सुपरिचित कवि।अद्यतन संपादित कहानी संग्रह ‘कोसी की नई जमीन’।साहित्य अकादेमी पूर्वी क्षेत्र के सचिव।
रूमी लश्कर बोरा
असमिया की सुपरिचित लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता।एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।
जरूरत से कहीं अधिक ही सेवा की थी सिस्टर सुकन्या ने।ड्यूटी के लिए निर्धारित समय के बाद भी रुकती थी वह नैऋत के लिए।इस बात को लक्ष्य किया सुकन्या के साथ काम करनेवाली सिस्टर जेरिन ने।मुंह छिपाकर हँसी थी वह।
जीवन के युद्ध में घायल योद्धा है नैऋत।शरीर और मन दोनों तरफ से।प्रेमहीनता, जीवनहीनता ने आक्रमण किया था उस पर।प्रेम, विश्वास, भरोसा ये सब उसे मूल्यहीन लग रहे थे।ऐसा सोचना सही नहीं है, यह बात धीरे-धीरे समझा दिया था उसे सिस्टर सुकन्या ने।भरोसा करने के लिए बहुत कुछ बचा हुआ है अब भी।
प्रेम के नाम पर उसे धोखा मिला था, लेकिन सुकन्या उसे उसी वक्त यह समझा सकी थी कि प्रेम एक पवित्र धारा है।कहीं यह मटमैली दिखाई देती है तो कहीं कांच की तरह साफ और निर्मल।
सुकन्या की परिचर्या और स्नेहभरी बातों ने नैऋत के हृदय के घाव पर मरहम का काम किया।
हॉस्पिटल से छूटने के बाद भी नैऋत को विश्राम की जरूरत थी।मेडिकल लीव लेकर उसने अपने एमआईजी फ्लैट में समय बिताना शुरू कर दिया।सुबह काम करने के लिए बाई आती थी।वह घर के कामकाज निपटाकर चली जाती थी।नैऋत दिनभर किताबें पढ़ता था।टेलीविजन देखता था।बीच-बीच में वह अपने एकाकीपन के साथ संवाद करता था।अपने माता-पिता को फोन कर उनका हाल-समाचार लेता रहता था।उसकी मां ने उसे बताया था कि उसके चले जाने के बाद उसकी पत्नी जाह्नवी किसी को बताए बिना घर छोड़कर चली गई थी।जाह्नवी की बातें भूलने की कोशिश में लगा था वह।
उसे ऐसा लग रहा था कि सबकुछ खत्म हो गया है मानों।प्रेम हुआ।टिक न सका।विश्वास बना, लेकिन असमय ही जलकर राख हो गया।बाकी क्या रहा? ये सब फिर से पाने की बात सोची जा सकती है क्या? नहीं।असल में ये सब बातें सोच ही नहीं सकता वह।ऑफिस जाएगा।काम करेगा।माता-पिता के सहयोग की कोशिश करेगा।बाकी बातें उसने समय पर छोड़ दी थीं।अपनी दो बेटियों के लिए भी पिता का फर्ज निभाएगा।अपने मन को यही समझाया था उसने।
जीवन की झंझावातों से भग्न समय में सुकन्या उसकी परिचर्या के लिए आई थी।हॉस्पिटल में परिचर्या करके ही वह संतुष्ट न हुई।क्यों? वह समझ नहीं पाया।नैऋत की तरह अनेक रोगियों की परिचर्या सुकन्या ने की थी, किंतु उसके प्रति उसने जरूरत से ज्यादा हमदर्दी दिखाई थी।नैऋत ने उसे अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया था।
सुकन्या ने भी उससे कुछ भी नहीं पूछा था।नैऋत के नहीं बताने के बावजूद उसकी पत्नी की अनुपस्थिति ने सुकन्या जैसी संवेदनशील नारी को बहुत कुछ समझा दिया था।हॉस्पिटल से घर चले आने के बाद रोज सुकन्या ड्यूटी पर जाने से पहले और शाम को ड्यूटी से लौटते हुए उसके पास आती और उसका हाल-समाचार लेती।नैऋत ने उसे अपने फ्लैट पर कभी बुलाया नहीं।वह स्वयं ही आती और उसकी परिचर्या करती।इस बात ने नैऋत को सोचने के लिए मजबूर किया।सुकन्या की परिचर्या ने उसे सुकून नहीं पहुंचाया, ऐसा भी नहीं, लेकिन सुकन्या का इस तरह प्रतिदिन दो बार आना-जाना उसे अच्छा नहीं लगा।
तथाकथित समाज की मानसिकता के कारण उसके मन में यह बात आई।वह स्वयं अपने चरित्र का प्रमाणपत्र दे सकता है।किसी नारी के साथ बुरा आचरण तो दूर की बात वह उस पर कुदृष्टि भी नहीं डालता।इस मामले में वह अपने पर गर्व कर सकता है।वह अपने को संयमी और सच्चा मानता है।लंबे समय तक वह एकाकी रहा, लेकिन कभी किसी नारी को अपने घर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी।किसी को अपने कमरे में बुलाएगा, यह बात उसके मन में भी कभी नहीं आई।बीच-बीच में उसके कॉलेज के दिनों के दोस्तों के फोन आते।वे लोग जब कोलकाता आते, उसके फ्लैट में ही रहते।जो दोस्त सपत्नीक आते, वही होटल में रहते।उनके साथ बाहर ही मुलाकात होती।बीच-बीच में दो-तीन दोस्तों के साथ फ्लैट में महफिल जमती।अपने दोस्तों के लिए उनकी पसंद की शराब की ब्रांड की व्यवस्था करता।लेकिन स्वयं उसने कभी एक बूंद भी शराब नहीं चखी।उसके दोस्तों ने भी कभी उसके साथ जोर-जबरदस्ती नहीं की।वे लोग नैऋत को जानते हैं कि उसने एक बार जिस काम को न करने की ठान ली, उसे बिलकुल नहीं करता।
सुकन्या को मना करने की कोई वजह वह ढूंढ़ नहीं पाया।वह उसकी परिचर्या के लिए आती।अगर वह कहता- ‘वह अकेला रहता है।सुकन्या का उसके कमरे में इस तरह अकेले आना अच्छा नहीं।’ उस समय वह ऐसा नहीं सोचेगी क्या?
एक स्त्री होकर भी ऐसी बात उसके मन में नहीं आई, लेकिन पुरुष होने के बाद भी नैऋत ऐसा कैसे सोचता है।अधिकतर लोग कॉलेज और विश्वविद्यालयों की ही शिक्षा लेते हैं तथा वेशभूषा से आधुनिक दिखाई देते हैं।लेकिन मन और चिंताधारा में आज भी बहुत से लोग पुराने जमाने में जीते हैं।एक स्त्री के साथ पहले इनसान की तरह व्यवहार यदि नैऋत जैसा पुरुष नहीं कर सकता तो और किसी से क्या उम्मीद कर सकते हैं।
नैऋत यह बात बार-बार सोच रहा था।सुकन्या को अपने फ्लैट में आने के लिए मना कर नहीं सकता था।तब भी नैऋत ने ‘कहूं या न कहूं’ की दुविधा से उबरकर एक दिन कुछ सोच-विचारकर कह ही दिया।
‘सिस्टर सुकन्या, इस तरह रोज तुम मेरे घर आती हो और मेरी सेवा करती हो, इसके लिए तुमको मैं धन्यवाद कहूं तो यह तुम्हारा अपमान होगा।तुम्हारा मैं चिर ऋणी हूँ।लेकिन अब मैं काफी ठीक हो गया हूँ।स्वयं ही चल-फिर सकता हूँ।तुम्हारी ड्यूटी है, बच्चा है, और भी परेशानियां हैं।तुम और इतने कष्ट उठाकर मत आओ।’
सुकन्या मृदुल मुस्कराहट के साथ उसकी बातें सुनती रही।उस हँसी में था प्रफुल्लित मन का आभास और प्यार की आश्वस्ति।नैऋत का हृदय लरज उठा।क्यों सुकन्या उसे विशेष आदर दे रही है, पूछ ले क्या।नहीं, नहीं।वह बात क्यों पूछेगा नैऋत।नैऋत जो पूछना नहीं चाहता था, उसका उत्तर सुकन्या अपने आप देने लगी।
उ…हूं।नैऋत के मन में उभरनेवाले प्रश्नों का उत्तर तो वह नहीं दे रही थी, बल्कि लगातार अपने जीवन की दुखभरी गाथा सुना रही थी।
विगत काल में नैऋत ने जैसे मरुभूमि में विचरण किया।उसके प्यासे प्राण मरीचिका के पीछे भागते हुए श्रांत, क्लांत हो गए थे।ठीक उसी समय सुकन्या उसके सामने मानो अंजुलि भर जल लेकर आ खड़ी हुई।ऐसी जलमाता के प्रति वह आभारी नहीं होगा क्या? वह उसके जीवनगाथा से विरत कैसे हो सकता है?
सुकन्या बोल रही थी।वह सुन रहा था।विवाह के दस साल बीत गए हैं।दो बच्चों के साथ उसे अकेले छोड़ उसके स्वामी दुनिया छोड़ गए।विवाह के पांच साल बाद से ही वह बुरे समय से जूझ रही थी।पति की असाध्य बीमारी में उसे बहुत धन खर्च करना पड़ा था।पिता से प्राप्त घर-संपत्ति भी बिक चुकी थी।घर-बार न रहा।पति भी चल बसा।सामने अंधेरा था।दो बच्चों को लेकर वह कहां जाती? क्या करती? अपने माता-पिता के घर जाती? मां-बाप भी इतने संपन्न नहीं थे कि दो बच्चों के साथ उसका भरण-पोषण करते।भरी जवानी थी।अकेली नारी।जाने-अनजाने बहुत से लोग उसकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाते।तब तो वह कुछ भी नहीं समझती थी, बस पति और संतान में मस्त रहती थी।बाहर की दुनिया की कुत्सित बातें उसे पता नहीं थी।लेकिन वे बातें समझने में उसे ज्यादा वक्त नहीं लगा।
धीरे-धीरे वह समझ गई थी कि उसके प्रति लोगों की दया एवं मदद का भाव मानवता के नाते है या शारीरिक लालसा के? चारों तरफ पुरुषों से घिरी वह उनके मन के दैत्य को भांपकर कांप उठती थी।किस पर भरोसा करे? कहां जाए? वह अपनी मां के घर चली गई थी।
उसकी मां ने छुपाकर अपने गहनों को बंधक रखकर उसे नर्सिंग के प्रशिक्षण के लिए प्रेरित किया था।तीन साल।कैसे सुकन्या ने बिताए थे! किसी के घर में काम भी किया।कुछ रुपयों के लिए सुकन्या ने होटल में बर्तन भी धोए थे।किसी के घर में कपड़ों की धुलाई भी की।दुकान में शाम को पांच बजे से रात के नौ बजे तक कपड़े भी बेचे।रात एक-दो बजे तक पढ़ाई की।अगले दिन के बच्चों के काम आज ही करके रखती।ओह! कहां से इतनी शक्ति मिली उसे? सोचने पर स्वप्नवत लगता है।
एक दिन नर्सिंग ट्रेनिंग का निर्धारित समय शेष हुआ।उसका रिजल्ट अच्छा हुआ।वह एक नर्सिंग होम में काम करने लगी।महानगर से सटे हुए छोटे से शहर के नर्सिंग होम में उसके दो साल गुजर गए।बाद में उसे अपोलो हॉस्पिटल में काम मिला।तनख्वाह पहले से ज्यादा हो गई।
नियति एक तरफ देती है, तो दूसरी ओर कुछ ले भी लेती है।हाथ और कान के गहने बंधक रखकर जिस माता ने पढ़ने और काम करने के लिए उसे प्रेरित किया था, सुकन्या का सुखमय जीवन देखने के लिए वह जीवित नहीं बची।मां के लिए कुछ न कर पाने का दुख उसे आज भी व्यथित करता है, वे बातें समझाने के लिए उसके पास शब्द नहीं हैं।
ये बातें सुकन्या लगातार बताती गई।शायद अपने हृदय में छुपाकर रखी हुई बातें किसी अनजान के सामने उसने पहली बार कहीं।उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।सारी बातें कहकर उसका मन हल्का हो गया।
नैऋत के सामने एक भाव विह्वल नारी खड़ी थी।कमरे में कोई तीसरा व्यक्ति नहीं था।सुकन्या की बातों और उसके प्रत्येक काम से नैऋत का सरल हृदय अभिभूत हो उठा।सुकन्या अब चुप हो गई थी।नैऋत ने भी कुछ पूछा नहीं था।ऐसे ही कुछ देर चुप्पी छाई रही।उन दोनों की स्थिति का अहसास दिला रहा था शांत माहौल।मायावी चुप्पी।एक कल्पित इच्छा के लिए प्रेरित कर रहा था वह समय।नहीं।शोभा नहीं देता वह नैऋत के लिए?
ऐसी स्थिति कभी पहले उसके सामने नहीं आई थी।उसकी पत्नी के अलावा इस तरह एक कमरे में एक नारी के साथ, वह भी इतना अकेले? इतने दिनों से इतनी गहराई से उसने सोचा भी नहीं।सुकन्या की आत्मकथा से एक मौन पसर गया था।उन बातों ने नैऋत को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था।समय उनको कहां ले जाना चाहता है? हृदय के किसी कोने से कोई कोमल धुन सुनाई दे रही थी।कांप उठा वह।
यदि ऐसा हुआ तो क्या नैऋत की पत्नी उसकी तरफ अंगुली नहीं उठाएगी क्या? वह उसे विश्वासघाती समझकर छोड़ देना चाहता था, फिर स्वयं किसी अन्य नारी के साथ…?
ओह! नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।वह टूट जाएगा।लेकिन इतना दुर्बल नहीं है।ये बातें उसके मन में विद्युत रेखा की तरह आईं।अनजाने ही समय दूसरी बातें सामने लाने लगा।एक तरफ जाह्नवी का भौतिक प्रेम और उसका विवाहेतर संबंधों का विलास।दूसरी तरफ उसके सामने खड़ी एक ममतामयी नारी, जिसका जीवन संघर्षों में गुजरा है।जो नारी अभाव में होकर भी सहज प्राप्य धन के प्रति लालायित नहीं हुई थी।
दोनों नारियों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए नैऋत को कुछ और ही अनुभव हो रहा था-सुकन्या ने हृदय के एक कोने में स्थान बना लिया था।नैऋत जबरन उस स्थिति से बचना चाह रहा था।
बहुत मुश्किलों से नैऋत अपने आपको संभाल रहा था।असमंजस की स्थिति में ही धीरे से उसने सुकन्या को कहा-
‘बहुत देर हो गई।कुछ पल मैं अकेला रहना चाहता हूँ।तुम अभी चली जाओ।’
सुकन्या उसके घर से चली गई।उसकी दैहिक अनुपस्थिति ने नैऋत को यह समझा दिया था कि वह धीरे-धीरे उसके मन में स्थान बनाती जा रही थी।
प्यासे के सामने यदि कोई एक गिलास पानी रखे, तो वह उसे पिए बिना रह सकता है क्या? अनजाने में ही सुकन्या की परिचर्या उसको अच्छी लगने लगी थी।
अठारह दिनों के बाद उसने ड्यूटी ज्वाइन की।शरीर स्वस्थ था।मन भी काफी कुछ नियंत्रण में था।
उसने मन ही मन एक फैसला कर लिया था।
संपर्क : रूमी लश्कर बोरा, निबिड़ालय, मकान नं. 30, प्रोटेक्ट पर्ल के निकट, सूर्यनगर त्रिवेणीपथ सिक्स्थ माइल, गुवाहाटी-700022
देवेंद्र कुमार देवेश, क्षेत्रीय सचिव, साहित्य अकादेमी, ४ डी. एल. खान रोड, कोलकाता-700025/ मो. 9868456153