साहित्य के अलावा संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय।अब तक आलोचना और सम्पादन की दो दर्जन कृतियां प्रकाशित।प्रमुख पुस्तकें – ‘शताब्दी, मनुष्य और नियति’, ‘हमारे समय की कविता’, ‘आलोचना की साखी, ‘कवियों की पृथ्वी’ आदि।
ध्रुवदेव मिश्र पाषाण जन्म १९३९।क्रांतिकारी धारा के वरिष्ठ कवि।लंबे समय तक हावड़ा में शिक्षण तथा अन्य गतिविधियां।प्रमुख कविता संग्रह – ‘विसंगतियों के बीच’, ‘धूप के पंख’, ‘खंडहर होते शहर के लोग’, ‘वाल्मीकि की चिंता’ ‘पतझर-पतझर बसंत’ आदि।फिलहाल उत्तर प्रदेश के गांव देवरिया में निवास। |
पाषाण जीवन संघर्ष के कठिन पाटों के बीच पिसते हुए जीवन में आशावाद के कवि हैं।यह आशावाद उनके कविकर्म की उपलब्धि तो है ही, बल्कि कहना चाहिए कि गहरी जीवनशक्ति से सनी हुई एक अपराजित काव्य आत्मा के वे अन्यतम कवि हैं।पंजाबी के कवि पाश की तरह।कठिन जीवन संघर्ष के बीच आशा की लौ को जलाए रखने की जो हिम्मत हमारे प्रगतिशील चेतना के कवियों में मौजूद रही है, उस पांत में पाषाण जी की कविताएं साधिकार उपस्थित हैं।
पाषाण की कविताओं के स्थापत्य पर गौर करें तो आप पाएंगे कि उनमें मार्क्सवाद के प्रति अटूट आस्था है।सोवियत संघ के विघटन के बाद हिंदी कविता के अनेक कवियों की मार्क्सवादी आस्था दरक गई, कुछ ने कलावाद के इलाके में शरण ले ली है, बाकी लोगों ने उत्तर आधुनिकता की चपेट में आकर अपने को स्मार्ट कवि बना लिया है।ऐसे कवि भूल गए कि व्यवस्था बदलने से विचारधारा का अंत नहीं होता, बल्कि ऐसे दौर में कवि को विचारधारा की खूबियों-खामियों, अपनी भूल-गलती का आत्मनिरीक्षण करते हुए आगे का मार्ग प्रशस्त करना होता है।पाषाण जैसे अग्निबीज कवि सातवें दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन की उपज हैं।उस दौर में वेणुगोपाल, आलोकधन्वा, ॠतुराज आदि की कविताओं में जो क्रांतिधर्मिता के स्वर फूटे, वे आपातकाल के दौर में पूरे उफान पर थे।आपातकाल की काली व्यवस्था पर पाषाण की अनेक कविताओं में प्रतिरोध के स्वर हैं।
लेकिन देखा जाए तो पाषाण सिर्फ क्रांति के कवि नहीं हैं, बल्कि उनकी कविताओं के विकास-क्रम पर गौर करें तो पाएंगे कि वे हर कविता में विचारधारा की कसमें खाने के बजाय लोकजीवन के यथार्थ को व्यक्त करने की कोशिश में लगातार क्रियाशील रहे हैं।उनका लोकजीवन पूर्वी उत्तर प्रदेश का भोजपुरी समाज है, जिनके जीवन में अभाव, दारिद्र्य और अशिक्षा का भयावह संसार फैला हुआ है।पाषाण इसी परिवेश (इमिलिया, देवरिया) की उपज हैं।जीविका के सिलसिले में इमिलिया से (कलकत्ता) कोलकाता की यात्रा करनी पड़ी।वहां वे मार्क्सवादी विचारों से लैस हुए।पर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे विचारधारा के बंदी कवि नहीं हैं, बल्कि वे नागार्जुन की परंपरा में प्रेम और क्रांति के साथ भोजपुरी समाज के मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को कायम रखने वाले कवि हैं।इसलिए उनके यहां प्रकृति ‘फितरतबाजी’ वाली जगह नहीं है-
‘सूरज की किरणों को आंचल से रोकना/भोर की हवाओं को जूड़े में बांधना/डूबते नक्षत्रों/नयनों से ओटना/कैसे यह मुमकिन है/गंगा की रेती से चांदी उगाहना?/ शैवाल लगे झूमने/वेग सहसा आ गया/बहती जवानी में कैसे यह मुमकिन है/लहरों को बांहों में घेरना/अंधेरे के राज्य में/उजड़े मकान में/झंझा तूफान में/झुकता आकाश/कुल ‘अरर’ गिरने के/धमाके सुन पड़ते हैं/कैसे यह मुमकिन है/दीपक/तब बारना? गुलदस्ते की परिधि तोड़ दृष्टि दूर जाती है/खेत लहलहाते हैं/स्वप्न जो सुनहले थे/आज वे ही रेहन हैं’(बंदूक और नारे)।
कहने की जरूरत नहीं कि पाषाण के लोक जीवन में प्रकृति मनुष्य की सहचरी है।चाहे वे वृक्ष हों, नदियां हों, बादल हों या पठार हों।कवि की दृष्टि में प्रकृति नुमाइश की चीज नहीं, बल्कि साथ जीने-मरने का सबब है।कवि की इस यथार्थभेदी दृष्टि का ही उदाहरण है, जब वह कहता है कि खेत ही ‘रेहन’ पर हो, तब खेत की प्रकृति से किसान का क्या लेना-देना?
लोकजीवन में विकास का सबसे बड़ा बाधक तत्व है-परंपरा के नाम पर ‘जड़ता’, जो धर्म-कर्म, रीति-रिवाज के नाम पर चौतरफा व्याप्त है।साथ ही हिंदुस्तान के आम आदमी के दिमाग में भाग्यवाद आज भी चरम पर है।इधर के वर्षों में ज्योतिष ज्ञान को बांचने वाले नए-नए ज्योतिषी स्वयं के भाग्य को बदल नहीं पाते, पर हर आदमी का भाग्य बांचने में परम माहिर हैं।धर्म के नाम पर जो धर्मांधता इधर चहुं ओर छाई हुई है, उसके पीछे वस्तुतः भाग्यवाद ही उत्तरदायी है।इस भाग्यवाद पर प्रहार पाषाण ने बहुत पहले कर दिया था।इस प्रसंग में उनकी एक अत्यंत उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कविता है ‘हवा बही गांवों में’।इस कविता में गांवों के जिस यथार्थ को कवि ने दशकों पूर्व देखा था, वह आज भी बदलते हुए यथार्थ के साथ मौजूद है- ‘करमगति टारे से नहीं टरती/भाग्य का लिखा हरदम होता है/गोसाई जी कह गए/भूलो मत/मंदिर की देहरी पर/माथ नवाता चल/रामभक्त/हनुमान चालीसा का/पाठ नित्य करता चल/चल सीधे चल-चल/टेढ़े चल/जुते बैल चल/कोल्हू के बैल चल/चल’।इस लंबी कविता में जब कामगार गांव के सभापति की भैंस को अपने खेत से मारकर हांक देता है, तब उसके ऊपर जूते-लाठी की बरसात होती है।वह बेदम होकर गिर पड़ता है, तब दयावश बड़की दुलहिन दस रुपये का नोट देकर सीख देती है- ‘ले दस रुपये ले/दारू पी, दारू मल/सारी चोट भूल जा/’ नीच है नीचे रह/चल सीधे चल टेढ़े चल/भूखा रह/ बिरहा तू गाता चल… लाचारी की बात तुम ‘लचारी’ में गाओ मत।’ कविता के अंत में कवि जनता का आह्वान करता है- ‘रूढ़ियों के बंधन सारे तोड़ दो/राहों के टीले सब गड्ढों में ढहा दो/ऊंच-नीच धरती को/यहां वहां पाट दो/कोल्हू के बैल जुए उतार दो/हर जुते बैल! जीने का हक लेना ठान लो/पूरब की किरणों का रक्त पहचान लो कोल्हू के मालिको! खेत के लुटेरो!/चल सीधे चल /पनघट चल/ मरघट चल/चल सीधे चल’(वही)।
पाषाण जी की यह खासियत रही है कि वे जीवन और समाज के साथ-साथ कविता की दुनिया में भी हर तरह की जड़ता को तोड़ने की पेशपश करते हैं।कविता में भाववाद और कलावाद के साथ-साथ व्यक्तिवाद के भी वे निर्मम आलोचक हैं।
पाषाण की कविता आपादमस्तक लोकजीवन से जुड़ी हुई है।कोलकाता में जीवन गुजार देने वाले इस जीवट के कवि ने लोकजीवन को सचमुच नहीं छोड़ा।बल्कि कोलकाता महानगर में रहते हुए साधारण जन जीवन के अलक्षित समाज और मनुष्य को अपनी कविता में बड़े प्यार और सम्मान के साथ जगह दी है।लोकजीवन के सौंदर्यबोध के सिलसिले में उनकी निगाह हमेशा साधारण जीवन के श्रम सौंदर्य से उपजी है।श्रमिक समाज से इतना प्यार करने वाले पाषाण संभवतः केदारनाथ अग्रवाल के बाद दूसरे ऐसे कवि हैं, जिन्होंने श्रमजीवन यानी किसान, मजदूर, रिक्शेवाले, हाथगाड़ी ठेलते मजदूर, हल जुते बैल, घुरहू काका, मथुरा भइया, चौबे पंडित, मंगरू नाई, घर में उधम मचाते बच्चे, स्टेशन पर लिट्टी पानी बेचता नारायण, श्रमिकों, किसानों के नंग-धड़ंग बच्चे, श्रम क्रिया-व्यापारों में संलग्न लड़कियां, जिन्हें पाषाण जी बेटी का संबोधन देते हैं, उनकी कविताओं में ये सारे चरित्र भोजपुरी समाज से लेकर कोलकाता के श्रमशील समाज तक फैले हुए हैं।
यहां श्रमजीवन और श्रम–सौंदर्य पर एकाग्र कवि की दो कविताओं का उल्लेख जरूरी समझता हूँ। ‘मेहनत की बेटी, और लिट्टी पानी’।इन दोनों कविताओं में पहली कविता मेहनत की बेटी है, जो पेशे से एक पत्थर तराशने वाले पिता और चूड़ियां बेचने वाली चूड़िहारिन मां की संतान है।श्रम उसे विरासत में मिला है।कवि ने श्रम की इस पुत्री को ‘मेहनत की बेटी और कला की पुजारिन’ कहकर कविता में वह जगह दी है, जिसे समाज अधिक से अधिक मजदूरनी मानता है।
कहने की जरूरत नहीं कि १९७३ में लिखी गई यह कविता उस समय के परिवेश में श्रम सौंदर्य और श्रम समाज को लेकर दुर्लभ अभिव्यक्ति रही है।बल्कि आज ऐसी कविताएं दलित विमर्श के दौरे दौरा में भी अलक्षित हैं- ‘पांव न फूल से नाजुक, न फूल से खूबसूरत/न तलवे महावर से रंगे जाते/न हथेलियों पर मेंहदी रचाने की फुरसत/हँसने से न मोती झड़ते/न रोने से सिंधु उमड़ते/शरीर से न कमल गंध आती, न मत्स्य गंध/किसी अप्सरा की छाया नहीं है वह/असलियत है माया नहीं है वह/झोपड़ी में जन्मी सड़कों पर पली/सिर से पांव तक साधारण है वह’… जिंदगी की ललक बांटती/धूप की पूरी औरत है वह/किसी की प्रिया किसी की मां/जानती है भूख का दर्द/समझती है रुकती नहीं है/गंदगी बुहारती, कालिख पोंछती, घर-परिवार/अपने हिस्से का संसार संवारती है वह/भोर के धुंधलके से शाम के धुंधलके तक उसके केश हवा, धूप और वर्षा से उलझते हैं/ उसका ललाट घर बाहर, खेत खलिहान, खंदक, खदान/हर कहीं हर मौसम में श्रम के ताप से चमकता-दमकता है…वह मेहनत की बेटी कला की पुजारिन है (मेहनत की बेटी)।
मैं मैं कवि हूँ पानीनामामोहनदास करमचंद गांधी |
श्रमजीवन पर आधारित ‘लिट्टी पानी’ कविता दरअसल भारतीय लोकल ट्रेनों में लिट्टी-पानी बेचने वाले नारायण नाम के एक युवक की गाथा है, जो ट्रेनों में मुसाफिरों को लिट्टी-पानी खिलाता-पिलाता है।जाहिर है कि उसे ट्रेनों में रेलवे के मुलाजिमों की फ्री सेवा करनी पड़ती है।हाड़तोड़ मेहनत करने वाले नारायण के जीवन में सपने हैं, जिन्हें वह पूरा करना चाहता है।इस कविता में कवि ने जिस नारायण को चलती ट्रेन के बीच से जैसे रुक-रुककर फोटो खींचकर उसके चरित्र को वर्णित किया है, वह सजीव हो उठा है।मुझे यह नहीं पता कि श्रमजीवन के चरित्र पर ऐसी यादगार कविता केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के बाद की पीढ़ी के किसी कवि ने लिखी है।समाज में जिसे हाशिये का जीवन कहते हैं, उसे जानने-समझने और तदनुरूप भाषा का इस्तेमाल करने में पाषाण जी बेहद सहज होकर बयान करते हैं- ‘दो लिट्टी दो गिलास पानी टीटी को/दो लिट्टी दो गिलास पानी गाट बाबू को/दो लिट्टी दो गिलास पानी इंजिन स्टॉफ को/तब कहीं चवन्नी में/एक लिट्टी एक गिलास पानी बेचने का हुकुम जुगाड़ पाता है नारायण… अम्मा की हंसुली/दीदी की बिछिया जल्दी से लौटे/गिरहथी की गाड़ी कायदे से सरके/नारायण को एक धुन, एक सपना लगा है/लिट्टी बिकेगी यानी बेटी की मांग में सेनुर चढ़ेगा/लिट्टी बिकेगी यानी बेटा इम्तिहान में बैठेगा/ लिट्टी बिकेगी यानी मां-बाप को चश्मा सुरमा मिलेगा/लिट्टी बिकेगी यानी टुटही मड़ई पर छप्पर चढ़ेगा/लिट्टी बिकेगी यानी पत्नी को चूड़ी, दीदी को लुग्गा मिलेगा’’ (लिट्टी पानी)।कविता में भोजपुरी के ठेठ देशज शब्दों के प्रयोग में माहिर पाषाण की कविताओं में डिटेल्स प्रभावशाली हैं।
कहने की जरूरत नहीं कि एक कवि की सबसे बड़ी पूंजी उसका जीवनानुभव होती है।बिना जीवनानुभव के विचारधारा भी साथ नहीं देती।पाषाण जी हिंदी की जनकविता के एक ऐसे दुर्लभ और आलोचकों की निगाह से अलक्षित कवि रहे हैं, जिनकी कविता और स्वयं कवि के जीवन में अभी बाढ़ का पानी उतरा नहीं है।लोकजीवन की भूख और गरीबी, अशिक्षा, बाढ़, सूखा, भाग्यवाद से जीवन को उबारने वाले इस कवि ने भोजपुरी समाज को जिस संयम किंतु रसमयता और दृढ़ विश्वास के साथ जीवन को बदलने की प्रेरणा दी है, वह लंबे ‘कालखंड’ तक लोक जीवन की कविता के इतिहास में दर्ज रहेगा।
अपने उत्तरवर्ती जीवन में पाषाण जी ने मिथकों की काव्य परंपरा में रामकथा के बहाने ‘वाल्मीकि की चिंता’ और ‘चौराहे पर कृष्ण’ जैसी लंबी कविताएं लिखकर इन चरित्रों के जरिए व्यवस्था में राजतंत्र को सीधे कठघरे में खड़ा कर दिया है।वाल्मीकि की चिंता कविता में वाल्मीकि का राम से प्रश्न पूछना और निरुत्तर कर देना, दरअसल हमारे समय में सत्ता–पुरुषों से प्रश्न पूछना है।
अभी हाल फिलहाल में प्रकाशित पाषाण जी के नए काव्य संग्रह ‘सरगम के सुर साधे’ की कविताओं से गुजरते हुए लगा कि कवि का विश्वास और जनता के प्रति उनकी आस्था में कोई दरार नहीं आई है।जीवन के ८३वें बरस में भी कवि-कर्म में लीन नाम से पाषाण, पर हृदय से अत्यंत सहज मनुष्य, अपने भीतर हमेशा एक नरमदिल रखने वाले धु्रवदेव मिश्र की कविताएं आज भी उसी अंदाज में प्रश्न पूछने और सच को साहस के साथ बयान करने का हिम्मत रखती हैं।
कवि की कलम को सलाम करते हुए उनके आयुष्यपूर्ण जीवन की कामना करता हूँ।यह कामना सिर्फ मेरी ओर से ही नहीं है, बल्कि इस देश की असंख्य जनता और पाठकों की ओर से भी है, जिनके लिए पाषाण की कलम अभी प्रश्न पूछने की बेबाक हिम्मत रखती है- ‘याद आता है साबरमती का लाल/महानायक वह/जो कर सकता था सत्याग्रह नमक के लिए/ जो डांट सकता था पंडित जवाहर लाल नेहरू को/बाल्टी भर पानी अधिक ढरक जाने पर/जो रहता था फिक्रमंद/सींखचों के भीतर/सींखचों के बाहर/गरीब-गुरबा/दीन-दुखी/कोढ़ी-अपाहिज के लिए/उसी का नाम था/मोहनदास करमचंद गांधी… हिंद महासागर के अतल में/सोचता हूँ/और है क्या कोई/जो समाये गांधी जैसा/जन-जन के मन में/बताएंगे आज क्या/सत्ता के नायक/पानी यदि जीवन से विदा हुआ/पानी यदि देश का उतर गया/तब फिर किसके लिए लाएंगे प्रभु/आप अच्छे दिन अपने?’ (पानीनामा, सरगम के सुर साधे)।
९०१, अमरावती निकुंज सिद्धार्थ इन्क्लेव, तारामंडल, गोरखपुर–२७३०१७ (उ.प्र.) मो.९४१५३१३२१४
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