते हैं।देश की सबसे अधिक प्राकृतिक विविधता आदिवासी इलाकों में है और उतना ही विविध है उनका सामुदायिक जीवन।आदिवासियों को लेकर प्राचीन काल से बाकी देशवासियों का रुख सद्भावना और अहस्तक्षेप का रहा है। ‘रामचरितमानस’ तक में यह प्रतिबिंबित हुआ।लेकिन देखा जा सकता है कि वे औपनिवेशिक काल से शोषण और अत्याचार के एक बड़े चक्रव्यूह में हैं।वैश्वीकरण के दौर में वे ‘विकास’ के लिए विस्थापन का शिकार होकर अपनी पहचान, जीविका तथा विविधता भी खो रहे हैं।
इसमें संदेह नहीं कि आदिवासियों के संघर्ष का एक लंबा इतिहास है।अकबर के ‘सुहलेकुल’ के काल के बाद भील विद्रोह हुआ।अंग्रेजों के समय भी आदिवासियों ने जगह-जगह संघर्ष किया।21वीं सदी में नियमगिरि (उड़ीसा) में वेदांता परियोजना को लेकर सफल आंदोलन, कुडनकुलम (तमिलनाडु) में परमाणु ऊर्जा केंद्र स्थापित करने के विरुद्ध आंदोलन और कई दूसरे आंदोलन हुए हैं।इन सबसे उनके संघर्ष की निरंतरता का ही बोध नहीं होता, कुछ अनोखे संकेत भी निकलते हैं।
देखा गया है कि किसी संदर्भ में जो ‘विकास’ है, वह आदिवासियों के संदर्भ में उनका ‘निःशक्तिकरण’ है।एक आंकड़े के अनुसार, पिछले 50 सालों में 2.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें 90 लाख आदिवासी हैं।विभिन्न किस्म की आपदाओं, अभावों, अंतर-जनजातीय संघर्षों और अदालत के आदेशों की वजह से, बताया जा रहा है कि फिलहाल 10 लाख से अधिक लोगों के सिर पर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है।वे अपने ही देश में लगातार शरणार्थी बन रहे हैं- घरेलू शरणार्थी!
निश्चय ही विस्थापन की तकलीफों को झेलना आसान नहीं होता, यह मनोवैज्ञानिक आघात का मामला भी होता है।इसलिए वैश्वीकरण एक तरह से आदिवासियों के जीवन पर बाज का झपट्टा है।
आदिवासियों को बड़े बांधों के अलावा धातु की खानों, आणविक ऊर्जा उत्पादन, अभयारण्य, उद्योगीकरण, सैनिक गतिविधि आदि वजहों से विस्थापित होना पड़ता है।उनके लिए विस्थापन एक दर्द-भरी घटना इसलिए है कि उनकी भूमि ही उनकी जान है।यहां उनके देवता बसते हैं।एक जगह से दूर कहीं और ले जाने के कारण वे आजीविका ही नहीं खोते, उन्हें सामुदायिक बिखराव, वातावरण की भिन्नता और सांस्कृतिक बेगानापन भी झेलना पड़ता है।वे मुआवजा पाते हैं, लेकिन अपनी निरंतरता खो देते हैं।वे जल्दी अपने को ‘गरीब’ समझने लगते हैं, जैसा वे पहले नहीं सोचते थे।वे सभी आदिवासी जो नौकरी-चाकरी करते हुए नई सभ्यता में शामिल होते जाते हैं, उन्हें इसकी उपलब्धियां कम सुलभ होती हैं, असुरक्षा अधिक झेलनी पड़ती है।
आदिवासी जीवन की स्वायत्तता का प्रश्न
वैश्वीकरण की कल्पना बिना दीवारों की एक ऐसी दुनिया के रूप में की जाती रही है, जहां दुनिया के लोगों के बीच आपसी समझदारी, बंधुत्व और आदान-प्रदान बढ़े तथा सभ्यता का विकास हो।इसके विपरीत, पहले वैश्वीकरण सिर्फ उपनिवेशवाद के रूप में आया।इस जमाने में वह सिर्फ कारपोरेट लूट के लिए मुक्त बाजार के रूप में है।दरअसल वैश्वीकरण ने जब किसी मामले में स्वायत्तता को सुरक्षित रहने नहीं दिया है तो आदिवासियों की परंपराओं तथा जल-जंगल-जमीन के मामले में स्वायत्तता कैसे बनी रहती।ज्ञानोदय के जमाने में स्वायत्तता की जिस धारणा को आधुनिक प्रतिष्ठा मिली थी, वह अब एक गुजर चुका मामला है।समझने की जरूरत है कि आदिवासी अपनी पहचान के मामले में ही नहीं महंगाई, बेरोजगारी और बेगानेपन के मामले में भी एक कठिन विश्व में हैं।
जवाहरलाल नेहरू के जमाने में स्वायत्तता एक आधुनिक मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित थी।उन्होंने आदिवासियों के बारे में 1958 में कहा था, ‘समस्याओं की समस्या है जनजातीय जीवन के सामंजस्य में व्यवधान डाले बिना उन्हें भारतीय समाज का सदस्य बनाना और एक अभिन्न हिस्से के रूप में उन्हें जोड़ना।… हम अपने ढंग से जिएं, इसका स्वागत है, लेकिन अपना जीवन दूसरों पर क्यों थोपें।मैं बिलकुल आश्वस्त नहीं हूँ कि जीने का कौन-सा रास्ता बेहतर है- जनजातियों का या हमारा अपना? कुछ मामलों में मैं निश्चिंत हूँ कि उनका रास्ता बेहतर है।इसलिए हमारी ओर से घोर अशिष्टता होगी कि हम उनके विरुद्ध श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शित करें।उन्हें कहें कि उन्हें कैसा आचरण करना चाहिए।’ (ट्राइब्स एंड ट्राइबल पालिसी : ए सेंटेनियल ट्रिब्यूट)।
महात्मा गांधी के ईश्वर, विश्व और मनुष्य के बारे में बहुत से विचार आदिवासियों के प्राकृतिक धर्म से मिलते थे।वे पश्चिमी ढंग के उद्योगीकरण को संदेह से देखते थे।नेहरू जिस वक्त आदिवासियों की प्रकृति-आधारित जीवन पद्धति को आदर से देखते होंगे, वे निश्चय ही गांधी की सोच के करीब होंगे।हालांकि वे विस्तृत उद्योगीकरण तथा बड़े बांधों के समर्थक थे।उनके उपर्युक्त कथन में ऐतिहासिक दुविधा और अंतर्विरोध स्पष्ट हैं।वे जब ‘जनजातीय जीवन के सामंजस्य में व्यवधान डाले बिना’ आदिवासियों को आधुनिक ‘भारतीय समाज का सदस्य बनाना और एक अभिन्न हिस्से के रूप में जोड़ना’ चाहते हैं तो इसे दरअसल दो विपरीत राहों पर एक साथ दौड़ना कहा जा सकता है, हाथ बढ़ाकर दो कबूतर एक साथ पकड़ना! यह नियति से ‘मुठभेड़’ करते हुए नियति का ‘शिकार’ होना है, जो पहली या अंतिम घटना नहीं है।
नेहरू के जमाने में भी विस्थापन घटित हुआ था, लेकिन वैश्वीकरण ने उसकी मात्रा इतनी बढ़ा दी कि इसने उन्मूलन के अर्थ को एक नया स्तर दे दिया है।अब आदिवासी एक ऐसे मोड़ पर हैं, जहां वे सार्वभौम विनाश को कई दूसरों के साथ झेलने के लिए अभिशप्त हैं, साथ ही स्वायत्तता के प्रति अपने ‘नास्टेल्जिया’ से पीड़ित रहने के लिए भी।
आज मनुष्य जिस तरह अपने धर्म के आगे हतप्रभ खड़ा है, वह मुक्त बाजार में भी उतना ही हतप्रभ है।वह आकर्षित है और हतप्रभ भी, जब धर्म और बाजार दोनों महज संपत्ति बटोरने के हथियार हैं।निश्चय ही मनुष्य जाति की प्रगति का अर्थ यह नहीं हो सकता कि वह संपत्ति बटोरता जाए और लोकतंत्र को खो दे, हर चीज के तर्क को खो दे, सौहार्द खो दे, मीडिया और कला-साहित्य की स्वायत्तता खो दे, खाने-पहनने की स्वतंत्रता और खासकर बोलने की स्वतंत्रता खोता जाए।वह मानवाधिकार खोकर अप्रत्यक्ष गुलाम बन जाए।निश्चय ही आदिवासी जीवन की स्वायत्तता का प्रश्न इस जमाने में एक विच्छिन्न मामला नहीं है, उसका संबंध उपर्युक्त सभी चीजों को बचाने से है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा विकास की सार्वभौम घोषणा और आदिवासी
आज हर तरफ विकास की चर्चा है।संयुक्त राष्ट्र ने 4 दिसंबर 1986 को विकास का सार्वभौम घोषणापत्र जारी किया था।उसके अनुसार, दुनिया में न्याय और शांति की स्थापना तभी संभव है, जब स्पर्धा में पिछड़े लोगों को भी ‘विकास का अधिकार’ हो।संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के 55वें अनुच्छेद में विकास का अर्थ है- उच्च जीवन स्तर, पूर्ण रोजगार तथा आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक प्रगति।
1991 से शुरू हुए आर्थिक सुधारों के साथ दावा किया जाना शुरू हो गया था कि हर तरफ अब विकास ही विकास है, जबकि आदिवासी क्षेत्रों सहित गांवों की हालत बुरी होती जा रही थी।मानव विकास रिपोर्ट बताता है कि 2020 में भारत एक स्थान नीचे खिसककर 189 देशों में 131वें स्थान पर आ गया है।उपर्युक्त घोषणापत्र में कहा गया था कि विकास में सभी लोगों की सक्रिय, मुक्त और सार्थक हिस्सेदारी होनी चाहिए।उसके लाभों का सही बंटवारा होना चाहिए।हम जानते हैं कि यह बंटवारा फिलहाल ‘100 दिनों की रोजगार गारंटी योजना’, कहीं सस्ता और कहीं मुफ्त राशन, कुछ हजार रुपयों की वार्षिक खैरात, जर्जर सरकारी संस्थानों में कम शुल्क में शिक्षा, लापरवाहियों से भरे अस्पतालों में इलाज, कहीं साइकिल-कहीं लैपटॉप वितरण जैसी कुछ चीजों तक सीमित है।अब संभव समानता, रोजगार का अधिकार या इसकी सुरक्षा एक बीता मामला है।
2002 में विश्व बैंक ने ‘गरीबों की आवाज’ के नाम से एक नया कार्यक्रम शुरू किया था।उसके जरिए दुनिया के देशों में रहने वाले गरीबों की प्रतिक्रियाएं और उनके सुझाव सेटेलाइट के जरिए इकट्ठा किए जा रहे थे, ताकि विकास की नीतियां निर्धारित करते समय सरकारें उनपर ध्यान दें।क्या गरीब आदमी सेटेलाइट छू सकता है? दरअसल संयुक्त राष्ट्र स्वप्नों का कोल्ड स्टोरेज है, उसमें निष्क्रिय स्वप्न पड़े रहते हैं!
कहने का आशय है कि विकास की प्रचलित धारणाओं की जगह सहभागितापूर्ण विकास, समावेशी विकास, सतत विकास, स्व-विकास और कुशलता निर्माण जैसी चीजों का प्रचार जरूर किया जाता है, पर ये दिखावा ज्यादा हैं।
कोरोना महामारी के समय यह तथ्य सामने आया कि इस दौर में कई कंपनियों के लाभ में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई, हजारों अरब की।अब भारत उच्च एलीट वर्गों के अभूतपूर्व विस्तार के साथ वस्तुतः एक गरीब और विषमताओं से भरे देश के रूप में दिख रहा है।2022 की विश्व विषमता रिपोर्ट के अनुसार, ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 57 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय आय का सिर्फ 13 प्रतिशत।यह बढ़ती विषमता अशांति की जन्मभूमि है।
जिसे सतत विकास या ‘सस्टनेबल डेवलपमेंट’ कहा जाता है, वह चार स्तरों पर सामंजस्य की मांग करता है- (1) मनुष्य का मनुष्य से संबंध, (2) मनुष्य का पर्यावरण से संबंध, (3) मनुष्य का दूसरे जीव-जंतुओं से संबंध और (4) वर्तमान पीढ़ी का भावी पीढ़ियों से संबंध, अर्थात एक कल्पनाशील भविष्य दृष्टि! हम सभी दरअसल ऐसी दुर्भाग्यग्रस्त पीढ़ियों के लोग हैं जो उपर्युक्त सभी संबंधों में विघटन या अराजकता अपनी आंखों के सामने स्पष्ट देख रहे हैं।हमारा देश एक अशांतमय दौर से गुजर रहा है, जिसका हर क्षेत्र के विकास पर बुरा असर पड़ रहा है।बाहर जितनी जगमगाहट है, भीतर उतना अंधेरा है।
आदिवासियों के संबंध में देखें तो इनका प्राकृतिक अर्थतंत्र पहले ही टूट चुका है।फिलहाल उन्हें परंपरा और आधुनिकता की जिस करुण साझेदारी में जीना पड़ रहा है, उसमें वे कई नई समस्याओं के सामने हैं।सबसे पहले, नए परिदृश्य में अंतर-जनजातीय तनाव बढ़ा है, खासकर पूर्वोत्तर की जनजातियों की समस्याएं मध्य प्रदेश-झारखंड जैसे राज्यों की जनजातियों की समस्याओं से अलग हैं।दरअसल आदिवासियों के बीच भिन्नता के बावजूद बंधुत्व जरूरी है।उनमें परस्पर मेलजोल के अलावा यथासंभव विवाह संबंध का दायरा भी बढ़ना चाहिए।खासकर नई स्थितियों में कबीलाई घेटो मानसिकता आत्मघातक है।
देखा जा सकता है, आदिवासी स्त्रियों पर एक असर उनके उपभोक्ता संस्कृति की तरफ झुकाव और वस्तुकरण के रूप में है।एक समस्या यह है कि महंगाई और बेगानेपन के हालात में जीविकाहारा आदिवासियों को न अच्छी शिक्षा सुलभ है और न सही चिकित्सा।दूसरी तरफ, रोजगार पाए एलीट आदिवासी शहरी मध्यवर्गीय मानसिकता में ढलते जा रहे हैं।इससे गांव और बस्तियों में रहने वाले गरीब आदिवासियों की निस्सहायता बढ़ी है।जंगलों के माफिया और भ्रष्ट प्रशासन की मिलीभगत ने आदिवासियों को भय के रेगिस्तान में छोड़ दिया है और अब बहुत कम जगहों पर व्यापक प्रतिरोध है।लगता है, प्रबंधन के बाहर कुछ नहीं है।
संदेह है और आकर्षण भी
आदिवासियों का विकास से संबंध अपरिहार्य है।वे विकास के नजदीक न भी जाना चाहें, विकास को कूदकर आदिवासियों के जीवन में एक न एक रूप में आना है।मोबाइल समेत नई उपभोक्ता सामग्री के आकर्षण से आदिवासी इलाके नहीं बचे हैं।इन चीजों के साथ बुराइयां और अच्छाइयां इनके जीवन में भी आ रही हैं।उन्हें रोका नहीं जा सकता।यह स्वाभाविक है, यदि आदिवासी बौद्धिकता नए ढंग के विकास को लेकर संदेह और आकर्षण की दुविधा में फँसी हो।यह चीज संविधान-सभा के सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के मन में थी- नेहरू को लेकर आकर्षण और संदेह दोनों।अब यह सार्वभौम आदिवासी वृत्तांत है।
संदेह जीवन का लक्षण है, यह मुक्ति का द्वार है।दरअसल आदिवासियों का बाहरी लोगों से जब भी संबंध बना है, चाहे वह धार्मिक हो या राजनीतिक, आमतौर पर उनके शोषण, उनपर अत्याचार की शक्ल में बना है।देखा गया है कि लोग अपने स्वार्थों को ऊंचे आदर्शों और जनस्वार्थ के नारों के पीछे छिपाकर रखते हैं।इसलिए वंचित समाजों में संदेह स्वाभाविक है और इसी रास्ते से स्वतंत्रता तक पहुंचा जा सकता है।कहना न होगा कि हर तरफ आकर्षण का जाल है।
एक समय अंग्रेज आदिवासियों को समझने में असमर्थ थे।तभी से आदिवासियों को आधुनिक श्रेणियों के शोषण का शिकार होना पड़ा।यह उन्हें लोभ और सुविधाएं दिखाकर हुआ।खनिज पाने की होड़ के साथ भूमि हड़पने वालों, पेड़ काटने वालों और साहूकारों ने उनके जीवन में समस्याएं पैदा कीं।प्रशासन और न्यायालय के अभाव में उनके साथ बेरोकटोक अन्याय हुए।इन दिनों उनका सभ्यतागत आत्मसातीकरण हो रहा है और उनकी क्रांतिकारी संरक्षणशीलता में ह्रास आया है।
अस्मिता के विस्तार का प्रश्न
निश्चय ही आत्मसातीकरण और सम्मिश्रण में फर्क है।आदिवासियों को जहां अपने विश्वासों और अधिकारों पर आघात महसूस नहीं होता, वहां वे अपनी अस्मिता की रक्षा करते हुए विकास का अंग बनते हैं और जहां भिन्न स्थिति है, वहां वे अपने प्राकृतिक-संवैधानिक अधिकारों के लिए यथाशक्ति संघर्ष करते हैं।हालांकि उनका संघर्ष अब तरह-तरह से नियंत्रित होता है।फिर भी यह संभव है कि वे किसी समय अपनी बड़ी मांगों को लेकर जग उठें, जिस तरह हाल में किसानों ने जागरूकता दिखाई।
भारतीय राष्ट्र से आदिवासियों का कैसा संबंध हो, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।ऐसे किसी संबंध का अर्थ आदिवासियों की अस्मिता का त्याग नहीं है, बल्कि उसका अर्थ शिक्षक, वकील, राजनीतिज्ञ, व्यापारी, डाक्टर, नई प्रविधि से लैस खेतिहर, क्लर्क, कंप्यूटर इंजीनियर, वैज्ञानिक जैसी नई अस्मिताओं का निर्माण है।आदिवासियों की क्षमता और आदिवासी क्षेत्रों की भौतिक संपदा का इस्तेमाल किस तरह हो, इसपर लंबे समय से मतभेद रहा है।यह एक संवेदनशील मामला है और आदिवासियों ने विकास को लगातार संदेह से देखा है।हालांकि अस्मिता तथा विकास में अंतर्विरोध न देखने की दृष्टि भी रही है।देखा जा सकता है कि इन दिनों शिक्षित आदिवासी विकास में खुलकर भाग ले रहे हैं।
बिरसा मुंडा : पहचान और सुधार का संबंध
यह एक चुनौतीपूर्ण मामला रहा है कि आदिवासियों के अंधविश्वासों और बाहरी दुनिया के प्रति उनके मन में बसी गांठ को कैसे खोला जाए।यह सिर्फ आर्थिक सुधार से संभव नहीं है, बल्कि कहा जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ये गांठें मजबूत कर दी हैं।इस संदर्भ में बिरसा मुंडा के जीवन को देखने की जरूरत है कि किस तरह वे संरक्षणशीलता के साथ-साथ सुधारों को भी आगे बढ़ा रहे थे।वे अंग्रेजों और जमींदारों को चुनौती देने के साथ अंधविश्वासों से बाहर आने के लिए भी कह रहे थे।उन्होंने अंधविश्वासों को अस्मिता से नहीं जोड़ा। (प्रेतात्मा) पूजा के समय बकरे की बलि से उन्हें नफरत थी।
बिरसा की प्रार्थना में ये पंक्तियां देखी जा सकती हैं, ‘ओ पहाड़ो, ओ गहरे पानी की दुष्टात्माओ! तुम हमलोगों से कोई बलिदान न पा सकोगी/दरअसल तुमने पृथ्वी और स्वर्ग की सृष्टि नहीं की है/इसलिए ओ दुष्टात्माओ! हमसे दूर रहो/ओ पिता और मां! केवल तुम्हारी ही अनुकंपा और सहायता से और सिर्फ तुम्हारी ही दवाओं से/ हम अपने रोगों से छुटकारा पाएंगे/… यह दुनिया उलटपुलट गई है/शैतानों को बांधो/… ओ पिता! ओ बिरसा! जैसा कि तुम्हारे धर्म में कहा गया है/ मेरे जीवन, मेरे शरीर, मेरे मन और हृदय को/आसमान की दूरस्थ सीमाओं और दुनिया के विस्तार तक पहुंच जाने दो/… बिरसा का आदेश है, हंड़िया और शराब न पियो/इससे हमारी जमीन छिन जाती है/…ओ भक्त मुंडाओ! तुम सब विश्वधर्म सीखो/हम छह दिनों तक अपनी जीविका के बारे में सोचेंगे/हफ्ते में एक दिन विश्राम करेंगे।’
हम देख सकते हैं कि प्रार्थना के उपर्युक्त अंशों में ईश्वर के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए पिता के साथ ‘माता’ को भी संबोधित किया गया है जो ईसाइयत का अतिक्रमण है।बिरसा ईसाइयत से प्रभावित थे, पर वे अपनी जनजातीय परंपराओं से प्रेम रखते थे।इसपर नजर जानी चाहिए कि वे हिंसा, मद्यपान, प्रेतात्मा में विश्वास और आलस्य का विरोध करते हैं, ‘विश्वधर्म’ की बात करते हैं।आदिवासी नौजवानों को इसपर सोचने की जरूरत है कि आदिवासी समुदाय में धार्मिक-सामाजिक सुधार की उस परंपरा को फिर कैसे आगे बढ़ाया जाए।निश्चय ही आदिवासी संदर्भ में संरक्षणशीलता का मतलब है क्रांतिकारी संरक्षणशीलता या संरक्षणशील सुधारवाद, न कि रूढ़िमुखी संरक्षणवाद।
संचार क्रांति और बाजार व्यवस्था के जमाने में ऐसा नहीं लगता कि आदिवासी जीवन पीछे लौटेगा या यथास्थिति रहेगी।अब 2.5 करोड़ से अधिक आदिवासी महानगरों-नगरों में रहते हैं।वे समुदाय से समाज में आ गए हैं।लंबे समय से ही सामाजिक रूपांतरण जारी है।यदि कुछ बिंदुओं पर संघर्ष है तो कुछ बिंदुओं पर पुरानी रूढ़ियों से बाहर निकलने की जद्दोजहद भी है।बदलते समय में आदिवासी लोग शिक्षा, शहरी रोजगार, व्यापार और संचार क्रांति के अंग बन रहे हैं।वे वेशभूषा, खानपान और जीवन शैली के क्षेत्र में नई राहें पकड़ चुके हैं, हालांकि अपने अतीत को लेकर भी चिंतित हैं।इसका आशय यह है कि आदिवासियों को भारतीय राष्ट्र में परिवर्तित भी होना है तो उसको परिवर्तित भी करना है।
आदिवासियों का बहुत कुछ खोते जाने का एक मार्मिक इतिहास है
दुनिया की लगभग 7000 भाषाओं में जिन 3000 भाषाओं को ‘इन्डेंजर्ड’ की श्रेणी में रखा गया है, वे अधिकांशतः जनजातियों की हैं।एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत की 780 जीवित भाषाओं में से लगभग 250 भाषाएं पिछले 60 सालों में मर चुकी हैं (गणेश एन.देवी)।कई भाषाओं के बोलने वालों की संख्या सौ-दो सौ रह गई है।कहा जाता है, जब एक भाषा मर रही होती है तो उसके साथ एक संस्कृति भी मिटने लगती है।अंततः आपस के संबंध भी बदल जाते हैं।उपनिवेशवाद के बाद भूमंडलीकरण के दौर में संकटग्रस्त भाषाओं के मौत के दरवाजे तक पहुंचने में दुबारा तेजी आई है।निःसंदेह पिछली बार की तरह यह खतरा आदिवासियों की भाषाओं पर सबसे ज्यादा है।
दुनिया के लाखों आदिवासी वनों और पहाड़ों में रहते आए हैं।वे अपने इलाकों की उपज और लकड़ी-पानी पर जीवन यापन करते रहे हैं।लेकिन हर देश में जब व्यापारियों ने वनों-पहाड़ों पर व्यक्तिगत मालिकाना कायम करना शुरू कर दिया और आदिवासियों की भूमि पर वे कीमती वस्तुएं उपजाने-बनाने लगे, तब आदिवासियों का पहले की जीवन पद्धति में व्यापक अवरोध आया।वे व्यक्तिगत संपत्ति नाम की चीज नहीं जानते थे, पर अब वे अपने पुराने जीवन-संसार से उन्मूलित थे।अधिकांश आदिवासी व्यापारियों के यहां मजदूर हो गए, बस्तियों-कालोनियों में रहने लगे और प्रकृति की गोद में स्वच्छंद सामूहिक जीवन से घेटो टाइप की जिंदगी में सिकुड़ गए।
यह भी एक यथार्थ है कि दुनिया में जहां आदिवासियों का सफायाकरण नहीं हो पाया है, वहां उनका सीमांतीकरण हुआ है और उन्हें बहुत कुछ खोना पड़ा है।तकनीकी प्रगति और आधुनिक उत्पादन पद्धति के वर्तमान जमाने में भारत के ज्यादातर आदिवासियों को दया, खैरात या राशन पर जीना पड़ रहा है।उनकी गरीबी लगातार बढ़ रही है।सवाल है कि आखिरकार कोई समुदाय खैरात या राशन पर कब तक जिंदा रह सकता है?
कोरोना महामारी के दौर में आदिवासियों की आर्थिक असहायता बढ़ गई थी।तेंदु, महुआ, बांस जैसे वन उत्पादन पड़े रह गए थे।वे रोजगारहीनता और भुखमरी के शिकार हुए।कोरोना के बाद काफी आदिवासी बच्चे स्कूल नहीं लौटे हैं।आमतौर पर आदिवासी समुदाय में कभी आत्महत्या की बात नहीं सुनी जाती थी, ‘नौकरी’ की तरह ‘आत्महत्या’ शब्द भी उनके जीवन-कोश में न था।कुछ दशकों से विस्थापन, जीविका की क्षति तथा तनावों के चलते अब आदिवासी भी आत्महत्या करने लगे हैं।उनका प्रतिशत दलितों से ज्यादा है।भारत में 2020 में आत्महत्या की 1,53,000 घटनाएं हैं।इनमें आदिवासी कितने हैं, इसका डेटा उपलब्ध नहीं है।
आदिवासी पूछते हैं, मुख्यधारा क्या बला है?
प्रचलित राष्ट्रवाद की नजर में आदिवासी लोग स्वाधीनता दिवस की परेड में शामिल एक आकर्षक दृश्य से ज्यादा महत्व नहीं रखते।वे कई शहरवासियों की नजर में महज आदिवासी नृत्य हैं, वे फोटो शूट की जगह हैं।बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर उनकी जमीन और जमीन के नीचे छिपी अपार खनिज संपदा पर है।बुद्धिजीवियों की नजर में आदिवासी तीर-धनुष धारण किए हुए चिह्न हैं।दरअसल सामुदायिक अस्मिता की फास्ट फूड शैली वाली राजनीति सांस्कृतिक चिह्नों को महत्वपूर्ण बना देती है, क्योंकि ये सामुदायिक एकता के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं।
आदिवासियों के संदर्भ में एक भ्रामक धारणा ‘मुख्यधारा’ को लेकर है।आदिवासियों को उनके पिछड़ेपन से बाहर निकालकर मुख्यधारा और ‘मेन लैंड’ में शामिल करने की बातें जोरशोर से होती हैं।लगता है, मुख्यधारा एक ऐसी बनी-बनाई चीज है, जिसमें दीन-हीन आदिवासियों और हाशिए के अन्य तबकों को आकर चुपचाप शामिल हो जाना है।यदि अभी भी जंगलों और गांव में बसे करोड़ों आदिवासी भूख, शिक्षा और चिकित्सा के मामलों में असहाय हैं तथा विलगाव का अनुभव करते हैं तो राजनीतिक महारथी इसके बुनियादी कारणों में जाना नहीं चाहते।हम कई धर्मपरायणों को उनके लिए धार्मिक दयासागर बनकर घूमते देखते हैं।वे अपने धर्म में आदिवासियों को आत्मसात करने को उनका मुख्यधारा में शामिल होना मानते हैं।कई लोग आदिवासियों की सोच को पिछड़ा मानकर उनके आधुनिक पश्चिमी सभ्यता में अंतर्भुक्त होने को मुख्यधारा में शामिल होना मानते हैं।इन सभी लोगों में समानता यह है कि इनमें से कोई सज्जन आदिवासियों के लिए न्याय की बात नहीं करता।
मुख्यधारा के प्रवक्ता यह अहंकार लेकर चलते हैं कि उनके अलावा बाकी सभी सांस्कृतिक तौर पर ‘निम्न’ हैं।मुख्यधारा को कई बार हिंदू धर्म के अलावा पॉप कल्चर, एलीट ज्ञानानुशासन, और ई-मीडिया के रूप में भी देखा जाता है, जबकि धार्मिक-सांस्कृतिक-जातीय बहुलता वाले समाज में ‘मुख्यधारा’ जैसी अहमन्यतावादी धारणा के लिए कोई जगह नहीं है।हम यदि विविधता की रक्षा की बात करते हैं तो इसका एक ही अर्थ है सौहार्द और न्यायपूर्ण सह-अस्तित्व, साथ ही पूर्वग्रहों से धीरे-धीरे मुक्त होना!
आदिवासियों के सांस्कृतिक गुण
दुनिया की तमाम जनजातियों में ‘बुराई’ और ‘अच्छाई’ की अपनी समझ है।उनमें चोरी-बेईमानी नहीं है।वे अपने अंतर्द्वंद्वों का मिल-बैठकर समाधान निकाल लेते हैं।उनमें सचाई, संयम और न्यायप्रियता है और आत्मसम्मान की भावना है।प्रेमचंद के ‘गोदान’ में रायसाहब, खन्ना, मालती वगैरह जब जंगल में शिकार और पिकनिक पर गए होते हैं, तो मालती एक आदिवासी कन्या को किसी काम के लिए आदेश के स्वर में बोलती है और तुरंत जवाब पाती है- ‘मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ’! शहरी मध्यवर्ग आदिवासियों को उपयोग की ‘वस्तु’ के रूप में देखने का अभ्यस्त रहा है।उपनिवेशवादी उन्हें असभ्य और बर्बर कहते थे, क्योंकि वे लालची नहीं थे, क्योंकि उनके सांस्कृतिक शब्दकोश में ‘नौकरी’ शब्द नहीं था, क्योंकि वे आत्मसमर्पण नहीं करते थे।
स्त्रियों और दलितों से आदिवासियों की स्थिति में एक बड़ा फर्क यह है कि सामान्यतः सैकड़ों साल से उत्पीड़न की शिकार स्त्रियों और दलितों के पास कोई सुंदर अतीत नहीं है, जिसपर वे गर्व करें।लेकिन आदिवासियों के पास एक विलक्षण अतीत है, जिसपर वे गर्व कर सकते हैं।सबसे पहले तो आदिवासी जाति व्यवस्था को नहीं मानते।
वे किसी भी तरह की वर्चस्व-कामना से मुक्त रहे हैं।खासकर उनके संपूर्ण सृष्टि से अनुराग, लघु में भी विराट को खोजने की कला, स्त्री को समान स्वतंत्रता, बुजुर्ग का सम्मान, श्रम से प्रेम और सामूहिक भाईचारा जैसे बड़े गुण उनके जीवन में सदा रहे हैं।अपने को बहुत सभ्य समझने वाले लोग चाहें तो आदिवासियों के उपर्युक्त गुणों से आज भी कुछ सीख सकते हैं।इसपर भी सोचना जरूरी है कि आधुनिकीकरण में शामिल हो जाने वाले आदिवासियों ने उच्च सांस्कृतिक गुणों को खुद अपने जीवन में कितना बचाकर रखा है और वस्तुतः वे इन्हें कितना खो चुके हैं।
आदिवासियों के मौखिक वृत्तांतों में अनोखा प्रतिरोध है
मानव सभ्यता के इतिहास में सर्वत्र ही लोक की मौखिक परंपराओं से सामग्री लेकर क्लासिकल साहित्य रचा गया है।लोक परंपराओं से महाकाव्य में आना तथा महाकाव्य से पुनः लोकपरंपराओं में आना – दोनों घटनाएं महत्वपूर्ण हैं।देखा जा सकता है कि रामायण और महाभारत के कई कथा प्रसंगों के जनजातीय रूपभेद हैं, जो सत्ता विमर्श से असंतोष और प्रतिवाद के चिह्न हैं।
रामकथा का एक लोकप्रिय प्रसंग है कि आदिवासी स्त्री शबरी ने राम को अपने हाथ से बेर खाने को दिए और राम ने खाए।कोल जाति की एक लोककथा है कि राम ने शबरी के बेर खा लिए, पर लक्ष्मण ने खाने से इनकार कर दिया।फलस्वरूप कहीं से एक बाण आया और लक्ष्मण आहत हो गए।वे तब तक दर्द से कराहते रहे, जब तक उनका मन बदल नहीं गया और उन्होंने बेर खा नहीं लिया।यह सामाजिक भेदभाव के नजरिए का आदिवासियों द्वारा आक्रामक प्रतिवाद है।
राजस्थान के भीलों के महाभारत में एक ही नियति तक पहुंचतीं कुंती और गांधारी ‘दो आत्माएं’ हैं।उसमें कर्ण की महत्ता है।16वीं सदी के एक मराठी लोककवि कृष्णदास दाम्या ने द्रौपदी को ‘आदिमाता’ के रूप में उपस्थित किया है।कथा के अंत में द्रौपदी ही कृष्ण से कहती है, ‘मांगो कृष्ण, जो चाहिए मांगो!’ कृष्ण द्रौपदी के मातृरूप की स्तुति करते हैं।यह लोक का साहस है।ऐसे लोक आख्यानों में ‘ताकतवर’ द्वारा रौंदी गई भावनाओं का लघु ढांचे में पुनःसृजन है।इनमें जीवन की एक भिन्न परिभाषा है।ऐसे कई मौखिक कथारूपों में ‘लोक’, जिसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा जनजातियां हैं, वस्तुतः भिन्न नैतिक बोध के साथ-साथ अपनी कलात्मक सामर्थ्य का भी प्रदर्शन करता रहा है।
आत्म–उन्मूलित आदिवासी
आज भारत में आदिवासियों को लेकर जो घटित हो रहा है, वह दुनिया के उन सभी देशों में हो रहा है जहां जनजातियों की बड़ी आबादी है।मामला सिर्फ इतना ही नहीं है कि खनिज और आणविक ऊर्जा उत्पादन, जंगली पशुओं के अभयारण्य, ‘सफारी’ या पर्यटन स्थल या पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगलों से बड़े पैमाने पर आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है।इस समय उनकी कला-संस्कृति और उनके उच्च सांस्कृतिक गुणों पर भी बड़ा हमला है।यह मुक्त बाजार व्यवस्था और अंध-राष्ट्रवादी राजनीति दोनों तरफ से है।वे उत्तरोत्तर आत्म-उन्मूलित होकर अवसाद के मुंह में जा रहे हैं, साथ ही उनकी प्रतिरोधशीलता का तरह-तरह से बंध्याकरण हो रहा है।
कुछ एलीट आदिवासियों को छोड़ दें तो आम आदिवासियों का जीवन आर्थिक, पर्यावरणीय और शैक्षिक-सांस्कृतिक रूप से पहले से अधिक कठिन हुआ है।उन्हें वस्तुतः जिस प्राकृतिक पर्यावरण से जीवन की ऊर्जा मिलती थी, उससे विच्छिन्न करके उन्हें नियति के भरोसे छोड़ दिया गया है।95 प्रतिशत आदिवासियों के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती जिंदा रहने की है।उन्हें आश्वासन सिर्फ खैरात, राशन और इधर-उधर जल्दी खत्म हो जानेवाले छोटे-से मुआवजे का है!
All Images : Kamal Koriya
बहुत ही ज्ञान वर्धक जानकारी एवम लेखनी की सुंदरता , आपके नाम से ही आपकी रचना पढ़ने का समय भी जाया नही करते है । आभार व सदर प्रणाम ।
हृदय जोशी , भोपाल
बहुत बढ़िया विश्लेषण।
आदिवासी जीवन और संस्कृति तथा उन पर आसन्न समस्याओं का आपने जिस प्रकार सविस्तार वर्णन किया है वह अत्यंत प्रेरणादायक और चिंतित करने वाली है। हमारे देश में धर्म और बाजार की राजनीति की ऐसी तेज आंधी आई है, जिसमें सिर्फ आदिवासी जीवन नहीं बल्कि सभ्य मानी जाने जातियों पर भी कई खतरें मंडरा रहे हैं।
सर आपकी लेखनी को सादर प्रणाम। वागर्थ का संपादकीय लेख की प्रतीक्षा रहेगी।
सादर प्रणाम सर 🙏