युवा कवयित्री।डॉ भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर।
औरतें
वे औरतें आपस में भिड़ गई हैं
ऐसा दूर से कहा जा सकता था
पास आते ही उनकी धंसी आंखों में
चुहल होती थी
मुंंह पर गालियों की बौछार
मन में कोई मैल नहीं
यह साफ देखा जा सकता था
एक चावल बीन रही थी
एक खटिया बनाने के लिए बान बुन रही थी
एक साड़ी में पीको कर रही थी
एक दोपहर की बैठकी में बैठी
कभी उसे देखकर हंँसती तो कभी उसे
बीच बीच में अढ़वा काम भी कर लेती थी
एक ने कहा
फलाने के बाबू सिर्फ कलम चलाते हैं
बाहर हमें लोग मैडम कहते हैं और शरमा गई
दूसरी ने कहा
ये तो जब न तब फ़ोन पर ही लगे रहते हैं
स़िर्फ इशारे का काम है इनका
तीसरी ने कहा
मेरे तो अब आते होंगे
दो दिन बोलते नहीं
खाना फेंक देते हैं
चार दिन बाहर रहते हैं
मैं उनमें साथी नहीं डरावना पति देखती हूं
हमारे बीच वर्षों से कोई संबंध नहीं
पिछली दो औरतों ने गहरी सांसें भरी
पर बोली कुछ नहीं
चौथी ने कहा मेरे पति मोची हैं
और लजाते हुए कहा
चप्पल की सिलाई हमीं से सीखा है
आते होंगे
कंधे पर हाथ रखेंगे
और कहेंगे अपनी नफासत ज़रा दिखाओ
मैं उनसे चिढ़कर बोलूंगी
बड़े गधे शिष्य हो तुम
अभी तक जोड़ना नहीं सीख पाए
ख़ाक मोची बनोगे!
मोची की पत्नी..!
तीनों ने चौंककर देखा
और एक साथ पूछा फिर मारते होंगे!
चौथी औरत ने कहा
आंखें तरेरकर तो देखे, निकाल लूंगी
तीनों औरतों ने एक दूसरे को देखा
एक को टेबल पर कलम चलाता व्यक्ति याद आया
मन घृणा से भर गया
दूसरी को फ़ोन की कर्कश ध्वनि से बेहोशी आने लगी
तीसरी को लगा उसे ख़ुद कहीं चले जाना चाहिए
चौथी को कुछ समझ नहीं आया
सबको नमस्ते कहती अपने घर चली गई!
टोन
उनकी बोली में एक टोन है
जिस पर शहर हँसता है
आकाओं की जीभ
छतनार की तरह बिखरना चाहती है उन पर
उनकी हँसी को
सभ्यता के विष में सुला देना चाहता है शहर
संस्कारों को लपेटते चेहरे
गांव को फूहड़ अहंकार से नापते हैं
वे भूल जाते हैं कि
गांंव की बोली में पूर्वजों की कथा है
पोपली दुलार की थाप
उजास भर देती है जीवन में
मरे हुए पूर्वज उनसे बातें करते हैं
सभ्यता के खोल में
इन्हें मारना क्यों चाहते हो!
गंवारू बोली की हिकारत में
अंगूठा नीचे करने का खेल
कबसे रचाया होगा इस समाज ने
क्या किसी को याद है?
शहर की भंगिमा छपनी चाहिए अख़बारों में
रस तो इन्हें भी लोककथाओं में ही आता है
गांव से भागा मजदूर
मैली चादर को सर्दियों में लपेटे
और ठंडा हो जाता है
जबान भूख-प्यास से ज़रा और बेतरतीब
उनपर तुम्हारी उबकाई की छींटें
पुराना इतिहास रचती हैं
तुम्हारे सभ्य होने की कहानी
किंवदंतियों में भर गई है
शहर!
तुम्हारी साफ जबान मध्यरात्रि में चमकती है
सुबह होते ही कॉलर झाड़ लेती है
किसी बोली की कहावत में फँसे तुम
अपनी ही भाषा में गिरते हो बार-बार
तुम्हारी कुंठा तुम्हारे पेट में मूंछ सी मंडराती है
लज्जा को तुम नहीं
तुम्हारा स्वराघात लील जाता है
हे सुंदर शहर के भद्र उच्चारण
तुम्हारी मृत्यु किस टोन में आती है!
संपर्क : फ्लैट नं. १४९, दूसरा तल, पैराडाइज अपार्टमेंट, रोहिणी, सेक्टर-१८, नई दिल्ली-११००८५
It was a nice experience to read the poems.
Also I am lucky to have her as my college teacher.