युवा कवि। संप्रति शोध छात्र।
गोला नृत्य
वह ढोलक बजा रहा था
उसकी ढोलक बज रही थी
अलग-अलग ताल पर
और नाच रही थी
वह ढोलक के बजते ताल पर
जैसे-जैसे ढोलक की ताल
चढ़ती-उतरती
उसकी नाच और करतब तेज हो जाती
अलग से थे उसके करतब
ट्रेन में दो सीटों के बीच
एक गोलाकर लोहे से बनी रॉड पर
कभी वह गोले में से
अपना शरीर पार करती
साथ ही कभी बांह मोड़कर
पैरों के बीच से गोला निकाल देती
कई और करतब दिखाती
पालती थी ऐसे ही परिवार का पेट
उसकी उमर ही कितनी थी
बस दस-बारह
वह निकलती थी
हर सुबह पौ फटने पर
अपने गूंगे भाई के साथ
हर रोज एक ही सफर पर
जिस सफर की मंजिल चंद पैसे कमाना था
ताकि परिवार का पेट भर सके
वह निकलती थी
दुनिया का सामना करने
लड़ने-भिड़ने अपनी तरह अपने तरीके से
दिन भर में कई बार ट्रेन बदलती
हमेशा भागती रहती
इस ट्रेन से उस ट्रेन
मानो ट्रेन के पीछे भागना हो नियति
कई बार लोग
उसे छूने-पकड़ने की कोशिश करते
कई बार उसे खींच भी लेते
वह हर बार देखती
अपने गूंगे भाई को एक बेबसी से भरा हुआ
वह जवाब बस
लाचारी में ही दे पाता था
इन सबों को हँसी से टालकर
अंत में
वह प्यार से अपना हाथ फैला देती
सबके सामने
चंद सिक्कों के खातिर।
ग्राम-भरम टोली, पोस्ट-बरियातू, रांची-834009 झारखंड, मो.9931059473