ए क़ाज़ी ए वक़्त
इसबार दग़ा न करना
मेरे क़ातिल को तुम
फिर से रिहा न करना
मोजिज़ा है कि ज़िंदा हूं मैं
पर हक़ को मार दिया है उसने
ये जो घाव हैं मेरे ज़िस्म पर
इनसे गहरा वार किया है उसने
दिन दहाड़े ख़ंजर चलाकर
कानून को दुत्कार दिया है उसने
आंखों देखा, झूठ बताकर
अदालत को बाज़ार किया है उसने
इंसान, फ़रिश्तों और ख़ुदा को
क़सम से ललकार दिया है उसने
ए क़ाज़ी ए वक़्त
इसबार दग़ा न करना
मेरे क़ातिल को तुम
फिर से रिहा न करना
कविता : ए क़ाज़ी ए वक़्त
कवि : यासिरा रिज़वी
वाचन : आरती प्रज्ञा
ध्वनि संयोजन : अनुपमा ऋतु
दृश्य संयोजन-सम्पादन : उपमा ऋचा
प्रस्तुति : वागर्थ, भारतीय भाषा पारिषद कोलकाता