युवा कवि। कविता संग्रह ‘मेरे पास तुम हो’। दिल्ली के एक स्कूल में अध्यापक।
अफवाह
एक अफवाह है
जिसे वर्तमान की पीढ़ी ने
भविष्य का सत्य मान लिया है
एक विलंबित न्याय है
जिसकी आंखों पर चस्पा हैं
आस्था के इश्तिहार
एक पराजित उम्मीद है
जो लड़ते-भिड़ते हुए
अवसाद के मुहाने पर आ खड़ी है
एक बेबस आह है
जो कंठ में अटक गई है
हिचकी बनकर
एक सीधा सा प्रश्न है
जो मात्र पूछे जाने भर से
अपराध में बदल गया है
एक निश्छल प्रेम है
जो किसी प्रश्नवाचक चिह्न की तरह
छप गया है चरित्र पर
एक उबाऊ थकान है
जो प्रतीक्षा की लंबी सड़क पर
सभ्यता के पैरों पे आ टिकी है
एक पुरातन प्रार्थना है
कि जिसके बार-बार दोहराव से
टूटने लगी है उसकी लय
एक उन्मत्त काफिला है
जो किसी परिचित भाषा में बुलाकर
अपरिचित अंधेरे रास्ते पर ले जाता है
और एक संकीर्ण सा रास्ता है
कि जिससे होकर हम
एक प्रतिगामी यात्रा पर निकल पड़े हैं।
सिक्किम में तुम्हारी याद
सिक्किम की पहाड़ियों के बीच
लाचुंग घाटी की तलहटी में
यह एक बहुत ही सर्द रात है
इस अथाह सर्द रात में
जैसे-जैसे तापमान गिर रहा है
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
तुम होती तो देखती कि-
कैसे एक जैसी हो सकती हैं दो जगहें
मैं सिक्किम को तुम्हारी नज़रों से देखता हूँ
तो डलहौजी सा देखता हूँ
कि जैसे दोनों की सड़कों को
किसी एक ही कारीगर ने बनाया है-
एक ही जैसा घुमावदार
कि जैसे यहीं-कहीं बीता हो
तुम्हारा खूबसूरत बचपन
कि जैसे कोई डलहौजी से उतारकर
ले आया हो नीले-पीले बुद्धिष्ठ झंडे
और गंगटोक की सड़कों के किनारे लगा गया हो
मैं उन झंडों पर लिखी लिपि को नहीं जानता
किंतु मैं याद कर पा रहा हूँ
तुम्हारी खूबसूरत आंखों को
जिन्होंने बचपन से इन्हें बहुत करीब से देखा है
ये नीली-पीली छतें एक ही समय में
मुझे दो जगहों पर
एक साथ होने का भ्रम करा रही हैं
सेवन सिस्टर झरने को देखते हुए लगा कि
अभी-अभी किसी ने इसे पंचपुला कहा
यहां ऊंचे-ऊंचे देवदार नहीं हैं
बड़े-बड़े बान भी नहीं हैं
और बुरांश जैसा कोई भी पेड़ नहीं
फिर सोचता हूँ कि क्या जरूरी है
कि दो जगहें बिलकुल ही एक जैसी हों?
इसके बावजूद बीतती हुई फरवरी में
कितना कुछ है जो एक जैसा है यहां और वहां
जब मैं यह सब सोच रहा हूँ
तो कुछ-कुछ उदास हो रहा हूँ
कि इस बार वेलेंटाइन तुम्हारे बगैर बीतेगा
तुम अगर साथ होती तो क्या होता?
एक प्यारी सी मुस्कराहट!
एक सुकूनभरा आलिंगन
और इस सर्द मौसम में एक गर्म चुंबन
मैं जल्द लौटूंगा यहां की सारी यादों को लेकर
बस तुम अपनी नर्म हथेलियों के बीच-
इस फरवरी को थोड़ा सा बचाकर रख लेना।
मुझे सरल होना था
मुझे बिलकुल सरल होना था
किसी दंतकथा की तरह
या किसी गाई जा रही प्रार्थना की तरह होना था
गेयता में ग्राह्यता लिए हुए
मुझे पंछियों के गीत सा आसान होना था
कि जिन्हें सुनते-सुनते
बदल जाती हैं सारी ऋतुएं
मुझे किसी लोकगीत का-
सबसे मीठा अंतरा होना था
या किसी पुरानी बोली का
सबसे शानदार मुहावरा
ओ दुनिया के संभ्रांत लोगो सुनो!
तुम्हारी भाषा ने मुझे बहुत कठिन बना दिया है।
अच्छी कविता
आखिर एक अच्छी कविता
कितनी अच्छी होगी?
क्या वो पिता के जैसी होगी?
जिनके चेहरे पर अनकही कई कहानियां हैं
और है बरसों की एक चुप्प
जो हँसी के पीछे छुपी रहती है हर वक्त
या वो फिर मेरी मां के जैसी होगी?
कि जिसके चेहरे पर
पिता की यात्राओं के संस्मरण तो हैं
किंतु अपनी यात्रा के घाव नहीं हैं।
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