प्रसिद्ध हिंदी कवि–आलोचक।भोपाल के भारत भवन के निर्माण में बड़ी भूमिका।प्रमुख कृतियां –‘इस नक्षत्रहीन समय में’, ‘कवि ने कहा’, ‘कुछ रफू कुछ बिगड़े’।हाल में तीन खंडों में ‘सेतु समग्र :अशोक वाजपेयी’।
छह-सात आदमी-1
एक आदमी मास्क पहने घर से निकलता है
सड़क पर दूसरा आदमी मास्क पहने पहले से चल रहा है
दोनों दूरियाँ बनाकर चलते हैं :
तीसरा आदमी पहले से आगे चल रहा है मास्क लगाए हुए
चौथा अपने फलों-सब्जियों के ठेले पर खड़ा है मास्क पहने
पाँचवां आदमी मोड़ पर है मास्क लगाए हुए
छठवाँ अपने घर में तैयार हो रहा है बाहर आने के लिए
जिसे मास्क खोजे नहीं मिल रहा है
सातवाँ बाहर जाने का इरादा छोड़ चुका हैः
सब अनजान हैं एक-दूसरे से
सब बचकर रहना-चलना चाहते हैं
कोई नहीं जानना चाहता कि कौन आगे या पीछे है
कौन नहीं आया, कौन कड़ी धूप में ठेले पर खड़ा है
कोरोना समय में ये छह-सात आदमी हैं।
छह-सात आदमी -2
एक आदमी दूसरे आदमी पर शक करता है
दूसरे आदमी को तीसरे पर भरोसा नहीं
तीसरा आदमी शक करता है
कि चौथा आदमी कुछ षड्यंत्र कर रहा हैः
पाँचवा अब तक शक करते हुए ही छठवें से निपटता रहा है-
छठवाँ सीधे-सीधे सातवें पर शक नहीं करता
पर अंदर से उसे शको-शुबहा है
शक और गिनती दो ही डोर हैं
जो सातों को बांधे रखते हैं।
एकोऽहम् बहुस्याम :1
मैं कुछ नहीं था
जिसे होने का लगातार भ्रम होता रहा-
मुझे किसी ने बताया नहीं था कि
कवि होने के लिए
क्या-क्या होना न होना पड़ता है!
एकोऽहम् बहुस्याम : 2
एक
मैंने उस पगडंडी पर
थोड़ी-सी जगह की घास साफ कर
एक छोटी मढ़िया बनाई
और उसकी चौकीदारी करने लगा ः
इस प्रतीक्षा में कि एकाध छोटा-मोटा देवता
उसमें आ बैठेगा!
समय बीतता गया-
घास बढ़कर मढ़िया तक पहुँच गई
और कुछ कीड़े-मकोड़े भी जब तब आने लगे
कोई देवता नहीं आया-
बरसों से एक देववंचित मढ़िया का
घास और कीड़ों-घिरा
मैं हारा-थका, बुढ़ाता और आंखों की जोत गंवाता
चौकीदार हॅूं।
दो
मैं बरसों से यह गाड़ी ठेलता आ रहा हूँ
और पाता हूँ कि उस पर लदा सामान
एक-एक करके रास्ते में गिरता रहा
और अब एक बड़ा पत्थर भर बचा है!
खड़ा हूँ एक पुरानी इमारत के सामने
जिसके दरवाजे पर एक भारी ताला जड़ा है
जिसकी चाबी किसी के पास नहीं है-
मुझे समझ में नहीं आ रहा है
कि मैं यहां क्यों आया हूँ :
मुझे भ्रम था कि कुछ सामान
यहां पहुंचाना था।
एकोऽहम् बहुस्याम :3
सदियों पहले किसी घाटी से चली हवा था मैं
जो भूल गई रास्ता और किसी खंडहर में
दो ढहती दीवारों के बीच फँसी रह गई :
मैं नदी जल में डूबी पथराई प्रतीक्षा था-
मैं किसी असंभव उपवन में
वृक्षराजि पर वसंतागम था-
मैं किसी शब्द से छिटक गया हलंत था-
मैं दूर से आ रही भर्राई अजान था
जिसे सुनकर प्रार्थना में कोई झुका नहीं-
मैं आंसू था किसी बूढ़ी आंख में अटका रह गया-
मैं चीत्कार था
अंधेरे में किसी हत्यारे के क्रूर प्रहार से निकला-
मैं किसी भग्न मंदिर में साबित बची रह गई
देवमूर्ति की भुजा था-
मैं झाड़ू था किसी मेहतर की
जो मुहल्ले का कचरा मुंह अंधेरे बुहार देता था-
मैं सूली पर ठोंकी जानेवाली
कील की ठकठकाहट था-
मैं दस्तक था
आततायी के अभेद्य दुर्ग के दरवाजे पर
उद्धत और अबोध-
मैं एक अनपढ़ा प्रेमपत्र था
जो विरहाकुल नायिका के पास पहुंच नहीं पाया-
मैं एक अधूरा गान था
जिसे पूरा करने के पहले
गायक भीड़ में बिला गया-
मैं एक अपाठ्य लिपि था
जिसमें लिखा कुछ भी कोई पढ़ नहीं पाया-
मैं सन्नाटा था
जो खाली-बंद बाजार में अब रात को छा जाता है
और जिसे सिर्फ चौकीदार सुन पाते हैं-
मैं किसी रागी द्वारा गाए जा रहे
पद की भूली गई पंक्ति था-
मैं चुप्पी था
जो प्रणय अस्वीकार होने के बाद
पत्थर की तरह भारी थी।
इतना ही बचा है
एक खिड़की जिससे देखता हूँ
वृक्षों की हरीतिमा के ऊपर छाया बदराया आकाश
उसी खिड़की के नीचे बारिश से बचकर बैठा हुआ
कबूतरों का एक जोड़ा
अपने हाल में दिवंगत भाई के हँसते चेहरे की याद
गलियारे में कचरा बटोरनेवाले की गुहार :
इतना ही बचा है
आत्मा जैसे अपनी ही जासूसी से छिप रही है
आत्मा जैसे बारिश से भींगकर
भारी हो गया बोरा है
जो खाली है पर भारी है
आत्मा जो कनखजूरे की तरह
सैकड़ों पैरों से रेंग रही है
आत्मा जिसमें इतना अंधेरा भर गया है
कि रोशनी का सपना देखने में भी हिचक होती है :
इतना ही बचा है
घरबंदी अघोषित नजरबंदी है
और क्या दर्ज कर सकती है कविता
ऐसे निर्जन कुसमय में?
तीसरी मंजिल की खिड़की से लॉन की हरियाली
और कुछ फूल नजर तो आते हैं
पुस्तकों पर जमी धूल हटाए नहीं बनती :
इतना ही बचा है
इस अंगड़-खंगड़ को बसना-बोरिया की तरह
कविता में रखने के अलावा
और चारा ही क्या है?
इतना ही बचा है
और इतना भी बचना कम नहीं है
बोझा उठाकर पार जाने के लिए :
इतना ही बचा है।
देवता बहुत हो गए थे
एक
मैंने प्रार्थना से कहा
जरा पास आओ ताकि देखकर
तय कर सकूं कि किस देवता के पास जा सकती है ः
देवता पहले से दिए हुए हैं
प्रार्थना हम चुन सकते हैं।
दो
देवता बहुत हो गए थे
उन्होंने किसी और के लिए
कोई जगह खाली नहीं छोड़ी थी
हमने कुछ देवता हटाकर
उनकी जगह प्रार्थनाएं रख दीं-
देवता भ्रम में बने रहे
कि उन्हें प्रार्थनाओं ने अपदस्थ नहीं किया है।
तीन
हमें डर लगता है
देवहीन प्रार्थनाहीन सुनसान में जाने पर
हम डर को ही चंदन-तिलक लगाकर
वहाँ रख देते हैं जहां पहले देवता थे।
चार
हम देवता गंवा चुके हैं
उनके दिव्य-भव्य समय के साथ :
अब कोई आश्चर्य-कथा कहने को नहीं बची है।
पांच
कल आधी रात एक देवता ने दरवाजा खटखटाया
मैंने सुना नहीं;
सुबह बरामदे में पानी भरा था
कोई देवता इतने आंसू नहीं रो सकता!
संपर्क : सी–60, अनुपम हाउसिंग सोसायटी, बी–13, वसुंधरा एन्क्लेव, नई दिल्ली–110096 मो. 9811515653
करोनाकालमेंलोगोंकीमानसिकताको विश्लेषित करती कविताएं। बेहतरीन प्रस्तुति।
बहुत अच्छी कविताएं