युवा कवयित्री। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्नातक की छात्रा।

पितरपख

हमारे पूर्वज
तस्वीरों से अधिक पेड़ों पर रहते हैं
जड़ों में पसरी है उनकी आंखें और
नसों में पूरी होती है
फ़ोटोसिंथीसिस की प्रक्रिया

वही पकाते हैं आम
सुखाते हैं पत्ते
झेलते हैं बेना

भर पितरपख पानी दो पेड़ों को
ताकि तर रहे उनका कंठ और
हरी रहे वसुधा

हमारे पूर्वज
ताबूतों से अधिक मिट्टी में रहते हैं
जिसे माथे पर लगाते ही
बोल उठते हैं वे विजयी भवः
मिट्टी का भूरापन उन्हीं के अनुभवों का रंग है
उन्हीं के संघर्षों का

भर पितरपख मत उड़ेलो
कोई रसायनी पदार्थ मिट्टियों में
ताकि लौट सकें वे
लौट सके – मिट्टी में उर्वरता

हमारे पूर्वज
अस्थियों से अधिक जल में रहते हैं
सूखी नदी और पोखर के तल में रहते हैं

जलाशयों के जल का सूखना
आंसू सूखने जैसा है

भर पितरपख मत होने दो सुखाड़
मछलियां उनकी सहेली हैं
कहां जाएंगी वे
कहां जाएंगे पितर?

संपर्क : हरिहरधाम बगोदर, गिरिडीह, झारखंड-825322