युवा कवयित्री। विभिन्न पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
महामारी
फ्रैंकफर्ट की आम-सी शाम है
एक अदना-सी लड़की
कैंची की तरह बतिया रही है
अपनी सहेली के साथ
आइसक्रीम पार्लर की ओर लापरवाही से
बढ़ते उसके कदम उसकी बेपरवाही से
बड़े मेल खाते हैं
वह जितनी हल्की जितनी मुलायम है
उतना ही भारी पड़ता है
उसके सीने पर टकां पीला सितारा
तभी बर्फ सी आंखों वाले सिपाही
आग-सी आवाज में चिल्लाते हैं
‘ऐ यहूदी लड़की’
पीली पड़ जाती है वह
सीने में टंके हुए सितारे की तरह
मैं धप्प से बंद कर देती हूँ किताब के पन्ने
जैसे सीने पर उतर जाता है
एक कंसंट्रेशन कैंप
उसकी आखिरी चीख आकर
मेरी डायरी के कागज पर टूट गई है
जिसे किसी ने सुना नहीं
पर सब उसे महसूस करते हैं
ब्रह्मांड की सबसे भयानक महामारी की तरह।
पटरियों पर दौड़ती ट्रेनें
ये पटरियों पर दौड़ती ट्रेनें
नसें और धमनियों में बहते लहू की तरह
इस शहर से उस शहर
शहरों को जिंदा रखती हैं
इनमें बैठे उम्र-उम्र के लोग
शहरों में रूह छोड़ जाते हैं
जिस तरह मैं तुम्हारे सीने से आ लगी थी
और उस स्टेशन में एक घर बन गया था
जैसे शहर में एक और रूह।
लुटेरे
लुटेरे आ रहे हैं
बांधकर जल्लाद हाथों से सरे गुलशन
उड़ाते धूल बादल पर लगाते दाग सूरज पर
लुटेरे घर जलाते हैं सवेरों के
जिन्हें कलियां खिलानी थीं
जिन्हें चिड़िया उड़ानी थीं
जिन्हें सदियां जगानी थीं
भरी गमगीन-सी आंखें चरागों की
टपकता आंख से कोहरा
ये दिन मरता न क्या करता
छुपाए चांद क्यों चेहरा
लुटेरे चांदनी की कोख का बच्चा चुराते हैं
लुटेरे हर पहर सूरज डुबाते हैं
उठते ये हाथ जो कांपते घबरा रहे हैं
लुटेरे आ रहे हैं।
संपर्क :जोनिहां, बिंदकी फतेहपुर, उत्तर प्रदेश-212635 मो. 6392340856
🌻