युवा कवयित्री।डॉ भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर। |
शून्य
वह जीती है कतरा कतरा
कुछ बचाती है
कुछ छींट देती है बीज की तरह
हाथ जोड़ कहती है
लो उसके अभिनय से सीख ही लिया अभिनय
चिल्लाती है
हकीकत में दुनिया अभिनय है
ख़ामोश हो जाती है
अब लड़ाई भी खामोशियों से होने लगी है
एक अजीब ही शांति है उस तरफ
बिस्तर की सिलवटों को तह करती
वह जानती है
पिछली कई रातें किसी और बिस्तर पर
पड़ी रही हैं ये सिलवटें
वह द्वंद्व में गुजरती जवाब ढूंढती है
भोजन के बाद नेपकिन देना नहीं भूलती
चाय में कभी चीनी ज्यादा तो कभी पानी ज़्यादा
जीवन में मात्रा लगाते लगाते
स्वाद की मात्रा भूलती-सी जा रही है वह
बड़े सलीके से सिरहाने पानी रख जाती है
पता है रात में अक्सर उन्हें कुछ सोचकर
पसीना आ जाता है
हलक सूख जाता है
उसे आज भी छन-छनकर सपने आते हैं
वह सुबकती नहीं हँसती है
पागल नहीं है वह
कोने में रखे गमले को कभी पानी देती है
कभी भूल जाती है उसे सूखने तक
वह माफ कर देना चाहती है बड़ी भूलों को
माफ नहीं कर पाती है
हर जगह से थक-हारकर लौटने के बाद
उसे स्वीकार कर लेती है वह
उसे फर्क नहीं पड़ता
कितनी और रातें कितनी और सिलवटें
कितनी और तस्वीरें कितनी और यादें
फ़र्क पड़ता है सिर्फ
उसे उसकी ख़ामोशी कुरेदे जाने पर
शायद अब वह उसे
मनुष्य नहीं शून्य समझती है।
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