हरेकृष्ण डेका

जन्म : 1941।असमिया कवि, कथाकार और आलोचक।साहित्य अकादेमी पुरस्कार, कथा पुरस्कार तथा असमिया साहित्यिक पुरस्कार (2010) सहित अनेक सम्मान प्राप्त।दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।

किसका ईश्वर

आपमें से किसी को यदि
ईश्वर का पता मिले
मुझे बताना
और मैं उसके पास जाकर कहूंगा
उनके ढेर सारे अलग-अलग
नाम लेना उचित नहीं
इतने सारे भिन्न-भिन्न पंथ
भिन्न-भिन्न धर्म मत
भिन्न-भिन्न निषेधाज्ञाएं
यहां तक कि अलग-अलग उत्सर्ग और त्याग
उनके नाम पर निर्मित विभिन्न स्थापत्य
अंकित विभिन्न चित्रावलियां
गाए गए भिन्न-भिन्न भक्तिगीत
लिखी गई भिन्न-भिन्न किताबें
रचे गए भिन्न-भिन्न नृत्य
किंतु एक दिन
उनके अलग-अलग पंथ, धर्म मत, निषेधाज्ञा से
इतनी ज्यादा उष्मा जमा होगी
कि अलग-अलग पवित्रता की रक्षा के लिए
आपस में मारकाट करके भी
सारे धर्मांध
अलग-अलग राहों से भी
उसी के द्वार पहुँचेंगे
उनकी आत्माएं दौड़ते हुए
एक-दूसरे को पछाड़कर आगे बढ़ने की
अगर कोशिश भी करें
तो भी सब लोग एक ही साथ
एक ही समय उसके घर पहुंचेंगे
और देखेंगे कि
उस घर में वह नहीं है

संपर्क : मकान सं 11, कस्तूरबा नगर, साउथ सरणिया, गुवाहाटी-781007, मो. 9854023602

नीलिम कुमार

जन्म : 1961।उदय भारती राष्ट्रीय पुरस्कार, रजा फाउंडेशन पुरस्कार इत्यादि प्राप्त।बाईस कवितासंग्रह एवं दस उपन्यास प्रकाशित| केदारनाथ सिंह के हिंदी कवितासंगह बाघ और अन्य कविताएँका असमिया में अनुवाद।

मैं अपने शवों को लेकर भाग गया

जरूरी काम से अपनी काली गाड़ी लेकर निकला
शहर से निकलते ही मेरी गाड़ी की तीव्र स्पीड
हठात मेरी गाड़ी के सामने आ गया
एक आदमी| उसके ऊपर से मेरी गाड़ी
पार हो गई और तड़पते हुए उसने
मेरी गाड़ी के पीछे मृत्यु को गले लगा लिया
किसी तरह मैंने उसे बांहों में उठाकर
डाल दिया गाड़ी की पिछली सीट पर, और
देखा कि वह आदमी तो मैं ही हूँ!
इसलिए मुझे जरा-सा भी डर नहीं लगा
यह सोचकर कि पुलिस के झमेले में नहीं पड़ूंगा
और अपना शव लेकर
मैं भाग लिया तेज गति में
राष्ट्रीय पथ पर धूल नहीं थी
राष्ट्रीय पथ भी था मेरी गाड़ी की तरह
काला
हवा को चीरती हुई मेरी गाड़ी
बस दौड़ती जा रही थी द्रुत गति में
इसी बीच यह क्या!
फिर से मेरी गाड़ी के आगे आकर
एक आदमी गाड़ी के धक्के से
उछलकर दूर जा गिरा और उसी क्षण
मर गया
मैंने इधर-उधर देखा
निर्जनता थी चारों तरफ
जीवन में पहली बार यह अनुभव किया
कि निर्जनता कितनी उपकारी है
और शव को खींचते हुए लाया
अपनी गाड़ी की पिछली सीट पर-जिस पर
मेरा शव पहले से ही था, उसके साथ ही
लिटाते समय देखा कि इसके आंख, मुंह, बाल
हाथ, पैर, नाखून तो मेरे ही हैं
अब मैं अपने दोनों ही शव लेकर
भाग आया हूँ, अपने शहर से बहुत दूर
मैं नहीं जानता
और कितने शव हैं मेरे!
इसलिए अब गाड़ी की स्पीड, पहले से भी ज्यादा
गाड़ी के पहिए के धक्के से दूर जा गिरा था सूरज
मेरी गाड़ी जानती है सिर्फ दौड़ना
और दौड़ने के लिए धक्का दे सकती है
उसी आदमी को, जो केवल मेरा शव है
और जिसको लेकर मैं भाग जा सकता हूँ…
इसी तरह अपने शवों को लेकर
मैं भाग गया, ताकि
कोई भी मेरे शवों की अंत्येष्टि क्रिया
कर न सके।

5 डी, मनसा टावर, जी. एन. बी. रोड, सिलपुखुरी, गुवाहाटी, असम-781003
मो. 9945623043

नीलिमा ठाकुरिया हक

जन्म : 1961।असमिया कवयित्री, स्तंभकार एवं चित्रकार| छह कवितासंग्रहों के अलावा डॉक्टरर डायरी (डायरी, 2003) तथा जलरेखा (उपन्यास, 2007)

लेखक घड़ी

कल
बहुत से काम करने हैं
सुबह पांच बजे का अलार्म लगा रखा था
सारी रात बेतरतीब बहुत-से सपनों ने
दिमाग मथकर रख दिया
ठीक समय पर अलार्म बजा
मानो मैं भी बज उठी विभिन्न रिंग टोनों में
अंगड़ाई लेते ही जान गई
कि दोनों हाथ घड़ी के पेंडूलम हो गए
उंगलियां घड़ी का कांटा
कलेजे की जगह मानो घड़ी की ही टिकटिक
नाभि को केंद्र बना दूसरी विशाल घड़ी
आंखों में उभर आई साल्वाडोर डाली१ की घड़ी
जीवन में करणीय और अकरणीय काम
घड़ी ही निर्धारित करती है क्या
सुख-दुख और हताशा की डायरी
लिख रहे हैं घड़ी के कांटे
लेखक घड़ी की बही के पृष्ठों पर
चिपका हुआ अक्षर मात्र हूँ मैं
पृष्ठ-दर-पृष्ठ भटक रही हूँ
समय एक उन्मुक्त पंक्षी
किंतु सेकेंड के कांटे की नोक जैसी चोंच से
कठफोड़वा की तरह
करता रहता है ठक-ठक
घड़ी के साथ जूझते हुए फुदकता है
अफसोस कि रह गए काम अधूरे
घड़ीमय शरीर में दौड़ गई सिहरन
जीवन क्या है
स्वप्न और यथार्थ की आगे-पीछे वाली राह
दौड़कर जाऊं या सरक कर नहीं जानती
पूरब-पश्चिम, ईशान-नैऋत नहीं जानती
लेखक घड़ी जो मन में आए वही लिखे
जो मन में आए वही लिखे|

१. प्रसिद्ध स्पानी चित्रकार

मकान सं. 60, सनफ्लावर पथ, हातीगांव चाराली, गुवाहाटी, असम-781038
मो.9864043886

मेगन कछारी

जन्म १९६७। असमिया कवि। उल्फा से जुड़े।मेमसाहिब पृथिवीसहित तीन कवितासंग्रह।अंग्रेजी अनुवाद का एक संग्रह मेलॉडीज एंड गन्सके नाम से 2006 में प्रकाशित।

अपमान के विरुद्ध
प्रेम के दो हाथ

हे आज्ञाकारी मनुष्य, हे राजा के चाकर
आओ, आओ
बार-बार तुम मेरे सर्वांग में चाबुक से
गिन-गिनकर दस बार आघात करो
त्वचा पर चोट की धारियों से
बहाया गया रक्त
बंदीगृह ले जाया गया
मेरा अवश अचेतन रक्ताक्त शरीर
तब भी मैं लेकिन कहता ही रहूंगा
अपमान सहना बहुत कठिन है
अपमान विष से भी ज्यादा विष
धारदार से भी ज्यादा धारदार
तूफान से भी ज्यादा दुर्दांत गतिशील
रहे धान के खेत की अकाल मृत्यु की तरह
वेदनादायक और करुण
किंवा संतान-संभवा गर्भवती नारी पर
प्रहार किया चाबुक की निर्दय चोट का
हे एकांत अनुगत खाकी
और गहरी हरी पोशाक पहने हुए बंदूकधारियो
इच्छामात्र से ही क्या कुछ नहीं कर सकते
तुमलोग पलक झपकते
हृदय और प्रेम का हाथ न रहने से
मैं भी तुमलोगों जैसा हो सकता था
सूखे बालूचर, बकरी काटनेवाले कसाई
मनुष्य के कच्चे रक्त में हँस-हँसकर
प्रत्यक्ष कर सकता था अपना चेहरा किंवा
निर्दोष शिशुहत्या करके भी
नहीं कांपते होते हृदय और हाथ…
तुमलोग नहीं समझोगे इंद्रधनुष
जैसे अपमान में भी हैं कई सारे रंग और नाम
असल में अपमान का मतलब
पराधीनता, अन्याय, अशोभन आचरण
दासता, प्रभुत्व
अधिकार में अनधिकार आघात
मेरा रक्त अपमान सहन नहीं कर सकता
मेरा हृदय नहीं सह सकता अपमान
अपमान के विरुद्ध आकाश की ओर
उठते हैं मेरे प्रेम के दो हाथ…
तुमलोगों के अन्नदाता
और उनके एकांत अनुगत हे भृत्यगण
आओ, इच्छापूर्ति करके
मेरे अंग-अंग में यंत्रणा दो
निर्भय सह लूंगा मरण यंत्रणा
लेकिन सभी बातें मानने के लिए
मैं हूँ बिलकुल अक्षम
आओ, आओ, बार-बार तुम मेरे
सर्वांग में चाबुक से
गिन-गिनकर दस बार आघात करो
त्वचा पर चोट की धारियों से
बहाया गया रक्त
बंदीगृह ले जाया गया
मेरा अवश अचेतन रक्ताक्त शरीर
तब भी मैं लेकिन कहता ही रहूंगा
अपमान सहना बहुत कठिन है|

किशोर मनजित बोरा

1985।असमिया कवि एवं कथाकार।यात्रापत्रिका का संपादन। गीतांजलि बरुवा मिली साहित्य पुरस्कार (2015)। प्रकाशित कृतियाँ : माटिगोमानी, बुद्धक विचरा राति एवं विस्मृत उपत्यका नामक कवितासंग्रह और उपन्यास।

 

कवि के शहर में कंकाल

कवि का एक शहर था
जो शताधिक साल पहले
कंकाल की स्वप्नभूमि था
कवि ने ये बातें अनेक जगहों पर
खुलेआम स्वीकार की हैं
और एक दिन अचानक मध्यरात्रि
शहर में भागदौड़ कर रहे हैं नरकंकाल
पहली बार इस शहर में एक कवि आया है
कंकालों ने मुक्ति चाही है
लालसा और भोग के निर्वीर्य बंदीगृह से
विश्वास की अनावृष्टि
और मनुष्य के कुटिल अनुबंधों से
मुक्ति चाही है प्रेमहीनता की कारसाजी
जीवन के नैराश्य और
राष्ट्र के
आभ्यंतरीन आदर्श-संघात-आणविक आतंक से
कंकाल के शहर में
पहली बार एक कवि आया है
शब्द का पुतला बनाकर
शिशु की तरह मनुष्य को बहलाने और
प्रेम के लिए फुसलाने एक कवि आया है
कल सुबह ही वह चला जाएगा
क्योंकि उसके शहर में
रविवार को भगवान का रोग बढ़ता है
कवि के घर के प्रवेशपथ पर
कंकाल ने बारिश को
आरंभिक नृत्य की अनुमति दी है
शीत की मादकता में
पहली बार शहर निर्भय सो रहा है
गुलाबी शिशुओं ने
मां के स्तनों की रोशनी से मुंह ढंका है
स्व-निमंत्रित अतिथि होकर कंकालों ने
पाठ किया है
पंक्तिबद्ध होकर प्रिय कवि की कविता का
सीता नाम के एक कंकाल ने
कवि की मां की तुलसी चौरे के नीचे
वेद की शांति का एक दीया जला दिया है
आज पहली बार कंकाल रोशनी के प्रेम में पड़ा है
आज से पचपन साल पहले
इसी शहर में कवि का जन्म हुआ था
तब वह कवि नहीं था
वह था सिर्फ एक जंगली स्वप्न
बहुत समय के बाद
पहली बार यह कवि गृह-शहर में आया है
जीवित मनुष्य
सिर्फ नाम के लिए जीवित हैं, इसलिए
असंख्य चींटियों की तरह
निकल आए हैं कंकाल
क्योंकि कंकाल
इतिहास का सम्मान करना जानते हैं
क्योंकि पृथ्वी पर सिर्फ कंकाल ही
कवि और कविता की कद्र करना जानते हैं
(नहीं तो श्मशान किसलिए
अलग से कवि के लिए संरक्षण करेंगे निर्जनता का)
रात के अंतिम प्रहर झमाझम बारिश में
कंकाल ने कविता पढ़ना खत्म किया
और आंसू पोंछ-पोंछकर कवि के द्वार पर
लिखकर रख आए भावभरी ये दो पंक्तियां-
‘हमारे ऊपर
कभी भी कोई कविता मत लिखना कवि
हम इस पृथ्वी पर दोबारा जन्म लेना नहीं चाहते।’

अदिति भवन, गर्काखरिया, मगरहाट (कालूगांव), शिवसागर, असम-785666, मो. 7002888843