युवा आलोचक। और साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से निरंतर सक्रिय।

आशुतोष दुबे की मनोगतियों का स्व-साक्षीभाव उसकी गुरुता को बढ़ा देता है। यहाँ सिर्फ द्रष्टा किसी दृश्य को नहीं देखता, बल्कि आत्म का कोई और स्तर है जो द्रष्टा को देखते हुए भी देखता है। यह उसकी भी गतियों को अनुभूतियों में शामिल करता जाता है। इससे अनुभूत यथार्थ बहुआयामी बनता है। दृश्य जगत की गतिविधियां और मनोसंसार की गतिविधियां एक-सी नहीं होतीं। भूत-वर्तमान-भविष्य की अनुभवरूढ़ सरल समय-रेखा हमारे मनोसंसार में खासा गड्ड-मड्ड होती है। दृश्य जगत के विश्वसनीय कार्य-कारण में तेल तिल से ही निकल सकता है, लेकिन मनोसंसार में बालू से तेल, फूल, कुछ भी निकल सकता है। अगर आप सोच रहे हैं किस तरह? तो पढ़ें 21 वीं सदी की इस कविता से एक सार्थक संवाद…

इस सदी की बुनियाद पिछली सदी के अंतिम दशक में पड़ी थी। इसी दशक में उदारीकरण, वैश्वीकरण, सांप्रदायिकता और डिजिटल तकनीक ने इसका पुंसवन संस्कार कराया। अतएव कैलेंडर में भले यह 21वीं सदी का दूसरा दशक हो, लेकिन अंतर्वस्तु और वृत्तियों में यह इसका तीसरा दशक है। जन्मपत्री में बीस वर्षीय किशोर, परंतु संस्कार, विचार और वृत्तियों में यह तीस साला वयस्क है।

तीन दशकों में ही इस सदी का चेहरा जगह-जगह से दरक गया है।  इस पर खून के छींटे दिख पड़ते हैं। जिसका इतना मंगलकारी नाम था-उदारीकरण, नए ढंग के पूंजीवाद का संरक्षण करनेवाला निकला। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के कुल का वैश्वीकरण,  हाहाकारी राष्ट्रवाद और नस्लवाद के रूप में सामने है। लोकहृदय-वासी सिया-राम, भव्य मंदिर में जा चुके हैं, हृदय में दुराचारियों का वास है। खिड़की-दरवाजे खोलने का उत्साह लेकर आई सूचना प्रौद्योगिकी दिल-दिमाग का लुटेरा हो गई। उपभोगवाद जितना बढ़ा, विवेक उतना बौना होता गया। आज सोचने पर लगता है कि तीन दशकों का यह समय किंचित उत्साह और प्रतिरोध से शुरू होकर आत्मलिप्सा और हताशा में पहुंच रहा है।

पिछले तीन दशकों में जीवन दर्शन, अस्तित्व बोध और संज्ञान-विधियों में मूलगामी बदलाव हुए हैं। इन बदलावों के अलहदा पक्षों का अध्ययन विभिन्न ज्ञान-अनुशासनों में होता है, लेकिन व्यक्ति के भावतरंगों, अनुभवों, अनुभूतियों और युग-संवेदना का अभिज्ञान कविताएं ही करा सकती हैं, जिनका भाषिक संवेदन तंत्र समग्र समाज के हृदय में फैला होता है। इस युग की कविताएं अपनी जिम्मेदारी को संजीदगी से लेती हैं। इन दशकों में कवियों की तीन नई पीढ़ियां आईं; जिन्हें हम उनके वैशिष्ट्य के साथ साफ-साफ पहचान सकते हैं।

यहां सुविधा के लिए पहली पीढ़ी की कविताओं को नई बुनियाद रखे गए काल की कविताएं कह लीजिए। इस पीढ़ी के कवियों का कवि-व्यक्तित्व पिछली सदी के अंतिम दशक में बना, जिनके काव्य संकलन 2000 के आस-पास प्रकाशित होते हैं। ये कवि आधुनिकता के महा आख्यानों, क्रांति के महास्वप्नों और क्लासिक होने की आकांक्षाओं से बाहर आते हुए कवि हैं। इन कविताओं में प्रतिरोध की मुखर आवाजों से लेकर आत्मलिप्त उदासी तक की अनुभूतियां मिलेंगी। विस्थापन की पीड़ा से लेकर दलित और स्त्री-कविता में संस्थापन की टीस भी मिलेगी। चटक लाल से लेकर नीले तक कई रंग मिलेंगे। परंतु नई सदी में आकार ले रही निस्संगता, नृशंसता, उखड़ापन, विस्थापन, उदासी, हताशा और अंतर्मन से आत्मबल की खोज हर जगह है।

पिछली सदी के अंतिम दशक की पत्रिकाएं देखने पर पता चलता है कि सैकड़ों युवा कविताएं लिख रहे हैं, लेकिन समय के साथ जिन युवा कवियों का युगबोध सुसंगत होता गया, जिन्होंने अपने भावबोध और अभिव्यक्ति-विधियों को साफ और सक्षम बनाया, वे आज तीन दशक बाद हिंदी कविता के प्रतिनिधि आवाज समझे जाते हैं। आशुतोष दुबे सदी की इस पहली पीढ़ी के उल्लेखनीय कवि हैं।

आशुतोष दुबे का पहला संकलन ‘चोर दरवाजे से’ 1996 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह में आकार ले रही नई सदी का हुलिया बहुत मूर्त और ठोस है। इस संग्रह की काव्यानुभूतिजन समुदाय और जनसंकुल की तरफ खुलती है। अभिव्यक्ति में किंचित आवेग संवलित ‘डायरेक्टनेस’ है। इस संग्रह की ‘पेंशन शिविर’, ‘खेद सहित’, ‘नायकों की प्रतीक्षा’ आदि कविताएं छोटे-छोटे विवरणों, प्रतीकों और मिथकों में अपने दृश्य यथार्थ को समर्थ ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। ‘पेंशन शिविर’ और ‘शोकग्रस्त’ शीर्षक कविताएं प्रमाण हैं कि आशुतोष दुबे में अगर इस काव्यबोध का विकास होता तो वे इस पीढ़ी के सबसे दृश्य-सजग कवि होते। लेकिन, दूसरे संग्रह की कविताओं में वे इस काव्यबोध से किसी और दिशा में प्रस्थान करते दिखाई पड़ते हैं।

आशुतोष दुबे के शुरुआती दोनों संग्रहों के बीच का क्रमभंग बोध की सामान्य कोटियों और युगजनित विशिष्ट अनुभूतियों के तनाव का संकेतक है। यह तनाव अपनी मौलिक विशिष्ट अनुभूतियों के प्रति आत्मसजग अन्य कवियों में भी है। कविताओं में किसी घटना, मुद्रा, भंगिमा, कौशल का पिष्टपेषण भी दिखता है जो रचनात्मकता के लिए नुकसानदेह है।

इस दौर में लिखी जा रही कविताओं का अधिसंख्य हिस्सा ऐसा है जो पाठकों से तात्कालिक मुहावरों, प्रतीकों, घटनाओं, लोकप्रिय कथनों और भंगिमाओं की सूचना-संपन्नता की मांग करता है। ये कविताएं पाठकों की सूचनाओं को पुष्ट करती हैं। कभी ब्रह्मानंद सहोदर समझा जानेवाला काव्यानंद यहां पाठक के पुष्टिकरण और अहं के तुष्टिकरण का आनंद बन जाता है। दूसरी तरह की सबसे ज्यादा कविताएं वे हैं जो तर्क, विश्लेषण, धारणाओं से बननेवाली सार्वजनीन समझदारी को ही कविता का कुल संसार मान लेती हैं। फिर एक स्तर के बाद यह समझदारी ही रेडीमेड कविता बनने लगती है। इसमें विषय निश्चित है, विषय-प्रतिपादन निश्चित है, विषय-विषयी संबंध स्थिर है, यहां तक कि दीप्ति और आवेग भी पूर्व-निश्चित-सा है। ये कविताएं सूचना से एक कदम आगे बढ़कर पाठक से सूचना के विश्लेषण की एक तार्किक और व्यवस्थित प्रणाली मांगती हैं।

कहना न होगा कि कविताएं जो मांगती हैं, वही देती हैं। कविताओं का प्रदाय और पाठक का आदाय एक जैसा होता है। उनके दाय की मूल्यवत्ता और पाठक से मांग की गुणवत्ता एक जैसी होती है। अतएव जो कविताएं सिर्फ सूचना संपन्नता और समझदारी मांगती हैं, वे पाठक-व्यक्तित्व में इससे  अधिक मूल्यवान कुछ जोड़ नहीं सकतीं। ये कविताएं उत्तर-आधुनिक संस्कृति द्वारा पैदा किए जा रहे निष्क्रिय रहस्यवाद, कुहरीले आत्मलिप्त अहसासों और खंडित आत्मवत्ता में सक्रिय स्वबोध और आत्म-सुसंगति पैदा करने की भूमिकाएं निभा सकती हैं, लेकिन मनुष्य का व्यक्तित्व सूचना और समझदारी से अधिक गहन है; लाखों वर्ष गहरा और सृष्टिपर्यंत विस्तृत। कविता का काम उन अदृश्य एवं दुर्गम जगहों तक जाने की आत्मजिज्ञासा पैदा करना भी है।

यह ठीक है कि कविता व्यक्ति और जगत के संबंधों की एक ठोस तार्किक धारणा दे और बदलने की कर्मशीलता पैदा करे, परंतु कभी-कभी उसे पार करके वहां भी जाना चाहिए, जहां से ये गतियां इतनी ठोस नहीं लगतीं। आशुतोष दुबे की प्रतिक्रिया दरअसल सूचना और समझदारी के सुरक्षित दायरे से प्रतिक्रिया है। वे जन-माध्यमों द्वारा रचे गए ठस और ठोस दायरे के विपरीत मानवीय व्यक्तित्व के गहन संसार से जुड़ने की कोशिश करते हुए कविता का प्रति-संसार रचते हैं, जहां दीप्त मानवीय सार के आलोक में हमारा और जमाने का चेहरा अधिक साफ दिखाई पड़ता है। वे स्थापित विषय-विषयी संबंध के बजाय मानवीय व्यक्तित्व की गहन आंतरिकता और गतिशील संसार के द्वंद्व से एक नई दृष्टि-संबद्धता और स्तरबहुल अनुभूतियों में महीन सार्वजनीनता की खोज करते हैं।

पहले संग्रह की सार्वजनीनता दृश्य और ठोस है। दूसरे संग्रह में यह सूक्ष्म और मानसिक। दूसरे संग्रह में आशुतोष दुबे व्यक्ति-अनुभवों की सामाजिकता खोजते हैं। इस संग्रह की कविताएं सार्वजनीन सत्यों को अनुभवों में ढालने के बजाय व्यक्तिगत अनुभवों में सार्वजनीन सत्यों की पहचान करती हैं और उन्हें अपनी भावविभूति व कल्पनाशीलता से संवेद्य बनाती हैं। इसलिए अगर आप उनके पहले संग्रह के बाद के संकलनों- ‘असंभव सारांश’, ‘यकीन की आयतें’ और ‘विदा लेना बाकी रहे’ – को देखें तो ऊपरी स्तर पर ये समुदाय, समूह, भीड़ और राजनीतिक मुहावरों से निरापद कविताएं लगेंगी। लेकिन ये कविताएं अपनी संवेदनात्मक दृष्टि में सार्वजनिक विपदा, विपन्नता, दुख, कशमकश, जिजीविषा, संघर्षों और कितनी ही नगण्य दैनंदिन अनुभूतियों को शामिल करती चलती हैं। इसलिए आशुतोष दुबे की यह प्रतिक्रिया अनुभवरूढ़ अनुक्रिया से ज्यादा जिम्मेदार प्रतिक्रिया है।

आशुतोष दुबे के काव्यबोध में ठोस जीवनानुभूति और काव्यानुभूति के बीच एक लगातार अंतर्वर्ती तनाव चलता है। जीवनानुभूति ठोस, मूर्त और स्थापित सत्यों तक खींचना चाहती है, काव्यानुभूति उसे पार करना चाहती है। यह रचनात्मक तनाव अपने आदर्श रूप में उनके तीसरे संकलन ‘यकीन की आयतें’ में है। इसके बाद यह तनाव किंचित ढीला पड़ने लगता है। आशुतोष दुबे अनुभूति की स्तरबहुलता और अनुभूतिजन्य सार्वजनीनता को संवेद्य बनाने के लिए किंचित अमूर्तन का सहारा लेते हैं।

आज अमूर्तन शब्द पढ़ते हुए एक नकारात्मक व्यंजना उभरती है। इसका कारण यह है कि पिछले दशकों में कविता में केंद्रवर्ती तनाव के अभाव को छिपाने के लिए यह एक हिकमत बन गया। परंतु आशुतोष दुबे के यहां यह उनकी अनुभूतिगत तनाव की प्रकृति से जुड़ा हुआ है। आंतरिकता और गतिशील दुनिया के द्वंद्व से दृष्टि-संबद्धता और स्तरबहुल अनुभूतियों की सार्वजनीनता से वे जिस तरह संवेद्य होने की अपेक्षा करते हैं, वह किंचित अमूर्तन और कल्पनाशक्ति के सहारे ही संभव है। आशुतोष दुबे पहले स्थापित बोध को तोड़कर कई दृष्टि-बिंदुओं पर रखते हैं (विनोद कुमार शुक्ल की तरह)। फिर उसे उन्मुक्त किस्म का नया वस्तु-संबंध, नया संयोजन देते हैं, जिसमें पाठक अपना संयोजन तलाशने में सक्षम हो सकता है, लेकिन यह पाठक की कल्पना को खामखयालियों में उड़ने का अवकाश नहीं देता, बल्कि उसे केंद्रीय संवेदनात्मक तनाव की तरफ लौटा लाते हैं जो मूर्त, सहज, पारदर्शी संवेदनक्षम बोध में ढलने लगता है। ‘यकीन की आयतें’ संग्रह की एक कविता है- बेघर का घर। यह कविता कवि के काव्य-प्रस्ताव की तरह है-

वह एक वाक्य जो उच्चार के तत्काल बाद विस्मृत हो गया और जिसे सुना नहीं गया/जो दो दिमागों के बाहर बौराया सा भटक रहा है/कुछ गुस्से, कुछ अपमान में संतप्त/अंतरिक्ष की देहरी पर सर पटकता हुआ/बारबार धरती की कक्षा में लौटता हुआ/अपने त्राण के लिए बेचैन/एक नाकुछ सा वाक्य/जो उच्चार और श्रुति से बाहर रह जाने के कारण कितना कुछ हो सकता हैयह कविता/उस बेघर का घर/बनना चाहती है

उपर्युक्त कविता उपेक्षित मानवीय अस्तित्व को संवेद्य बनाने के लिए पहले उसका अमूर्तन करती है। फिर उसे मानवीय भटकन, अस्तित्व-कामना, अस्मिता की चाहत को पाठक की कल्पना में मूर्त कर देती है। वह वाक्य जो उच्चार और श्रुति से बाहर अपनी शून्यता में कितना कुछ हो सकता था, लेकिन वह शून्यता की देहरी पर सर पटकता हुआ जीवन, अस्तित्व और पहचान के दायरे में लौटना चाहता है। जीवन का दुर्निवार गुरुत्वाकर्षण उसे खींचता है।

आशुतोष दुबे की कविताओं में अनस्तित्व और अस्तित्व के बीच का द्वंद्व बार-बार लौटता है। वे पहले जीवन को सार्वभौम शून्यता के सामने रखते हैं, फिर उस निरर्थकता और नितांत न-कुछ से सार्थकता और अस्ति की ओर लौटते दिखाई पड़ते हैं। ऐसी जगहों पर जीवन की महिमा वस्तुतः सृष्टि की महार्घता के सम्मुख और दीप्त हो उठती है। दृष्टि का यह परास पाठक के चूल-कब्जों को हिलाता है, परंतु उसे दर्शन के हवाई यात्रा पर उड़ा नहीं ले जाता, बल्कि नगण्य-सी अनुभूतियां काव्य संवेदना को अनन्य बनाकर लौट आती हैं।

कवि प्रस्ताव रखता है कि कविता बेघर का घर होना चाहती है। पहले अनुभवरूढ़, कंक्रीट यथार्थ का अमूर्तन, फिर अमूर्त का मनोदशाओं में नवीन सम्मूर्तन। वे तमाम वाक्य कविता के इस घर में आ जाते हैं, जिन्हें हमेशा अपने को न सुने जाने और गलत समझे जाने का अफसोस रहा- ‘यह कविता ऐसे तमाम वाक्यों के पांव सीधा करने और पीठ टेकने के लिए गरमी की दुपहरी में ठंडा फर्स बनना चाहती है।’

आशुतोष दुबे की कविताएं अति-साधारण क्रियाओं, नगण्य अनुभवों, स्थितियों और चीजों का घर हैं। इसलिए कई बार लगता है कि विषय से संवेदन पैदा नहीं हो रहा है, बल्कि अकूल कवि-संवेदना अपना विषय पैदा कर रही है। ऐसी ही एक कविता है- ‘प्रूफरीडर’। इस कविता में एक नगण्य-सी बात को सह-वेदना का विषय बना दिया गया है। इसे पढ़ते हुए कविता, वर्तनी और प्रूफरीडर की रचनात्मक गतियों का जीवंत संसार सामने आ जाता है। अंततः वर्तनी की कारगुजारियों से थका-हारा प्रूफरीडर भी खूबसूरत लगने लगता है।

सामान्यतः आशुतोष दुबे जीवन की अति-सामान्य क्रियाओं, नगण्य अनुभवों, साधारण व्यवहारों के तल में छिपे रहनेवाले मानवीय सार को इस तरह मूर्त करते हैं कि वे फिर से हमारे जीवन में दाखिल हो जाती हैं। जिन चीजों के बगैर हम जीने के आदी हो चुके थे उन्हें नए सिरे से देखते हैं। साथ-साथ पाठक भी इनके आलोक में स्वयं को नए सिरे से देख लेता है। इन कविताओं से साक्षात्कार किसी वैचारिक आख्यान या धारणा से परिचय नहीं है, बल्कि इस सदी में जीवन की कशमकश, असमंजस, निरर्थकता, निरीहता और तुक्षताओं को महसूस करना है। कदाचित आशुतोष दुबे इन्हें जीवन का विषमांगी तत्व समझने के बजाय स्वाभाविक तत्व समझते हैं। शायद इसीलिए इनका अहसास बर्दाश्त से बाहर नहीं जाता : यह काव्यानुभूति ‘बख्शेगी नहीं और बर्दाश्त के भीतर भी लगेगी’।

आशुतोष दुबे की मनोगतियों का स्व-साक्षीभाव उसकी गुरुता को बढ़ा देता है। यहाँ सिर्फ द्रष्टा किसी दृश्य को नहीं देखता, बल्कि आत्म का कोई और स्तर है जो द्रष्टा को देखते हुए भी देखता है। यह उसकी भी गतियों को अनुभूतियों में शामिल करता जाता है। इससे अनुभूत यथार्थ बहुआयामी बनता है। दृश्य जगत की गतिविधियां और मनोसंसार की गतिविधियां एक-सी नहीं होतीं। भूत-वर्तमान-भविष्य की अनुभवरूढ़ सरल समय-रेखा हमारे मनोसंसार में खासा गड्ड-मड्ड होती है। दृश्य जगत के विश्वसनीय कार्य-कारण में तेल तिल से ही निकल सकता है, लेकिन मनोसंसार में बालू से तेल, फूल, कुछ भी निकल सकता है।

आशुतोष दुबे की अनुभूतियां विषय और विषयी की ऊपरी टकराहट से नहीं बनतीं, बल्कि गहन मनोसंसार की गतिविधियां उन्हें मुक्त और लोकतांत्रिक बना देती हैं। फलतः जो दुनिया हमारे तर्क, अनुभवरूढ़ यथार्थबोध और उपयोगिताबोध से छूट जाती है, आशुतोष दुबे उसे ही कविता में कहने की कोशिश करते हैं। कल्पनाशीलता और किंचित अमूर्तन इसमें उनकी मदद करता है

‘विपरीत दिशाओं में/दो दृश्य गुजरते हैं एक-दूसरे के सामने से/एक रफ्तार गुजरती है/एक रफ्तार के मध्यांतर से।’ यह उनके अनंतिम संग्रह ‘विदा लेना बाकी रहे’ का काव्यांश है। दृश्य और द्रष्टा के बीच की बहु-विमीय गतियों को समझने के लिए यह कविता उल्लेखनीय है।

रेलवे क्रासिंग पर हमारे सामने तेजी से गुजर रही ट्रेन की खिड़की पर बैठा कोई व्यक्ति जागतिक अर्थों में हमारे साथ घर नहीं आ सकता, लेकिन मनो-संसार में घर तक लौटना क्या, वह सपनों में भी उतर सकता है। अपने यथार्थ बोध में मन की इस गतिकी को शामिल करते हुए कवि की भाषा और शैली में बदलाव सहज संभावी था।

आशुतोष दुबे का कवि स्वभाव धीर और प्रशांत है। किसी कविता में वे उतनी ही दुनिया लेते हैं, जिसका बिना बोझ के निर्वहन कर सकें। इस मामले में वे हिंदी के विरल कवियों में हैं। अधिसंख्य लोगों को अपनी क्षमताएं निस्सीम लगती हैं, उनकी असफलताएं भी असीम होती हैं। आशुतोष दुबे अपने काव्य सत्यों की एक सीमा तक ही पीछा करते हैं। वे उसे मानवीय संज्ञान की प्रकृति, समय और बोध की प्रवहमान गतियों, मानवीय व्यवहार और अनुभव तक ले जाते हैं। वे आगे उसे ठोस मानवीय स्थितियों, उसकी संरचनात्मक गतियों तक नहीं फैलाते। इसलिए कविताओं की छोटी संरचनाओं में बहुत कसावट, सुगढ़ता, अन्विति और मुकम्मलपन दिखाई पड़ता है। कदाचित इसी से यह आभास भी पैदा होता है कि इन सुगढ़ कविताओं की अंगुलियां अनगढ़ जीवन के हाथों से छूट रही हैं!

अर्थात आशुतोष दुबे कविता का जो प्रति-संसार रचते हैं, यह उनके लोकतांत्रिक आत्म से भले ही पैदा हुआ हो, लेकिन उसे छोड़कर किसी दुर्गम में चला जाए और दुर्घट ले आए, ऐसा नहीं होता। इस संसार के हर दर-ओ-दीवार को उन्होंने बहुत सजग-चैतन्य होकर बनाया है। इसके वास्तु और आंतरिक साफ-सफाई-सज्जा के अनुभवी कलाकार हैं वे। सजगता और साफ-सफाई का प्रमाण इनकी भाषा है। खड़ीबोली का ऐसा स्वच्छ-पारदर्शी प्रयोग विरल है। इस समय की काव्यभाषा या तो लोकबिंबों से झबर-झबर चलती है, अरबी-फारसी की नफासत पर अतिरिक्त तवज्जो चाहती है, टीन की तरह खांसती लस्टम-पस्टम चलती है, या फिर मुग्ध अवसाद में डूबी हुई दयाकांक्षी लगती है। ऐसे में अंदर के गहन अनुभूति-संस्तरों, गतियों, हलचलों और असमंजस की निर्मल नदी जैसी उनकी पारदर्शी भाषा अलग से उल्लेखनीय है।

(विशेष नोट : इस अंक के कवि विशेष आशुतोष दुबे की चयनित कविताएं पढ़ने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.)

संपर्क: तीसरा तल, हाउस न.1, जी.एन.-5, ब्लॉक, हमगिरी एन्क्लेव, संत नगर बुरारी, दिल्ली110084 मो.9990668780