सुप्रसिद्ध हिंदी कवि।प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित।अद्यतन कविता संग्रह ‘योगफल’।
1.
वो बाजार ठठेरों का था दिन भर ठक ठक होती थी
फूटे बरतन रासे जाते फिर कलई भी चढ़ती थी
पीतल वाले बाजे भी चमचम चमकाए जाते थे
पिचके थोथे सबके मुखड़े नया जनम ले आते थे
यही एक बाजार शहर में हमको जी से भाता था मुद्राएं भंगिमा इशारों से सब शासन चलता था
काम काज था, भाषा चुप, बस धातु की आवाजें थीं घर्र घर्र मोटर चट चट फीता भट्ठी भांथी चिमटा
यहां मरम्मत जोड़ धुलाई वा चमकाई जारी थी
उड़ते छिंटते स्फुल्लिंग की मानो आतिशबाजी थी
ऐसा कुछ भी नहीं अजर जो कभी न टूटे भांगे
ऐसा कुछ भी नहीं जो अंतिम बार टूटे, टूटा रह जाए
और जिसे हम फिर से रूप नहीं दे पाएं
फली बदलते मूठ बदलते उसी छुरी को फिर फिर पाएं
मैं भी सोचूं बनूं ठठेरा यहीं कहीं खोजूं उस्ताद
तन पर धातु धूर पोत कर टूटा जगत करूं आबाद।
2.
कहां के बड़े प्रसन्नता कैसी
अंदर ईर्ष्या बाहर हँसी
जरा तपस्या की तापस ने
भई इंद्र की ऐसी तैसी
नहीं किसी को तू पतियाना
झूठे लबड़े चौक मुहाना
अपनी अपनी छतरी ताने
डाल रहे कुक्कुट को दाना
अब किसको कविता की चिंता
कैसा गायन कैसी धिन ता
अपने बिल में मुग्ध केंचुए
चाहे ढहे लवण परबत्ता
हमें पता है ढूह ढाणियां
कहां खोंपड़ी कहां हड्डियां
ठठा रहे जो जीत मनाते
उनके कंकालों की गड्डियां।
3.
मैं तो बिलकुल ठीक ठीक हूँ
अंगारा कुछ शेष राख हूँ
जले गाछ की शेष शाख हूँ
सूने उजड़े वीराने की एक ताक हूँ
चले गए सब, सब अपने घर
बची अकेली सांस उखड़
घूम रहा हूँ क़ैद देह में
बिन मिट्टी के चला चाक हूँ।
4.
न वतन बदर न ही घर बदर
कैद अपने घर में डर
पूछता उड़ते परिंदों से
किधर का है सफर
धूप है बादल भी हैं
चांद का घट बढ़ भी है
ताकता हूँ छत पुरानी
वो नहीं आते नजर
दिन भी जैसे रात धोई
बात में हो बात कोई
चोट सहना जख्म सेना
कौन उठता है कंहर
आई जितनी मौत अब तक
पीट सांकल नाम लेती
सांस सी खामोश कैसी
ये लहर और ये भंवर
याद कर वो सब जो अब तक
राह में तेरे मिले
याद कर वो सांस तेरे फेफड़ों में
छुप ठहर
अब भी अपनी ख़ुशबुओं से
कर तुझे जाती है तर
बस वही हासिल है तेरा
फूल फल जाएंगे झर।
5.
लिख लिख कर क्यों काट रहे हो
खोद ताल क्यों पाट रहे हो
बंद नगर घर बंद हवाएं
क्यों खिड़की से झांक रहे हो
ऊपर बादल नीचे पानी
गए दिवस, बातों की घानी
बाहर निकले पिट जाओगे
खोला मुंह तो कट जाओगे
सबसे दूरी बना के रखो
मुंह को हरदम बांध के रखो
कोई दुश्मन खोज निकालो
कोई भेंड़ी मूंड़ निकालो
मानो मेरी तर जाओगे
माल मता से भर जाओगे
धो लो बहती गंगा हाथ
पगहा पीछे आगे नाथ।
6.
किसके जंगल किसके खेत
किसकी नदियां और पहाड़
कितने मुर्दे जले घाट पर
कितने रखे तह में गाड़
जाति धरम में जनता मरती
पूंजी वाले मालामाल
मार काट में पोपट सूखे
नेता जी के पूए गाल
एक बकार भी फूटा तो
खिंचवा लेंगे कच्ची खाल
मछली पानी दोनों फँसते
देखो कैसा फेंका जाल
टर्राएंगे मेंढ़क कब तक
मालिक जी के सारे ताल।
7.
सांझ सबेरे नाम भजूंगा
प्रभु एक काम करा दे
बुझते जाते इस कंडे को
फिर से तू धधका दे
छत्ता भरा शहद से लटका
मैं प्यासा दुर्बल मैं भूखा
आ तू उसे चुआ दे
सांझ सबेरे नाम भजूंगा
पापी हैं वे अधम कोटि के
रक्त पिपासु खल दल
विघ्न डालते यज्ञ में मेरे
उनको निर्मूल करा दे
मैं हूँ तेरा तू है मेरा
तू मंदिर मैं घेरा
खल दल गंजन कर दे
सांझ सबेरे नाम भजूंगा
भजते तेरा नाम अहर्निश
भज भज पा पा जाते
खंड खंड जंबूद्वीप कर
दाम लगाते धाते
भाव भी उनका भजन भी उनका
मेरा मुंह सिलवाते
आकर अब उद्धारो भगवन
मगरमच्छ से गज को
नाम भजूंगा सांझ सबेरे
नाथ भजूंगा
दीन हीन कवि अरुण कमल
के साथ भजूंगा नाम भजूंगा।
8.
भरा जगत भंडार मगर भूखे हैं लाखों
भरी तिजोरी फिर भी लाखों खाली हाथों
चले जा रहे दूर हजारों कोस, कहीं पर घर है
नहीं वहां भी अलम आसरा फिर भी कोई दर है
बहुत पुराना रिश्ता पांवों से रस्तों का
धरती का नभ का तारों का चंद्र सूर्य का
इसी देह में बसा हुआ है एक हवा का घर है
बहुत पुरानी इच्छा घर की छत छप्पर छानी की
सब कुछ खोकर हार दांव कर कहीं तो कुछ है
कहीं तो कुछ है टूटा भांगा
जिनका कुछ भी नहीं कहीं उनको भी अपना लगता है
किसी सड़क का कोना, खम्भे से पीठ टिकाना
दो ईंटों का चूल्हा
तलवा नीचे धरती कच्ची और नदी या बड़ा समुंदर
दिल्ली बंबे सूरत हवड़ा छूटा सब संसार उधर
नहीं हमारा देश में कोई नहीं हमारा देश
जब तक जांगर चले चलेंगे राह जहां तक शेष
अपने घर की चौखट अंतिम सीमा
एक युद्ध यह भी जारी है सब युद्धों का युद्ध
सांस सांस पर युद्ध
ये भी इसी देश के वासी भारत मां की बेटी, लाल
आओ मिल एक देश बनाएं एकजोड़ परिवार
दुख सुख सबका सब कुछ सबका एक रसोई थाल।
9.
मैं ऊंचा सुनने लगा हूँ
नहीं, लोग आहिस्ता बोल रहे हैं
लेकिन आहिस्ता क्यों बोल रहे हैं?
क्योंकि कुछ लोग बोलते ही गूंगे हो गए
डर है, एक बेंग भी टर्राया तो
सब टर्राने लगेंगे
लोगों का क्या भरोसा!
कहते हैं बूढ़ों के मरने का डर नहीं
डर है यम को चस्का लग जाने का
बेहतर है चुप रहो चुप्प!
तैंने क्या बोला, मैंने सुना ई नहीं!
10.
आशीर्वाद
महाकवि तिरुवल्लूर खड़े हैं ताकते प्यार से हमें
उठाए वरद हस्त
धरती के अंतिम शिला-बिंदु से
उत्ताल तरंग की तरह
जीवन-लंगर की तरह
जब तक जगा है कवि जीवन-प्रहरी
रक्षित हैं हमारे घर
सुरक्षित हमारे बच्चे नींद में
देखते रहो हमें अगोरते रहो हमारी भूमि
वहीं अपने आश्रम से
जहां पृथ्वी उतरती है सागर में
जहां सागरों के जल एक दूसरे में घोलते हैं अपने रंग
जहां सूर्य की पहली किरण
पाती है शरण तुम्हारे ललाट पर
हम तुमसे कुछ नहीं मांगते हे कवि
बस तुम रहो यहीं हमारे पास
हवा धूप जल की तरह
और पकते रहें खेतों में धान
पकते चावल की गंध से भरा रहे घर
और सूखती रहें तट पर मछलियां
तुम वैसे ही रहो जैसे द्वार पर पितामह जैसे अश्वत्थ
जिनसे हम कुछ नहीं चाहते
पर जिनके बगैर कितनी सुनसान होगी दुनिया
बिना नग की अंगूठी!
आशीष दो महाकवि!
11.
बानो
जब कुछ भी कहना कम लगे
जब कुछ भी करना कम लगे
जब शर्म अपने करे पर नहीं
दूसरों के करे पर लगे
जब न बात करते बने न चुप रहते
जब मुंह खोलते देह ढही आवे
जब अम्मा की तरफ ताका न जाए
न बहन को पुकारा जाए
न बेटी को दुलारते बने
न पत्नी से पूछते कुछ
जब अपने ही आंगन में हत्यारा लगूं
दुर्योधन दु:शासन
दोनों बांहों पर बेटी की देह लिए खड़ा हूँ
सड़क पार करने
इतनी भीड़ इतनी गाड़ियां जै जै कारे
सब दौड़ रहे हैं मुझ पर
होकर इतने इतने अ-मृत लोग
सब ज़िंदा और मेरी बेटी मेरी बन्नी
तेरे लिए सांस नहीं खला में
कैसा देश किसकी मातृभूमि मेरी मां!
हाय हाय! बस एक हूक एक हाय!
संपर्क :७ मैत्री शांति भवन, बी एम दास रोड, पटना–८००००४ मो.९९३१४४३८६६