तीन कविता संग्रह ‘क्या तो समय’, ‘कोई तो जगह हो’ और ‘उत्तर पैगंबर’ प्रकाशित। पिछले 14 वर्षों से साहित्य, कला और विचार की वेब पत्रिका ‘समालोचन’ का संपादन।
जहां न्याय नहीं वहां हत्याएं हैं
ध्वस्त ढेर में बच्चे के हिलते पैरों को
जब तक आप चूमते
कांपते हुए गिर जाते हैं कुछ बुज़ुर्ग
उन्हें मारने के लिए धमाके की जरूरत नहीं
एक बदहवास पिता अपने बच्चे को दे रहा है
ख़ुदा का वास्ता
अब उठ भी जाओ देखो शाम घिर आई है
न खुदा सुन रहा है न वह बच्चा
डरावना उजाड़ जो कुछ देर पहले घर था
एक बच्ची थी यहां और उसकी गुड़िया
घायल मां हलकान है
दिशाओं से बार-बार पूछ रही है
वह खुद अदृश्य होने को है
उस पर गिर रही है रात
दोनों नहीं मिल रहे
एक बच्चे के पैरों पर पट्टी है
वह अपनी मां को रो रहा है
उसे चुप करा रहा है उसका भाई
जिसके एक हाथ पर
अभी-अभी का ज़ख्म है
उससे भी छोटा एक बच्चा
सिर पर पट्टी बांधने से बिलख रहा है
इसके रोने से पहला चुप हो गया है
दौड़ता हुआ आता है एक आदमी
उसकी एक आंख में कील चुभी है
जिन्हें छूने से भी डर लगता था
वे पंखुडियां रेत और ईंटों के पहाड़ में दब गई हैं
मलबे से निकल रहे हैं फूल जैसे बच्चे
खून से सने धूल में लिपटे
सिलसिला रुकता ही नहीं
इन्हें दफ़न करने की न जगह बची है
न हिम्मत
दूर-दूर तक स्याह रेत
एक हरा पत्ता भी नहीं कहीं
धूसर खंडहर पर बैठा है एक आदमी
यह उसका घर था
बैठक में बैठा रह-रह चौंकता है
उसकी पत्नी आवाज़ देगी
कमरों से निकलकर घेर लेंगे शिशु
जो बचे हैं उनके कंधे शव ढोते-ढोते झुक गए हैं
स्त्रियां पछाड़ खाकर गिर रही हैं
वे अब कहां से क्या शुरू करें
जलने मरने कटने से जो रह गए थे
क़ैद हैं जलते बर्नर के बीच
उनकी कुर्सियां खाली हैं उनकी प्लेटें प्रतीक्षारत।
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